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Saturday, October 26, 2019

दांंव पर रोशनी


भारत की मौजूदा आर्थिक ढलान अगर लंबी चली तो?
ताजा आकलनों की मानें तो खतरा भरपूर है. अगर ऐसा हुआ तो अब, भारत के लिए उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि दांव पर है. हाल के दशकों में तेज विकास की मदद से भारत ने गरीबी कम करने में निर्णायक सफलता हासिल की है, मंदी का ग्रहण इसी रोशनी पर लगा है. विश्व बैंक और आइएमएफ के अगले आकलन भारत में गरीबी बढ़ने पर केंद्रित हों तो चौंकिएगा नहीं.

विश्व बैंक मानता है कि पिछले एक दशक में दुनिया में गरीबी की दर को आधा करने (2005 से 2015) की सफलता में भारत की भूमिका सबसे बड़ी है. संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) विश्व में बहुआयामी गरीबी नाप-जोख करता है. इसकी ताजा रिपोर्ट (2018) बताती है कि भारत दुनिया का पहला देश है जिसने 2005-06 से 2015-16 के बीच करीब 27 करोड़ लोगों को गरीबी की रेखा से बाहर निकाला और आबादी के प्रतिशत के तौर पर गरीबी करीब आधी यानी 55 फीसद से 28 फीसद रह गई. गरीबी में यह कमी गांव और शहर दोनों जगह हुई.

गरीबी में यह कमी भारत की सतत तेज आर्थिक विकास दर (औसत सात फीसद) के चलते आई लेकिन अब तो एक साल से कम समय में भारत (जुलाई ’18 से जुलाई ’19) दुनिया की सबसे तेज दौड़ती अर्थव्यवस्था से सबसे तेजी से धीमी पड़ती अर्थव्यवस्था में बदल गया है. यह गिरावट लंबी और तीखी है व गहरी भी.

रिजर्व बैंक, इक्रा या इंडिया रेटिंग्स से लेकर विश्व बैंक, आइएमएफ, मूडीज, फिच ने भारत की विकास दर के आकलन में बहुत कम समय में बहुत बड़ी (0.70 से एक फीसद तक) कटौती कर दी है जो अभूतपूर्व है. 

इस पर तुर्रा यह कि किसी भी एजेंसी को कम से कम 2022 तक ग्रोथ में तेजी की यानी 7 फीसद से ऊपर की विकास दर की उम्मीद नहीं है. ग्लोबल बाजार में मंदी आने का खतरा अलग से है. यानी कि कमाई, बचत, खपत की यह जिद्दी मंदी लंबी चलेगी और आठ-नौ फीसद या दहाई की विकास दर तो अब उम्मीदों की बहस से भी बाहर है.

ढहती ग्रोथ गरीबी से लड़ाई को कैसे कमजोर करेगी, इसके लिए हमें भारत की मंदी की जटिल परतों को खोलना होगा, जहां से पिछले दशक में आय में बढ़ोतरी निकली थी.

·       जीडीपी (जीवीए यानी मूल्य वर्धन पर आधारित) में खेती का हिस्सा (2014 से 2017 के बीच) 18.6 फीसद से 17.9 फीसद रह गया. खेती में न उत्पादन का मूल्य बढ़ा और न कमाई. यही वजह है कि 2018-19 में जीडीपी की विकास दर टूट गई

·       फैक्ट्री उत्पादन 81 माह के न्यूनतम पर है और पिछले तीन साल से बमुश्किल दो फीसद की गति से बढ़ रहा है. पिछले पांच साल में निजी औद्योगिक निवेश 11 साल के न्यूनतम स्तर पर आ गया. कंपनियों की बिक्री नहीं बढ़ रही लेकिन कॉर्पोरेट टैक्स घटाने से मुनाफे बढ़े हैं. मांग आने तक कोई नए निवेश का जोखिम लेने को तैयार नहीं है 

·       छोटे उद्योग, जहां से कमाई और रोजगार आते हैं वहां कर्ज का संकट गहरा रहा है. रिजर्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार, छोटे उद्योगों में कर्ज का बोझ बढ़ने की दर उनका उत्पादन बढ़ने की दोगुनी है

·       और सबसे महत्वपूर्ण यह कि यह मंदी विदेशी निवेश के रुपए के पर्याप्त अवमूल्यन (प्रतिस्पर्धा में बढ़त), भरपूर उदारीकरण, महंगाई में कमी, कई बड़े सुधारों (दिवालियापन कानून, रेरा, जीएसटी), सरकारी खर्च में जोरदार बढ़त और ब्याज दरों में कमी के बावजूद आई है

·       ग्रामीण मजदूरी की घटती दर, खेती में ज्यादा लोगों का रोजगार के लिए पहुंचना और गांवों में मनरेगा के लिए युवा मजदूरों की भरमार गांवों में गरीबी बढ़ने के शुरुआती संकेत हैं. शहरों में करीब 8 करोड़ लोग भवन निर्माण और छोटे उद्योगों में मंदी की मार झेल रहे हैं. यह बेकारी दर राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है

ये मूलभूत कारण हैं जिनसे भारत में आय, खपत और बचत में जल्दी सुधार को लेकर असमंजस है और दुनिया की एजेंसियां भारत में मंदी के टिकाऊ होने को लेकर फिक्रमंद हैं. पिछले आर्थिक संकटों (लीमन का डूबना, अमेरिका में ब्याज दर बढ़ने का डर, चीन की मुद्रा के अवमूल्यन) के दौरान भारत की विकास दर तेजी से वापस लौटी. लेकिन इस बार ऐसा नहीं है. भारतीय अर्थव्यवस्था क्रमश: धीमी पड़ी है. यानी लोगों की समग्र आय क्रमश: घट रही है.

हैरत की बात है कि पिछले पांच साल में सरकार ने गरीबी की पैमाइश और पहचान के नए फॉर्मूले को तैयार करने का काम ही रोक दिया. नीति आयोग ने जून 2017 में अपनी रिपोर्ट में कहा कि गरीबों की पहचान या लोगों की आय नाप-जोख जरूरी नहीं है, इससे बेहतर है कि सरकारी योजनाओं के असर को मापा जाए.

ठीक उस वक्त हमें जब गरीबी के अन्य जटिल आयामों (मौसम, बीमारी, विस्थापन, विकास) के समाधान तलाशने थे और एक न्यूनतम जीवन स्तर उपलब्ध कराना था, हमारे पास गरीबों की पहचान का आधुनिक फॉर्मूला नहीं है और दूसरी तरफ ढहती ग्रोथ एक बड़ी आबादी को वापस गरीबी की खाई में ढकेलने वाली है. यह वक्त चुनावी शोर से बाहर निकल कर सच से नजरें मिलाने का है. यह मंदी 25 साल में भारत की सबसे बड़ी उपलब्धि के लिए सबसे बड़ा अपशकुन है.


Sunday, March 31, 2019

न्यूनतम आय-अधिकतम सुधार




इससे पहले कि आप मोदी की किसान सहायता और राहुल की न्यूनतम इनकम गारंटी पर कुश्ती में उतरेंयह जान लेना जरूरी है कि देश के सभी राजनैतिक दलों ने यह मान लिया है कि सरकारी स्कीमों की बारात से देश के गरीबों की जिंदगी में कोई रोशनी नहीं पहुंची है

यही वजह है कि रिकॉर्ड फसल समर्थन मूल्य के ऐलान के बाद मोदी सरकार किसान नकद सहायता (छोटे सीमांत किसानों को प्रति परिवार 6,000 रुपए सालाना) देने पर मजबूर हुई और गरीबों के लिए कांग्रेस को 6,000 रुपए प्रति माह की आय का वादा करना पड़ा.

यह सवाल बेमानी है कि इस तरह की स्कीमें मौजूदा सब्सिडी के साथ कैसे लागू की जाएंगीदुनिया से जुड़ा भारत का स्वतंत्र वित्‍तीय बाजार किसी भी नेता से ज्यादा ताकतवर है. घाटे के चलते साल के बीच में खर्च काटने वाली सरकारों को ऐसी स्कीमों के लिए खर्च का गणित बदलना होगा चाहे वह मोदी की किसान सहायता हो या कांग्रेस की इनकम गारंटी.

इसलिएइस बहस को आगे बढ़ाते हैं. 

प्रतिस्पर्धी राजनीति भारत को ऐसे सुधार की दहलीज पर ले आई है जिसकी चर्चा से ही सरकारें डरती हैं. स्कीमों पर खर्च के ढांचे में बदलाव से सरकारी विभागों का भीमकाय भ्रष्टाचारी ढांचा यानी मैक्सिमम गवर्नमेंट खत्म किया जा सकता है.

इसलिए इनकम गारंटी की बहस उर्फ स्कीमों की असफलता का इलहाम बेहद कीमती हैजो अगर नतीजे तक पहुंची तो सबसे बड़ा सुधार हकीकत बन सकता है

मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदीदोनों ही एक घाट फिसले हैं. सरकारी स्कीमों की भीड़ बढ़ती गई और नतीजे रहे सिफर... आर्थिक समीक्षा (2016-17) के हवाले से कुछ नमूने पेश हैं

- आखिरी गिनती तक करीब 950 केंद्रीय स्कीमें केंद्र के बजट की गोद में खेल रही थींजिन पर जीडीपी (वर्तमान मूल्य) के अनुपात में 5 फीसदी (करीब 7 लाख करोड़ रुपए) का बजट आवंटन होता है. इनमें 11 बड़ी स्कीमें (मनरेगाअनाज सब्सिडीमिड डे मीलग्राम सड़कप्रधानमंत्री आवासफसल बीमास्वच्छ भारतसर्व शिक्षा आदि) सबसे ज्यादा आवंटन हासिल करती हैं. केंद्र सरकार की स्कीमों में कुछ तो 15 साल और कुछ 25 साल पुरानी हैं. राज्यों की स्कीमों को जोडऩे के बाद संख्‍या खासी बड़ी हो जाती है.  

- यह दर्द पुराना है कि स्कीमों के फायदे जरूरतमंदों तक नहीं पहुंचते. सरकार का अपना हिसाब बताता है कि छह प्रमुख स्कीमों (आवास योजनासर्व शिक्षामिड डे मीलग्राम सड़कमनरेगास्वच्छ भारत) के सबसे कम फायदे उन जिलों को मिले जहां सबसे ज्यादा गरीब बसते हैंजबकि जहां गरीब कम थे वहां ज्यादा संसाधन पहुंचे.

- यही वजह है कि करीब 40 फीसदी लक्षित लोगों को राशन प्रणाली और 65 फीसदी जरूरतमंदों को मनरेगा का लाभ नहीं मिलता. यही हालत अन्य स्कीमों की भी है यानी सीधी चोरी.

- मोदी सरकार की ताजा स्कीमों (उज्ज्वलासौभाग्य) के आंकड़े भी इसकी तस्दीक करते हैं.

अगर सियासी दल इनकम गारंटी की हिम्‍मत कर रहे हैं तो पांच बड़ी सब्सिडी स्कीमें बंद करने का साहस भी दिखाएं. केवल पेट्रो और अनाज सब्सिडी पर जीडीपी का 1.48 फीसदी खर्च होता है. ऐसा करते ही लोगों के हाथ में सीधे धन पहुंचाने का रास्ता खुल सकता है और सरकार का विशाल ढांचा सीमित हो जाएगा. 

अगर राज्यों को संसाधनों के आवंटन को भी इससे जोड़ा जाए और राज्यों के स्कीम खर्च को सीमित किया जाए तो यह सुधार खर्च बढ़ाने के बजाए दरअसल बजटीय अनुशासन लेकर आएगा. 

लोगों के खाते में सीधे धन पहुंचाने की व्यवस्था (डीबीटी) स्थापित हो चुकी है. बैंक खाते में एलपीजी सब्सिडी की सफलता सबसे बड़ा प्रमाण है. इस तर्क के समर्थन में पर्याप्त अध्ययन उपलब्ध हैं कि लोगों के हाथ में धन अर्थव्यवस्था में मांग को बढ़ाता है

गरीबों को न्यूनतम आय के साथ शिक्षास्वास्थ्य आदि जरूरी सेवाओं में निजी प्रतिस्पर्धा और उपभोक्‍ताओं के लिए लागत में कमी जरूरी है. इसे नीतिगत व नियामक उपायों से सुरक्षित किया जा सकता है. यह सुधार भी लंबे समय से लटका हुआ है. सरकार के खर्च में और बाजार का पारदर्शी विनियमनअर्थव्‍यवस्‍था को बस यही तो चाहिए.

जिस तरह 1991 में भारत की आर्थिक नीतियां लगभग चरमरा चुकी थींठीक वही हालत सरकारी खर्च और कल्याण स्कीमों की है. इस कोशिश की सबसे बड़ी चुनौती इनका प्रतीकवाद है. स्कीमों की भीड़ के कारण कुछ सौ रुपए की पेंशनछोटी-सी सहायता या मामूली सा बीमा ही मुमकिन है. इसलिए इनमें लोगों की रुचि नहीं होती है.  

देश को तेज आर्थिक विकास के साथ अधिकतम एक या दो बड़े हितलाभ वाली कल्याण स्कीमें चाहिए. कोई फर्क नहीं पड़ता कि यह काम मोदी करें या कांग्रेस लेकिन यह सुधार अपरिहार्य है.



Tuesday, January 29, 2019

गरीबी की पहेली



यदि सरकारों से आप सुविचारिततर्कसंगत और लक्ष्यबद्ध होने की उम्मीद करते हैं तो अपना माथा ठोंक लीजिये...नोटबंदी और सरकारी नौकरियों तथा शिक्षण संस्थाओं में गरीबों को आरक्षण में समानता को पकडिय़ेआपको सरकार पर फिदा होना पड़ेगा.

नोटबंदी में सरकार को यह पता नहीं था कि उसे इस आर्थिक भूकंप से हासिल क्या करना है. नोटबंदी से पहले सरकार के पास देश में काले धन के आंकड़े नहीं थे और नए आरक्षण के बाद देश के गरीबों को यह पता नहीं कि उन्हें इससे कैसे और क्या मिलेगा क्योंकि सरकार ने गरीबी यानी कमाई को नापने-जोखने या गरीबों को पहचानने की योजना ही मुल्तवी कर दी.

सियासत आत्‍मघाती तौर पर तदर्थवादी है इसलिए गरीबी कम करने की योजनायें अमीरों को और अमीर करती हैं. चुनाव से पहले किसी को गरीबों के लिए न्‍यूनतम आय (मिनिमम बेसिक इनकम) की याद भी आ गई. लेकिन वे गरीब कौन से होंगे जिन्‍हें यह खैरात मिलेगी?

गरीबी की पैमाइश का ताजा किस्सा बेहद दिलचस्प है

हुआ यह कि मार्च2015 में सरकार ने नीति आयोग के तत्कालीन उपाध्यक्ष अरविंद पानगडिय़ा की अगुआई में 14 सदस्यीय दल बनाया जिसे 31 अगस्त2015 तक गरीबी की नई परिभाषा तय करनी थी और गरीबी कम करने की रणनीति बनानी थी. कार्यकाल विस्तार के बाद जून2017 में इसकी रिपोर्ट प्रधानमंत्री तक आ गईतब तक गरीबों को आरक्षण देने का सरकार का कोई इरादा न था और गरीबी या लोगों की आय नाप-जोख को गैर जरूरी मान लिया गया था.

इस रपट का आधार बने एक अध्ययन (यह पंक्तियां लिखे जाने तक नीति आयोग की वेबसाइट पर उपलब्ध) के मुताबिक...

- 2009 में सुरेश तेंदुलकर समिति ने गरीबी मापने के फार्मूले (खपत खर्च बनाम कमाई) को नए सिरे से तय कियाजिसके तहत पांच लोगों के ग्रामीण परिवार में प्रतिमाह 4,080 रुपए और शहरों में 5,000 रुपए से कम कमाई वाले लोग गरीबी की रेखा से नीचे हैं. रंगराजन समिति ने इसे संशोधित किया था लेकिन उससे गरीबी और ज्यादा बढ़ी हुई नजर आने लगी. इसलिएबकौल नीति आयोगसुरेश तेंदुलकर की गणना ही आधिकारिक गरीबी रेखा है. हालांकि इसमें कई खामियां हैं.

- मोदी सरकार ने सरकारी स्कीमों (उज्ज्वलाबिजलीशौचालय) के लाभार्थियों की पहचान के लिए 2011 के सामाजिक आर्थिक सर्वेक्षण का इस्तेमाल शुरू किया. हालांकि यह सर्वे केवल ग्रामीण आबादी के लिए है और इसमें परिवारों की पूरी आय या खर्च की गणना नहीं की जाती.

- नीति आयोग ने इस विकल्प को भी टटोला कि गरीबी की रेखा तय करने के बजाय देश की सबसे निर्धन 30 फीसदी आबादी की जिंदगी में बेहतरी पर नजर रखकर गरीबी में कमी मापी जाए जैसा कि विश्व बैंक ने हाल में किया है

- अंततः यह कहते हुए कि गरीबी की रेखा तय करने का मकसद गरीबी में कमी को नापना है न कि गरीबों की पहचान के लिए किसी फार्मूले की जरूरत नहीं है...नीति आयोग ने (बकौल दस्तावेज) गरीबों की पहचान की कोशिश को छोड़ दिया और सरकारी स्कीमों के असर पर मुखातिब हो गया.
आर्थिक आरक्षण से पहले सूरते हाल यह है

गरीबी की कोई एक पैमाइश या पहचान नहीं है. सरकार इसे जानबूझ कर भ्रम में रखना चाहती है.

·  तेंदुलकर का फार्मूला (बीपीएल को राशन) और 2011 के सामाजिक आर्थिक सर्वेक्षण (अन्य स्कीमें) दोनों ही आजमाये जा रहे हैं.

·  सरकारों की हाउसिंग स्कीमों के तहत 3 लाख रु. की सीमा वालों को कमजोर आर्थिक वर्ग और 3 से लाख वालों को निम्न आय वर्ग मानने का पैमाना भी चल रहा है.

·  इस बीच आर्थिक आरक्षण में 8 लाख रु. तक की सालाना कमाई वाले लोग शामिल होंगे जबकि उन्हीं के परिवार में पांच लाख रु. सालाना कमाई वाले लोग इनकम टैक्स दे रहे होंगे.



यानी कि राजा जिसे माने वही गरीब. इसलिए इस समय देश में दो तरह के गरीब हैं

एक—वे जो सच में निर्धन हैं

दूसरे—वे जिन्हें राजनीति की रोशनी में गरीब पहचाना जाएगा

सरकारें तो जन्मना सहस्रबाहु हैंबशर्ते वे कुछ करना तो चाहें. जब वे कुछ करना नहीं चाहतीं तो उनके हजार हाथ सच छिपानेभरमाने और बरगलाने में लग जाते हैं. इस काले जादू का अचूक मंतर हैं आंकड़े. संख्याएं गढ़ कर भरमाया जा सकता है. आंकड़े छिपा कर सच अंधरे में रखा जा सकता है या आंकड़ों की जरूरत ही खत्म करते हुए तथ्यतर्क और पारदर्शिता के स्मारक बनाए जा सकते हैं.

हालांकि सोलह लोकसभाएं बना चुके भारत के लोग भी अब शायद यह समझने लगे हैं: वे सरकार से झूठ बोलते हैं तो वह अपराध है पर  सरकारें या राजनीतिक दल लोगों से झूठ बोले तो...बस सियासत.

Monday, October 2, 2017

हाथी की बीमारी बकरी का इलाज


सरकार के साथ सहानुभूति रखिए.

वह कभी-कभी सवालों के अनोखे जवाब ले आती है.

जैसे मंदी और बेकारी दूर करने के लिए गांवों में बिजली के खंभे लगाना. यह पानी की कमी दूर करने के लिए रेल की पटरी बिछाने जैसा है.
देश जब मंदी के इलाज का इंतजार कर रहा था जो किसी अंतरराष्ट्रीय आपदा के कारण नहीं बल्कि पूरी तरह सरकार के गलत फैसलों से आईतब मुफ्त में बिजली कनेक्शन बांटने की योजना का त्योहार शुरू हो गया. यह स्कीम उन राज्यों में लागू होगी जहां बिजली वितरण नेटवर्क बुरे हाल में हैबिजली बोर्ड घाटे में हैंकर्ज से उबरने की कोशिश कर रहे हैं और बिजली सप्लाई के घंटे गिने-चुने ही हैं. 

सरकारें अक्सर यह भूल जाती हैं कि अर्थव्यवस्था के मामले में आत्मविश्वास और दंभ की विभाजक रेखा बहुत बारीक होती है. देश में व्याप्त मंदी इसी गफलत की देन है. लेकिन दंभ के बाद अगर दुविधा आ जाए तो जोखिम कई गुना बढ़ जाते हैंक्योंकि तब घुटने की चोट के लिए आंख में दवा डालने जैसे अजीबोगरीब फैसले लिए जाते हैं. मंदी के मौके पर सब्सिडी का 'सौभाग्य' महोत्सव इसी दुविधा से निकला है.

सरकारी स्कीमों का हाल बुरा है. इसे खुद सरकार से बेहतर भला कौन जानता है. सरकार का एक मंत्रालय है जो स्कीमों के क्रियान्वयन का हिसाब-किताब रखता है. इस साल की शुरुआत में उसने जो रिपोर्ट जारी की थी उसके मुताबिकमोटे खर्च और बजट वाली सरकार की 12 प्रमुख स्कीमें 2016-17 में बुरी तरह असफल रहीं. मसलनग्रामीण सड़क योजना 14 राज्यों में लक्ष्य से पीछे रही. प्रधानमंत्री आवास योजना 27 राज्यों में पिछड़ गई.

इस रिपोर्ट में दीनदयाल ग्राम ज्योति योजना भी है जो 14 राज्यों में ठीक ढंग से नहीं चली. सौभाग्य योजना इसी का विसतार है. नोटबंदी के बाद जनधन को लकवा मार गया है. फसल बीमा योजना के बारे में तो सीएजी ने बताया है कि इसका फायदा बीमा कंपनियों ने उठा लियाकुदरत के कहर के मारे किसानों को कुछ नहीं मिला. 

गरीबों को मुफ्त गैस कनेक्शन देने वाली योजना उज्ज्वला भी अब दुविधा की शिकार है. केंद्रीय पेट्रो कंपनियों के कारण स्कीम की शुरुआत ठीक रही लेकिन सिलेंडर भरवाने के लिए 450 रुपए देना उज्ज्वला धारकों के लिए मुश्किल है. ग्रामीण इलाकों में मंदी के पंजे ज्यादा गहरे हैं. केरोसिन और लकड़ी हर हाल में एलपीजी से सस्ती है.

उत्तर प्रदेशमध्य‍ प्रदेशबिहारओडिशाराजस्थान जैसे राज्यों में एलपीजी धारकों की संख्या और एलपीजी की खपत में बड़ा झोल है. पेट्रो मंत्रालय के रिसर्च सेल की रिपोर्ट बताती है कि उज्ज्वला के बाद यहां जिस रफ्तार से कनेक्शन बढ़े हैंउस गति से एलपीजी की मांग या खपत नहीं बढ़ी.

सिर्फ आंकड़े ही नहींलोगों का नजरिया भी स्कीमों को लेकर बहुत उत्साहवर्धक नहीं है. इस साल अगस्त में इंडिया टुडे के 'देश का मिज़ाज सर्वे' ने बताया था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का आंकड़ा जितना ऊंचा हैउनकी स्कीमों की अलोकप्रियता उतनी ही गहरी है. इनमें जन धनडिजिटल इंडिया जैसी बड़ी स्कीमें शामिल हैं. यह स्थिति तब है जबकि प्रधानमंत्री देश से लेकर विदेश तक लगभग हर दूसरे भाषण में इनका नाम लेते हैं और पिछले तीन साल में इन स्कीमों के प्रचार पर क्‍या खूब खर्च हुआ है ?

मोदी सरकार मनरेगा जैसे किसी बड़े करिश्मे की तलाश में है जिसकी पूंछ पकड़ कर चुनावों की लंबी वैतरणी पार हो सके. दिलचस्प है कि मनरेगा की सफलता उसके जरिए मिले रोजगारों में नहीं बल्कि उसके जरिए बढ़ी मजदूरी की दरों में थी. मनरेगा लागू होते समय आर्थिक विकास की गति तेज थी इसलिए मनरेगा के सहारे मजदूरी दरों का बाजार पूरी तरह श्रमिकों के माफिक हो गया. मजदूरों को गांव में भी ज्यादा मजदूरी मिली और शहरों में भी. अगर मंदी के दौर में मनरेगा आती तो शायद ये नतीजे नहीं मिलते.

दरअसलसरकारी स्कीमें गरीबी का समाधान हैं ही नहीं. 1994 से 2012 तक कुल आबादी में निर्धनों की तादाद 45 फीसदी से घटकर 22 फीसदी रह गई. 2005 से 2012 के बीच गरीबी घटने की रफ्तारइससे पिछले दशक की तुलना में तीन गुना तेज थी. ध्यान रखना जरूरी है कि यही वह दौर था जब भारत की आर्थिक विकास दर सबसे तेजी से बढ़ी.

हम इतिहास से यह सीखते हैं कि हमने इतिहास से कुछ नहीं सीखा. हम इतिहास से यह भी सीखते हैं कि नसीहतें न लेने के मामले में सरकारें सबसे ज्यादा जिद्दी होती हैं. वे ऐसे इलाज लाती हैं जिसमें हाथी की दवा चींटी को चटाई जाती है. तभी तो बेकारी दूर करने के लिए अब गांवों में एलईडी बल्ब टांगे जाएंगे.



Monday, December 2, 2013

बड़ी सूझ का पुर्नजन्‍म


गरीबी बनाम सब्सिडी और बजट घाटे बनाम जनकल्‍याण की उलझन के बीच बेसिक इनकम की पांच सदी पुरानी आदर्शवादी कल्‍पना नए सिरे से चमक उठी है। 

ह जनमत संग्रह अगर कामयाब हुआ तो स्विटजरलैंड को काले धन की जन्‍नत या खूबसूरत कुदरत के लिए ही नही बल्कि एक ऐसी अनोखी शुरुआत के लिए भी जाना जाएगा जो गरीबी उन्‍मूलन की पुरातन बहसों का सबसे बड़ा आइडिया है। स्विटजरलैंड अपनी जनता में हर अमीर-गरीब, मेहनती-आलसी, बेकार-कामगार, बुजर्ग-जवान को सरकारी खजाने से हर माह बिना शर्त तनख्‍वाह देने पर रायशुमारी करने वाला है। अर्थ और समाजशास्त्र इसे यूनिवर्सल बेसिक इनकम यानी सरकारी खर्च पर जनता की न्‍यूनतम नियमित आय कहता है। बजट घाटों से परेशान एंग्‍लो सैक्‍सन सरकारों को लगता है कि किस्‍म किस्‍म की सब्सिडी की जगह हर वयस्‍क को बजट से नियमित न्‍यूनतम राशि देना एक तर्कसंगत विकल्‍प है जबकि समाजशास्त्रियों के लिए तो यह गरीबी मिटाने की विराट सूझ के पुनर्जन्‍म जैसा है। इसलिए जनकल्‍याण के अर्थशास्‍त्र की यह पांच सदी पुरानी आदर्शवादी कल्‍पना नए सिरे से चमक उठी है
बेसिक इनकम की अवधारणा कहती है कि सरकार को प्रत्येक वयस्‍क नागरिक को बिना शर्त प्रति माह जीविका भर का पैसा देना चाहिए, इसके बाद लोग अपनी कमाई बढ़ाने के लिए स्‍वतंत्र हैं। स्विटजरलैंड में हर वयस्‍क को प्रतिमाह 2500 फ्रैंक दिये

Monday, July 29, 2013

गरीबी की गफलत


गरीबी में कमी न स्‍वीकारने का राजनीतिक आग्रह भारत में इतना मजबूत है कि जीवन जीने की लागत की ईमानदार पैमाइश तक नहीं होती।

योजना आयोग के मसखरेपन का भी जवाब नहीं। जब उसे राजनीति को झटका देना होता है तो वह गरीबी घटने के आंकड़े छोड़ देता है और देश की लोकलुभावन सियासत की बुनियाद डगमगा जाती है। गरीबी भारत के सियासी अर्थशास्‍त्र का गायत्री मंत्र है। यह देश का सबसे बड़ा व संगठित सरकारी उपक्रम है जिसमें हर साल अरबों का निवेश और लाखों लोगों के वारे-न्‍यारे होते है। भारत की सियासत  हमेशा से मुफ्त रोजगार, सस्‍ता अनाज देकर वोट खरीदती है और गरीबी को बढ़ता हुआ दिखाने की हर संभव कोशिश करती है ताकि गरीबी मिटाने का उद्योग बीमार न हो जाए। गरीबी में कमी न स्‍वीकारने का राजनीतिक आग्रह भारत में इतना मजबूत है कि जीवन जीने की लागत की ईमानदार पैमाइश तक नहीं होती। यही वजह है कि योजना आयोग, जब निहायत दरिद्र सामाजिक आर्थिक आंकड़ो के दम पर गरीबी घटने का ऐलान करता है तो सिर्फ एक भोंडा हास्‍य पैदा होता है।
भारत गरीबी के अंतरविरोधों का शानदार संग्रहालय है जो राजनीति, आर्थिकी से लेकर सांख्यिकी तक फैले हैं। आर्थिक नीतियों का एक चेहरा पिछले एक दशक से गरीबी को बढ़ता हुआ