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Monday, September 4, 2017

हस्ती कायम रहे हमारी


शंख और लिखित परम तपस्वी ऋषि थे. दोनों सगे भाई. एक दिन लिखितशंख के आश्रम पर पहुंचे. शंख कहीं गए हुए थे. भूखे लिखितआश्रम के वृक्षों से फल तोड़कर खाने लगे. इतने में शंख आ गए. उन्होंने फल तोडऩे से पहले किसी की अनुमति ली थी लिखित ?
लिखित निरुत्तर थे.

शंख ने कहायह चोरी है. आपको राजा सुद्युम्न से दंड मांगने जाना होगा. 

लिखित दरबार में पहुंचे और पूरा प्रकरण बताकर दंड देने की याचना की. राजा ने कहाअपराध को मैं क्षमा करता हूं. लिखित ने कहानहींमुझे दंड भुगतना ही होगा.

ऋषि के आग्रह पर राजा ने उनके दोनों हाथ कटवा दिएजो चोरी के अपराध की सजा थी.

हाथ गंवाकर लिखित पुनः शंख के पास पहुंचे. शंख ने उन्हें नदी में स्नान और तप करने के लिए कहा और (जैसा कि मिथकों में होता है) स्नान करते ही लिखित के हाथ वापस आ गए.

लिखित फिर शंख के पास आए और पूछा कि जब आप अपने तप से मुझे पवित्र कर सकते थे तो फिर दंड क्यों

शंख ने कहा कि हम तपस्वी हैंलोग हमें आदर्श मानते हैं इसलिए हमारा छोटा-सा अपराध भी क्षम्य नहीं है. रही बात दंड की तो वह मेरा अधिकार नहीं है इसलिए आपको राजा के पास भेजा.

महाभारत के शांति पर्व की यह कथा इसके बाद शंख और लिखित के बारे में कुछ नहीं कहती बल्कि यह बताती है कि न्याय के मानकों पर ऋषि को भी सजा देने वाला राजा सुद्युम्न सशरीर स्वर्ग चला गया.

यह कहानी व्यास ने युधिष्ठिर को सुनाई थी जो युद्ध के बाद न्यायधर्म के अंतर्गत यह सीख रहे थे किः
एकः जो समाज में जितना ऊंचा हैउसका अपराध उतना ही बड़ा होता है.
दोः अपराधी ऋषि को भी सजा देने वाला राजा पूज्य  होता है.

गुरमीत सिंह पर अदालत के फैसले को गौर से पढऩा चाहिए. पूरे निर्णय में विस्मय से भरा क्षोभ गूंजता है. मानो कहना चाहता हो कि संत और बलात्कार! यह कैसे सहन हो सकता हैधर्म को जीवन मूल्य और न्याय मानने वाले समाज के लिए यह बर्दाश्त करना असंभव है कि उसके अनन्य विश्वास का कर्णधार कोई संत यौनाचारी भी हो सकता है.

इंसाफ करना सबसे कठिन तब होता है जब समाज के विश्वास के शिखर पर बैठा कोई व्यक्ति कठघरे में होता है. आसान नहीं रहा होगा एक दंभी-लंपट संत पर फैसला करना जो लाखों भोले अनुयायियों और राजनैतिक रसूख की ताकत से डकारता हुआ न्याय को मरोडऩा चाहता था. फैसले के बाद हिंसा की आशंका को जानते हुए भीन्यायाधीश गुरमीत को सजा इसलिए दे पाए क्योंकि वे उस बेचैनी को सुन पा रहे थे जो हमें एक धार्मिक समाज के रूप में शर्मिंदा कर रही थी.

क्या भारत की अदालतें लंपट साधुओं के प्रति अतिरिक्त कठोर हो रही हैंलोकप्रियता के शिखर पर बैठे लोगों के अपराध को लेकर अदालतें ज्यादा ही आक्रामक हैंयदि हकीकत में ऐसा है तो हमें स्वयं पर गर्व करना चाहिए. यही तो वह बात है जिसकी वजह से हस्ती मिटती नहीं हमारी. कहीं न कहींकोई न कोई आगे आकर हमें उम्मीद का दीया पकड़ा जाता है.  

यदि बलात्कारी बाबाओं या उच्च पदस्थ अपराधियों को लेकर अदालतें बेरहम हो रही हैं तो यह न्याय व्यवस्था में एक गुणात्मक बदलाव है जिसे लाने के लिए हमें सड़क पर मोमबत्तियां नहीं जलानी पड़ीं.

अदालतों की सक्रियता पर चिंतित होने की बजाए यह जानना बेहतर होगा कि 21वीं सदी में चर्च की सबसे बड़ी उलझन दरअसल यौन कुंठित व बलात्कारी बिशप और पुजारी हैं. इसी साल जून में पोप फ्रांसिस के वित्तीय सलाहकार और वेटिकन के एक सर्वोच्च कार्डिंनल जॉर्ज पेल को मेलबर्न की अदालत ने यौन अपराधों (जब वे ऑस्ट्रेलिया के आर्कबिशप थे) में सजा सुनाई है. कैथोलिक चर्च में यौन और बाल शोषण के मामले लगातार सुर्खियों में है. इस तरह की करीब 2000 शिकायतों पर लंबे समय से बैठा वेटिकन लंबे अरसे से पश्चिमी प्रेस के निशाने पर है.

चर्च भारत की अदालतों से कुछ सीखना चाहेगा?

वैसेभारत की अदालतें एक तरह का प्रायश्चित भी कर रही हैं. अपराधी और भ्रष्ट राजनेताओं पर उन्होंने इतनी सख्ती नहीं की थी. अपराधी संतों के मामले में यह गलती नहीं दोहराई जा रही है.

क्या राजनेता लंपट गुरुओं से दूरी बनाएंगेक्या समाज सेवा दिखाकर अवैध साम्राज्य बनाने वाले बाबा-फकीरों को रोकने के लिए कानून बनेगाक्या हिंदुत्व के पुरोधा भारतीय आध्यात्मिकता को कलंकित करने वालों से सहज भारतीयों की रक्षा करेंगे?

पता नहीं!

लेकिन गुरमीत हम सब आम लोगों को यह बड़ी नसीहत दे कर जेल गया है कि  

अनुयायियों की भीड़ गुरु की पवित्रता की गारंटी नहीं है.




Monday, April 22, 2013

लम्‍हों की खता और सदियों की सजा



महिलाओं के खिलाफ अपराध रोकने के ताजा कानून के पीछे संवेदना और सजगता की राजनीतिक चेतना नहीं थी बस कानून फेंककर लोगों को किसी तरह चुप करा दिया गया। इसलिए डरावने बताये गए कानून से कोई दुष्‍कर्मी नहीं डरा।


इंसाफ कोई बेरोजगारी भत्‍ता, लैपटॉप या साइकिल नहीं है जिसे बांटकर वोट लिये जा सकें। न्‍याय विशेष राहत पैकेज भी नहीं हैं जिनसे सियासत चमकाई जा सके। इंसाफ में समाज का भरोसा कानून के शब्‍दों से नहीं बल्कि कानून की चेतना से तय होता है। एक कथित सख्‍त कानून से कुछ भी बदला। महिलाओं के खिलाफ अपराध और जघन्‍य हो गए और लोग फिर सड़क पर उतर कर इंसाफ के लिए नेताओं का घर घेर रहे हैं। कानून बेअसर इसलिए हुआ है क्‍यों कि कानून बनाने वालों की सोच ने उसकी भाषा से ज्‍यादा असर किया है। एक बिटिया की हत्‍या के खिलाफ उबले जनआक्रोश के बदले जो कानून मिला उसके पीछे दर्द, संवेदना और सजगता की राजनीतिक चेतना नहीं थी बल्कि कानून फेंकर लोगों को किसी तरह चुप करा दिया गया। पूरे देश ने देखा कि क्रूर अपराधी को अविस्‍मरणीय दंड की बहस, चलाकी के साथ  सहमति से सेक्‍स की उम्र की बहस में बदल गई। नतीजतन इस कथित सख्‍त कानून के शब्‍दों से न अपराधी डरे, न तेज फैसले हुए और  न न्‍याय मिला। हम वहीं खड़े हैं जहां से चले थे।