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Monday, December 4, 2017

माननीय सभासदो...

लोकतंत्र की सफलता को मापने का सबसे बेहतर पैमाना क्या हो सकता है
नतीजों से नीतियों की ओर चलते हैं. यह सफर हमें नौकरशाहीक्रियान्वयनमॉनिटरिंग के पड़ावों से गुजारते हुए विधायिका की दहलीज पर ले जाकर खड़ा कर देगा.
हम खुद को संसद या विधानसभा के दरवाजे पर खड़ा पाएंगेजहां से कानून निकलते हैं.

लोकतंत्र में सरकारें कितनी सफल होती हैंयह इस बात पर निर्भर करता है कि उनके कानून कितने सुविचारित और दूरदर्शी हैं. जाहिर है कि कानूनों की गुणवत्ता विधायिकाओं की कुशलता पर निर्भर है यानी हमारे कानून निर्माताओं—सांसद-विधायकों की काबिलियत पर.

दो ताजे उदाहरण हमें भारत में विधायी दक्षता की स्थिति पर सोचने को मजबूर करते हैं.

पहला है इनसॉल्वेंसी और बैंकरप्टसी (दीवालियापन) कानूनजिसमें एक साल के भीतर ही अध्यादेश के जरिए बड़ा बदलाव करना पड़ा है. पिछले साल दिसंबर से लागू हुआ कानून बीमार कंपनियों के पुनर्गठन और बकाया बैंक कर्ज की वसूली के लिए आधुनिकत्वरित कानूनी प्रक्रिया लेकर आया था. यह सुधार निवेश के माहौल को स्थायी बनाने और बैंक कर्ज का दुरुपयोग रोकने लिए जरूरी था. इसी कानून के चलते हाल में कारोबारी सहजता में भारत की रैंकिंग बेहतर हुई.

कानून लागू होते ही सरकार को पता चला कि इसका तो बेजा फायदा उठाया जा सकता है और उसका राजनैतिक नुक्सान हो सकता है इसलिए अब इसे सिर के बल खड़ा कर दिया गया. बहस जारी है कि अब यह कानून बैंकों व कंपनियों के कितने काम का बचा है और इसके बाद कर्ज वसूली और बीमार कंपनियों के पुनर्गठन की प्रक्रिया में कैसे तेजी बनी रहेगी. 

संशोधन पर तकनीकी बहस से ज्यादा बड़ा मुद्दा यह है कि सिर्फ एक साल में इतने बड़े बदलाव की जरूरत क्यों पड़ीदेश में बीमार कंपनियों से निबटने वाले कानूनों (सीका ऐक्टकंपनी कानूनसारफेसी ऐक्टकर्ज उगाही ट्रिब्यूनल) का इतिहास और इस तरह के मामलों के पर्याप्त अनुभव हैं लेकिन इसके बाद भी हम एक अचूक बैंकरप्टसी कानून क्यों नहीं बना सके?

दूसरा नमूना है जीएसटी विधायी कुशलता की हालत का. जीएसटी भी करीब एक दशक से बन रहा है ताकि उपभोक्ताओं और उद्योग पर करों का बोझ कम किया जा सकेकर प्रणाली आसान बनाई जा सके और ज्यादा करदाता टैक्स दायरे में आ सकें. लेकिन बनने के तीन माह के भीतर ही जीएसटी ध्वस्त हो गया. टैक्स रेट उलट-पलट हो गए और इस दौरान नियम इतने बदले कि उन्हें याद रखना मुश्किल हो गया. जीएसटी की विफलता ने भारत के इनडाइरेक्ट टैक्स ढांचे को गहरी चोट पहुंचाई है.

टैक्स को लेकर भी तजुर्बों की कमी नहीं है. वैट और सर्विस टैक्स लागू हो चुके हैं. वैट यानी वैल्यू एडेड टैक्स को अमल में लाने में वक्त लगा था लेकिन वह जीएसटी से ज्यादा टिकाऊ साबित हुआ. जीएसटी की जरूरतें और चुनौतियां पूरी तरह स्पष्ट थीं. राजनैतिक सहमति भी थी लेकिन लंबे इंतजार के बाद भी हमारे कानून निर्माता हमें एक कायदे का जीएसटी नहीं दे पाए.

कानूनी और नीतिगत विफलताओं की फेहरिस्त लंबी हो सकती है जो विधायिका की दक्षता पर उठने वाले सवालों को और व्यापक बना देगी. चुनावी दबावों के कारण नए बने कानूनों का ऐसा शीर्षासन (जीएसटीबैंकरप्टसी) अनोखा है. जो संसद कानून बनाती है वह इन बदलावों पर जब तक विचार करे तब तक बहुत देर हो चुकी होती है.

भारत में विधायी अकुशलता की चुनौती बढ़ रही है. ताजा अनुभव हमें चार निष्कर्ष देते हैं:

1. जीएसटी व बैंकरप्टसी कोड का यह हाल नहीं होता. का हाल गवाह है कि सरकार कानून बनाने से पहले पर्याप्त शोध नहीं कर रही है

2. कानून से प्रभावित होने वाले पक्षों से संवाद नहीं होता. राजनेता स्वयं को सर्वज्ञ मानते हैं.

3. संसद में कानूनों पर बहस इतिहास बन चुकी है. संसद से बहुमत के दम पर पारित कराने के बाद अधकचरे कानून जनता के माथे मढ़ दिए जाते हैं.

4. खराब कानून विवादों में बदलते हैं और तब सरकार को लगता है कि अदालतें अपनी सीमा पार कर रही हैं.

दूरदर्शिता कानूनों की पहली जरूरत है. उनमें बार-बार बदलाव उनकी कमजोरी ही साबित करते हैं. जब हमारी संसद हमें एक साल तक टिक पाने वाले कानून नहीं दे पा रही है तो राज्यों की विधानसभाओं में कैसे कानून बन रहे होंगे. 




कानूनों की अधिकता जितनी खतरनाक है, खराब कानून से उतनी ही बड़ी मुसीबतें हैं. दुर्भाग्य से हमारे पास दोनों हैं.

Monday, February 6, 2012

जीत की हार


कुछ लालची नेताओं का भ्रष्‍टाचार, चालाक कंपनियों की मौका परस्‍ती और गठबंधन के सामने बेबस सरकार की निष्क्रियता!!! क्‍या इतने से हो गया विशाल 2जी घोटाला??? शायद नहीं। इस घोटाले का स्‍पेक्‍ट्रम (दायरा) इस कदर छोटा नहीं है। यह घोटाला एक ऐसे घाटे से उपजा है    जो किसी भी देश को व्‍यवस्‍था से अराजकता में पहुंचा देता है। आधुनिक कानूनों की अनुपस्थिति (लेजिस्‍लेटिव डेफशिट) ने देश की अनमोल साख को मुसीबत में फंसा दिया है। आकाश (स्‍पेक्‍ट्रम) और जमीन जैसे प्राकृतिक संसाधनों सहित कई क्षेत्रों में उचित कानूनों के शून्‍य के कारण घोटालेबाजों को लूट के मौके भरपूर मौके मिल रहे हैं। जिसके नतीजे उपभोक्‍ता, रोजगार व निवेशक चुकाते हैं। इसलिए अब सवाल घोटाले के दोषियों या बदहवास सरकार से नहीं बल्कि लोकतंत्र की सर्वशक्तिमान संसद से पूछा जाना चाहिए कि वह कानून बनाने या बदलने का असली काम आखिर कब शुरु करेगी, जिसके लिए वह बनी है। यकीनन 2जी लाइसेंस रद होने से पारदर्शिता और इंसाफ भारी जीत हुई है मगर व्‍यवस्‍था की साख हार गई है।
साख का स्‍पेक्‍ट्रम
निवेशकों की बेचैनी (122 दूरसंचार लाइसेंस रद होने पर) बेजोड़ है। उनके लिए तय करना मुश्किल है कि वह भारत के लोकतंत्र की जय बोलें और कानून के राज को सराहे या फिर सरकार को सरापें जिसकी दागी नीतियों के कारण उनकी दुर्दशा होने वाली है। अदालत से सरकारों को हिदायत, सुझाव, झिड़की और निर्देश मिलना नया नहीं है मगर इस अदालती इंकार ने लोकतंत्र की सर्वोच्‍च विधायिका और ताकतवर का कार्यपालिका की साख को विसंगतियों से भर दिया है। देश ने अपने इतिहास में पहली बार आर्थिक क्षेत्र में किसी बड़ी नीति की इतनी बडी, जो बेहद दुर्भाग्‍यपूर्ण है। कारोबार की दुनिया में किसी सरकार से मिला लाइसेंस एक संप्रभु सरकार की गारंटी है जिसके आधार पर निवेशक जोखिम उठाते हैं निवेश करते हैं। कारोबार शुरु होने के तीन साल बाद कारोबार का आधार में ही भ्रष्‍टाचार साबित हो और पूरी नीति ही अदालत में खारिज हो जाए तो किसका भरोसा जमेगा। 2जी का पाप दूरसंचार को ही पूरी सरकारी नीति प्रक्रिया को प्रभावित कर रहा है। अब सरकार के किसी फैसले पर भरोसा करने से पहले निवेशक सौ बार सोचेंगे कि क्‍यों कि पता नहीं कब कहां वह नीति दागी साबित हो और निवेशकों को अपना सामान समेटना पड़े। मगर इसके लिए अदालत फैसले को क्‍या बिसूरना, उसने तो कानूनों का गड्ढा दिखा दिया है।