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Friday, July 3, 2020

चीन के हमदम


 
चीन के नागरिक और हांगकांग के पूर्व गृह मंत्री पैट्रिक होमार्च 2018 में  उगांडा और चाड में रिश्वत और मनी लॉन्ड्रिंग के मामले में धरे गए थे. वे चाइना एनर्जी ग्रुप (चीन की सरकारी कंपनी) के लिए ठेके हासिल करते थे. इधर यूरोप में बुडापेस्ट-बेलग्रेड रेलवे परियोजना में चीन की कंपनियों की भूमिका को जांच चल ही रही थी कि 2019 की शुरुआत में बेल्ट ऐंड रोड इनिशि‍एटिव के जरिए मलेशि‍या में चीनी कंपनियों के भ्रष्टाचार की कथा खुल गई. उन्हें ऊंची कीमत पर ठेका मिला और कमिशन गया मलेशि‍या के स्टेट डेवलपमेंट फंड (1एमडीबी) कोजिसके तार देश के पूर्व प्रधानमंत्री से जुड़े थे.

हमारे लिए इन संदर्भों को जानना क्यों जरूरी है?

क्योंकि भारत दुनिया का पहला बड़ा लोकतंत्र होगा जहांचीनभाजपा और कांग्रेस यानी दोनों शीर्ष राजनैतिक दलों के भीतर तक पैठ गया है. सियासत में एक दूसरे के विरोधी इन दलों की वैचारिक संस्थाओं और इनकी सरकार से संरक्षि‍त संगठनों से चीन की निकटता और ज्ञान विनि‍मय अब सार्वजनिक हो चुका है.

एक दूसरे को चीन का ज्यादा गहरा दोस्त साबित’ कर रहे पार्टी प्रवक्ता हमें रोमांचि‍त नहीं करते बल्किा बुरी तरह चिंतित करते हैं क्योंकि दोनों दलों के हाथ में सरकारें हैं जि‍नके रिश्ते उस चीन से हैं जहां सरकारकम्युनिस्ट पार्टीसेनाकंपनियां और कारोबार एक ही व्यवस्था के अलग-अलग चेहरे हैं और चीनी कंपनियां दुनिया के सबसे संगठित भ्रष्टाचार की ध्वजावाहक हैं.

2012 के बाद राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने चीन की सरकारी कंपनियों को विराट ताकत देकर पूरी दुनिया में फैलाया और निजी कंपनियों को कम्युनिस्ट पार्टी संगठन से जोड़ा. 2018 तक चीन की 109 कंपनियां ग्लोबल फॉर्च्यून 500 का हिस्सा बन चुकी थीं और इनमें 85 फीसद चीनी कंपनियां सरकारी थीं.

चीन की कंपनियां कूटनीतिक रिश्तों का इस्तेमाल कर (ब्रुकि‍ंग्समैकेंजीमैक्केन के अध्ययन) विकासशील देशों में कारोबार लपकती हैं और सियासी नेतृत्व को प्रभावित करती हैं. वेनेजुएला के पूर्व राष्ट्रपति निकोलस मादुरो की ताकत बढ़ाने में चीन टेलीकॉम दिग्गज जेडटीई की भूमिका और इक्वाडोर की सरकार पर चाइना नेशनल इलेक्ट्रानिक इंपोर्ट एक्सपोर्ट काॅर्पोरेशन के असर कुछ ताजा उदाहरण हैं.

चीन ने विकासशील देशों में कमजोर बुनियादी ढांचा और ऊर्जा की कमी को निशाना बनाकर बेल्ट ऐंड रोड इनिशि‍एटिव (बीआरआइ) शुरू किया जिसे पाकिस्तान और मलेशि‍या कॉरिडोर ऑफ करप्शन कहा जाता है. जो देश बीआरआइ से बाहर थे वहां भी चीनी कंपनियां सस्ती तकनीकभारी पूंजी लेकर घुसी हैं. सरकार को संभाल कर बड़े ठेके ले उड़ीं. केन्या और उगांडा में इस तरह की भ्रष्टाचार कथाएं जांच और अभि‍योजन के दायरे में हैं. भारत में सड़कपुलअचल संपत्ति में चीनी कंपनियों की सक्रियता सार्वजनिक है. पिछले साल भारत और चीन ने ऊर्जा व तेल में दोस्ती का करार किया.

हुआवेजेडटीईबायदूअलीबाबाटेनसेंट जैसी निजी कंपनियां पहले चीन के नागरिक निगरानी तंत्र का हिस्सा बनीं फिर विकासशील देशों कें उभरते डि‍जि‍टल बाजार में पूंजी और तकनीक में बड़ा हिस्सा कब्जा लिया. हुआवे और जेडटीई को अमेरिका की सरकार ने खतरा घोषित किया है जबकि भारत के निजी व सरकारी टेलीकॉम नेटवर्क इनके बूते चल रहे हैं. बीते दिसंबर में ही हुआवे को भारत में 5जी के परीक्षण की मंजूरी मिली है.

अफ्रीका मे सक्रिय 87 फीसद चीनी कंपनियां रिश्वत देती हैं. 2019 में अमेरिकी सिक्यूरिटी एक्सचेंज क‌मिशन से विदेशी रिश्वत कानून के तहत सजा पाई कंपनियों में चीन के मामले सबसे ज्यादा हैं. करीब 15 विकासशील देशों के ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल का अध्ययन (2013) बताता है कि चीन की कंपनियां सबसे ज्यादा अपारदर्शी हैं. अचरज नहीं कि शी जिनपिंग के अभूतपूर्व भ्रष्टाचार निरोधक अभि‍यान के बावजूद 2018 में चीन की भ्रष्टाचार रैंकिं‍ग 10 अंक नीचे चली गई. चीन की तमाम सरकारी निजी कंपनियां किसी एक देश में घूस और मनीलॉन्ड्रिंग के कारण प्रतिबंधि‍त होती हैं लेकिन दूसरी जगह सरकार से साथ मिलकर काम कर रही होती हैं.

चीन का क्रोनी कैपि‍टलिज्म दुनिया में सबसे संगठित और बहुआयामी है. अन्य देशों के जिन कारोबारों में भ्रष्टाचार करते चीनी कंपनियों को पकड़ा गयाउन्हीं कारोबारों में वे भारत में भी सक्रिय हैं. देश को कभी नहीं बताया गया कि चीनी तकनीक और पूंजी को लाने में क्या एतिहात बरते गए हैं पर हमें पता है कि दुनिया में सबसे ज्यादा संदिग्ध चीनी कंपनियां भारत में टेलीकॉमस्टार्ट अपफिनटेक क्रांति की अगुआ हैं.

जाहिर है कि हमें कभी नहीं बताया जाएगा कि भारत में चीनी कंपनियों की सक्रियता कितनी साफ-सुथरी है लेकिन हमें इतना पता चल गया है कि सरकारें (केंद्र राज्य) संभाल रहे या संभाल चुके देश के शीर्ष राजनैति‍क दल चीन के गहरे दोस्त हैं और यह रिश्ते राजनैतिक नहीं बल्कि आर्थि‍क भी हैं.

क्या बताऊं छुपा है मुझ में कौन 
कौन मुझ में छुपा रहा है मुझे – अब्दुर्रहमान मोमिन





Saturday, February 15, 2020

अपने-अपने बिजली-पानी




बाइबल कथाओं के कि‍रदार गोलिएथ ने अपनी सभी जंग अपने विशाल शरीर, भारी कवच और लंबे भाले की बदौलत जीती थीं. जीत के तजुर्बों से लैस महाकाय गोलिएथ के आत्मविश्वास के सामने गुलेलबाज बौना डेविड कुछ था ही नहीं. लेकिन डेविड ने तो लड़ाई का तरीका ही बदल दिया. महाकाय गोलिएथ भरभराकर ढह गया. सनद रहे कि इस संघर्ष के बाद वीरता की कहानियां नए तरीके से लिखी गईं.

अचरज नहीं कि राजनैतिक चैतन्य से भरपूर नगरीय दिल्ली में केजरीवाल की भव्य वापसी के बाद अब कई राज्यों में डेविड अपनी गुलेलें बनाने लगें. संभव है, सस्ती बिजली या पानी, भावनाएं उबालने वाली सियासत को करंट मारने का नुस्खा या भारतीय इतिहास की सबसे ताकतवर चुनावी मशीन को रोकने का मंत्र मान लिया जाए.
इससे पहले कि दूसरे राज्य केजरीवाल मॉडल पर रीझ कर बिजली बोर्डों के घाटे, राजस्व में कमी और कर्ज के बावजूद आत्मघात कर बैठें, इस अनोखे जनादेश के नीतिगत फलित को समझना जरूरी है.

सभी लोगों को सस्ती या आंशि मुफ्त बिजली-पानी की सूझ भले ही पूरी तरह लोकलुभावन उद्देश्यों से निकली हो लेकिन अन्य राज्यों की तुलना में दिल्ली सरकार ने इस दूरगामी कदम का अर्थशास्त्र बखूबी साध लिया.

दिल्ली देश के उन चुनिंदा राज्यों में है जिनके पास घाटे का बोझ नहीं है और राजस्व भरपूर है. कई बड़े खर्च (पुलिस, बडे़ अस्पताल, मेट्रो आदि) केंद्र के हवाले हैं. रोजगार दिल्ली सरकार के लिए उतनी बड़ी चुनौती नहीं है क्योंकिरोजगार के बिना दिल्ली में बसना असंभव है. दिल्ली में आम लोगों की चुनौती कम वेतन और महंगी जिंदगी है. आंशिक मुफ्त बिजली और पानी देकर सरकार ने जिंदगी जीने की लागत कुछ कम कर दी या फिर सस्ती दवाओं के साथ प्राथमिक चिकित्सा का बोझ कुछ कम कर दिया जो कि भारत में औसत लोगों की बीमारी जनित गरीबी की सबसे बड़ी वजह है.

अगर इस जनादेश से राज्य की सरकारें (भाजपा भी) कुछ सीखना चाहें तो उन्हें विकास की स्थानीय स्तर की जरूरतों को परखकर आर्थिक राजनीति और स्कीमों में बड़े बुनियादी बदलाव करने होंगे.

पहली जरूरत है कि केंद्रीय स्कीमों का दबदबा सीमित किया जाए और संसाधनों के इस्तेमाल में स्वाधीनता ली जाए.

राज्यों को स्कीमों की बहुतायत रोक कर लोगों की आय बढ़ाने या खर्च घटाने वाले एक या दो बड़े कार्यक्रम चलाने होंगे. दिल्ली की सरकार ने बिजली-पानी के साथ वही किया जो पिछली भाजपा सरकार ने सस्ते अनाज के साथ छत्तीसगढ़ में किया था या फिर तेलंगाना ने खेती के साथ किया. अधिकांश बड़े राज्य सब कुछ करने की कोशि में कुछ भी नहीं कर पाते.

वक्त अब मदद सीधे पहुंचाने का है. चाहे वह सस्ती सेवाओं के तौर पर हो या फिर किसान सम्मान जैसी प्रत्यक्ष मदद का. अधिकांश राज्यों के पास ऐसी स्कीमों की सूझ तक नहीं है

हर राज्य को एक दो मेगा स्कीम बनाने के लिए अपने खर्च काटने होंगे. या फिर राजस्व बढ़ाना होगा. केंद्र से मिलने वाले संसाधन कम होने वाले हैं. दिल्ली को दोहराने के लिए अचूक बजट प्रबंधन पहली शर्त है. पता नहीं, कितने राज्य इसे लेकर सतर्क हैं?

अब वक्त यूनिवर्सल यानी सभी को फायदा देने वाली स्कीमों का है. दिल्ली में बिजली-पानी की रियायत सबके लिए थी. भारतीय स्कीमों में भ्रष्टाचार या चोरी सिर्फ इसलिए पनपती है क्योंकि स्कीमें सभी के लिए एक समान नहीं होतीं. इनके लिए लाभार्थी चुने जाते हैं और वहीं भ्रष्टाचार होता है.

अधिकांश राज्यों में राज करती रही डबल इंजन वाली सरकारों के तमाम भाजपाई दिग्गज दिल्ली की जनता के सामने सफल सरकारी स्कीम, आदर्श गांव, स्मार्ट सिटी, जीवन स्तर में बेहतरी का एक ठोस नमूना भी पेश नहीं कर सके. वजह यह कि केंद्रीय स्कीमें सर्व प्रासंगि नहीं हो पा रही हैं. उनकी सफलताएं थोथी और सीमित हैं, उनके बारे में ढोल बजाकर बताना पड़ता है जबकि सरकारों का काम दिखना और महसूस होना चाहिए.

किसान कर्ज की चुनावी माफी के दिन लद गए. इतिहास बन रहीं रेवडि़यां भी जनकल्याण के नाम पर अफसरों और पार्टी के फाइनेंसर ठेकेदारों को बांटी जाती हैं. मंदी और बढ़ती नीतिगत असफलताओं के बीच राज्यों को नीतिगत प्रयोग का साहस दिखाना होगा. जमीनी आंकड़ों, बुनियादी जरूरतों और बजट की सीमाओं के अचूक मीजान के साथ राज्यों को अपने-अपने सस्ते बिजली-पानी तलाशने होंगे, जिनका असर सीधे महसूस किया जा सके.

कोई सरकार लोगों की जिंदगी बदल नहीं सकती लेकिन भारत में राज्य सरकारें असंख्य लोगों की जिंदगी आसान जरूर कर सकती हैं. महंगाई, बेकारी, बीमारी से लड़ने की एक नहीं 29 रणनीतियां चाहिए. सनद रहे कि तमाम प्रपंच के बावजूद भारत का गुमनाम वोटर नेताओं को डरा कर रखने का तरीका भूला नहीं है.