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Monday, December 14, 2015

भारतीय सियासत का ग्रीन होल

अब जब कि पर्यावरण को लेकर दुनिया के सामने ठोस आर्थिक व राजनैतिक वादों की बारी है तब हमारी सियासी बहसों की पर्यावरणीय दरिद्रता और ज्यादा मुखर हो चली है. 
क्या प  मुतमइन हो सकते हैं कि नेताओं ने शीतकालीन सत्र में तीन दिन तक, जिस तरह संविधान और सहिष्णुता का धान कूटा, ठीक उसी तरह दिल्ली की दमघोंट हवा और चेन्नै के सैलाब पर भी बहस की आएगी. संसद का रिकॉर्ड देखने के बाद उम्मीद नहीं जगती कि देर रात तक संसद चलाकर लडऩे वाले नेता, बदमिजाज मौसम से जीविका व जिंदगी को बचाने वाली गवर्नेंस पर ऐसी गंभीर बहस करेंगे. अतीत की रेत में धंसे शुतुरमुर्गी सिरों जैसी संसदीय बहसें बताती हैं कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सियासत में आधुनिकता का स्तर न्न्या है. भारत में तो ग्रीन पॉलिटिक्स की आमद एक दशक पहले तक हो जानी चाहिए थी जब मौसमी बदलाव जानलेवा हो चले थे. अब जब कि पर्यावरण को लेकर दुनिया के सामने ठोस आर्थिक और राजनैतिक वादों की बारी है, तब हमारी सियासी बहसों की पर्यावरणीय दरिद्रता और ज्यादा मुखर हो चली है.
यूरोप में ग्रीन पॉलिटिक्स ने दरअसल वामपंथी दलों की जगह भरी है. पर्यावरण की नई राजनीति यूरोप में 1980 के दशक में उभरी और 1990 के दशक की शुरुआत तक बेहद प्रभावी हो गई. चुनावों में ग्रीन पार्टियों ने बड़ी सफलता नहीं हासिल की पर यह पार्टियां पर्यावरण को सुरक्षित रखने की नीतियों की हिमायत के साथ क्रमशः राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक एजेंडा तय करने लगीं. इस 'ग्रीन लेफ्ट' के अतिवादी आग्रहों पर कई बार लानतें भेजी गईं लेकिन इस राजनीति का असर था ग्रीन टैक्स, साफ ऊर्जा, शहरों में कंजेशन टैक्स, विलासितापूर्ण जिंदगी के लिए ऊंची कीमत, प्रकृति के लिए सुरक्षित कारोबार को लेकर आज यूरोप के कानून और नियम, अमेरिका से ज्यादा आधुनिक हैं.
अगर आपको हैरत न हुई तो अब होनी चाहिए कि संविधान दिवस की बहस में जब सभी दल अपने-अपने आंबेडकर चुने रहे थे और कांग्रेस और बीजेपी का आइडिया ऑफ इंडिया एक दूसरे से गुत्थमगुत्था थे, ठीक उस समय प्रधानमंत्री के दफ्तर में पेरिस पर्यावरण सम्मेलन को लेकर भारत की वचनबद्धताओं को अंतिम रूप दिया जा रहा था. संसद ने यह जानने की कोशिश भी नहीं की कि आखिर कार्बन उत्सर्जन घटाने के लिए भारत जो समझौते करने वाला है, उससे देश की आबादी की जिंदगी पर कैसे असर होंगे? भारत ने दुनिया से वादा किया है कि वह 2020 तक, पर्यावरण को गर्म करने वाले कार्बन का उत्सर्जन 33 से 35 फीसदी घटाएगा. यह बहुत बड़ा वादा है जिसकी आर्थिक-राजनैतिक लागत भी बड़ी होगी क्योंकि इसके बाद साफ सुथरी बिजली से लेकर हर जगह नई तकनीकों की जरूरत होगी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पेरिस होकर लौट आए, चेन्नै में मौसम के गुस्से ने दहला भी दिया लेकिन भारत के नेता जिंदगी और मौत से जुड़ी बहसों में शायद इसलिए नहीं उतर पाए क्योंकि उनकी सियासी पढ़ाई में आधुनिक ग्रीन पॉलिटिक्स का अध्याय ही नहीं है.
दिल्ली का स्मॉग इसी साल नहीं पैदा हुआ. लेकिन राजनैतिक मंचों पर यह सवाल कभी नहीं उभरा कि शहरों की आबोहवा बदलने के लिए तात्कालिक व दीर्घकालिक रणनीति क्या होगी? अदालत ने जब चाबुक फटकारा तो हर काम जनता से पूछकर करने वाले केजरीवाल ने सिर्फ पंद्रह दिन के नोटिस पर हफ्ते में तीन दिन आधी कारें सड़क से हटाने का फरमान जारी कर दिया. दुनिया के ज्यादातर शहरों में यह व्यवस्था इसलिए आजमाई नहीं गई क्योंकि वहां की राजनीति ने उन विकल्पों पर चर्चा की थी जो कम से कम असुविधा में जनता को पर्यावरण के प्रति संवेदनशील बनाते थे. भारत में ग्रीन पॉलिटिक्स सक्रिय होती तो हम दिल्ली में कंजेशन टैक्स लगाने, पार्किंग महंगी करने, एक से अधिक कार रखने पर रोक, डीजल कारों पर टैक्स बढ़ाकर राजस्व जुटाने और उससे नगरीय परिवहन तैयार करने पर चर्चा कर रहे होते न कि कारें बंद करने के बेतुके फैसलों से निबटने की तैयारी कर रहे होते. तब हमारी बहसें यह होतीं कि क्लीन एनर्जी सेस या स्वच्छ भारत सेस का इस्तेमाल आखिर कहां हो रहा है?
सियासत के पोंगापंथ पर शक नहीं है लेकिन नसीहतों को लेकर असंवेदनशीलता ज्यादा परेशान करती है. पिछले एक दशक में आधुनिक सियासत व गवर्नेंस की बड़ी बहसें या फैसले देश की पारंपरिक राजनीति के मंच से उठे ही नहीं हैं. भारत में पर्यावरण को लेकर गवर्नेंस को बदलने की शुरुआत स्वयंसेवी संस्थाओं और अदालतों की जुगलबंदी से होती है, किसी राजनैतिक दल के आंदोलन से नहीं. पश्चिम के लोकतंत्र इससे ठीक उलटे हैं. वहां पर्यावरण के नुक्सान भारत जैसे मुल्कों की तुलना में कम हैं फिर भी उन्होंने राजनैतिक आंदोलनों के जरिए पर्यावरण को राजनीति के केंद्र में स्थापित किया. भारत में पर्यावरण को लेकर जो गैर राजनैतिक और स्वयंसेवी सक्रियता दिखी भी, उसे नई सरकार ने बंद कर दिया. आबोहवा की दुरुस्तगी पर अगर, अदालतें न सक्रिय हों तो भारत के नेता, इतिहास में बदलाव पर जूझ जाएंगे लेकिन दमघोंट वर्तमान को बदलने पर सक्रिय नहीं होंगे. 
भारत के भविष्य की अब लगभग हर नीति प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पर्यावरण से प्रभावित होनी है. आने वाले कुछ ही वर्षों में शहर बनाने से लेकर बिजली संयंत्र लगाने, कारों के उत्पादन से उनके इस्तेमाल तक, बीमारियों से लड़ाई के इंतजाम से लेकर खेती तक और टैक्स, निर्यात, आयात तक लगभग सभी नीतियों में जलवायु परिवर्तन व पर्यावरण के संदर्भ मुखर होने वाले हैं, जो जिंदगी जीने की लागत व तरीका बदलेंगे. ग्रीन गवर्नेंस को लेकर नेताओं की सीमित समझ और सक्रियता से दो तरह के खतरे सामने हैं एक—अदालती या अंतरराष्ट्रीय फैसलों के कारण हम अचानक जिंदगी बदलने या महंगी करने वाले अहमक फैसलों के शिकार हो सकते हैं, जैसा दिल्ली में कारों की संख्या कम करने को लेकर हुआ है. और दूसरा-हमें शायद धुंध या पानी में डूबने के लिए छोड़ दिया जाएगा.

पर्यावरण की चुनौती से निबटने वाली गवर्नेंस के लिए हमें एक आधुनिक सियासत चाहिए जो अभी केंद्रीय स्तर पर भी नहीं है, राज्यों की राजनीति में तो अभी इसका बीज तक नहीं पड़ा है. अगर चेन्नै की डूब और दिल्ली की जहर भरी हवा भी हमारी सियासत को आधुनिक व दूरदर्शी नहीं बना पा रही है तो मान लीजिए कि किसी बड़े जनविनाश के बावजूद हम इतिहास ठीक करने की बहस में ही उलझे रहेंगे, भविष्य बचाने की नहीं. 

Tuesday, April 7, 2015

मौके जो चूक गए

मोदी और केजरीवाल दोनों ही तल्ख हकीकत की एक जैसी जमीन पर खड़े हैं. अपेक्षाओं का ज्वार नीचे आया है. नेताओं को महामानव और मसीहा बनाने की कोशिशों पर विराम लगा है.

भारतीय जनता पार्टी में लोकसभा चुनाव से पहले जो घटा था वैसा ही आम आदमी पार्टी में दिल्ली चुनाव के बाद हुआ. फर्क सिर्फ यह था कि आडवाणी के आंसू, सुषमा स्वराज की कुंठा, वरिष्ठ नेताओं का हाशिया प्रवास मर्यादित और शालीन थे जबकि आम आदमी पार्टी में यह अनगढ़ और भदेस ढंग से हुआ, जो गली की छुटभैया सियासत जैसा था. फिर भी भाजपा और आप में यह एकरूपता इतनी फिक्र पैदा नहीं करती जितनी निराशा इस पर होती है कि भारत में नई गवर्नेंस और नई राजनीति की उम्मीदें इतनी जल्दी मुरझा रही हैं और दोनों के कारण एक जैसे हैं. नरेंद्र मोदी बीजेपी में प्रभुत्वपूर्ण राजनीति लेकर उभरे थे इसलिए वे सरकार में अपनी ही पार्टी के अनुभवों का पर्याप्त समावेश नहीं कर पाए जो गवर्नेंस में दूरगामी बदलावों के लिए एक तरह से जरूरी था, नतीजतन उनकी ताकतवर सरकार, वजनदार और प्रभावी नहीं हो सकी. दूसरी तरफ अरविंद केजरीवाल ने सत्ता में पहुंचते ही समावेशी राजनीति की पूंजी गंवा दी, जो उन्हें औरों से अलग करती थी.
आम आदमी पार्टी का विघटन, किसी पारंपरिक राजनीतिक दल में फूट से ज्यादा दूरगामी असर वाली घटना है. यह पार्टी उस ईंट गारे से बनती नहीं दिखी थी जिससे अन्य राजनैतिक दल बने हैं. परिवार, व्यक्ति, पहचान या विचार पर आस्थाएं भारत की पारंपरिक दलीय राजनीति की बुनियाद हैं, जो भले ही पार्टियों को दकियानूसी बनाए रखती हों लेकिन इनके सहारे एकजुटता बनी रहती है. केजरीवाल के पास ऐसी कोई पहचान नहीं है. उनकी 49 दिन की बेहद घटिया गवर्नेंस को इसलिए भुलाया गया क्योंकि आम आदमी पार्टी सहभागिता, पारदर्शिता और जमीन से जुड़ी एक नई राजनीति गढ़ रही थी, जिसे बहुत-से लोग आजमाना चाहते थे. 
'आप' का प्रहसन देखने के बाद यह कहना मुश्किल है कि इसके अगुआ नेताओं में महत्वाकांक्षाएं नहीं थीं या इस पार्टी में दूसरे दलों जैसी हाइकमान संस्कृति नहीं है. अलबत्ता जब आप आदर्श की चोटी पर चढ़कर चीख रहे हों तो आपको राजनीतिक असहमतियों को संभालने का आदर्शवादी तरीका भी ईजाद कर लेना चाहिए. केजरीवाल की पार्टी असहमति के एक छोटे झटके में ही चौराहे पर आ गई जबकि पारंपरिक दल इससे ज्यादा बड़े विवादों को कायदे से संभालते रहे हैं.
दिल्ली की जीत बताती है कि केजरीवाल ने गवर्नेंस की तैयारी भले ही की हो लेकिन एक आदर्श दलीय सियासत उनसे नहीं सधी जो बेहतर गवर्नेंस के लिए अनिवार्य है. दिल्ली के मुख्यमंत्री के तौर पर लोग केजरीवाल की सीमाएं जानते हैं, अलबत्ता नई राजनीति के आविष्कारक के तौर पर उनसे अपेक्षाओं की फेहरिस्त बहुत लंबी थी. केजरीवाल के पास पांच साल का वक्त है. वे दिल्ली को ठीक-ठाक गवर्नेंस दे सकते हैं लेकिन वे अच्छी राजनीति देने का मौका चूक गए हैं. राजनीतिक पैमाने पर आम आदमी पार्टी  अब सपा, बीजेडी, तृणमूल, डीएमके जैसी ही हो गई है जो एक राज्य तक सीमित हैं. इस नए प्रयोग के राष्ट्रीय विस्तार की संभावनाओं पर संदेह करना जायज है.
केजरीवाल के समर्थक, जैसे आज योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण को पार्टी के लिए गैर जरूरी और बोझ साबित कर रहे हैं, ठीक इसी तरह नरेंद्र मोदी के समर्थक उस वक्त पार्टी की पुरानी पीढ़ी को नाकारा बता रहे थे जब बीजेपी की राष्ट्रीय राजनीति में मोदी युग की शुरुआत हो रही थी. नौ माह में मोदी की लोकप्रियता में जबर्दस्त गिरावट (इंडिया टुडे विशेष जनमत सर्वेक्षण) देखते हुए यह महसूस करना मुश्किल नहीं है कि गवर्नेंस में मोदी की विफलताएं भी शायद उनके राजनीति के मॉडल से निकली हैं जो हाइकमान संस्कृति और पार्टी में असहमति रखने वालों को वानप्रस्थ देने के मामले में कांग्रेस से ज्यादा तल्ख और दो टूक साबित हुआ.
प्रधानमंत्री के तौर पर मोदी के संकल्प और सदाशयता के बावजूद अगर एक साल के भीतर ही उनकी सरकार किसी आम सरकार जैसी ही दिखने लगी है तो इसकी दो वजहें हैं. एक-मोदी के नेतृत्व में बीजेपी ने गवर्नेंस के लिए कोई तैयारी नहीं की थी और दो-विशाल बहुमत के बावजूद एक प्रभावी सरकार आकार नहीं ले सकी. बीजेपी चुनाव से पहले अपनी सरकार का विजन डाक्यूमेंट तक नहीं बना सकी थी. घोषणा पत्र तो मतदान शुरू होने के बाद आया. चुनाव की ऊभ-चूभ में ये बातें आई गई हो गईं लेकिन सच यह है कि बीजेपी नई गवर्नेंस के दूरदर्शी मॉडल के बिना सत्ता में आ गई क्योंकि गवर्नेंस की तामीर गढऩे का काम ही नहीं हुआ और ऐसा करने वाले लोग हाशिए पर धकेल दिए गए थे. यही वजह है कि सरकार ने जब फैसले लिए तो वे चुनावी संकल्पों से अलग दिखे या पिछली सरकार को दोहराते नजर आए.
सत्ता में आने के करीब साल भर बाद भी मोदी अगर एक दमदार अनुभवी और प्रतिभाशाली सरकार नहीं गढ़ पा रहे हैं जो इस विशाल देश की गवर्नेंस का रसायन बदलने का भरोसा जगाती हो तो शायद इसकी वजह भी उनका राजनीतिक तौर तरीका है. मोदी केंद्र में गुजरात जैसी गवर्नेंस लाना चाहते थे पर दरअसल वे बीजेपी को चलाने का गुजराती मॉडल पार्टी की राष्ट्रीय राजनीति में ले आए, जो सबको साथ लेकर चलने में यकीन ही नहीं करता या औसत टीम से खेलने को बहादुरी मानता है. एनडीए की पिछली सरकार का पहला साल ही नहीं बल्कि पूरा कार्यकाल दूरदर्शी फैसलों से भरपूर था. विपरीत माहौल और गठजोड़ की सरकार में अटल बिहारी वाजपेयी इतना कुछ इसलिए कर सके क्योंकि उनके पास गवर्नेंस का स्पष्ट रोड मैप था और उन्हें सबको सहेजने, सबका सर्वश्रेष्ठ सामने लाने की कला आती थी.
राजनीति और गवर्नेंस गहराई से गुंथे होते हैं. मोदी और केजरीवाल इस अंतरसंबंध को कायदे से साध नहीं सके. अब दोनों ही तल्ख हकीकत की एक जैसी जमीन पर खड़े हैं. अपेक्षाओं का ज्वार नीचे आया है. नेताओं को महामानव और मसीहा बनाने की कोशिशों पर विराम लगा है. मोदी और केजरीवाल के पास उद्घाटन के साथ ही कड़वी नसीहतों का अभूतपूर्व खजाना जुट गया है. सरकारों की शुरुआत बेहद कीमती होती है क्योंकि कर दिखाने के लिए ज्यादा समय नहीं होता. मोदी और केजरीवाल ने गवर्नेंस और सियासत की शानदार शुरुआत का मौका गंवा दिया है, फिर भी, जब जागे तब सवेरा.




Monday, December 30, 2013

तीसरे रास्‍तों की रोशनी


मगध में शोर है कि मगध में शासक नहीं रहे, जो थे वे मदिरा, प्रमाद और आलस्य के कारण इस लायक नहीं रहे कि हम उन्‍हें अपना शासक कह सकें।

ब बंधे बंधायें विकल्‍पों के बीच चुनाव को बदलाव मान लिया जाता है, तब परिवर्तन को एक नए मतलब की जरुरत होती है। नए रास्‍तों की खोज भी तब ही शुरु होती है जब मंजिल अपनी जगह बदल लेती है और एक वक्‍त के बाद सुधार भी तो सुधार मांगने लगते हैं। लेकिन परिवर्तन, सुधार और विकल्‍प जैसे घिसे पिटे शब्‍दों को नए सक्रिय अर्थों से भरने के लिए जिंदा कौमें को एक जानदार संक्रमण से गुजरना होता है। ऊबता, झुंझलाता, चिढ़ता, सड़कों पर उतरता, बहसों में उलझता भारत पिछले पांच वर्ष से यही संक्रमण जी रहा है। यह जिद्दोजहद  उन तीसरे रास्‍तों की तलाश ही है, जो राजनीति, समाज व अर्थनीति की दकियानूसी राहों से अलग बदलाव की दूरगामी उम्मीदें जगा सकें। इस बेचैन सफर ने 2013 के अंत में उम्‍मीद की कुछ रोशनियां पैदा कर दी हैं। दिल्‍ली में एक अलग तरह की सरकार राजनीति में तीसरे रास्‍ते का छोटा सा आगाज है। स्‍वयंसेवी संस्‍थाओं व अदालतों की जुगलबंदी न्‍याय का नया दरवाजा  खोल रही है और नियामक संस्‍थाओं की नई पीढ़ी रुढि़वादी सरकार व बेलगाम बाजार के बीच संतुलन व गवर्नेंस का तीसरा विकल्‍प हैं। इन प्रयोगों के साथ भारत का संक्रमण नए अर्थों की रोशनी से जगमगा उठा है।
किसे अनुमान थी कि आर्थिक-राजनीतिक भ्रष्‍टाचार से लड़ते हुए एक नई पार्टी सत्‍ता तक पहुंच जाएगी। यहां तो किसी राजनीतिक दल के चुनाव घोषणापत्र में भ्रष्टाचार मिटाने रणनीति कभी नहीं लिखी गई। पारदर्शिता तो विशेषाधिकारों का स्वर्ग उजाड़ देती है इसलिए 2011 की संसदीय बहस में पूरी सियासत एक मुश्‍त लोकपाल को बिसूर रही थी। लेकिन दिल्‍ली के जनादेश की एक घुड़की