Showing posts with label Mudra bank. Show all posts
Showing posts with label Mudra bank. Show all posts

Tuesday, January 19, 2016

सुधारों का सूचकांक


क्‍या धीरे-धीरे सरकारी नियंत्रण वाली गवर्नेंस लौट रही हैजो बीजेपी के साथ सुधारवादी मुक्त अर्थव्यवस्था की वापसी की उम्मीदों के विपरीत है.
जब मौजूदा स्टील उद्योग मांग में कमी से परेशान हो और मदद मांग रहा हो तो केंद्र सरकार राज्यों के साथ नई स्टील कंपनियां क्यों बनाने जा रही है? छोटे उद्यमियों को कर्ज देने के लिए नए सरकारी बैंक (मुद्रा बैंक) की क्या जरूरत है जबकि कई सरकारी वित्तीय संस्थाएं यही काम कर रही हैं? गंगा सफाई के लिए सरकारी कंपनी बनाने की जरूरत क्यों है जबकि विभिन्न एजेंसियां व प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड इसी का कमा-खा रहे हैं? व्यावसायिक शिक्षा और रोजगार निजी क्षेत्र से मिलने हैं तो स्किल डेवलपमेंट के लिए अधिकारियों का नया काडर बनाने की क्या जरूरत है? सरकारी स्कीमों की भव्य विफलताओं के बाद मिशन और स्कीमों की गवर्नेंस हमें कहां तक ले जाएंगी? क्या अब भी वह वक्त नहीं आया है कि रेलवे, कोयला, बैंकिंग जैसे क्षेत्रों में सरकारी एकाधिकार खत्म किया जाए और सरकारी कंपनियों व बैंकों का निजीकरण किया जाए?
  फरवरी की 13 तारीख को जब मुंबई में मेक इन इंडिया के पहले सालाना जलसे में दुनिया भर की कंपनियां (60 देशों से 1,000 कंपनियों के आने की संभावना) जुटेंगी तो उनके दिमाग में ऐसे सवाल गूंज रहे होंगे. दरअसल, निवेशकों का सबसे बड़ा मलाल यह नहीं है कि बीजेपी बिहार-दिल्ली हार गई है बल्कि यह आशंका साबित होना है कि धीरे-धीरे सरकारी नियंत्रण वाली गवर्नेंस लौट रही है, जो बीजेपी के साथ सुधारवादी मुक्त अर्थव्यवस्था की वापसी की उम्मीदों के विपरीत है.
  राजनीति में दक्षिणपंथ, वामपंथ, समाजवाद, सेकुलरवाद, जातिवाद, राष्ट्रवाद की चाहे जो छौंक लगाई जाए लेकिन आम लोगों ने तजुर्बों के आधार पर सरकारों को सुधारक मानने के अपने पैमाने तय किए हैं. दिलचस्प यह है कि निवेशक और उद्यमी भी इन्हीं  पैमानों से इत्तेफाक रखते हैं जो कि देश के अधिकांश लोगों ने तय किए हैं. तेज आर्थिक सुधार, आय में बढ़ोतरी और रोजगार देने वाली सरकारें न केवल लोगों की चहेती रही हैं बल्कि निवेशकों ने भी इन्हें सिर आंखों पर बिठाया. यही वजह है कि मोदी का भव्य जनादेश तेज ग्रोथ, मुक्त बाजार और रोजगार देने वाली सरकार के लिए था.
  आर्थिक सुधारों की दमकती सफलता ने यह सुनिश्चित किया है कि मुक्त बाजार और निजी उद्यमिता के प्रबल पैरोकार को भारत में सुधारक राजनेता माना जाएगा. मोदी से मुक्त बाजार का चैंपियन बनने की उम्मीदें इसलिए हैं, क्योंकि वे खुले बाजार के करीब हैं और मोदी गुजराती उद्यमिता के अतीत से प्रभावित रहे हैं. कांग्रेस ने इक्लूसिव ग्रोथ की जिद में उदारीकरण पर जो बंदिशें थोप दी थीं, मोदी उन्हें खत्म करने वाले मसीहा के तौर पर उभरे थे.
  अलबत्ता, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले 18 माह में ऐसे दस फैसले भी नहीं किए जो सैद्धांतिक या व्यावहारिक तौर पर उनकी सरकार को साहसी सुधारक या मुक्त बाजार की पैरोकार साबित करते हों. दूसरी तरफ ऐसे फैसलों की फेहरिस्त लंबी है जो मोदी सरकार को बंद बाजार, संरक्षणवाद की हिमायती यानी वामपंथी आर्थिक दर्शन के करीब खड़ा दिखाती है.
  मोदी सरकार ने पिछले 18 माह में आधा दर्जन नई सरकारी कंपनियों की बुनियाद रखी है. दूसरी तरफ बैंकिंग, एयर इंडिया, रेलवे और कोल इंडिया के विनिवेश या खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश पर पसीना आ गया है और विश्व के देशों से मुक्त व्यापार समझौतों पर स्वदेशी हावी हो गया है.
  मोदी से उदारीकरण का मसीहा बनने की उम्मीदें नाहक नहीं थीं. पिछले दो दशक के आंकड़े और अनुभव, दोनों ही यह साबित करते हैं कि सरकार ने नहीं, बाजार ने भारत का उद्धार किया है. 1991 में सुधारों के बाद से अगले एक दशक में भारत में अतिनिर्धनता करीब दस फीसद कम हुई, जिसमें बड़ा योगदान लोगों की आय बढऩे का है जो निजी क्षेत्र से आए रोजगारों के कारण बढ़ी है.
  आर्थिक उदारीकरण की सूत्रधार होते हुए भी कांग्रेस ने पिछले एक दशक में गवर्नेंस बदलने का कोई जोखिम नहीं लिया इसलिए शुरुआती सफलताओं के बाद आर्थिक सुधार दागी होते चले गए. मोदी जब मिनिमम गवर्नमेंट की बात कर रहे थे तो एहसास हुआ कि शायद उन्होंने अपेक्षाएं समझ ली हैं, क्योंकि मिनिमम गवर्नमेंट में ब्यूरोक्रेसी छांटने, हर तरह की पारदर्शिता लाने, प्रशासनिक सुधार, जैसे वे सभी पहलू आते हैं जिन्होंने भारत में ग्रोथ को दागी किया है. इसके विपरीत मोदी सरकर एक नया स्कीमराज लेकर आ गई जो इसे मैक्सिमम गवर्नेंस जैसा बनाता है.
  जिन सुधारों का जिक्र हमने किया वे मोदी से न्यू्नतम तौर पर अपेक्षित थे. दरअसल, सरकार को तो इसके आगे जाकर बाजार में किस्म-किस्म के कार्टेल ताोड़ने , कॉर्पोरेट गवर्नेंस, राज्यों में निजीकरण, नए नियामकों का गठन और राजनैतिक दलों में पारदर्शिता जैसे कदम उठाने थे, जिनसे भारत में दूरगामी बदलावों की दिशा तय होनी है.
 सरकारी हलकों में इस तल्ख हकीकत को अब महसूस किया जा रहा है कि स्कीमों, ब्यूरोक्रेसी और संरक्षणवाद से लदी-फदी यह ऐसी गवर्नेंस है जो न तो निचले तबके को छू सकी है और न ही युवा और निवेशकों और उद्यमियों में कोई उत्साह पैदा कर पाई है. मेक इन इंडिया सम्मेलन में लोगों के जेहन में वे आंकड़े भी तैरेंगे जो गवर्नेंस के लिए पहली बड़ी चुनौती का सायरन बजा रहे हैं. आर्थिक परिदृश्य को चाहे खेती, उद्योग, विदेश व्यापार में बांटकर देखें या केंद्रीय, राज्यीय और अंतरराष्ट्रीय पक्षों में, यह पहला मौका है जब खेती, निर्यात, उद्योग, रोजगार आदि कई क्षेत्रों में लाल बत्तियां एक साथ जल उठी हैं और आर्थिक बहस को सुधारों की बजाए संकट प्रबंधन की तरफ मोडऩे वाली हैं.
2014 के जनादेश के बाद लोगों ने नरेंद्र मोदी में मार्गरेट थैचर, रोनाल्ड रेगन और ली क्वान यू की झलक देखी थी जो साहस और संकल्प से अपने देशों की कायापलट के लिए जाने जाते हैं. मोदी को थैचर, रेगन होने से पहले अटल बिहारी वाजपेयी होना है जो सूझ, संकल्प और समावेश में मोदी सरकार के 18 महीनों पर भारी पड़ते हैं. अब बीजेपी की चुनौती किसी राज्य में सत्ता में पहुंचना हरगिज नहीं होनी चाहिए. सरकार को यह धारणा बनने से रोकना होगा कि नरेंद्र मोदी के रूप में भारत को वह सुधारक नहीं मिल पाया है जिसकी हमें तलाश थी. क्या 2016 का बजट इस धारणा को खारिज करने की शुरुआत करेगा?


Tuesday, November 10, 2015

बेचारे बैंक


बैंकों की बदहाली के लिए अब इसके लिए केवल पिछली कांग्रेस सरकार जिम्मेदार नहीं हैमोदी सरकार ने कहीं ज्यादा तेजी से बैंकों को मुसीबत की तरफ ढकेल दिया है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस सप्ताह जब चरमराते बैंकों के कंधे पर सोना के बदले ब्याज देने की स्कीम लाद रहे थे और स्कीम की सफलता को लेकर बैंकिंग उद्योग में बुनियादी शक-शुबहों की चर्चा चल रही थी, तब हेनरी फोर्ड याद आ गए जिन्होंने कहा था कि आम लोग अगर यह जान जाएं कि बैंक कैसे काम करते हैं तो बगावत हो जाएगी. दरअसल, इस कहावत का जिक्रहाल में ही एक विदेशी निवेशक ने भारतीय बैंकिंग के संदर्भ में किया था. हम मोदी सरकार में आर्थिक सुधारों पर चर्चा कर रहे थे इसी दौरान निवेशक ने कहा कि अगर निवेशक भारतीय बैंकों की ताजा हालत की अनदेखी न करें तो शेयर बाजार में बगावत हो जाएगी. ग्लोबल बैंकिंग के ताजे खौफनाक तजुर्बों की रोशनी में वह निवेशक न केवल भारतीय बैकों के बुरे हाल को लेकर परेशान था बल्कि इस बात पर झुंझला रहा था कि कोई सरकार इतनी बेफिक्र कैसे हो सकती है कि जब उसके बैंक भारी बकाया कर्जों और किस्म-किस्म के घोटालों के जखीरे पर बैठे हों तब बैंकों में सुधार की बजाए वह उनके लोकलुभावन इस्तेमाल के नए तरीके तलाश रही है. 
चुनाव के दौरान बीजेपी जब आर्थिक सुधारों की तीसरी पीढ़ी लागू करने का वादा कर रही थी तब यही अनुमान था कि बैंक सुधार सरकार की सबसे पहली वरीयता पर होंगे क्योंकि यह लंबे अर्से से लंबित हैं. इस बीच पिछले पांच वर्षों की मंदी के कारण बैंकों के कर्ज की उगाही बड़े पैमाने पर अधर में लटक गई है. बैंकों का सरकार नियंत्रित तंत्र गहरी अपारदर्शिता से भर गया है जिसका नतीजा किस्म-किस्म के घोटालों के तौर पर सामने आया. भारतीय बैंकिंग सिर्फ संकट में ही नहीं है बल्कि ग्लोबल पैमानों पर आधुनिक होने के लिए बैंकों का पुनर्गठन, सुधार, निजीकरण और इनमें सरकारी दखल की समाप्ति अनिवार्य हो गई है ताकि इन्हें उत्पादक निवेश के वित्त पोषण के लायक बनाया जा सके.
इन अपेक्षाओं की रोशनी में बैंकों को लेकर मोदी सरकार की नीतियां निराश करती हैं. पिछले सोलह माह में मोदी सरकार ने परेशानहाल बैंकों का कुछ इस तरह इस्तेमाल शुरू कर दिया है, जिसे देखकर अस्सी के दशक के हालात याद आ जाते हैं. बैंकों की हालत, क्षमता और अपेक्षाओं को समझे बिना सरकार ने अपने लोकलुभावन मिशन बैंकों पर लाद दिए. मिसाल के तौर पर जनधन को ही लें. बैंकिंग के स्वाभाविक और लाभप्रद विस्तार के लिए बैंकों को सक्षम बनाने की जरूरत थी लेकिन जनधन जैसी स्कीम उस समय आई जब बैंकों के पास कर्ज के ग्राहक नहीं हैं और जमा की ग्रोथ 51 साल के सबसे निचले स्तर पर है. जनधन ने बैंकों की लागत में इजाफा कर दिया और ऐसे खातों का अंबार लगा दिया जिनमें कोई संचालन नहीं होता. महंगाई और मंदी के कारण बैंक बचत घट रही हैं और सरकार के पास भी फिलहाल इन खातों के जरिए देने के लिए कुछ नहीं है, इसलिए जनधन बैंकों के लिए बोझ जैसी ही है. ठीक यही हाल जन सुरक्षा बीमा बांटने का हुआ, जहां बैंकों ने बढ़ती लागत और वित्तीय दिक्कतों के कारण बहुत बढ़-चढ़कर भाग नहीं लिया.
गोल्ड मॉनेटाइजेशन स्कीम को देखकर ही बैंकों ने हाथ खड़़े कर दिए हैं. सोने के कारोबार से जुड़े जोखिम और मुनाफों पर दबाव के कारण सोना रखने पर बैंक अच्छा ब्याज नहीं दे सकते. रिजर्व बैंक की अधिसूचना के मुताबिक, सोना जमा करने पर महज दो से ढाई फीसदी का ब्याज मिलेगा जो इस स्कीम को अनाकर्षक बनाने के लिए पर्याप्त है. मुद्रा बैंक के माध्यम से लगाए गए लोन मेले, शायद बैंकों के इस्तेमाल की पराकाष्ठा हैं. सरकार ने इसके जरिए बगैर जमानत के छोटे कर्ज बांटने का अभियान चलाने की कोशिश की है लेकिन बैंक इस हालत में हैं ही नहीं कि वे इस तरह की रेवडिय़ा बांट सकें.
ये स्कीमें सत्तर-अस्सी के दशक की याद दिलाती हैं जब सरकारें बैंकों का इस्तेमाल लोकलुभावन राजनीति में करती थीं और उसे सामाजिक बैंकिंग कहा जाता था. दरअसल, भारतीय बैंकों की ताजा हकीकत तो कंपनियों-बैंकों का गठजोड़ यानी क्रोनी बैंकिंग है जो सामाजिक बैंकिंग की अपेक्षाओं के बिल्कुल विपरीत है. बैंकों के फंसे हुए कर्जों (एनपीए) का सबसे बदसूरत चेहरा यह है कि बैंकों का अधिकांश बकाया कर्ज आम लोगों, छोटे उद्यमियों, उपभोक्ताओं के पास नहीं बल्कि चुनिंदा उद्योगों के पास है. क्रेडिट सुइस की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, भारतीय बैंकों की तरफ से दिया गया 17 फीसदी कर्ज मुश्किल में है. यह आंकड़ा रिजर्व बैंक के शुरुआती आकलन (11 फीसदी) से बड़ा है. रिपोर्ट कहती हैं कि भारत के दस बड़े औद्योगिक समूह 113 अरब डॉलर का कर्ज लिए बैठे हैं. यह कर्ज बैंकों की सक्षमता का गला घोंट कर उन्हें ऊंची ब्याज दर रखने पर मजबूर किए हुए है जबकि देश का शेष क्षेत्रउत्पादक, निवेश या उपभोग के लिए बैंक कर्ज के लिए तरस रहा है.
बैंकिंग को लेकर सरकार से दो बड़ी अपेक्षाएं थीं. एक: क्रोनी बैंकिंग पर सख्ती होगी और बैंकों के एनपीए कम किये जाएंगे ताकि कर्ज सस्ता करने का रास्ता बन सके. दो: बैंकों में सरकार अपना हिस्सा घटाएगी, निजीकरण करेगी और दखल समाप्त करेगी, क्योंकि ग्रोथ के लिए सस्ता कर्ज बुनियादी जरूरत है. ग्रोथ का ताजा इतिहास तेज विकास और सस्ते कर्ज के बीच रिश्ते का सबसे ठोस प्रमाण है. 2005 से 2011 की 7 से 8 फीसदी की विकास दर दरअसल सस्ते और बड़ी मात्रा में बैंक कर्ज की देन थी. बाद के वर्षों में ब्याज दरें, कर्ज का प्रवाह घटा और ग्रोथ भी बैठ गई.
सरकार को अच्छी तरह यह पता है कि बैंकों के पुनर्गठन के बिना सस्ते कर्ज की वापसी नामुमकिन है. इसके बावजूद बैंकों का नया और बेधड़क लोकलुभावन इस्तेमाल निराश करता है. सिर्फ यही नहीं, क्रोनी बैंकिंग को बदलने और बैंकों को फंसे कर्ज से निजात दिलाने के लिए करदाताओं के पैसे यानी बजट से बैंकों को 700 अरब रुपए की पूंजी मिलने जा रही है. एक बड़ा संकट बैंकों की दहलीज पर है और अब इसके लिए केवल पिछली कांग्रेस सरकार जिम्मेदार नहीं है, मोदी सरकार ने कहीं ज्यादा तेजी से बैंकों को मुसीबत की तरफ ढकेल दिया है.