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Tuesday, July 7, 2015

ग्रीक ट्रेजडी के भारतीय मिथक

ग्रीस की ट्रेजडी को घटिया गवर्नेंस व सियासत ने गढ़ा है. ग्रीस के ताजा संकट के कई मिथक भारत से मिलते हैं 

ग्रीस की पवित्र वातोपेदी मॉनेस्ट्री के महंत इफ्राहीम व देश के शिपिंग मंत्री की पत्नी सहित 14 लोगों को पिछले साल नवंबर में जब ग्रीक सुप्रीम कोर्ट ने धोखाधड़ी का दोषी करार दिया, तब तक यह तय हो चुका था कि ग्रीस (यूनान) आइएमएफ के कर्ज में चूकने वाला पहला विकसित मुल्क बन जाएगा और दीवालिएपन से बचने के लिए उसे लंबी यंत्रणा झेलनी होगी. आप कहेंगे कि 10वीं सदी की क्रिश्चियन मॉनेस्ट्री का ग्रीस के संकट से क्या रिश्ता है? दरअसल, ट्रेजडी का पहला अंक इसी मॉनेस्ट्री ने लिखा था. महंत इफ्राहीम ने 2005 में नेताओं व अफसरों से मिलकर एक बड़ा खेल किया. उन्होंने मॉनेस्ट्री के अधिकार में आने वाली विस्तोनिदा झील ग्रीक सरकार को बेच डाली और बदले में 73 सरकारी भूखंड व भवन लेकर वाणिज्यिक निर्माण शुरू कर दिए.
इन कीमती संपत्तियों में एथेंस ओलंपिक (2004) का जिम्नास्टिक स्टेडियम भी था. 2008 में इसके खुलासे के साथ न केवल तत्कालीन सरकार गिर गई बल्कि भ्रष्टाचार, क्रोनी कैपिटलिज्म व सरकारी फर्जीवाड़े की ऐसी परतें उघड़ीं कि ग्रीस दीवालिएपन की कगार पर टंग गया. ग्रीस, तकनीकी तौर पर मंदी से उपजे कर्ज संकट का शिकार दिखता है लेकिन दरअसल उसकी ट्रेजडी को घटिया गवर्नेंस व सियासत ने गढ़ा है. ग्रीस के ताजा संकट को पढ़ते हुए इस एहसास से बचना मुश्किल है कि भारत में कई ग्रीस पल रहे हैं.
बीते सप्ताह बैंक के बंद होने के बाद ग्रीस की ट्रेजडी का कोरस शुरू हो गया था. कर्ज चुकाने में चूकना किसी देश के लिए घोर नर्क है. तबाही की शुरुआत देश की वित्तीय साख टूटने व खर्च में कटौती से होती है और बैंकों की बर्बादी से दीवालिएपन तक आती है. ग्रीस का पतन 2008 में शुरू हुआ. 2010 के बाद यूरोपीय समुदाय व आइएमएफ ने 240 अरब यूरो के दो पैकेज दिए, जिसमें 1.6 अरब यूरो की देनदारी बीते मंगलवार को थी, ग्रीस जिसमें चूक गया. ताजा डिफॉल्ट के साथ 1.1 करोड़ की आबादी वाला ग्रीक समाज वित्तीय मुश्किलों की लंबी सुरंग में उतर गया है. अब उसे कठोर शर्तें मानकर खर्च में जबरदस्त कटौती करनी होगी या खुद को दीवालिया घोषित करते हुए उस निर्मम दुनिया से निबटना होगा है जहां सूदखोर शायलॉक की तरह कर्ज वसूला जाता है. हाल का सबसे बड़ा डिफॉल्टर अर्जेंटीना पिछले एक दशक से यह आपदा झेल रहा है.
ग्रीस के संकट की वित्तीय पेचीदगियां उबाऊ हो सकती हैं लेकिन इस ट्रेजडी के कारणों में भारत में दिलचस्पी जरूर होनी चाहिए. वहां के सबसे बड़े जमीन घोटाले को अंजाम देने वाले वातोपेदी मॉनेस्ट्री को ही लें, जो उत्तर माउंट एटॉस प्रायद्वीप पर स्थित है और बाइजेंटाइन युग से ऑर्थोडॉक्स क्रिश्चियनिटी का सबसे पुराना केंद्र है. वित्तीय संकटों के अध्येता माइकल लेविस अपनी किताब बूमरैंग में लिखते हैं कि महंत इफ्राहीम इतना रसूखदार था कि वह एक ग्रीक बैंकर के साथ वातोपेदी रियल एस्टेट फंड बनाने वाला था. झील के बदले उसने जो सरकारी संपत्तियां हासिल कीं उनका दर्जा (लैंड यूज) बदलकर उन्हें वाणिज्यिक किया गया ताकि उन पर आधुनिक कॉम्प्लेक्स बनाए जा सकें. वातोपेदी मठ की यह कथा क्या आपको भारत के वाड्रा, आदर्श घोटाले अथवा धर्म ट्रस्टों के जमीन घोटालों की सहोदर नहीं लगती?
हेलेनिक या पश्चिमी सभ्यता के गढ़ ग्रीस की बदहाली बताती है कि सरकारें जब सच छिपाती हैं तो कयामत आती है. यूरोमुद्रा अपनाने के लिए ग्रीस को घाटे व कर्ज को (यूरोजोन ग्रोथ ऐंड स्टेबिलिटी पैक्ट) को काबू में रखने की शर्तें माननी थीं. इन्हें पूरा करने के लिए सरकार ने कई तरह के ब्याज, पेंशन, कर्जों की माफी, स्वास्थ्य सब्सिडी आदि भुगतानों को बजट से छिपा लिया और घाटे को नियंत्रित दिखाते हुए बाजार से खूब कर्ज उठाया. यूरोपीय समुदाय के आंकड़ा संगठन (यूरोस्टैट) की पड़ताल में पता चला कि 2009 में देश का घाटा जीडीपी के अनुपात में 12.5 फीसदी था जबकि सरकार ने 3.7 फीसदी होने का दावा किया था. इसके बाद देश की साख ढह गई. भारत के आंकड़ों में तो इतने फर्जीवाड़े हैं कि एक दो नहीं दसियों ग्रीस मिल जाएंगे. 
माइकल लुइस बूमरैंग में एक कंस्ट्रक्शन कंपनी का जिक्र करते हैं, जिसने एथेंस शहर में कई बड़ी इमारतें बनाकर बेच डालीं और एक भी यूरो का टैक्स नहीं दिया जबकि उस पर करीब 1.5 करोड़ यूरो के टैक्स की देनदारी बनती थी. इस फर्म ने दर्जनों छोटी कंपनियां बनाईं, फर्जी खर्च दिखाए और अंततः केवल 2,000 यूरो का टैक्स देकर बच निकली. ग्रीस में टैक्स चोरी के नायाब तरीके भले ही यूरोप व अमेरिका में दंतकथाओं की तरह सुने जाते हों लेकिन एथेंस की कंस्ट्रक्शन कंपनी की कर चोरी जैसे कई किस्से तो भारत में आपको एक अदना टैक्स इंस्पेक्टर सुना देगा.
 ग्रीस के बैंक उसकी त्रासदी का मंच हैं और बैंकों के मामले में भारत व ग्रीस में संकट के आकार का ही अंतर है. यूरोपीय बैंक अगर जोखिम भरे निवेश में डूबे हैं तो भारतीय बैंक सियासी-कॉर्पोरेट गठजोड़ में हाथ जला रहे हैं. भारतीय बैंक करीब तीन लाख करोड़ का कर्ज फंसाए बैठे हैं, जिनमें 40 फीसदी कर्ज सिर्फ 30 बड़ी कंपनियों पर बकाया है. भारत में बैंक नहीं डूबते क्योंकि सरकार बजट से पैसा देती रही हैं. देशी बैंक जमाकर्ताओं के पैसे से सरकार को कर्ज देते हैं और फिर सरकार उन्हें उसी पैसे से उबार लेती है. दरअसल यह आम लोगों की बचत या टैक्स भुगतान ही हैं जो बैंकों, सरकार व चुनिंदा कंपनियों के बीच घूमता है.
सरकारों का डिफॉल्टर होना नया नहीं है. दुनिया ने 1824 से 2006 के बीच 257 बार सॉवरिन डिफॉल्ट देखे हैं. दिवालिएपन पर आर्थिक शोध का अंबार मौजूद है, जिसे पढ़े बिना भी यह जाना जा सकता है कि यह त्रासदी सिर्फ वित्तीय बाजार की आकस्मिकताओं से नहीं आती बल्कि खराब गवर्नेंस, भ्रष्टाचार व वित्तीय अपारदर्शिता देशों मोहताज बना देती है.
यूरोप में कहावत है कि ग्रीस हमेशा अपनी क्षमता से बड़ा इतिहास बनाता है. उसने इस बार भी निराश नहीं किया. भारत व ग्रीस अब सिर्फ मिथकों या इतिहास के आइने में एक जैसे नहीं हैं, ग्रीस का वर्तमान भी भारत के लिए नसीहतें भेज रहा है. शुक्र है कि हम सुरक्षित हैं लेकिन क्या हम ग्रीस से कुछ सीखना चाहेंगे?



Monday, January 23, 2012

यूरोप करे, दुनिया भरे

मीर और खुशहाल यूरोप 2012 में दुनिया की सबसे बड़ी साझा मुसीबत बनने वाला है। अमेरिका  अपनी सियासत, मध्‍य पूर्व अपनी खींचतान और एशिया अपनी अफरा तफरी से मुक्‍त होकर जब विश्‍व की तरफ मुखातिब होंगे तब तक यूरोप दुनिया के पैर में बंधे सबसे बड़े पत्‍थर में तब्‍दील हो चुका होगा। दुनिया की दहलीज पर यूरोपीय संकट की दूसरी किश्‍त पहुंच गई है। 2012 में एक फीसदी से कम ग्रोथ वाला यूरोप दुनिया की मंदी का जन्‍मदाता होगा। कर्ज संकट का ताजा धुंआ अब जर्मनी के पश्चिम व पूरब से उठ रहा है। ग्रीस की आग बुझाने निकले फ्रांस के फायर टेंडर जलने लगे हैं। आस्ट्रिया की वित्‍तीय साख भी लपेट में आ गई है। कर्ज के अंगारों पर बैठे स्‍पेन, इटली पुर्तगाल, आयरलैंड की जलन दोगुनी हो गई है। इन सबके साथ यूरोप के सात छोटे देश भी बाजार में रुतबा गंवा बैठे हैं। रहा ग्रीस तो, वहां से तो अब सिर्फ दीवालियेपन की अधिकृत खबर का इंतजार है। यूरोप के कर्जमारों को  उबारने की पूरी योजना इन सारी मुसीबतों का एक मुश्‍त शिकार होने वाली है। यूरोप के पास मुश्किलों से उबरने के लिए पूंजी व संसाधनों की जबर्दस्‍त किल्‍लत होगी यानी  यूरोप का कर्ज इस साल दुनिया की देनदारी बन जाएगा।
मदद मशीन की मुश्किल
नए साल के पहले पखवाड़े में ही दुनिया की पांचवीं और यूरोप की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्‍यव्‍सथा अपनी साख गंवा बैठी। अमेरिका में राजनीतिक विरोध के बावजूद रेटिंग एजेंसी स्‍टैंडर्ड एंड पुअर ने बेखौफ होकर फ्रांस ट्रिपल ए रेटिंग छीन ली। यानी कि फ्रांस भी अब निवेशकों के लिए पूरी तरह सुरक्षित नहीं रहा। ऑस्ट्रिया ने भी अपनी तीन इक्‍कों वाली साख गंवा दी। फ्रांस व आस्ट्रिया की साख गिरने से कर्जमारे पिग्‍स (पुर्तगाल, इटली,ग्रीस, आयरलैंड, स्‍पेन) को उबारने वाली मशीन संकट में फंस गई है। एस एंड पी ने सबको चौंकाते हुए यूरोपियन फाइनेंशियल स्‍टेबिलिटी फैसिलिटी (ईएफएसएफ) का साख भी घटा दी। यह संस्‍था यूरोजोन के संकट निवारण तंत्र का

Monday, November 7, 2011

शिखर पर शून्‍य

हीं, वे कुछ नहीं कर सके!! झूठी मुस्‍कराहटों में खिसियाहट छिपाते हुए जी20 की बारात कांस से अपने डेरों को लौट गई है। 1930 की मंदी के बाद सबसे भयानक हालात से मुखातिब है दुनिया को अपने  रहनुमाओं कर्ज संकट और मंदी रोकने की रणनीति तो छोडि़ये, एकजुटता, साहस, दूरंदेशी, रचनात्‍मकता, नई सोच तक नहीं मिली। जी20 की जुटान शुरु से अंत तक इतनी बदहवास थी कि कि शिखर बैठक का 32 सूत्रीय बयान दुनिया के आर्थिक परिदृश्‍य पर उम्‍मीद की एक रोशनी भी नहीं छोड़ सका। इस बैठक के बाद यूरो जोन बिखराव और राजनीतिक संकट के कई कदम करीब खिसक गया है। इटली आईएमएफ के अस्‍पताल में भर्ती हो रहा है और जबकि ग्रीस के लिए ऑक्‍सीजन की कमी पड़ने वाली है। तीसरी दुनिया ने यूरोप के डूबते अमीरों को अंगूठा दिखा दिया है और मंदी से निबटने के लिए कोई ग्‍लोबल सूझ फिलहाल उपलब्‍ध नहीं है। कांस की विफलता की सबसे त्रासद पहलू यह है कि इससे दुनिया में नेतृत्‍व का अभूतपूर्व शून्‍य खुलकर सामने आ गया है अर्थात दुनिया दमदार नेताओं से खाली है। इसलिए कांस का थियेटर अपनी पूरी भव्‍यता के साथ विफल हुआ है।
डूबता यूरो
देखो लाश जा रही है ! (डेड मैन वाकिंग).. य‍ह टिप्‍पणी किसी ने इटली के प्रधानमंत्री सिल्वियो बर्लुस्‍कोनी को देखकर की थी जब वह कांन्‍स की बारिश से बचने के लिए काले ओवरकोट में लिपटे हुए फ्रेंस रिविऐरा रिजॉर्ट ( बैठक स्‍थल) पहुंचे। यह तंज आधे यूरोप के लिए भी फिट था, जो कर्ज में डूबकर अधमरा हो गया है। जी20 ने यूरोप का घाव खोल कर छोड़ दिया है। बैठक का उद्घघाटन यूरोजोन के बिखरने की चेतावनी के साथ हुआ। ग्रीस ने खुद को उबारने की कोशिशों को राजनीति (उद्धार पैकेज पर जनमत संग्रह) में फंसाकर पूरे यूरोपीय नेतृत्‍व की फजीहत करा दी और यूरो जोन की एकजुटता पर बन आई। ग्रीस का राजनीतिक संकट जब टला तब तक कांन्‍स का मेला उखड़ गया था। यूरोप को सिर्फ यह मिला कि कर्ज के जाल में फंसा इटली आईएमएफ की निगहबानी में आ गया है। जो इटली की गंभीर बीमारी

Monday, October 31, 2011

रहनुमाओं का थियेटर

बाल बाल बचा !!! कौन ? ग्रीस ? नहीं यूरोप अमेरिका को चलाने वाला एंग्‍लो सैक्‍सन आर्थिक मॉडल। ग्रीस अगर दिनदहाडे़ डूब जाता तो पूरा जी 20 ही बेसबब हो जाता। ग्रीस की विपत्ति टालने के लिए यूरोप में बैंकों की बलि का उत्‍सव शुरु हो गया है। बैंकों से कुर्बानी लेकर अटलांटिक के दोनों किनारों पर (अमेरिकी यूरोपीय) सियासत ने अपनी इज्‍जत बचा ली है नतीजतन ओबामा-मर्केल-सरकोजी-कैमरुन (अमेरिका, जर्मन फ्रांस, ब्रिटेन राष्‍ट्राध्‍यक्षों) की चौकडी जी 20 की कान्‍स पंचायत को अपना चेहरा दिखा सकेंगे। ग्रीस राहत पैकेज के बाद फिल्‍मों के शहर कांस (फ्रांस) में विश्‍व संकट निवारण थियेटर का कार्यक्रम बदल गया है। यहां अब भारत चीन जैसी उभरती ताकतों के शो ज्‍यादा गौर से देखे जाएंगे। इन नए अमीरों को यूरोप को उबारने में मदद करनी है और विकसित मुल्‍कों से अपनी शर्तें भी मनवानी हैं। विश्‍व के बीस दिग्‍गज रहनुमाओं के शो पर पूरी दुनिया की निगाहें हैं। कांस का मेला बतायेगा कि विश्‍व नेतृत्‍व ने ताजा वित्‍तीय हॉरर फिल्‍म की सिक्रप्‍ट बदलने की कितनी ईमानदार कोशिश की और यह संकट का यह सिनेमा कहां जाकर खत्‍म होगा।
और ग्रीस डूब गया
यूरोपीय सियासत की चपेट में आर्थिक परिभाषायें बदलने लगी हैं। शास्‍त्रीय अर्थों में मूलधन या ब्‍याज को चुकाने में असफल होने वाला देश संप्रभु दीवालिया (सॉवरिन डिफॉल्‍ट) है। इस हिसाब से बैंकों की कृपा ( तकनीकी भाषा में 50 फीसदी हेयरकट) का मतलब ग्रीस का दीवालिया होना है। मगर यूरोपीय सियासत इसे कर्ज माफी कह रही है। पिछली सदी के सातवें दशक में अर्जेंटीना यही हाल हुआ था और बाजार ने उसे दीवालिया ही माना था। यूरोप व तीसरी दुनिया में यही फर्क है। ग्रीस का ताजा पैकेज 2008 अमेरिकी लीमैन संकट की तर्ज पर है यानी कि बैंकर्ज माफ करेंगे और बाद में सरकारें बैंकों को

Monday, October 10, 2011

बैंक बलिदान पर्व

ग्रीस डूबने को तैयार है.. इसे यूं भी लिखा जा सकता है कि यूरोप के तमाम के बैंक डूबने को तैयार हैं। किसी देश का ,दीवालिया होने उसे खत्‍म नहीं कर देता है मगर ग्रीस के कर्ज चुकाने में चूकते ही कई बैंकों के दुनिया के नक्‍शे मिटने की नौबत आ जाएगी। दुनिया ग्रीस को बचाने के लिए बेचैन है ही नहीं, जद्दोजहद तो पूरी दुनिया के बैंकों, खासतौर पर यूरोप के बैंकों को महासंकट से बचाने की है। लीमैन और अमेरिका के कई बैंकों के डूबने के तीन साल के भीतर दुनिया में दूसरी बैंकिंग त्रासदी का मंच तैयार है। यूरोप में बैंकों के बलिदान का मौसम शुरु हो चुका है। डरे हुए वित्‍तीय नियामक बैंको को यानी आग के दरिया से गुजारने की योजना तैयार कर रहे हैं, ताकि जो बच सके बचा लिया जाए। बैंकों पर सख्‍ती की ताजी लहर भारत (स्‍टेट बैंक रेटिंग में कटौती) तक आ पहुंची है। यूरोप के संकट से बैंकों की दुनिया और दुनिया के बैंकों की सूरत व सीरत बदलना तय है।
बैंकों की बदहाली
370 बिलियन डॉलर के कर्ज से दबे ग्रीस के दीवालिया होते ही यूरोप के बैंकों में बर्बादी का बडा दौर शुरु होने वाला है। यह कर्ज तो बैंकों ने ही दिया है। बैंकों को यदि ग्रीस पर बकाया कर्ज का 40 फीसदी हिस्‍सा भी माफ करना पड़ा तो उनके बहुत बड़ी पूंजी डूब जाएगी। अपनी सरकार के कर्ज में सबसे बडे हिस्‍सेदार ग्रीस के बैंक तो उड़ ही जाएंगे। यूरोप के बैंक व सरकारें मिलकर ग्रीस के कर्ज में 60 फीसदी की हिस्‍सेदार हैं। इनमें भी फ्रांस, जर्मनी, इटली के बैंकों का हिस्‍सा काफी बड़ा है। इसलिए फ्रांस के दो प्रमुख बैंक बीएनपी पारिबा और क्रेडिट एग्रीकोल अपनी रेटिंग खो चुके हैं। पुर्तगाल, आयरलैंड व इटली भी कर्ज संकट में है और इन्‍हें कर्ज देने वाले बैंक ब्रिटेन, जर्मनी व स्‍पेन के हैं। यानी पूरे यूरोप के बैंक खतरे

Monday, July 25, 2011

साख की राख

याद नहीं पड़ता कि इतिहास को इस कदर तेजी से पहले कब देखा था। आर्थिक दुनिया में पत्थर की लकीरों का इस रफ्तार से मिटना अभूतपूर्व है। तारीख दर्ज कर रही है कि अब वित्‍तीय दुनिया अमेरिका की साख की कसम अब कभी नहीं खायेगी। इतिहास यह भी लिख रहा है कि ग्रीस वसतुत: दीवालिया हो गया है और समृद्ध और ताकतवर यूरोप में कर्ज संकटों का सीरियल शुरु हो रहा है। अटलांटिक के दोनों किनारे कर्ज के महामर्ज से तप रहे हैं। अमेरिकी सरकार कर्ज के गंभीर संकट में है। ओबामा कर्ज की सीमा बढ़ाने के लिए दुनिया को डराते हुए अपने विपक्ष को पटा रहे हैं, दो अगस्त के बाद अमेरिका सरकार के खजाने खाली हो जाएंगे। यूरोपीय समुदाय ने ग्रीस के इलाज ( सहायता पैकेज) से मुश्किलों का नया पाठ खोल दिया है। कर्ज के संकट से बचने के‍ लिए अमेरिका और यूरोप ने शुतुरमुर्ग की तरह अपने सर संकट की रेत में और गहरे धंसा दिये हैं। जबकि संप्रभु कर्ज संकटों का अतीत बताता हैं कि आग के इस दरिया में डूब कर ही उबरा जा सकता है। दिग्गज देशों की साख, राख बनकर उड़ रही है और वित्तीय बाजारों आंखों के सामने अंधेरा छा रहा है।
दीवालियेपन का अरमेगडॉन
...यानी वित्तीय महाप्रलय। राष्ट्रपति ओबामा ने अमेरिका के संभावित डिफॉल्ट ( यानी और कर्ज लेने पर पाबंदी) को यही नाम दिया है। अमेरिकी संविधान के मौजूदा सीमा के मुताबिक देश का सार्वजनिक (सरकारी) कर्ज 14.29 ट्रिलियन डॉलर से ऊपर नहीं जा सकता। कर्ज का यह घड़ा इस साल मई में भर गया था। अमेरिका में सार्वजनिक कर्ज जीडीपी का 70 फीसदी है। संसद से कर्ज की सीमा बढ़वाये बिना, अमेरिकी सरकार एक पाई का कर्ज भी नहीं ले पाएगी। ओबामा विपक्ष को डरा व पटा रहे हैं और पहले दौर कोशिश खाली गई है। विपक्षी कर्ज की सीमा बढ़ाने के लिए कर बढ़ाने व खर्च काटने ( करीब 2.4 ट्रिलियन डॉलर का पैकेज) की शर्त लगा रहे है। घटती लोकप्रियता के बीच चुनाव की तैयारी में लगे ओबामा यह राजनीतिक जोखिम नहीं ले सकते। अमेरिका का डिफॉल्‍ट होना आशंकाओं भयानक चरम