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Sunday, February 24, 2019

बदले की भाषा



पूरी कोई देश ऐसे मौके पर भी आर-पार की भाषा बोल सकता है जब उसकी अर्थव्यवस्था-ध्वस्त होमुद्रा और साख डूब चुकी होबचने के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के दरवाजे पर खड़ा हो?

दुस्साहस की भी अपनी एक कूटनीति होती है. यही वह नया पाकिस्तान है जिसका जिक्र उसके प्रधानमंत्री इमरान खान ने किया और जो प्रामाणिक छद्म युद्ध (आतंकवाद) छेड़कर उसकी तरफदारी में प्रत्यक्ष युद्ध की चेतावनी दे रहा है.

चीनी युद्ध दार्शनिक सुन त्जु कहते थेखुद को जानोसमझो अपने प्रतिद्वंद्वी कोफिर हजार लड़ाइयां बगैर तबाही के लड़ी जा सकती हैं.
हमने पाकिस्तान के सबसे बुरे वक्त का अपने लिए सबसे बुरा इस्तेमाल किया है. देखते-देखते पाकिस्तान ने वह कूटनीतिक करवट बदल ली. अब उसे आतंक का देश कहे जाने से फर्क नहीं पड़ता लेकिन उसकी करवट ने बहुत कुछ हमेशा के लिए बदल दिया.

बात ज्यादा पुरानी नहीं है. पाकिस्तान के प्रधानमंत्रीमोदी सरकार के स्वागत समारोह में भाग लेकर इस्लामाबाद लौटे थे. तब पाकिस्तान अपने सबसे बुरे वक्त से गुजर रहा था. अफगानिस्तान से अमेरिकी और नाटो फौजों की वापसी के बाद विदेशी सहायता बंद हो चुकी थी. निवेश नदारद था और  अर्थव्यवस्था लगभग डूब चुकी थी. ठीक उसी वक्त पाकिस्तान ने अमेरिका से दूरी बनाकर अपना आर्थिक भविष्य चीन को सौंप दिया और चीन ने दुनिया के सबसे जोखिम भरे देश पर आर्थिक दांव लगा दिया.

पाकिस्तान के लड़ाकू विमानों के आसमानी स्वागत के बीचअप्रैल 2015 में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग इस्लामाबाद पहुंचे और पाकिस्तान के साथ 46 अरब डॉलर की परियोजना (चीन पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर) पर दस्तखत हो गए.

पाकिस्तान के जीडीपी के 20 फीसदी के बराबर निवेश के साथ चीन ने भारत के पड़ोसी की डूब चुकी अर्थव्यवस्था को गोद में उठा लिया. पाकिस्तान के इतिहास की सबसे बड़ी आर्थिक और निर्माण परियोजना (काश्गर से ग्वादर तक 3,000 किमी में फैली सड़कोंरेलवेतेल-गैस पाइपलाइनऔद्योगिक पार्क का नेटवर्क) शुरू हो गई जिसके तहत बलूचिस्तान व पाक अधिकृत कश्मीर सहित पूरा पाकिस्तान चीन के प्रभाव में आ गया. पाक अधिकृत कश्मीर में चीनी कंपनियों का ऊधम शुरू होते ही दक्षिण एशिया का कूटनीतिक संतुलन तब्दील हो गया.

भारतीय कूटनीति को उस आर्थिक संकट के वक्त, पाकिस्तान को चीन की शरण में जाने से रोकना था. चीन के करीब जाते ही पाकिस्तान में दो बदलाव हुए:

एकपश्चिमी देशों ने पाकिस्तान में केवल अस्थायी सामरिक निवेश किया थाचीन ने वहां आर्थिक बुनियादी ढांचा बनाया. यह किसी भी हमले की स्थिति में पाकिस्तान का सबसे बड़ा सुरक्षा कवच है

दोपश्चिम के बरअक्स पाकिस्तान अब गैर लोकतांत्रिक कूटनीति की शरण में हैजिस पर दुनिया का नियंत्रण नहीं है

जबरदस्त वित्तीय संकट के बीच चीन पाकिस्तान का खर्चा चला रहा है. कुछ मदद सऊदी अरब दे रहा है. इमरान की गुर्राहट बताती है कि अगर भारत के विरोध की वजह से पाकिस्तान को आइएमएफ की मदद नहीं मिली तो चीन है न.

उड़ी का जवाब देकर भारत ने संयम की नियंत्रण रेखा पार करने का ऐलान कर दिया था लेकिन ध्यान रखना होगा कि हथियार वहीं उठते हैं जहां कूटनीति खत्म हो जाती है इसलिए पुलवामा के बाद पाकिस्तान को घेरने के लिए कूटनीति की शरण में जाना पड़ा.

पाकिस्तान को अलग-थलग करना ही एक विकल्प है और अगर आक्रामक कूटनीति की हिम्मत हो तो मौके अभी खत्म नहीं हुए हैं. अलबत्ता घेराव पूर्व से शुरू करना होगा यानी चीन की तरफ से.

यदि आतंक बढ़ता रहा तो ग्लोबल मंसूबों वाले चीन के लिए पाकिस्तान के साथ खड़ा रहना मुश्किल होगा. अगर किसी मंच (मसूद अजहर पर संयुक्त राष्ट्र में प्रस्ताव) पर चीन को पाक के आतंक के पक्ष में खुलकर खड़ा दिखाया जा सके तो बड़ी सफलता होगी. अमेरिका के साथ सींग फंसाए और आर्थिक तौर पर परेशान चीन को इस समय भारतीय बाजार की जरूरत है. क्या हम इस मौके का इस्तेमाल कर सकते हैंयह स्पष्ट है कि अब चीन से आंख मिलाए बिना पाकिस्तान को चौखटे में कसना नामुमकिन है

रूजवेल्ट कहते थे कम बोलो और छड़ी लंबी रखोदूर तक जाओगे. पाकिस्तान को लेकर वाजपेयी और मोदी की उलझन एक जैसी है. पूरी विदेश नीति को हमने को गले लगाने या गोली चलाने के बीच बांट दिया है. कूटनीति इन दोनों के बीच खड़ी होती है. हमें पाकिस्तान से निबटने के लिए तीसरी भाषा का आविष्कार करना होगा. बदला सिर्फ उसी जबान में लिया जा सकेगा.

Friday, September 30, 2016

संयम की अगली नियंत्रण रेखा



जीतता वही है जिसे पता हो कि कब लड़ना है और कब नहीं 
सुन त्‍जु, आर्ट आफ वॉर  


पाकिस्तान को लेकर नरेंद्र मोदी का आशावाद तो अक्‍टूबर 2014 में ही खत्‍म हो गया था जब जम्‍मू कश्‍मीर में अंतरराष्‍ट्रीय सीमा पर पाकिस्‍तान भारी गोलाबारी शुरु की थी। आठ अक्‍टूबर को एयर चीफ मार्शल अरुप राहा के घर एयर फोर्स डे की पार्टी में प्रधानमंत्री के पहुंचने से पहले तक  सुरक्षा बल पाकिस्‍तान को मुंहतोड़ जवाब देने लगे थे। भारत अगर चाहता तो उस वक्‍त भी यह तेवर दिखा सकता था जो गुरुवार 29 सितंबर को नजर आए। अलबत्‍ता उस मुंहतोड़ जवाब (जो सचमुच था भी) के बावजूद प्रधानमंत्री ने न केवल जल्‍द ही सब कुछ ठीक होने का भरोसा दिया बल्कि दिसंबर 2015 में रुस से लौटते हुए लाहौर में रुककर बहुतों को चौंका दिया। यह किसी भारतीय प्रधानमंत्री की दस साल में पहली पाकिस्‍तान यात्रा थी और वह भी अचानक।

भारत तो पाकिस्‍तान से लगातार लड़ रहा है। पिछले दो साल में यह जंग छद्म और प्रत्‍यक्ष दोनों तरह से गहन, निरंतर और स्‍थायी हो चुकी है। भारत चाहता तो इसे पहले की मुठभेडों में जीत और घुसपैठ की कोशिशों को रोकने में मिली सफलता को आज जैसी तेवर तुर्शी के साथ करारा जवाब बता सकता था लेकिन बकौल सुन त्‍जु जीतता वही है जिसे यह पता हो कि कब लड़ना है। शायद इस कई पैमानों पर भारत के लिए सही मौका था जब अपने संयम की नियंत्रण रेखा पाकिस्‍तान को दिखा सके।

वैसे सुन त्‍जु ने यह भी कहा था कि हमले का कदम तभी उठाया जाना चाहिए जब उसके लाभ नजर आएं। प्रधानमंत्री मोदी के लिए सख्‍त दिखना न केवल उनकी घरेलू राजनीति के लिए अनिवार्य था बल्कि दक्षिण एशिया में बदलते शक्ति संतुलन में भारत के रसूख को बनाये रखने के लिए भी जरुरी था। पाक अधिकृत कश्‍मीर में आतंकियों पर कार्रवाई का रहस्‍यमय और दावों प्रतिदावों से भरे होना लाजिमी है क्‍यों कि इस तरह की रणनीतियां शत्रु को प्रत्‍यक्ष नुकसान से अधिक इस बात पर निर्भर करती हैं कि इनसे किस तरह के संदेश दिये जाते हैं।

इसी स्‍तंभ में हमने पिछले सप्‍ताह लिखा था कि पाकिसतान से निबटने में भारत को साहस, सूझ और संयम का साझा करना होगा और अपने नुकसान और जोखिम न्‍यूनतम रखना होगा। इस पैमाने पर गुरुवार की सुबह की कार्रवाई साहसिक और संयमित थी। कार्रवाई आतंकियों के खिलाफ थी और उड़ी हमले के बाद हुई थी इसलिए पाकिस्‍तान के पास प्रतिक्रिया के लिए कुछ नहीं था। भारतीय सेना पहले भी इस तरह की कार्रवाइयां करती रही है अलबत्‍ता सीधी कार्रवाई करने के साथ इन्‍हें स्‍वीकारने का राजनीतिक साहस इस अभियान को आतंक के खिलाफ पिछले अभियानों से अलग करता है।

भारत ने यह कार्रवाई करते हुए प्रत्‍यक्ष रुप से 2003 युद्ध विराम के उल्‍लंघन की घोषणा भी नहीं और न ही इस कार्रवाई को आगे जारी रखने का संकेत दिया। यह सब करते हुए मोदी ने घरेलू राजनीति में नुकसान को थाम लिया है और सियासी दबाव को प्रेशर वाल्‍व उपलब्‍ध करा दिया जो उड़ी हमले के बाद बना था।

अलबत्‍ता इस अभियान के कूटनीतिक पहलू रणनीतिक पक्षों से ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण हैं जिन्‍होंने मोदी को दो टूक करते हुए दिखने पर बाध्‍य किया है। उड़ी हमले के बाद पाकिस्‍तान के खिलाफ कूटनीतिक अभियानों में भारत की सफलता मिली जुली रही है। भारत के दबाव के बावजूद रुस ने पाकिस्‍तान के साथ सैन्‍य अभ्‍यास रद नहीं किया। दक्षिण एशिया के शकित्‍ संतुलन में चीन पाकिसतान के साथ है। सार्क को रद करना प्रतीकात्‍मक है लेकिन उससे पाकिस्‍तान को तत्‍काल  कोई सबक नहीं मिलना था। सिंधु समझौते को सीमित करना या व्‍यापार संबंधों पर रोक ऐसे कदम हैं जिनका असर लंबे समय में होंगे। इस बीच उड़ी हमले के बाद भी आतंकी कोशिशें और सीमा पर से गोलाबारी जारी थी इस सूरत में न केवल घरेलू राजनीति के लिए बल्कि दक्षिण एशिया की रणनीतिक बिसात के मुताबिक भी तेवर दिखाना भारत के लिए जरुरी था।

यदि आप खुद को जानते हैं और दुश्‍मन को भी तो फिर चाहे सैकड़ों लड़ाइयां हों, नतीजों से डरने की जरुरत नहीं है सुन त्‍जु का यह तीसरा तलिस्‍मा, कार्रवाई के बाद भारत की उलझन का शीर्षक बन सकता है। पाकिस्‍तान को संदेश तो दिया गया लेकिन मुश्किल अब यहां से प्रारंभ होती है। प्रधानमंत्री मोदी भारत की जरुरतों, संभावनाओं, उम्‍मीदों और चुनौतियों को भी जानते हैं और पाकिस्‍तान के मिजाज और षड़यंत्र को भी। इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि ताजे सबक के बाद पाकिसतान में आतंक की फैक्‍ट्री बंद हो जाएगी बल्कि उसके दोगुनी ताकत से आगे आने का डर है। यदि ऐसा हुआ तो फिर संयम की अगली नियंत्रण रेखा क्‍या होगी ?

जाहिर है मोदी बार-बार पाकिस्‍तान के खिलाफ यह नहीं करना चाहेंगे जो उन्‍हें इस बार करना पड़ा है लेकिन पाकिसतान अपने डिजाइन नहीं आजमायेगा इसकी कोई गारंटी नहीं है। भारत, पाकिस्‍तान के साथ तनाव लेकर जी सकता है लेकिन टकराव लेकर नहीं। प्रधानमंत्री मोदी की कोशिश होगी कि वह संघर्ष को टालें और जल्‍द से जल्‍द सरकार के संवाद को पाकिस्‍तान की छाया से निकाल कर ग्रोथ, विकास और समृद्धि की तरफ लाएं। ऐसा न होने पर भारत को होने वाले नुकसान ज्‍यादा बडे होंगे।

शायद भारत को अंतत: रणनीति के उस पुराने सिद्धांत की तरफ लौटना चाहिए जो कहता है कि हमले की स्थिति में जीत या हार दोनों संभावित हैं लेकिन यदि अजेय होना है तो प्रतिरक्षा को मजबूत करना होगा।

पाकिसतान, नरेंद्र मोदी के लिए अटल बिहारी वाजपेयी या मनमोहन सिंह की तुलना में ज्‍यादा बड़ी चुनौती है। घरेलू राजनीति के तकाजे उनमें बांग्‍लादेश बनाने वाली इंदिरा गांधी जैसी आक्रामकता चाहते हैं जबकि ग्‍लोबल राजनीति की बिसात उनसे वाजपेयी जैसी सदाशयता मांगती है और तीसरी तरफ उन्‍हें भारत की एक सुरक्षित और निरापद छवि बनानी है ताकि लोग यहां निवेश और कारोबार कर सकें। पाकिस्‍तान के सख्‍त कार्रवाई के बाद अब मोदी को उदारता, चतुरता और आक्रामकता बेहद नाजुक संतुलन बनाना होगा जिसमें उन्‍हें देश के भीतर भरपूर  राजनीतिक सहमति की जरुरत होगी ताकि संघर्षहीन विजय हासिल हो सके।

युद्ध की सबसे बड़ी कला यही है कि शत्रु को बगैर लड़े परास्‍त कर दिया जाए – सुन त्‍जु



Saturday, September 24, 2016

साहस, संयम और सूझ

पाकिस्‍तान से निबटना उतना मुश्किल नहीं जितना चुनौती पूर्ण है उन उम्‍मीदों को संभालना जिन पर नरेंद्र मोदी सवार हैं

ड़ी में सैन्य शिविर पर आतंकी हमले के अगले दिन 19 सितंबर को टीवी चैनलों पर जब ऐंकर और रिटायर्ड फौजी पाकिस्तान का तिया-पांचा कर देने के लिए सरकार को ललकार रहे थे और सरकार रणनीतिक बैठकों में जुटी थी, उसी समय दिल्ली के विज्ञान भवन में भारत के पहले पर्यटन निवेश सम्मेलन की तैयारी चल रही थी.

चाणक्यपुरी का अशोक होटल 300 विदेशी निवेशकों की मेजबानी में लगा था. देश के 25 राज्यों के प्रतिनिधि अपने यहां पर्यटन की संभावनाओं को बताने के प्रेजेंटेशन लेकर दिल्ली पहुंच चुके थे. विदेशी पर्यटकों को केंद्रीय मंत्री महेश शर्मा की बेतुकी सलाहों के बीच पर्यटन को विदेशी निवेशकों के एजेंडे में शामिल कराने का यह बड़ा आयोजन प्रधानमंत्री की पहल था, जो ब्रांड इंडिया की ग्लोबल चमक बढ़ाने की योजनाओं पर काम कर रहे हैं.

अजब संयोग था कि दुनिया के निवेशकों का भारत के पर्यटन कारोबार की संभावनाओं से ठीक उस वक्त परिचय हो रहा था, जब भारत के टीवी चैनलों पर पाकिस्तान से युद्ध में हिसाब बराबर करने के तरीके बताए जा रहे थे. अंदाज लगाना मुश्किल नहीं है कि पर्यटन जो कि छोटी-सी बीमारी फैलने भर से ठिठक जाता है, उसमें निवेश करने वालों के लिए बीते सप्ताह भारत का माहौल कितना ''उत्साहवर्धक" रहा होगा. जंग की आशंकाओं के बीच पर्यटन बढ़ाने की उलटबांसी दरअसल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उलझन बेजोड़ नमूना है।

नरेंद्र मोदी के लिए पाकिस्तान की ग्रंथि पिछले किसी भी प्रधानमंत्री की तुलना में ज्यादा पेचीदा है.पाकिस्तान के आतंकी डिजाइन से निबटना बड़ी समस्या नहीं है. भारतीय कूटनीति व सेना के पास, पाकिस्तान से निबटने की ताकत व तरीके हमेशा से मौजूद रहे हैं. बांग्लादेश से बलूचिस्तान तक इसके सफल उदाहरण भी मिल जाते हैं मोदी की उलझन सामरिक से ज्यादा राजनैतिक और कूटनीतिक है. मोदी ने भारत को नई तरह के कूटनीतिक तेवर दिए हैं, पाकिस्तान के साथ उलझाव इन तेवरों और संवादों की दिशा बदल सकता है.

1991 के आर्थिक उदारीकरण के बाद भारत की कूटनीति को नए आयाम मिले हैं. भारत का बाजार दुनिया के लिए खुला और आर्थिक-व्यापारिक संबंध ग्लोबल कूटनीतिक रिश्तों का आधार बन गए. लेकिन इसका दूसरा पहलू यह भी है कि पाकिस्तान के कारण भारत अपनी कूटनीतिक क्षमताओं का अपेक्षित लाभ नहीं ले पाया. आतंकवाद व पाकिस्तान के साथ तनाव ने भारतीय कूटनीति को हमेशा व्यस्त रखा और भारत की अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा अपने पड़ोसी से निबटने में खर्च होती रही.

पिछले तीन दशक के दौरान हर पांच वर्ष में कुछ न कुछ ऐसा जरूर हुआ, जिसके कारण भारत को अपनी कूटनीतिक ताकत पाकिस्तान को ग्लोबल मंच पर अलग-थलग करने में झोंकनी पड़ी.वाजपेयी के कार्यकाल में भारत उदार बाजार के साथ ग्लोबल मंच पर अपनी दस्तक को और जोरदार बना सकता था लेकिन तत्कालीन सरकार के राजनयिक अभियानों की ताकत का बड़ा हिस्सा पाकिस्तान से रिश्ते सुधारने, संघर्षों से निबटने और आतंक रोकने में निकल गया.

मनमोहन सिंह कुछ सतर्कता के साथ शुरू हुए. यूपीए के पहले कार्यकाल के दौरान उन्होंने ग्लोबल मंचों पर भारत की पहचान को पाकिस्तान से अलग किया और भारत को दुनिया के अतिविशिष्ट नाभिकीय क्लब में प्रवेश मिला. अलबत्ता 2008 में मुंबई हमले के साथ पाकिस्तान पुनः भारतीय कूटनीति के केंद्र में आ गया. इस घटना के बाद पाकिस्तान के आतंकी डिजाइन को दुनिया के सामने लाना भारतीय राजनयिक अभियान की मजबूरी हो गई.

मोदी पाकिस्तान के साथ वाजपेयी जैसी सदाशयता को लेकर शुरू हुए थे, लेकिन इसके समानांतर उन्होंने भारतीय कूटनीति को नया आयाम देने का अभियान भी प्रारंभ किया. मोदी का यह ग्लोबल मिशन मौके के माकूल था. दुनिया में मंदी के बीच भारत अकेली दौड़ती अर्थव्यवस्था है और भारत को ग्रोथ के अगले चरण के लिए नए निवेश की जरूरत है. मोदी ने भारतवंशियों के बीच अपनी लोकप्रियता को आधार बनाते हुए, भारत की नई ब्रांडिंग के साथ दुनिया के हर बड़े मंच और देश में दस्तक दी, जिसका असर विदेशी निवेश में बढ़ोतरी के तौर पर नजर भी आया.

पाकिस्तान के डिजाइन मोदी के ब्रांड इंडिया अभियान के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं. उड़ी का आतंकी हमला बड़ा है, फिर भी यह 26/11 या संसद पर हमले जैसा नहीं है. पिछले दो साल में कश्मीर से बाहर आतंकी हमलों की घटनाएं सीमित रही हैं. आतंकी आम लोगों के बजाए सुरक्षा बलों से भिड़ रहे हैं.

मोदी चाहें तो राजनैतिक संवादों को अनावश्यक आक्रामक होने से बचा सकते हैं लेकिन मजबूरी यह है कि 2014 में उनका चुनाव अभियान पाकिस्तान के खिलाफ दांत के बदले जबड़े जैसी आक्रामकता से भरा था. यही वजह है कि पिछले दो साल में आतंकी हमलों में कमी के बावजूद पाकिस्तान से दो टूक हिसाब करने के आग्रह बढ़ते गए हैं और मोदी सरकार पाकिस्तान को प्रत्यक्ष जवाब देने के जबरदस्त दबाव में है, जो पिछले किसी भी मौके की तुलना में सर्वाधिक है.

वाजपेयी से मोदी तक आते-आते पाकिस्तान ज्यादा आक्रामक, विघटित और अविश्वसनीय हो गया है, जबकि भारत की जरूरतें और संभावनाएं बड़ी व भव्य होती गई हैं. पाकिस्तान से भारत के रिश्ते हमेशा साहस, संयम और सूझबूझ का नाजुक संतुलन रहे हैं. वक्त बदलने, दक्षिण एशिया में हथियारों की होड़ बढऩे और ग्लोबल ताकतों की नाप-तौल बदलने के साथ यह संतुलन और संवेदनशील होता गया है.

उड़ी हमले के बाद आर-पार की ललकारों के बावजूद भारत का संयम, दरअसल, उस संतुलन की तलाश है, जिसमें कम से कम नुक्सान हो. भारत चाहे पाकिस्तान को सीधा सबक सिखाए या फिर कूटनीतिक अभियान चलाए, दोनों ही स्थितियों में मोदी को उन बड़ी सकारात्मक उम्मीदों का ध्यान रखना होगा जो उनके आने के बाद तैयार हुई हैं.

अमेरिकी विचारक जेम्स फ्रीमैन क्लार्क कहते थेः ''नेता हमेशा अगले चुनाव के बारे में सोचते हैं, लेकिन राजनेता अगली पीढ़ी के बारे में." हमें उम्मीद करनी चाहिए कि नरेंद्र मोदी इस संवेदनशील मौके पर राजनेता बनकर ही उभरेंगे.