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Tuesday, September 6, 2016

आखिरी मंजिल की चुनौती


ढाई साल पूरे कर रही मोदी सरकार को अब क्रियान्वयन की चुनौती से दो-दो हाथ करने चाहिएजो उसके अच्छे-अच्छे इरादों को पटरी से उतार रही है.

दिल्ली से 150 किमी दूर उत्तर प्रदेश का गांव नगला फतेला मोदी सरकार की नई किरकिरी है. गांवों में बिजली पहुंचाने को लेकर एक साल पुराने अभियान की सफलता का जिक्र करते हुए प्रधानमंत्री ने लाल किले से ऐलान कर दिया कि इस गांव में सत्तर साल बाद बिजली पहुंच चुकी है. भाषण को सात घंटे भी नहीं बीते थे कि सरकार को पता चला कि दावा गलत हैक्योंकि गांव में अब तक अंधेरा है. इसके बाद ट्वीट वापस लेने और उत्तर प्रदेश सरकार से कैफियत तलब करने का दौर शुरू हुआ.
स्कीमों को लाभार्थी तक पहुंचाने की चुनौती भारतीय गवर्नेंस की बुनियादी उलझन है. नगला फतेला इसका सबसे नया नुमाइंदा है. मोदी सरकार के साथ यह उलझन ज्यादा बढ़ गई है क्योंकि नई महत्वाकांक्षी स्कीमें बनाने से पहले पुराने तजुर्बों से कुछ नहीं सीखा गया. दूसरी तरफ प्रचार इतना तेज हुआ कि नगला फतेला कई जगह नजर आने लगे.
स्कीमें बनाने में हमारे नेता लासानी हैं. अच्छी स्कीमें पहले भी बनीं और इस सरकार ने भी बनाईं. स्कीमों की दूसरी मंजिल संसाधन जुटानेसमन्वय (केंद्रराज्य और सरकारी विभागों से) और लक्ष्य  तय करने की है. लाभार्थी तक पहुंचाने के बाद स्कीम को आखिरी मंजिल मिलती है. सरकार की कई स्कीमें दूसरी मंजिल भी पार कर नहीं कर पाई हैंजबकि मध्यावधि लग चुकी है.
नगला फतेला के संदर्भ में तीन प्रमुख स्कीमों की पड़ताल की जा सकती हैजो लास्ट माइल चैलेंज की शिकार हैं.
नवंबर, 2015 में जब सरकार ने सर्विस टैक्स पर 0.5 फीसदी सेस लगायातब तक स्वच्छता अभियान को एक साल बीत चुका था और स्कीम के लक्ष्यक्रियान्वयन का तरीका व संसाधन तय नहीं हो पाए थे. सफाई का मिशन नगरों व गांवों में संपूर्ण स्वच्छता की उम्मीद जगाता थालेकिन एक साल के भीतर ही इसे यूपीए सरकार के निर्मल ग्राम की तर्ज पर गांवों में शौचालय बनाने और खुले में शौच को समाप्त करने पर सीमित कर दिया गया.
नया टैक्स लगने से संसाधन मिलने लगेलेकिन अभियान में गति नहीं आई. शहरों की सफाई अंतत: नगर निकायों को करनी है जिनके पास संसाधन नहीं हैं. यदि संसाधन नगर निगमों को जाने लगते तो शहरों में सफाई का पहिया घूम सकता था. गांवों में शौचालय बनाते समय यह नहीं देखा गया कि पानी की आपूर्ति और मल निस्तारण का इंतजाम कैसे होगा. इन दोनों बुनियादी जरूरतों के लिए संसाधनों की व्यवस्था स्कीम में शामिल नहीं थी. इसलिए गांवों में बने शौचालय इस्तेमाल के लायक नहीं हो सके.
ताजा सूरते-हाल यह है कि सरकारी संकल्पस्कीमोंविभागों और नए टैक्स के बावजूद शहर व गांव जस के तस गंदे हैं. 
दूसरा उदाहरण डायरेक्ट बेनीफिट ट्रांसफर (लाभार्थियों तक सीधे सब्सिडी) स्कीम का है. स्कीम के पास संसाधनों की चुनौती नहीं थी क्योंकि सब्सिडी पहले से बांटी जा रही थी. अलबत्ता एलपीजी सब्सिडी बांटने में मिली सफलता के बाद स्कीम ठिठक-सी गई. दरअसलएलपीजी सब्सिडी यूनिवर्सल थी यानी सबको मिलनी थी. केरोसिन या दूसरी सब्सिडी स्कीमों की तरहइसमें लाभार्थियों को पहचानने की चुनौती नहीं थी. 
एलपीजी के बाद डीबीटी का सफर धीमा पड़ गया. केरोसिन व खाद्य सब्सिडी की डीबीटी स्कीमें सक्रिय नहीं हो सकीं. सब्सिडी वाली स्कीमों को अलग-अलग मंत्रालय चलाते हैं. इसमें राज्य सरकारों की भूमिका भी महत्वपूर्ण है. यह समग्र समन्वय ही डीबीटी की दूसरी मंजिल है. एलपीजी में यह काम आसानी से हो गया क्योंकि पेट्रोलियम मंत्रालयतेल कंपनियों और कुछ सौ गैस एजेंसियों को यह स्कीम लागू करनी थी. अन्य स्कीमों के मामले में यह इतना आसान नहीं है. लाभार्थियों की पहचान इस स्कीम की आखिरी मंजिल हैजिसका पैमाना अभी तक तय नहीं है. मनरेगा को डीबीटी से जोडऩे की कोशिशें तेज नहीं हो सकीं क्योंकि राज्यों व केंद्र के बीच तालमेल नहीं बन पाया.
डीबीटी के लिए सरकार के पास संसाधन हैं. सफलताओं का तजुर्बा भी हैलेकिन समन्वय और क्रियान्वयन की चुनौतियों के कारण मंजिल नहीं मिल सकी है.
सांसद आदर्श ग्राम योजना भारत में ग्रामीण विकास की सबसे क्रांतिकारी पहल हो सकती थी क्योंकि पहली बार किसी सरकार ने चुने हुए सर्वोच्च प्रतिनिधि को लोकतंत्र की सबसे निचली इकाई यानी पंचायत से जोड़ा था. सांसद निधि से जोड़े जाने पर यह स्कीम चमत्कारिक हो सकती थी. लेकिन योजना के लक्ष्य अस्पष्ट थे. गांवों में केंद्र व राज्य की दर्जनों स्कीमें चलती हैं जिनसे समन्वय नहीं हुआ इसलिए सरकारी विभाग तो दूरसांसदों ने भी गांवों को अपनाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई और एक बड़ी पहल बीच में ही दम तोड़ गई.
कैबिनेट में ताजे फेरबदल से पहले प्रधानमंत्री ने कहा था कि मेरे लिए सफलता का अर्थ यह है कि लोग बदलाव महसूस करें. यदि उपलब्धियों का दावा करना पड़े तो मैं इसे सफलता नहीं मानूंगा. हालांकि प्रधानमंत्री को खुदलाल किले के मैराथन भाषण में रह-रहकर दावे करने पड़े.
स्वाधीनता दिवस पर प्रधानमंत्री का भाषण उनकी बेचैनी बता रहा था कि सरकार आधा रास्ता पार कर चुकी हैलेकिन स्कीमों के असर नजर नहीं आ रहे हैं. अच्छा है कि प्रधानमंत्री बेचैन हैंकांग्रेस की तरह हकीकत से गाफिल नहीं. राजनेताओं की बेचैनी अच्छी होती है खासतौर पर तब जबकि सरकार को हकीकत का अंदाजा हो.

ढाई साल पूरे कर रही मोदी सरकार को अब क्रियान्वयन की चुनौती से दो-दो हाथ करने चाहिएजो उसके अच्छे-अच्छे इरादों को पटरी से उतार रही है. सरकार को स्कीमों की भीड़ से निकल कर चुनिंदा कार्यक्रमों को चुनना होगा और उन्हें नतीजों तक पहुंचाना होगा ताकि बदलाव महसूस हो सके. प्रधानमंत्री के पास अब नगला फतेला जैसे तजुर्बों की कोई कमी नहीं है. अपेक्षाओं के खेल का जोखिम भी अब तक उन्हें समझ आ गया होगा. उनकी होड़ अब वक्‍त के साथ हैजिसके गुजरने की रफ्ता्र पर उनका कोई काबू नहीं है. 

Sunday, November 22, 2015

मुश्किलों के अच्‍छे दिन


स्‍वच्‍छ भारत सेस लगाने के ताजा तरीके ने यह साबित किै कि सरकार में कुछ भी नहीं बदला है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिस समय लंदन के वेंबले स्टेडियम में गरज रहे थे और भारत को कारोबार के लिए आदर्श जगह बता रहे थे, ठीक उसी समय देश के उद्यमी और व्यापारी स्वच्छ भारत सेस (उपकर) की गुत्थियों से उलझ रहे थे जो भारत में कारोबार को आसान बनाने को लेकर किए गए ताजा दावों की चुगली खाता है. अपनी अपारदर्शिता के चलते सेस यानी उपकर टैक्सेशन में सबसे निचले दर्जे के उपकरण हैं, ऊपर से इसे लगाने के ताजा तरीके ने यह साबित कर दिया है कि सरकार में कहीं कुछ नहीं बदला है. राज्यों को नरेंद्र मोदी सरकार का सेस राज्य चिंतित कर रहा है और रही बात उपभोक्ताओं की तो उनके लिए तो समझ से ही परे है कि महंगाई की मार के बीच सरकार इनडाइरेक्ट टैक्स बढ़ाकर क्या साबित और हासिल करना चाहती है.
सेस कभी भी ऐसे नहीं लगाए गए जैसे कि एनडीए सरकार स्वच्छ भारत सेस लेकर आई. सेस लगाने के समय और तरीके ने सरकार में सूझ की घोर कमी को साबित किया है. 6 नवंबर को सर्विस टैक्स पर 0.5 फीसदी स्वच्छ भारत सेस लगाने की अधिसूचना जारी हुई और 15 नवंबर से यह लागू हो गया. यह पता नहीं कौन-सी कारोबारी सहजता थी जो महीने के बीच से एक नया कर लगा दिया गया. उद्यमियों व व्यापारियों को बिलों व रिटर्न में इस सेस का अलग से हिसाब करना होगा लेकिन त्योहारी छुट्टियों के बीच उनके पास नई एकाउंटिंग की तैयारी का समय तक नहीं था, इस बीच स्वच्छ भारत सेस उनके सिर पर आकर खड़ा हो गया. इस सेस को लेकर तीन अलग-अलग अधिसूचनाएं जारी की गईं जो बला की भ्रामक थीं. इसके बाद एक लंबी प्रेस रिलीज जारी हुई और फिर आई एक विस्तृत प्रश्नोत्तरी. इस पूरी कवायद के बाद किसी को यह मुगालता नहीं रहा कि केंद्रीय सीमा व उत्पाद शुल्क बोर्ड ने इस सेस को लेकर कोई तैयारी नहीं की थी. शायद बिहार विधानसभा चुनाव खत्म होने का इंतजार था जिसके बाद इसे अचानक थोप दिया गया. बेचारे व्यापारी सर्विस टैक्स की दर में ताजा बढ़ोतरी के मुताबिक अपने बिल वाउचर ठीक कर पाते, इससे पहले ही उनके लिए नया मोर्चा खुल गया है.
स्वच्छ भारत सेस में स्वच्छता की बड़ी कमी है. इसे लगाने के बाद सर्विस टैक्स की दर करीब 14.50 फीसदी हो जाएगी. बजट में जब सर्विस टैक्स (एजुकेशन सेस सहित) की दर 12.36 फीसदी से बढ़ाकर 14 फीसदी की गई थी उसी वक्त इस सेस को जोड़ कर सर्विस टैक्स को 14.50 फीसदी किया जा सकता था या फिर सरकार अगले बजट तक रुक सकती थी, जिसमें अब केवल तीन माह बचे हैं. ध्यान रहे कि वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बजट में 2 फीसदी की दर से स्वच्छ भारत सेस लगाने का ऐलान किया है यानी अभी और सेस लगेगा या सर्विस टैक्स की दर को बढ़ाकर 16 या 18 फीसदी किया जाएगा. यदि सरकार जीएसटी के जरिए कारोबार को आसान करने का दावा कर रही है तो यह सेस उन दावों का बिल्कुल उलटा है, क्योंकि एनडीए सरकार के इस नए सेस राज से कारोबारियों के लिए कर नियमों के पालन की लागत (कंप्लायंस कॉस्ट) बुरी तरह बढऩे वाली है.
यह सेस राज नए किस्म के अपारदर्शी इनडाइरेक्ट टैक्स सिस्टम की आहट है, जिसकी उम्मीद मोदी सरकार से तो नहीं थी जो यह मानती रही है कि परतदार करों का मकडज़ाल, महंगाई की सबसे बड़ी वजह है. प्राथमिक शिक्षा व उच्च शिक्षा सेस, पेट्रोलियम पर रोड डेवलपमेंट सेस, निर्यातों पर सेस पहले कायम हैं. इसी बजट में सरकार ने कोयले पर क्लीन एनर्जी सेस की दर दोगुनी कर दी है. इसके बाद स्वच्छ भारत सेस के साथ वित्त मंत्री ने सेस परिवार में नया सदस्य जोड़ दिया है. मोदी सरकार के पहले दो बजट अप्रत्यक्ष करों से भरपूर रहे हैं. सरकार का अप्रत्यक्ष कर संग्रह बेहतर रफ्तार दिखा रहा है इसलिए नए टैक्स टाले जा सकते थे. सरकार को यह सोचना पड़ेगा कि क्या मंदी से जूझती अर्थव्यवस्था इनडाइरेक्ट टैक्स की इतनी मार झेल सकती है और क्या टैक्स राज के जरिए महंगाई की आंच बढ़ाकर सरकार अपने लिए राजनैतिक मुसीबत नहीं न्योत रही है?
सरकार का सेस राज जीएसटी पर सहमति की राह में भी बाधा बनने को तैयार है. मोदी सरकार ने केंद्रीय करों में राज्यों का हिस्सा बढ़ाने की वित्त आयोग की सिफारिश मानने के बाद राजस्व में कमी को पूरा करने के लिए सेस और सरचार्ज की बारिश कर दी है. सभी तरह के सेस व सरचार्ज से केंद्र सरकार को करीब 1.15 लाख करोड़ रु. का राजस्व मिलने का अनुमान है. राज्य सरकारें यह सवाल जरूर उठाएंगी कि केंद्र सरकार बुनियादी टैक्स ढांचे से किनारा करते हुए सेस व सरचार्ज के जरिए राजस्व जुटा रही है जो वित्तीय संघवाद के माफिक नहीं है. मोदी सरकार जब जीएसटी पर राज्यों को सहमत करने की कोशिश कर रही है तो इस तरह की राजस्व चालाकी से बचना चाहिए था. यह सेस राज न केवल उद्योगों, उपभोक्ताओं की मुसीबत है बल्कि राज्यों के बीच केंद्र की साख को भी कम करेगा.
टैक्सेशन को लेकर मोदी सरकार के अठारह महीनों का कामकाज यह बताता है कि या तो सरकार में एक हाथ को यह पता नहीं है कि दूसरा हाथ क्या कर रहा है अथवा फिर कहीं कोई योजना ही नहीं है और व्यवस्था ज्यों की त्यों है. भारत में कारोबारी सहजता का परचम लेकर दुनिया में घूम रहे प्रधानमंत्री इस तथ्य से अनभिज्ञ कैसे हो सकते हैं कि उनकी सरकार का टैक्स प्रशासन भारत में धंधे को मुश्किल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है. पहले इनकम टैक्स, मैट के फैसलों ने निवेशकों की उम्मीदें तोड़ी थीं और अब एक्साइज व सर्विस टैक्स की बारी है.
क्या प्रधानमंत्री व वित्त मंत्री कुछ ठहर कर यह जांचने की कोशिश करेंगे कि उनके वादों और हकीकत के बीच अंतर नहीं बल्कि एक खाई तैयार हो चुकी है जो सरकार की साख को हर दिन निगल रही है? उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि बदलाव के अवसरों की भी उलटी गिनती शुरू हो चुकी है.