Showing posts with label civil society movement. Show all posts
Showing posts with label civil society movement. Show all posts

Monday, December 30, 2013

तीसरे रास्‍तों की रोशनी


मगध में शोर है कि मगध में शासक नहीं रहे, जो थे वे मदिरा, प्रमाद और आलस्य के कारण इस लायक नहीं रहे कि हम उन्‍हें अपना शासक कह सकें।

ब बंधे बंधायें विकल्‍पों के बीच चुनाव को बदलाव मान लिया जाता है, तब परिवर्तन को एक नए मतलब की जरुरत होती है। नए रास्‍तों की खोज भी तब ही शुरु होती है जब मंजिल अपनी जगह बदल लेती है और एक वक्‍त के बाद सुधार भी तो सुधार मांगने लगते हैं। लेकिन परिवर्तन, सुधार और विकल्‍प जैसे घिसे पिटे शब्‍दों को नए सक्रिय अर्थों से भरने के लिए जिंदा कौमें को एक जानदार संक्रमण से गुजरना होता है। ऊबता, झुंझलाता, चिढ़ता, सड़कों पर उतरता, बहसों में उलझता भारत पिछले पांच वर्ष से यही संक्रमण जी रहा है। यह जिद्दोजहद  उन तीसरे रास्‍तों की तलाश ही है, जो राजनीति, समाज व अर्थनीति की दकियानूसी राहों से अलग बदलाव की दूरगामी उम्मीदें जगा सकें। इस बेचैन सफर ने 2013 के अंत में उम्‍मीद की कुछ रोशनियां पैदा कर दी हैं। दिल्‍ली में एक अलग तरह की सरकार राजनीति में तीसरे रास्‍ते का छोटा सा आगाज है। स्‍वयंसेवी संस्‍थाओं व अदालतों की जुगलबंदी न्‍याय का नया दरवाजा  खोल रही है और नियामक संस्‍थाओं की नई पीढ़ी रुढि़वादी सरकार व बेलगाम बाजार के बीच संतुलन व गवर्नेंस का तीसरा विकल्‍प हैं। इन प्रयोगों के साथ भारत का संक्रमण नए अर्थों की रोशनी से जगमगा उठा है।
किसे अनुमान थी कि आर्थिक-राजनीतिक भ्रष्‍टाचार से लड़ते हुए एक नई पार्टी सत्‍ता तक पहुंच जाएगी। यहां तो किसी राजनीतिक दल के चुनाव घोषणापत्र में भ्रष्टाचार मिटाने रणनीति कभी नहीं लिखी गई। पारदर्शिता तो विशेषाधिकारों का स्वर्ग उजाड़ देती है इसलिए 2011 की संसदीय बहस में पूरी सियासत एक मुश्‍त लोकपाल को बिसूर रही थी। लेकिन दिल्‍ली के जनादेश की एक घुड़की

Monday, October 21, 2013

संक्रमण की रोशनी

राजनीतिक सुधारों का एक नया दौर अनोखे तरीके से उतर आया है और कुछ जटिल आर्थिक सुधारों की बरसों पुरानी हिचक भी बस यूं ही टूट गई है। भारत का ताजा संक्रमण अचानक व अटपटे ढंग से सार्थक हो चला है।  
सुधार हमेशा लंबी तैयारियों, बड़े बहस मुबाहिसों या विशेषज्ञ समितियों से ही नहीं निकलते। भारत में गुस्‍साते राजनेता, झगड़ती संवैधानिक संस्‍थायें, आर्थिक संकटों के सिलसिले, सिविल सोसाइटी की जिद और खदबदाता समाज क्रांतिकारी सुधारों को जन्‍म दे रहा है। पिछले दो साल की घटनाओं ने भारत को संक्रमण से गुजरते एक अनिश्चित देश में बदल दिया था लेकिन कुछ ताजा राजनीतिक आर्थिक फैसलों से इस संक्रमण में सकारात्‍मक बदलावों की चमक उभर आई है। राजनीतिक सुधारों का एक नया दौर अनोखे व अपारंपरिक तरीके से अचानक उतर आया है और कुछ जटिल आर्थिक सुधारों की बरसों पुरानी हिचक भी बस यूं ही टूट गई है।  दागी नेताओं को बचाने वाले बकवास अध्‍यादेश की वापसी और चुनाव में प्रत्‍याशियों को नकारने के अधिकार जैसे फैसले अप्रत्‍याशित मंचों से निकलकर लागू हो गए और ठीक इसी तरह बेहद अस्थिर माहौल के बीच सब्सिडी राज के खात्‍मे और नए नियामक राज शुरुआत हो गई। यह भारत की ताजा अराजकता में एक रचनात्‍मक टर्निंग प्‍वाइंट है।
भारत में ग्रोथ का पहिया इसलिए नहीं पंक्‍चर नहीं हुआ कि बाजार सूख गया था बल्कि मंदी इस‍लिए आई क्‍यों कि राजनीति के मनमानेपन ने आर्थिक नीतियों को संदेह से भर दिया है।   उद्योगों को यह पता ही नहीं है कि कब सरकार के किस फैसले से उनकी कारोबारी योजनायें चौपट हो जांएगी। निवेशकों की बेरुखी के बाद अब निवेश की राह का सबसे बडा कांटा