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Sunday, October 28, 2018

ताकत देने के खतरे



''भी युद्ध अंततः खत्म हो जाते हैं, लेकिन सत्ता और सियासत जो ताकत हासिल कर लेती है वह हमेशा बनी रहती है.''    —फ्रैंक चोडोरोव

भारत की शीर्ष जांच एजेंसी (सीबीआइ) की छीछालेदर को देख रहा 71 साल का भारतीय लोकतंत्र अपने अस्तित्व की सबसे बड़ी दुविधा से मुकाबिल है. यह दुविधा पिछली सदी से हमारा पीछा कर रही है कि हमें ताकतवर लोकतांत्रिक संस्थाएं चाहिए या फिर ताकतवर सरकारें

दोनों एक साथ चल नहीं पा रही हैं. 

यदि हम ताकतवर यानी बहुमत से लैस सरकारें चुनते हैं तो वे लोकतंत्र की संस्थाओं की ताकत छीन लेती हैं.

भारतीय लोकतंत्र के 1991 से पहले के इतिहास में हमारे पास बहुमत से लैस ताकतवर सरकारों (इंदिरा-राजीव गांधी) की जो भी स्मृतियां हैं, उनमें लोकतांत्रिक संस्थाओं यानी अदालत, अभिव्यक्ति, जांच एजेंसियों, नियामकों के बुरे दिन शामिल हैं. 1991 के बाद बहुमत की पहली सरकार हमें मिली तो उसमें भी लोकतंत्र की संस्थाओं की स्‍वायत्तता और निरपेक्षता सूली पर टंगी है.

इस सरकार में भी लोकतंत्र का दम घोंटने का वही पुराना डिजाइन है. ताकतवर सरकार यह नहीं समझ पाती कि वह स्वयं भी लोकतंत्र की संस्था है और वह अन्य संस्थाओं की ताकत छीनकर कभी स्वीकार्य और सफल नहीं हो सकती.

क्या सीबीआइ ताकत दिखाने की इस आदत की अकेली शिकार है? 

- सरकार का कार्यकाल खत्म होने के करीब है लेकिन सुप्रीम कोर्ट की लताड़ के बावजूद लोकपाल नहीं बन पाया. पारदर्शिता तो बढ़ाने वाले व्हिसिलब्लोअर कानून ने संसद का मुंह नहीं देखा लेकिन सूचना के अधिकार को सीमित करने का प्रस्ताव संसद तक आ गया. 

- जजों की नियुक्ति को लेकर सुप्रीम कोर्ट को सरकार ने अपनी ताकत दिखाई और लोकतंत्र सहम गया. रिजर्व बैंक की स्वायत्तता में दखल हुआ तो पूरी दुनिया के वित्तीय बाजारों में थू-थू हुई.

- सूचना प्रसारण मंत्रालय ने गलत खबरों को रोकने के बहाने खबरों की आजादी पर पंजे गड़ा दिए. विरोध हुआ और प्रधानमंत्री ने भूल सुधार किया.

- याद रखना जरूरी है कि मिनिमम गवर्नमेंट का मंत्र जपने वाली एक सरकार ने पिछले चार साल में भारत में एक भी स्वतंत्र नियामक नहीं बनायाल उलटे यूजीसी, सीएजी (जीएसटीएन के ऑडिट पर रोक) जैसी संस्थाओं की आजादी सिकुड़ गई. चुनाव आयोग का राजनैतिक इस्तेमाल ताकतवर सरकार के खतरे की नई नुमाइश है.

- सुप्रीम कोर्ट को यह कहना पड़ा कि आखिर आधार का कानून पारित कराने के लिए लोकसभा में मनी बिल के इस्तेमाल की क्या जरूरत थी?

- ताकत के दंभ की बीमारी राज्यों तक फैली. राजस्थान सरकार चाहती थी कि अफसरों और न्यायाधीशों पर खबर लिखने से पहले उससे पूछा जाए. लोकतंत्र की बुनियाद बदलने की यह कोशिश अंततः खेत रही. मध्य प्रदेश सरकार ने विधानसभा में सवाल पूछने के अधिकार सीमित करने का प्रस्ताव रख दिया. माननीय बेफिक्र थे, पत्रकारों ने सवाल उठाए और पालकी को लौटना पड़ा.

यह कतई जरूरी नहीं है कि लोकतंत्र में सरकार का हर फैसला सही साबित हो. इतिहास सरकारी नीतियों की विफलता से भरा पड़ा है. लेकिन लोकतंत्र में फैसले लेने का तरीका सही होना चाहिए. ताकतवर सरकारों की ज्यादातर मुसीबतें उनके अलोकतांत्रिक तरीकों से उपजती हैं. नोटबंदी, राफेल, जीएसटी, आधार जैसे फैसले सरकार के गले में इसलिए फंसे हैं क्योंकि जिम्मेदार संस्थाओं की अनदेखी की गई. 

जब अदालतें सामूहिक आजादियों से आगे बढ़कर व्यक्तिगत स्वाधानताओं (निजता, संबंध, लिंग भेद) को संरक्षण दे रही हैं तब लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वयत्तता के दुर्दिन देखने लायक हैं.

क्या 1991 के बाद का समय भारत के लिए ज्यादा बेहतर था जब सरकारों ने खुद को सीमित किया और देश को नई नियामक संस्थाएं मिलीं?

क्या भारतीय लोकतंत्र अल्पमत सरकारों के हाथ में ज्यादा सुरक्षित है?

क्या कमजोर सरकारें बेहतर हैं जिनके तईं लोकतंत्र की संस्थाएं ताकतवर रह सकती हैं?

हम सिर्फ वोट दे सकते हैं. यह तय नहीं कर सकते कि सरकारें हमें कैसा लोकतंत्र देंगी इसलिए वोट देते हुए हमें लेखक एलन मूर की बात याद रखनी चाहिए कि सरकारों को जनता से डरना चाहिए, जनता को सरकारों से नहीं.


Tuesday, January 12, 2016

उदार बाजार की गुलामी

 लाइसेंस परमिट राज खत्म होने के बाद भी भारत का बाजार पूरी तरह खुल नहीं सका. अगर सरकार हटी तो लोग चुनिंदा कंपनियों के बंधुआ हो गए. 


कोई गणेश हैं जिन्होंने फेसबुक के फ्री बेसिक्स के ट्रायल मात्र से इतनी जानकारी हासिल कर ली कि उनके खेतों की पैदावार दोगुनी हो गई! अगर आप भारत की खेती की ताजा दशा से वाकिफ हैं तो आप दुनिया की सबसे बड़ी सोशल नेटवर्क कंपनी के विज्ञापनों की इस गणेश कथा को नियम तो दूर, अपवाद भी नहीं मानेंगे लेकिन फिर इतना तय है कि फेसबुक फ्री बेसिक्स के विशाल विज्ञापन आपको कुछ तो राजनीति हैवाले संदिग्ध एहसास भरे बिना नहीं छोड़ेंगे.
 जैसे चुनावी विज्ञापनों में गरीबी व असमानता हटाने के लिए वोट मांगे जाते हैं ठीक उसी तर्ज पर फेसबुक अगर भारत में डिजिटल असमानता दूर करने के लिए अपनी फ्री बेसिक्स सेवा को चुनने की अपील करे तो सब कुछ सामान्य नहीं है. दरअसल, इससे पहले कि हम अपने बाजार व उदारीकरण को, सरकारी व निजी दोनों, एकाधिकार से मुक्त कर पाते, हम बाजार की जटिल राजनीति में लिथड़ने जा रहे हैं. यह सियासत रोजमर्रा की राजनीति से ज्यादा पेचीदा और प्रभावी है क्योंकि इसमें चुनी हुई सरकारें भी शामिल हो जाती हैं.
 फेसबुक के फ्री बेसिक्स से जुड़ा सवाल निहायत बेसिक है. कोई हमें शॉपिंग मॉल में बुला रहा है जहां एंट्री फ्री होगी लेकिन बदले में सिर्फ चुनिंदा दुकानों से सामान लेने की छूट होगी. अगर पूरे मॉल में घूमना-खाना-खरीदना चाहते हैं तो फिर मुफ्त एंट्री नहीं मिलेगी. क्या हम ऐसा चाहते हैं? इससे पहले कि हम फ्री इंटरनेट बहस में उतरें, इंटरनेट की मौजूद व्यवस्था को समझना जरूरी है. भारत की मौजूदा नीति के तहत मोबाइल ऑपरेटर्स को स्पेक्ट्रम मिला है जिसके तहत सबको समान रूप से इंटरनेट मिलता है. जो जिस स्पीड का डाटा पैकेज लेता है उतना इंटरनेट चलता है. इंटरनेट का सस्ता होना जरूरी है और इसके लिए कंपनियों को सुविधाएं और रियायतें मिलनी चाहिए लेकिन कोई कंपनी मुफ्त इंटरनेट के बदले आपको एक सीमित क्षेत्र में सैर कराना चाहे तो यह इंटरनेट की उस आजादी के खिलाफ है जो भारत दे रहा है और दुनिया के लिए आदर्श है.

 इंटरनेट की दुनिया में तीन भागीदार हैं जो इसे मुक्त संसार बनाते हैं. फेसबुक का फ्री बेसिक्स इन तीनों को बिगाड़ देगा. इंटरनेट तक पहुंचाने की सड़क यानी टेलीकॉम नेटवर्क मोबाइल ऑपरेटरों ने बनाई है. जाहिर है, फेसबुक का फ्री बेसिक्स एक ही कंपनी के नेटवर्क पर मिलेगा यानी कि इससे ऑपरेटर को ज्यादा ग्राहक मिलेंगे जिससे मोबाइल बाजार की प्रतिस्पर्धा बिगड़ेगी. इस बाजार के दूसरे भागीदार मीडिया, ई-कॉमर्स आदि कंटेट व सेवा कंपनियां हैं. भारत में इंटरनेट पूरी तरह स्वतंत्र है. लेकिन फेसबुक के बाजार में उन्हीं की दुकान लगेगी जो उसके साथ होंगे तीसरा, खुद इंटरनेट है जिसमें मुफ्त लेकिन सीमित पहुंच का नियम, इसके स्वतंत्र होने की बुनियाद ही हिला देगा. देश के सबसे बड़े ऑपरेटर एयरटेल ने पिछले साल एयरटेल जीरो सर्विस के तहत कुछ वेबसाइट पर फ्री इंटरनेट एक्सेस देने का प्रस्ताव किया था इसके बदले वे वेबसाइट एयरटेल को पैसा देने वाली थीं. यह पेशकश भारत में नेट न्यूट्रेलिटी की बहस की शुरुआत थी.  
 फेसबुक फ्री बेसिक्स जैसी पेशकश, प्रतिस्पर्धा को पूजने वाले पश्चिम के बाजारों में कर ही नहीं सकती, यह तो सिर्फ पिछड़े और विकासशील देशों को लुभा सकती है. इसके बावजूद दो दिन पहले इजिप्ट ने फ्री बेसिक्स बंद कर दिया. दरअसल, फेसबुक, एयरटेल के कारोबारी हित मुक्त बाजार में ही सुरक्षित हैं न कि उस बाजार में जिसे वे गढऩा चाहती हैं. भारतीय बाजार में एकाधिकार व कार्टेलों का दखल पहले से है. फेसबुक तो अपने आकार, फॉलोअर्स और रसूख के सहारे इस असंतुलन को मजबूत करने जा रहा है.
 लाइसेंस परमिट राज खत्म होने के बाद भी भारत का बाजार पूरी तरह खुल नहीं सका. अगर सरकार हटी तो लोग चुनिंदा कंपनियों के बंधुआ हो गए. हमारे मासिक बिल भुगतान हमें बता देंगे कि हम किस तरह अधिकांश पैसा करीब दो दर्जन कंपनियों को दे रहे हैं. चाकलेट से लेकर मोबाइल तक दर्जनों उत्पाद व सेवाएं ऐसी हैं जिनमें हमारे पास चुनिंदा विकल्प हैं. इसलिए इनके बाजार में या तो एकाधिकार (मोनोपली) हैं या कार्टेल. दूसरी तरफ पेट्रोलियम, रेलवे, कोयला, बिजली आदि  पर सरकार का एकाधिकार है इसलिए दोनों जगह उपभोक्ता ऐंटी कंपीटिशन गतिविधियों का शिकार हो होता है जबकि इनकी तुलना में ऑटोमोबाइल, खाद्य उत्पाद, दवा में प्रतिस्पर्धा बेहतर है.

भारत को जिन सुधारों की जरूरत है वे बाजार को खोलने के साथ उसे संतुलित करने थे और इनमें सरकार की भूमिका सबसे बड़ी होने वाली है. सरकार को न केवल अपने एकाधिकार वाले क्षेत्रों से निकलना था बल्कि जिन क्षेत्रों में निजी कार्टेल बन गए हैं वहां प्रतिस्पर्धा बढ़ानी है. मसलन, मोबाइल को ही लें जहां 2जी से 4जी तक जाते ऑपरेटरों की संख्या घट रही है यानी प्रतिस्पर्धा कम हो रही है. इन अपेक्षाओं के बीच जब सरकार में रह चुके नंदन नीलकेणि जैसे विशेषज्ञ आधार कार्ड के जरिए लोगों को मुफ्त इंटरनेट देने की वकालत करते हैं तो यह समझना मुश्किल हो जाता है कि आखिर हम सरकारी सब्सिडी की समाप्ति की तरफ बढ़ रहे हैं या नई सब्सिडी स्कीमें शुरू करने की तरफ.
 हम उदारीकरण के जरिए सभी को अवसर देने वाला मुक्त बाजार बनाने चले थे. हमने सोचा था कि लोगों की जिंदगी व कारोबार में सरकार की भूमिका सीमित होती जाएगी लेकिन कांग्रेस से बीजेपी तक आते भारत के आर्थिक उदारीकरण का पूरा मॉडल ही गड्डमड्ड हो गया है. हम नए किस्म के सरकारीकरण से मुकाबिल हैं और बाजार में प्रतिस्पर्धा सीमित करने के नए तरीकों का इस्तेमाल बढ़ गया है.
पिछले साल एयरटेल जीरो के विरोध के बाद भारत में नेट न्यूट्रेलिटी से खतरा टल गया था लेकिन टीआरएआइ ने इस बहस को फिर खोल दिया है और फेसबुक के कथित गणेश महंगे विज्ञापनों के जरिए खेती में सोशल नेटवर्किंग के फायदे बताने लगे हैं. यकीनन इस बहस की दोबारा शुरुआत को फेसबुक के अमेरिकी मंच पर भारतीय प्रधानमंत्री की मौजूदगी से जोडऩे का समर्थन नहीं किया जा सकता लेकिन अगर बात निकली है तो दूर तलक जाएगी और लोग नरेंद्र मोदी से उम्मीद जरूर करेंगे कि उनकी सरकार बाजार की आजादी की पैरोकार बनकर उभरेगी, प्रतिस्पर्धाएं सीमित करने की कोशिशों की हिमायती नहीं.


Monday, December 6, 2010

पर्दा जो उठ गया !

अर्थार्थ
रा देखिये तो शर्म से लाल हुए चेहरों की कैसी अंतरराष्ट्रीय नुमाइश चल रही है। अमेरिका से अरब तक और भारत से यूरोप तक मुंह छिपा रहे राजनयिकों ने नहीं सोचा था कि विकीलीक्स ( एक व्हिसिल ब्लोइंग वेबसाइट) सच की सीटी इतनी तेज बजायेगी कि कूटनीतिक रिश्तों पर बन आएगी। दुनिया के बैंक समझ नहीं पा रहे हैं कि आखिर सब उनकी कारोबारी गोपनीयता को उघाड़ क्यों देना चाहते हैं। कहीं (भारत में) कारोबारी लामबंदी बनाम निजता बहस की गरम है क्यों कि कुछ फोन टेप कई बड़े लोगों को शर्मिंदा कर रहे हैं। अदालतें सरकारी फाइलों में घुस कर सच खंगाल रही हैं। पूरी दुनिया में पारदर्शिता के आग्रहों की एक नई पीढ़ी सक्रिय है, जो संवेदनशीलता, गोपनीयता,निजता की मान्यताओं को तकनीक के मूसल से कूट रही है और सच बताने के पारंपरिक जिम्मेंदारों को पीछे छोड़ रही है। कूटनीति, राजनीति, कारोबार सभी इसके निशाने पर हैं। कहे कोई कुछ भी मगर, घपलों, घोटालों, संस्थागत भ्रष्टाचार और दसियों तरह के झूठ से आजिज आम लोगों को यह दो टूक तेवर भा रहे हैं। दुनिया सोच रही है कि जब घोटाले इतने उम्दा किस्म के हो चले हैं तो फिर गोपनीयता के पैमाने पत्थर युग के क्यों हैं ?
खतरनाक गोपनीयता
ग्रीस की संप्रभु सरकार अपने कानूनों के तहत ही अपनी घाटे की गंदगी छिपा रही थी। पर्दा उठा तो ग्रीस ढह गया। ग्रीस के झूठ की कीमत चुकाई लाखों आम लोगों ने, जो पलक झपकते दीवालिया देश के नागरिक बन गए । यूरोप अमेरिका की वित्तीय संस्थामओं ने नीतियों के पर्दे में बैठकर तबाही रच दी। अमेरिका लेकर आयरलैंड तक आम लोग अपने बैंकों के दरवाजे पीट कर यही तो पूछ रहे हैं कि यह कैसी कारोबारी गोपनीयता थी जिसमें उनका सब कुछ लुट