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Sunday, January 23, 2022

भविष्‍य की नापजोख

 



बात अक्‍टूबर 2021 की है कोविड का नया अवतार यानी ऑम‍िक्रॉन दुनिया के फलक पर नमूदार नहीं हुआ था, उस दौरान एक बेहद जरुरी खबर उभरी और भारत के नीति न‍िर्माताओं को थरथरा गई.

अंतरराष्‍ट्रीय मुद्रा कोष ने भारत के आर्थ‍िक विकास दर की अध‍िकतम रफ्तार का अनुमान घटा द‍िया था. यह छमाही या सालाना वाला आईएमएफ का आकलन नहीं था बल्‍क‍ि मुद्रा कोष ने भारत का पोटेंश‍ियल जीडीपी 6.25 फीसदी से घटाकर 6 फीसदी कर द‍िया यानी एक तरह से यह तय कर दिया था कि अगले कुछ वर्षों में भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था में 6 फीसदी से ज्‍यादा की दर से नहीं दौड़ सकती.

हर छोटी बड़ी घटना पर लपककर प्रत‍िक्रिया देने वाली सरकार में पत्‍ता तक नहीं खड़का. सरकारी और निजी प्रवक्‍ता सन्‍नाटा खींच गए, केवल वित्‍त आयोग के अध्‍यक्ष एन के सिंह, आईएमएफ के इस आकलन पर अचरज जाह‍िर करते नजर आए.

अलबत्‍ता खतरे की घंट‍ियां बज चुकी थीं. इसलिए जनवरी में जब केंद्रीय सांख्‍य‍िकी संगठन वित्‍त वर्ष 2022 के  पहले आर्थिक अनुमान में बताया कि विकास दर केवल 9.2 फीसदी रहेगी तो बात कुछ साफ होने लगी.  यह आकलन आईएमएफ और रिजर्व बैंक के अनुमान (9.5%) से नीचे था. सनद रहे कि इसमें ऑमिक्रान का असर जोड़ा नहीं गया था यानी कि 2021-22 के मंदी और 21-22 की रिकवरी को मिलाकर चौबीस महीनों में भारत की शुद्ध  विकास  दर शून्‍य या अध‍िकतम एक फीसदी रहेगी.

इस आंकड़े की भीतरी पड़ताल ने हमें बताया कि आईएमएफ के आकलन पर सरकार को सांप क्‍यों सूंघ गया. पोटेंश‍ियल यानी अध‍िकतम संभावित जीडीपी दर, किसी देश की क्षमताओं के आकलन का विवाद‍ित लेक‍िन सबसे  दो टूक पैमाना है.  सनद रहे कि जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्‍पादन  किसी एक समय अवधि‍ में किसी अर्थव्‍यवस्‍था हुए कुल उत्‍पादन का मूल्‍य  जिसमें उत्‍पाद व सेवायें दोनों शाम‍िल हैं.

पोंटेश‍ियल जीडीपी का मतलब है कि एक संतुल‍ित महंगाई दर पर कोई अर्थव्‍यवस्‍था की अपनी पूरी ताकत झोंककर अध‍िकतम कितनी तेजी से दौड़ सकती है. मसलन  यूरोप की किसी कंपनी को भारत में निवेश करना हो तो वह भारत के  मौजूदा तिमाही व सालाना जीडीपी को बल्‍क‍ि उस भारत की अध‍िकतम जीडीपी वृद्ध‍ि क्षमता (पोटेंश‍ियल जीडीपी) को देखेगी क्‍यों कि सभी आर्थि‍क फैसले भविष्‍य पर केंद्रित होते हैं

यद‍ि जीडीपी इससे ज्‍यादा तेज  दौड़ेगा तो महंगाई तय है और अगर इससे नीचे है तो अर्थव्‍यवस्‍था सुस्‍त पड़ रही है. आईएमएफ मान रहा है कि मंदी के बाद अब भारत की अर्थव्‍यवस्‍था, महंगाई या अन्‍य समस्‍याओं को आमंत्रित किये बगैर,  अध‍िकतम छह फीसदी की दर से ज्‍यादा तेज नहीं  दौड़ सकती .  

मुद्रा कोष जैसी कई एजेंस‍ियों को क्‍यों लग रहा है कि भारत की विकास दर अब लंबी सुस्‍ती की गर्त में चली गई है. दहाई के अंक की ग्रोथ तो दूर की बात है भारत के लिए अगले पांच छह साल में औसत सात फीसदी की‍विकास दर भी मुश्‍क‍िल है ? कोविड की मंदी से एसा क्‍या टूट गया है जिससे कि भारत की आर्थिक क्षमता ही कमजोर पड़ रही है.

इन  सवालों के कुछ ताजा आंकडों में मिलते हैं बजट से पहला जिनका सेवन हमारे लिए बेहद जरुरी है

-         भारत की जीडीपी की विकास दर अर्थव्‍यवस्‍था में आय बढ़ने के बजाय महंगाई बढ़ने के कारण आई है . वर्तमान मूल्‍यों पर रिकवरी तेज है जबकि स्‍थायी मूल्‍यों पर कमजोर. यही वजह है कि खपत ने बढ़ने के बावजूद  सरकार का टैक्‍स संग्रह बढ़ा है

-         बीते दो साल में भारत के निर्यात वृद्धि दर घरेलू खपत से तेज रही है. इसमें कमी आएगी क्‍यों कि दुनिया में मंदी के बाद उभरी तात्‍कालिक मांग थमने की संभावना है. ग्‍लोबल महंगाई इस मांग को और कम कर रही है.

-         सितंबर 2021 तक जीएसटी के संग्रह के आंकडे बताते हैं कि बीते दो साल की रिकवरी के दौरान टैक्‍स संग्रह में भागीदारी में छोटे उद्योग बहुत पीछे रह गए हैं जबक‍ि 2017 में यह लगभग एक समान थे. यह तस्‍वीर सबूत है कि बड़ी कंपनियां मंदी से उबर गई हैं लेकिन छोटों की हालत बुरी है. इन पर ही सबसे भयानक असर भी हुआ था और इन्‍हीं में सबसे ज्‍यादा रोजगार निहित हैं.

-         यही वजह है कि गैर कृष‍ि रोजगारों की हाल अभी बुरा है. नए रोजगारों की बात तो दूर सीएमआई के आंकड़ों के अनुसान अभी कोविड वाली बेरोजगारी की भरपाई भी नहीं हुई है.  सनद रहे कह श्रम मंत्रालय के आंकड़े के अनुसार भारत में 92 फीसदी कंपनियों में कर्मचारियों की संख्‍या  100 से कम है और जबकि 70 फीसदी कंपनियों में 40 से कम कर्मचारी हैं.

भारतीय अर्थव्‍यस्‍था की यह तीन नई ढांचागत चुनौतियां का नतीजा है तक जीडीपी में तेज रिकवरी के आंकड़े बरक्‍स भारत में निजी खपत आठ साल के न्‍यूनतम स्‍तर पर यानी जीडीपी का 57.5 फीसदी है. दुनिया की एजेंसियां भारत की विकास की क्षमताओं के आकलन इसलिए घटा रही हैं.

पहली – खपत को खाने और लागत को बढ़ाने वाली महंगाई जड़ें जमा चुकी हैं. इसे रोकना सरकार के वश में नहीं है इसलिए मांग बढ़ने की संभावना सीमत है

दूसरा- महंगाई के साथ ब्‍याज दरें बढ़ने का दौर शुरु हेा चुका है. महंगे कर्ज और टूटती मांग के बीच कंपन‍ियों से नए निवेश की उम्‍मीद बेमानी है. सरकार बीते तीन बरस में अध‍िकतम टैक्‍स रियायत दे चुकी है

तीसरा- राष्‍ट्रीय अर्थव्‍यवस्‍था में केंद्र सरकार के खर्च का हिस्‍सा केवल 15 फीसदी है. बीते दो बरस में इसी खर्च की बदौलत अर्थव्‍यवस्‍था में थोड़ी हलचल दिखी  है लेकिन इस खर्च नतीजे के तौर सरकार का कर्ज जीडीपी के 90 फीसदी के करीब पहुंच रहा. इसलिए अब अगले बजटों में बहुत कुछ ज्‍यादा खर्च की गुंजायश नहीं हैं

 

इस बजट से पूरी द‍ुनिया बस  एक सवाल का जवाब मांगेगी वह सवाल यह है कि मंदी के गड्ढे से उबरने के बाद भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था में दौड़ने की कितनी ताकत बचेगी. यानी भारत का पोटेंशि‍यल जीडीपी कि‍तना होगा. व्‍यावहारिक पैमानों पर भी  पोटेंश‍ियल जीडीपी की पैमाइश खासी कीमती है क्‍यों कि यही पैमाना  मांग, खपत, निवेश मुनाफों, रोजगार आदि के मध्‍यवाध‍ि आकलनों का आधार होता है.

यूं समझें कि भारत में न‍िवेश करने की तैयारी करने वाली किसी कंपनी से लेकर स्‍कूलों में पढ़ने वाले युवाओं का भविष्‍य अगली दो ति‍माही की विकास दर या चुनावों के नतीजों पर नहीं बल्‍क‍ि अगल तीन साल में  तेज विकास की तर्कसंगत क्षमताओं पर निर्भर होगा.

नोटबंदी और कई दूसरी ढांचागत चुनौत‍ियों के कारण  भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था में चीन दोहराये जाने यानी दोहरे अंकों के विकास दर की उम्‍मीद तो 2016 में ही चुक गई थी. अब कोविड वाली मंदी से उबरने में भारत की काफी ताकत छीज चुकी है इसलिए अगर सरकार के पास कोई ठोस तैयारी नहीं दिखी तो भारत के लिए वक्‍त मुश्‍क‍िल होने वाला है. सनद रहे यद‍ि अगले अगले एक दशक में  भारत ने कम से  8-9 फीसदी की औसत विकास दर हासिल नहीं की तो मध्‍य वर्ग आकार  दोगुना करना बेहद मुश्‍कि‍ल  हो जाएगा. यानी कि भारत की एक तिहाई आबादी का जीवन स्‍तर बेहतर करना उनकी खपत की गुणवत्‍ता सुधार कभी नहीं हो सकेगा.

चुनावी नशे में डूबी राजनीति शायद इस भव‍िष्‍य को नहीं समझ पा रही है लेकिन भारत पर दांव लगाने वाली कंपन‍ियां मंदी की जली हैं, वे सरकारी दावों का छाछ भी फूंक फूंक कर पिएंगी.

 

Monday, December 27, 2010

भूल-चूक, लेनी-देनी

अर्थार्थ
शुक्र है कि हम सुर्खियों से दूर रहे। आर्थिक दुनिया ने दस के बरस में जैसी डरावनी सुर्खियां गढ़ी उनमें न आने का सुकून बहुत गहरा है। करम हमारे भी कोई बहुत अच्छेह नहीं थे। हमने इस साल सर ऊंचा करने वाली सुर्खियां नहीं बटोरीं लेकिन ग्रीस, आयरलैंड, अमेरिका के मुकाबले हम, घाव की तुलना में चिकोटी जैसे हैं। अलबत्ता इसमें इतराने जैसा भी कुछ नहीं है। वक्त, बड़ा काइयां महाजन है। उसके खाते कलेंडर बदलने से बंद नही हो जाते हैं बल्कि कभी कभी तो उसके परवाने सुकून की पुडि़या में बंध कर आते हैं। मंदी व संकटों से बचाते हुए वक्त हमें आज ऐसी हालत में ले आया है जहां गफलत में कुछ बड़ी नसीहतें नजरअंदाज हो सकती हैं। दस के बरस बरस का खाता बंद करते हुए अपनी भूल चूक के अंधेरों पर कुछ रोशनी डाल ली जाए क्यो कि वक्त की लेनी देनी कभी भी आ सकती है।
लागत का सूद
सबसे पहले प्योर इकोनॉमी की बात करें। भारत अब एक बढती लागत वाला मुल्क हो गया है। पिछले कुछ वर्षों की तेज आर्थिक विकास दर ने हमें श्रम (लेबर कॉस्ट) लागत को ऊपर ले जाने वाली लिफ्ट में चढ़ा दिया है। सस्ता श्रम ही तो भारत की सबसे बड़ी बढ़त थी। वैसे इसमें कुछ अचरज नहीं है क्यों कि विकसित होने वाली अर्थव्यरवस्थाओं में श्रम का मूल्यं बढ़ना लाजिमी है। अचरज तो यह है कि हमारे यहां लागत हर तरफ से बढ़