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Tuesday, December 22, 2015

टैक्‍सेशन की नई पीढ़ी


असंगत कर ढांचे की बहस को कालीन के नीचे दबाकर जीएसटी पर आगे बढऩा खतरनाक हो सकता है

दि हम यह याद रख पाते कि कि कच्चे तेल की ग्लोबल कीमत 37 डॉलर प्रति बैरल तक गिर चुकी है लेकिन टैक्स के कारण डीजल 46 से 54 रु. और पेट्रोल 61 से 68 रु. प्रति लीटर पर मिल रहा है तो शायद हम जीएसटी की चर्चाओं में जरूरी अर्थ भर सकते थे. यदि हम जीएसटी से ग्रोथ बढऩे की खामखयाली छोड़कर उन तजुर्बों पर बहस करते जो हमें जीएसटी के पूर्वज यानी वैल्यू एडेड टैक्स लागू करने के दौरान मिले थे तो शायद हमें जीएसटी और टैक्स सिस्टम को ठीक करने में ज्यादा मदद मिलती. बहरहाल, अब जबकि राजनीतिक पैंतरों को छोड़ लगभग पूरा सियासी कुनबा जीएसटी की जरूरत पर सहमत है तो अब मौका है कि इस बहस को दो टूक किया जाए और इसे संसद से सड़क तक ले जाया जाए क्योंकि जीएसटी, भारत की विशाल आबादी की खपत, निवेश और रोजगारों पर ऐसा असर छोड़ेगा जो पिछले कई दशकों में नजर नहीं आया है.
असंगत कर ढांचे की बहस को कालीन के नीचे दबाकर जीएसटी पर आगे बढऩा खतरनाक हो सकता है. वित्त मंत्रालय के आर्थिक सलाहकार की ताजी रिपोर्ट ने जीएसटी को लेकर 12 फीसदी की न्यू्नतम दर, सेवाओं और उत्पादों के लिए 17 से 19 फीसदी की मध्यम दर और 40 फीसदी की सर्वोच्च दरों का ढांचा सुझाया है. इन तीनों दरों की गहराई में जाना जरूरी है. 12 फीसदी की न्यूनतम दर का मतलब है कि अब केंद्र और राज्य में एक्साइज और वैट को लेकर इकाई की दरों का दौर खत्म हो जाएगा यानी कि तमाम उत्पाद जो 6-8 फीसदी टैक्स के तहत हैं उन पर 12 फीसदी टैक्स लगेगा. दूसरी दर के तहत सर्विस टैक्स 14.5 फीसदी से बढ़कर 19 फीसदी पर पहुंच जाएगा. हो सकता है पेट्रो उत्पादों के लिए एक नई दर आए जो 20 फीसदी के इर्दगिर्द होगी. लक्जरी उत्पादों के लिए 40 फीसदी की दर प्रस्तावित है. अगर दरें इतनी भी रहें तो भी जीएसटी हमें बहुत महंगा पड़ेगा.
जीएसटी का ढांचा पत पर ज्यादा और कमाई पर कम टैक्स उस पुराने सिद्धांत से निकला है जिसे बदलने की हमें जरूरत थी. कई बड़े सुधारों के बावजूद हम अपने कर ढांचे को आधुनिक, सहज और उत्साही नहीं बना सके. दुनिया के देशों में कमाई पर ज्यादा और खपत पर सीमित टैक्स लगता है लेकिन भारत के वित्त मंत्री टैक्स और कॉर्पोरेट कर घटाकर लोकप्रियता बटोरते हैं जबकि एक्साइज, सर्विस टैक्स आदि इनडाइरेक्ट रेट बढ़ाकर खुद को चतुर साबित करते हैं. डाइरेक्ट टैक्स का फायदा एक छोटे-से वर्ग को मिलता है लेकिन इनडाइरेक्ट टैक्स बढ़ते ही बहुत बड़ी आबादी की खपत सीमित हो जाती है.
टैक्स का बुनियादी सिद्धांत कहता है कि टैक्स बेस यानी करदाताओं की तादाद बढऩे के साथ कर दरें कम होनी चाहिए. लेकिन अर्थव्यवस्था में ग्रोथ के साथ उत्पादन, खपत और करदाताओं की तादाद बढऩे के बावजूद इनडाइरेक्ट टैक्स (एक्साइज, सर्विस टैक्स, सेस, सरचार्ज) लगातार बढ़े हैं. इसके बदले आयकर और कॉर्पोरेट कर की दरें घटने के बावजूद करदाताओं की संख्या बमुश्किल चार करोड़ लोगों तक पहुंची है, जो आबादी के केवल तीन फीसदी है.
वैट को लेकर हमारा तजुर्बा ताकीद करता है कि जीएसटी की अधिकतम दर तय करने का सुझाव उपयोगी है. राज्यों में सेल्स टैक्स की जगह वैल्यू एडेड टैक्स 2005 से लागू हुआ था. उसमें भी तीन तरह की दरें प्रस्तावित थीं लेकिन लागू होने के तीन साल के भीतर ही पूरा अनुशासन हवा हो गया. अब अलग-अलग राज्यों में एक ही उत्पाद पर अलग-अलग टैक्स हैं और वैट लागू होने के बाद ज्यादातर उत्पाद ऊंची कर दरों के स्लैब में चले गए हैं.
ऊंची कर दरें कारोबार को मुश्किल बनाने की सबसे बड़ी वजह हैं इसलिए कारोबारी सहजता की बहसें भी कर ढांचे पर आकर ठहर जाती हैं. एक और बड़ी विसंगति यह है कि अंतरराष्ट्रीय अनुबंधों के कारण सीमा शुल्क की दरें तेजी से घटी हैं जिनकी भरपाई एक्साइज और सर्विस टैक्स बढ़ाकर की गई. इस प्रक्रिया में देश में उत्पादन महंगा हुआ और निवेश कम और उद्योगों की प्रतिस्पर्धात्मकता घटती गई. जीएसटी की दरें नीचे रखकर ही प्रतिस्पर्धा और मांग बढ़ाने के लक्ष्य हासिल किए जा सकते हैं.
भारत में करों की पीढ़ी बदलने का वक्त आ रहा है. देश को अब ग्रीन टैक्स लगाने होंगे जो पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली खपत और उत्पादन को रोकते हों. इनमें कंजेशन टैक्स, पॉल्यूशन टैक्स, ग्रीन एनर्जी टैक्स होंगे जो दुनिया के देशों में आजमाए जा रहे हैं. इन नए करों की शुरुआत से पहले सामान्य आर्थिक खपत को महंगा करने वाले इनडाइरेक्ट टैक्स को कम करना जरूरी है अन्यथा भारत का कर ढांचा बुरी तरह असंगत होकर उद्यमिता, मांग और निवेश की उम्मीदों को ध्वस्त कर देगा.
दरअसल टैक्स की बहस सरकारी खर्च कम करने की तरफ मुडऩी चाहिए. लोकलुभावन खर्च के कारण खपत पर टैक्स (इनडाइरेक्ट) को निचोड़ा गया है. सरकारों को अपना आकार और भूमिका सीमित करनी होगी ताकि खपत सिकोडऩे वाली टैक्स थोपने की आदत से निजात मिल सके. यह कतई जरूरी नहीं है कि जीएसटी संसद के इसी सत्र में पारित हो जाए, ज्यादा जरूरी यह है कि ऐसा जीएसटी हमें मिले जो उपभोक्ता और निवेशक के तौर पर हमारी मुसीबतें कम करता हो. अगर ऊंचे टैक्स वाला जीएसटी लागू हुआ तो इसके नतीजे न केवल आर्थिक तौर पर विस्फोटक होंगे बल्कि राजनीतिक तौर पर भी इनका विपरीत असर होगा.
जीएसटी के ताजा विमर्श में इन सवालों से मुठभेड़ बेहद जरूरी है कि क्या जीएसटी का मौजूदा ढांचा भारत में निवेश और कारोबार को आसान करेगा? क्या जीएसटी कर ढांचे में वह असंगतियां दूर करेगा जिनके कारण हम खपत पर लगे भारी टैक्सों का देश हो गए हैं, जो मांग और बेहतर जीवन स्तर की उम्मीदों का गला घोंटते है? और क्या हम जीएसटी के बाद ऐसी व्यवस्था बनते देख पाएंगे जो सरकार को टैक्स लगाने पर नहीं बल्कि फालतू के खर्च सीमित करने पर प्रेरित करती हो? ये तीनों सवाल एक-दूसरे से जुड़े हैं और उपभोक्ताओं, व्यापारियों और निवेशकों को संसद की बहस से इन सवालों के माकूल जवाब चाहिए क्योंकि, एक अदद खराब जीएसटी हमें कहीं का नहीं छोड़ेगा.

Monday, July 4, 2011

सरकार वही, जो दर्द घटाये !

मेरिका ने फ्रांस को कुछ समझाया। फ्रांस ने स्पेन व इटली को हमराज बनाया। जापान और कोरिया भी आ जुटे। गोपनीय बैठकें, मजबूत पेशबंदी और फिर ताबडतोड़ कार्रवाई।.. पेट्रोल के सुल्तान यानी तेल उत्पाटदक मुल्कं (ओपेक) जब तक कुछ समझ पाते तब तक दुनिया के तेल बाजार में एक्शन हो चुका था। बात बीते सप्ताह की है जब अमेरिका, जापान, फ्रांस, जर्मनी के रणनीतिक भंडारों से छह करोड़ बैरल कच्चा तेल बाजार में पहुंच गया। तेल कीमतें औंधे मुंह गिरीं और ओपेक देश, अपनी जड़ें हिलती देखकर हिल गए। तेल कारोबार दुनिया ने करीब 20 साल बाद आर-पार की किस्म वाली यह कार्रवाई देखी थी। तेल कीमतों में तेजी तोड़ने की यह आक्रामक मुहिम उन देशों की थी जो महंगाई में पिसती जनता का दर्द देख कर सिहर उठे हैं। पिघल तो चीन भी रहा है। वहां मुक्त बाजार में मूल्य नियंत्रण लागू है यानी कंपनियों के लिए मूल्‍य वृद्धि की सीमा तय कर दी गई है। जाहिर सरकार होने के एक दूसरा मतलब दर्दमंद, फिक्रमंद और संवेदनशील होना भी है। मगर अपनी मत कहियें यहां तो महंगाई के मारों पर चाबुक चल रहा है। जखमों पर डीजल व पेट्रोल मलने के बाद प्रधानमंत्री ने महंगाई घटने की अगली तरीख मार्च 2012 लगाई है।
पेट्रो सुल्ता्नों से आर पार
वाणिज्यिक बाजार के लिए रणनीतिक भंडारों से तेल ! यानी आपातकाल के लिए तैयार बचत का रोजमर्रा में इस्तेमाल। तेल बाजार का थरथरा जाना लाजिमी था। विकसित देशों के रणनीतिक भंडारों से यह अब तक की सबसे बड़ी निकासी थी। नतीजतन बीते सप्ताह तेल की कीमतें सात फीसदी तक गिर गईं। बाजार में ऐसा आपरेशन आखिरी बार 1991 में हुआ था। यह तेल उत्पादक (ओपेक) देशों की जिद को सबक व चुनौती थी। मुहिम अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी की थी और गठन (1974) के बाद उसकी यह तीसरी ऐसी कार्रवाई है। ओपेक के खिलाफ यह पेशबंदी मार्च में लीबिया पर मित्र देशों के हमले

Monday, June 13, 2011

सरकारें हैं कि मानती नहीं

स ट्यूनीशियाई ने जुलूस में फूटा अपना सर चीनी को दिखाया तो चीन वाले के चेहरे पर जमीन छिनने का दर्द उभर आया। इजिप्टयन ने कराहते हुए अपनी व्यथा सुनाई तो यमन वाले को भी पुलिस की मार याद आई। चुटहिल ग्रीक, हैरान आयरिश, नाराज सीरियाई, खफा स्पेनिश और गुस्सा भारतीय सभी एक साथ बड़बड़ाये कि सरकारें अगर गलत हों तो सही होना बहुत खतरनाक है। (वाल्तेयर)..... यह सरकारों के विरोध का अंतरराष्ट्रीय मौसम है। एक चौथाई दुनिया सरकार विरोधी आंदोलनों से तप रही है। रुढि़वादी अरब समाज ने छह माह में दुनिया को दो तख्ता पलट ( इजिप्ट और ट्यूनीशिया) दिखा दिये। चीन में विरोध अब पाबंदियों से नहीं डरता। अमीर यूरोप में जनता सड़क पर हैं तो पिछड़े अफ्रीका में लोग सामंती राज से भिड़े हुए हैं। लगभग हर महाद्वीप के कई प्रमुख देशों में आम लोगों की बददुआओं पर अब केवल सरकारों का हक है। सरकारों के यह भूमंडलीय दुर्दिन हैं और देशों व संस्कृंतियों से परे सभी आंदोलन महंगाई और भ्रष्टांचार जैसी पुरानी समस्या ओं के खिलाफ शुरु हुए हैं जो बाद में किसी भी सीमा तक चले गए। लेकिन सरकारें कभी वक्त पर नसीहत नहीं लेतीं क्यों कि उन्हें इतिहास बनवाने का शौक है।
चीन का भट्टा पारसौल
जमीनों में विरोध कई जगह उग रहा है। चीन फेसबुक या ट्विटर छाव विरोध (जास्मिन क्रांति) से नहीं बल्कि हिंसक आंदोलनों से मुकाबिल है। जमीन बचाने के लिए चीन के किसान कुछ भी करने को तैयार हैं। जिआंग्शी प्रांत के फुझोउ शहर में जानलेवा धमाकों के बाद चीन में अचल संपत्ति पर कब्जे की होड़ का भयानक चेहरा सामने आ गया। फुझोउ से सटे ग्रामीण इलाकों जमीन बचाने के लिए आत्मेहत्याओं से शुरु हुइ बात सरकार पर जानलेवा हमलों तक जा पहुंची है। चीन का विकास हर साल करीब 30 लाख किसानों से जमीन छीन रहा है। विरोध से हिले बीजिंग ने जमीन अधिग्रहण के लिए नया कानून बना लिया मगर लागू नहीं हुआ अलबत्ता चीन में नेल हाउसहोल्ड नाम एक ऑनलाइन गेम

Monday, May 30, 2011

कुर्बानी का मौसम

रा देखिये तो कि पेट्रो कीमतों के फफोले भूलकर आप दुनियावी बाजार के सामने सरकार की लाचारी पर किस तरह पिघल गए ? जरा गौर तो करिये कि तेल कंपनियों की बैलेंस शीट ठीक रखने के लिए कितने फख्र के साथ बलिदानी चोला पहन लिया। महसूस तो करिये सब्सिडीखोर होने की तोहमत से बचने के लिए आप सरकार के पेट्रो सुधारों पर किस अदा के साथ फिदा हो गए।..... गलती आपकी नहीं है, दरअसल यह मौसम ही कुर्बानी का है। बैंकों से लेकर बाजार तक और तेल कंपनियों से लेकर सरकार तक सब आम लोगों से ही कुर्बानी मांग रहे हैं, और हम भी कभी मजबूरी में तो कभी मौज में बहादुरी दिखाये जा रहे हैं। मगर इससे पहले कि शहादत का नया परवाना (पेट्रो कीमतों में अगली बढ़ोतरी ) आपके पास पहुंचे, सभी सिक्कों के दूसरे पहलू देख लेने में कोई हर्ज नहीं है। पेट्रो उत्पादों पर टैक्स और सब्सिडी के तंत्र को सिरे से परखने की जरुरत बनती है क्योंभ कि पेट्रो कीमतों में हमाम में दुनिया अन्य देश भी हमारे जैसे ही हैं। इस असंगति से मगजमारी करने में कोई हर्ज नहीं है कि हजारों करोड़ की सब्सिडी बाबुओं जेब में डालने वाली सरकार, सब्सिडी को महापाप बताकर हमें महंगे पेट्रोल डीजल की आग में झोंक देती है। यह गुत्थी खोलने की कोशिश जरुरी है कि लोक कल्याणकारी राज्य के तहत बाजार में सरकार के हस्तक्षेप की जरुरत कब और क्योंी होती है। यह सवाल उठाने में हिचक कैसी कि देश की कथित जनप्रिय सरकारों को पेट्रोल पर टैक्स कम करने से किसने रोका है? और यह तलाशना भी आवश्यक है कि भारत में पेट्रो उत्पादों की मांग अन्य ऊर्जा स्रोतों की किल्लत के कारण बढ़ी है या सिर्फ ग्रोथ के कारण।
सब्सिडी का हमाम
पेट्रो सब्सिडी की हिमायत और हिकारत पर बहस से बेहतर है कि इसकी असलियत देखी जाए। पेट्रो सब्सिडी पर शर्मिंदा होने की जरुरत तो कतई नहीं है क्यों कि इस पृथ्वी तल पर हम अनोखे नहीं हैं, जहां सरकारें अंतरराष्ट्रीय पेट्रोकीमतों की आग पर सब्सिडी का पानी पर डालती हैं। आईएमएफ का शोध बताता है कि 2003 में पूरी दुनिया में पेट्रोलियम उत्पादों पर उपभोक्ता सब्सिडी केवल 60 अरब डॉलर थी जो 2010 में 250 अरब डॉलर पर पहुंच गई। 2007 से दुनिया की तेल कीमतों में आए उछाल के बाद सब्सिडी घटाने की मुहिम हांफने लगी और पूरी दुनिया अपनी जनता को सब्सिडी का मलहम

Monday, May 2, 2011

तख्ता पलट महंगाई !

क सरकार ने दूसरी से खुसफुसाकर पूछा क्या इजिप्ट की बगावत यकीनन खाद्य उत्पादों की महंगाई से शुरु हुई थी? मुद्रा कोष (आईएमएफ) तो कह रहा है कि यमन व ट्यूनीशिया की चिंगारी भी महंगाई से भड़की थी।.. जरा देखो तो, महंगे ईंधन के कारण गुस्साये शंघाई के हड़ताली ट्रक वालों को सख्त चीन ने कैसे पुचकार कर शांत किया।... महंगाई के असर से तख्ता पलट ?? सरकारों में खौफ और बेचैनी उफान पर है। लाजिमी भी है, एक तरफ ताजे जन विप्ल‍वों की जड़ें महंगाई में मिल रही हैं तो दूसरी तरफ बढ़ती कीमतों का नया प्रकोप आस्ट्रेलिया से लेकर अमेरिका तक, चिली से चीन तक और रुस से चीन से अफ्रीका तक पूरी दुनिया को लपेट रहा है। पिछले छह माह में महंगाई एक अभूतपूर्व सार्वभौमिक आपदा बन गई है। मुद्रास्फीति से डरे अमेरिकी फेड रिजर्व के मुखिया बेन बर्नांके (सौ साल पुरानी परंपरा तोड़ कर) को बीते सप्ताह मीडिया को सफाई देने आना पड़ा। यूरोप में सस्‍ते कर्ज की दुकानें बंद हो गईं और चीन कीमतों महंगाई रोकने के लिए ग्रोथ गंवाने को तैयार है। भारत तो अब महंगाई की आदत पड़ गई है। भूमंडलीय महंगाई की यह हाल फिलहाल में यह सबसे डरावनी नुमाइश है। बढ़ती कीमतें यूरोप व अमेरिका में बेहतरी की उम्मीदों की बलि मांग रही हैं जबकि उभरती अर्थव्यवस्थाओं अपनी तेज ग्रोथ का एक हिस्सा इसे भेंट करना होगा। फिर भी राजनीतिक खतरे टलने की गारंटी नहीं है।
सबकी जेब में छेद
मंदी व संकटों से छिली दुनिया के जख्मों पर महंगाई का अभूतपूर्व नमक बरसने लगा है। महंगाई अब अंतरराष्ट्रीय मुसीबत है। पूरा आसियान क्षेत्र मूल्य वृद्धि से तप रहा है। वियतनाम, थाइलैंड, इंडोनेशिया, सिंगापुर में महंगाई तीन से दस फीसदी तक है। चीन में जब उपभोक्ता उत्पाद पांच फीसदी से ज्यादा महंगे हुए तो सरकार ने कीमतें बढ़ाने पर पाबंदी लगा दी। महंगाई से डरा चीन अपने युआन को मजबूत करने अर्थात निर्यात वृद्धि से समझौते को तैयार है। भारत दो साल 13 फीसदी महंगाई जूझ रहा है। रुस आठ फीसदी, यूरोजोन दो फीसदी, ब्रिटेन 3.3 फीसदी, पोलैंड तीन फीसदी

Monday, March 7, 2011

बजट तो कच्चा है जी !

अथार्थ
गरबत्ती का बांस, क्रूड पाम स्टीरियन, लैक्टोज, टैनिंग एंजाइन, सैनेटरी नैपकिन, रॉ सिल्क पर टैक्स ......! वित्त मंत्री मानो पिछली सदी के आठवें दशक का बजट पेश कर रहे थे। ऐसे ही तो होते हैं आपके जमाने में बाप के जमाने के बजट। हकीकत से दूर, अस्त व्यस्त और उबाऊ। राजनीति, आर्थिक संतुलन और सुधार तीनों ही मोर्चों पर बिखरा 2011-12 का बजट सरकार की बदहवासी का आंकड़ाशुदा निबंध है। महंगाई की आग में 11300 करोड़ रुपये के नए अप्रत्यक्ष करों का पेट्रोल झोंकने वाले इस बजट और क्‍या उम्मीद की जा सकती है। इससे तो कांग्रेस की राजनीति नहीं सधेगी क्यों कि इसने सजीली आम आदमी स्कीमों पर खर्च का गला बुरी तरह घोंट कर सोनिया सरकार (एनएसी) के राजनीतिक आर्थिक दर्शन को सर के बल खड़ा कर दिया है। सब्सिडी व खर्च की हकीकत से दूर घाटे में कमी के हवाई किले बनाने वाले इस बजट का आर्थिक हिसाब किताब भी बहुत कच्चा है। और रही बात सुधारों की तो उनकी चर्चा से भी परहेज है। प्रणव दा ने अपना पूरा तजुर्बा उद्योगों के बजट पूर्व ज्ञापनों पर लगाया और कारपोरेट कर में रियायत देकर शेयर बाजार से 600 अंकों में उछाल की सलामी ले ली। ... लगता है कि जैसे बजट का यही शॉर्ट कट मकसद था।
महंगाई : बढऩा तय
इस बजट ने महंगाई और सरकार में दोस्ती और गाढ़ी कर दी है। अगले वर्ष के लिए 11300 करोड़ रुपये और पिछले बजट में 45000 करोड़ रुपये नए अप्रत्यक्ष करों के बाद महंगाई अगर फाड़ खाये तो क्या अचरज है। चतुर वित्त मंत्री ने महंगाई के नाखूनों को पैना करने का इंतजाम छिपकर किया है। जिन 130 नए उत्पादों को एक्साइज ड्यूटी के दायरे में लाया गया है उससे पेंसिल से लेकर मोमबत्ती तक दैनिक खपत वाली

Monday, January 24, 2011

टाइम बम पर बैठे हम

अर्थार्थ
र्थव्यथवस्था के डब्लूटीसी या ताज (होटल) को ढहाने के लिए किसी अल कायदा या लश्क र-ए-तैयबा की जरुरत नहीं हैं, आर्थिक ध्वंस हमेशा देशी बमों से होता है जिन्हें कुछ ताकतवर, लालची, भ्रष्टं या गलतियों के आदी लोगों एक छोटा का समूह बड़े जतन के साथ बनाता है और पूरे देश को उस बम पर बिठाकर घड़ी चला देता है। बड़ी उम्मीदों के साथ नए दशक में पहुंच रही भारतीय अर्थव्यवस्था भी कुछ बेहद भयानक और विध्वंसक टाइम बमों पर बैठी है। हम अचल संपत्ति यानी जमीन जायदाद के क्षेत्र में घोटालों की बारुदी सुरंगों पर कदम ताल कर रहे हैं। बैंक अपने अंधेरे कोनों में कई अनजाने संकट पाल रहे हैं और एक भीमकाय आबादी वाले देश में स्थांयी खाद्य संकट किसी बड़ी आपदा की शर्तिया गारंटी है। खाद्य आपूर्ति, अचल संपत्ति और बैंकिग अब फटे कि तब वाले स्थिति में है। तरह तरह के शोर में इन बमों की टिक टिक भले ही खो जाए लेकिन ग्रोथ की सोन चिडि़या को सबसे बड़ा खतरा इन्ही धमाकों से है।
जमीन में बारुद
वित्तीय तबाहियों का अंतरराष्ट्रीय इतिहास गवाह है कि अचल संपत्ति में बेसिर पैर के निवेश उद्यमिता और वित्तीय तंत्र की कब्रें बनाते हैं। भारत में येदुरप्पाओं, रामलिंग राजुओं से लेकर सेना सियासत, अभिनेता, अपराधी, व्यायपारी, विदेशी निवेशक तक पूरे समर्पण के साथ अर्थव्ययवस्था में यह बारुदी सुरंगे बिछा रहे हैं। मार्क ट्वेन का मजाक (जमीन खरीदो क्यों कि यह दोबारा नहीं बन सकती) भारत में समृद्ध होने का पहला प्रमाण है। भ्रष्ट राजनेता, रिश्वतखोर अफसर, नौदौलतिये कारोबारी, निर्यातक आयातक और माफिया ने पिछले एक दशक में जायदाद का

Monday, January 17, 2011

हाकिम जी, सरकार खो गई !

अथार्थ
कितने बेचारे हैं हमारे हाकिम!.. एक मंत्री कहते हैं बाबा माफ करो, हमसे नहीं थमती महंगाई।.. बोरा भर कानून और भीमकाय अफसरी ढांचे वाली सरकार की यह मरियल विकल्पहीनता तरस के नहीं शर्मिंदगी के काबिल है। तो एक दूसरे हाकिम महंगाई से कुचली जनता को निचोड़ने के लिए तेल कंपनियों को खुला छोड़ देते है कोई चुनाव सामने जो नहीं है ! …. करोड़ो की सब्सिडी लुटाने वाली सरकार की यह अभूतपूर्व निर्ममता उपेक्षा के नहीं क्षोभ के काबिल है। एक तीसरे हाकिम को संवैधानिक संस्था (सीएजी) की वह रिपोर्ट ही फर्जी लगती है, जिस के आधार पर मंत्री, संतरी और कंपनियों तक को सजा दी जा चुकी है।... सरकार की यह बदहवासी हंसी के नहीं हैरत के काबिल है। सरकार के मंत्री अब काम नहीं करते बल्कि लड़ते हैं, कैबिनेट की बैठकों में उनके झगड़े निबटते हैं और जिम्मेदार महकमे अब एक दूसरे को उनकी सीमायें (औकात) दिखाते हैं सरकार में यह बिखराव आलोचना के नहीं दया के काबिल है। इतनी निरीह, निष्प्रभावी, बदहवास, बंटी, बिखरी और नपुंसक गवर्नेंस या सरकार आपने शायद पहले कभी नहीं देखी होगी। प्रधानमंत्री कार्यालय से लेकर सेना और सुप्रीम कोर्ट से लेकर सतर्कता आयोग तक देश की हर उच्च संस्था की साख इतना वीभत्स जुलूस भी पहली बार ही निकला है और इतना दिग्भ्रमित, निष्प्रयोज्य, नगण्य और बेअसर विपक्ष भी हमने पहली बार देखा है। ...यह अराजकता अद्भुत है। हम बेइंतिहा बदकिस्म्त हैं। हमारी सरकार कहीं खो गई है।
गलाघोंट गठबंधन
राजनीति में युवा उम्मीद (?) राहुल गांधी कहते हैं कि महंगाई रोकने में गठबंधन आड़े आता है। अभी तक तो हम गठबंधन की राजनीति का यशोगान सुन रहे थे। विद्वान बताते थे कि गठबंधन एक दलीय दबदबे को संतुलित करते हैं और क्षेत्रीय राजनीति को केंद्र में स्वर देते हैं। सुनते थे कि भारत ने गठबंधन की राजनीति का सुर साध लिया है और अब राज्यों की सरकारों को भी यह संतुलित रसायन उपलबध हो गया है। लेकिन महंगाई थामने में बुरी तरह हारी कांग्रेस को गठबंधन गले की फांस लगने लगा। गठबंधन की राजनीति के फायदों का तो पता नहीं अलबत्ता महंगाई और भ्रष्टाचार से क्षतविक्षत जनता से यह देख रही है कि राजनीतिक गठजोड़ अब लाभों के