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Friday, August 16, 2019

डुबाने की लत



इंडिगो की उड़ान में पूरे जतन से आवभगत में लगी एयर होस्टेस को अंदाजा नहीं होगा कि उनकी शानदार (अभी तक) कंपनी के निदेशक आपस में क्यों लड़ रहे हैं? सेबी किस बात की जांच कर रहा है? जेट एयरवेज के 20,000 से अधिक कर्मचारियों को यह समझ में नहीं आया कि उनकी कंपनी के मालिक या बोर्ड ने ऐसा क्या कर दिया जिससे कंपनी के साथ उनकी खुशियां भी डूब गईं. आम्रपाली से मकान खरीदने वालों को भी कहां मालूम था कि कंपनी किस कदर हेराफेरी कर रही थी! 

सरकारी कंपनियों का कुप्रबंध, हमारी अकेली मुसीबत नहीं है. भारत अब चमकते ब्रान्ड और कंपनियों का कब्रिस्तान बन रहा है. सत्यम, एडीएजी (अनिल अंबानी समूह), वीडियोकॉन, सहारा, मोदीलुफ्त, रोटोमैक, जेपी समूह, नीरव मोदी, गीतांजलि जेम्स, जेट एयरवेज, किंगफिशर, यूनीटेक, आम्रपाली, आइएलऐंडएफएस, स्टर्लिंग बायोटेक, भूषण स्टील...यह सूची खासी लंबी हो सकती है...टाटा, फोर्टिस और इन्फोसिस के बोर्ड में विवादों या कैफे कॉफी डे में संकट से हुए नुक्सान (शेयर कीमत) को जोड़ने के बाद हमें अचानक महसूस होगा कि भारत के निजी प्रवर्तक तो कहीं ज्यादा बड़े आत्माघाती हैं. 

किसी कंपनी के प्रबंधन या खराब कॉर्पोरेट गवर्नेंस से हमें फर्क क्यों नहीं पड़ता? कंपनियों का बुरा प्रबंधन, किसी खराब सरकार जितना ही घातक है. सरकार को तो फिर भी बदला जा सकता है लेकिन कंपनियों के प्रबंधन को बदलना असंभव है.

भारत में खराब कॉर्पोरेट गवर्नेंस से जितनी बड़ी कंपनियां डूबी हैं, या प्रवर्तकों के दंभ और गलतियों ने जितनी समृद्धि का विनाश (वेल्थ डिस्ट्रक्शन) किया है वह मंदी से होने वाले नुक्सान की तुलना में कमतर नहीं है.

दरअसल, यह तिहरा विनाश है.

एकशेयर निवेशक अपनी पूंजी गंवाते हैं. जैसे, कुछ साल पहले तक दिग्गज (आरकॉम, वीडियोकॉन, यूनीटेक, वोडाफोन, सुजलॉन) कंपनियों के शेयर अब एक दो रुपए में मिल रहे हैं.

दोइनमें बैंकों की पूंजी (पीएनबी-नीरव मोदी) डूबती है जो दरअसल आम लोगों की बचत है और

तीसराअचानक फटने वाली बेकारी जैसे जेट एयरवेज, आरकॉम, यूनीनॉर.

देश में कॉर्पोरेट गवर्नेंस यानी कंपनी को चलाने के नियम कागजों पर दुनिया में सबसे सख्त होने के बावजूद घोटालों की झड़ी लगी है. कंपनियों के निदेशक मंडलों के कामकाज सिरे से अपारदर्शी हैं. इन्हें ठीक करने का जिम्मा प्रवर्तकों पर है, जिनकी बोर्ड में तूती बोलती है. इंडिगो या फोर्टिस में विवाद के बाद ही इन कंपनियों में कॉर्पोरेट गवर्नेंस की कलई खुली. टाटा संस के बोर्ड ने सायरस मिस्त्री को शानदार चेयरमैन बताने के कुछ माह बाद ही हटा दिया. इन्फोसिस का निदेशक मंडल, कभी विशाल सिक्का तो कभी पूर्व प्रवर्तक नारायणमूर्ति का समर्थक बना और इस दौरान निवेशकों ने गहरी चोट खाई.

वीडियोकॉन को गलत ढंग से कर्ज देने के बाद भी चंदा कोचर आइसीआइसीआइ में बनी रहीं. येस बैंक के एमडी सीईओ राणा कपूर को हटाना पड़ा या कि आइएलऐंडएफएस ने असंख्य सब्सिडियरी के जरिए पैसा घुमाया और बोर्ड सोता रहा. नजीरें और भी हैं. कंपनियों पर प्रवर्तकों के कब्जे के कारण स्वतंत्र निदेशक नाकारा हो जाते हैं, नियामक ऊंघते रहते हैं, किसी की जवाबदेही नहीं तय हो पाती और अचानक एक दिन कंपनी इतिहास बन जाती है.

भारतीय कंपनियों के प्रमोटर, पैसे और बैंक कर्ज के गलत इस्तेमाल के लिए कुख्यात हो रहे हैं. आम्रपाली के फोरेंसिक ऑडिट से ही यह पता चला कि मालिकों ने चपरासी और निचले कर्मचारियों के नाम से 27 से ज्यादा कंपनियां बनाई, जिनका इस्तेमाल हेराफेरी के लिए होता था. ताकतवर प्रमोटर, बैंक, रेटिंग एजेंसियों और ऑडिट के साथ मिलकर एक कार्टेल बनाते हैं जो तभी नजर आता है जब कंपनी कर्ज में चूकती या डूबती है जैसा कि आइएलऐंडएफएस में हुआ. 

प्रवर्तकों के दंभ और गलत फैसलों से हुए नुक्सान की सूची (जैसे टाटा नैनो, किंगफिशर) भी लंबी है. जल्द से जल्द बड़े हो जाने के लालच में भारतीय उद्यमी बैंक कर्ज और रसूख के सहारे ऐसे उद्योगों में उतर जाते हैं जहां न उनका तजुर्बा है, न जरूरत. मकान बनाते-बनाते आम्रपाली फिल्म बनाने लगी और अनिल अंबानी समूह वित्तीय सेवाएं चलाते-चलाते राफेल की मरम्मत का काम लेने लगे. पश्चिम की कंपनियां लंबे समय तक एक ही कारोबार में रहकर निवेशकों और उपभोक्ताओं को बेहतर रिटर्न व सेवाएं देती हैं जबकि भारत की 80 फीसदग्रेटकंपनियां पूंजी पर रिटर्न गंवाकर या कर्ज में फंस कर बहुत कम समय में औसत स्तर पर आ जाती हैं.

कंपनियों में खराब गवर्नेंस से सरकारें क्यों फिक्रमंद होने लगीं? उन्हें तो इनसे मिलने वाले टैक्स या चुनावी चंदे से मतलब है. प्रवर्तकों का कुछ भी दांव पर होता ही नहीं. डूबते तो हैं रोजगार और बैंकों का कर्ज. मरती है बाजार में प्रतिस्पर्धा. जाहिर है कि इस नुक्सान से किसी नेता की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता.

Saturday, June 29, 2019

...डूब के जाना है!


बात बीते बरस जनवरी से शुरू होती है जब नीरव मोदी बैंकों का बकाया चुकाने में चूके थे. नीरव की करतूत का घोटाला संस्करण बाद में पेश हुआ, पहले तो वित्तीय बाजार के लिए यह एक भरा-पूरा डिफॉल्ट था हीरे जैसे कीमती धंधे के कारोबारी का कर्ज चुकाने में चूकना! नीरव मोदी के डिफॉल्ट के साथ वित्तीय बाजार को मुसीबतों की दुर्गंध महसूस होने लगी थी.

मौसम एक-सा नहीं रहता और कर्ज हमेशा सस्तानहीं रहता. पूंजी की तंगी और कर्ज की लागत बढ़ते ही अर्थव्यवस्था को अपशकुन दिखने लगते हैं क्योंकि कर्ज जब तक सस्ता है, अमन-चैन है. ब्याज की दर एक-दो फीसद (छोटी अवधि के कर्ज-मनी मार्केट) बढ़ते ही, घोटाले के प्रेत कंपनियों की बैलेंस शीट फाड़ कर निकलने लगते हैं और नियामकों (रेटिंग, ऑडिटर) की कलई खुल जाती है.

पंजाब नेशनल बैंक को नीरव मोदी के झटके के एक साल के भीतर ही कई वित्तीय कंपनियां (अब तो एक टेक्सटाइल कंपनी भी) कर्ज चुकाने में चूकने लगीं.

  ·       भारत की सबसे बड़ी वित्तीय कंपनियों में एक, आइएलऐंडएफएस 2018 के अंत में बैंक कर्ज चूकी और डिफाॅल्ट का दुष्चक्र शुरू हो गया. सीरियस फ्रॉड इनवेस्टिगेशन ऑफिस (एसएफआइओ) कर्ज घोटाले में कंपनी के 30 अधिकारियों के खिलाफ पहली चार्जशीट दाखिल कर चुका है.

  ·   दीवान हाउसिंग फाइनेंस (दूसरी बड़ी संकटग्रस्त कंपनी) पर बॉक्स कंपनियां बनाकर कर्ज की बंदरबांट करने का आरोप है. रेड इंटेलीजेंस (वित्तीय डेटा कंपनी) की रिपोर्ट के मुताबिक, बड़ी वित्तीय कंपनियों के प्रवर्तक कुछ कागजी कंपनियां बनाते हैं जो आपस में एक-दूसरे को हिस्सेदारी बेचती हैं और फिर प्रवर्तक की वित्तीय कंपनी से कर्ज लेते हैं और उसी कर्ज से वापस मुख्य वित्तीय कंपनी में हिस्सेदारी खरीदते हैं. इस मामले की जांच होने के आसार हैं.

·       एनबीएफसी का ऑडिट और रेटिंग करने वाली कंपनियां भी घोटाले में शामिल मानी जा रही हैं. सीरियस फ्रॉड ऑफिस ने रिजर्व बैंक से इन कंपनियों के ऑडिट की अनदेखी करने पर रिपोर्ट तलब की है.

·       बकौल रिजर्व बैंक के 2018-19 में बैंकों में 71,500 करोड़ रुपए की धोखाधड़ी हुई है.

·       एसएफआइओ ने 2017-18 में बड़े कॉर्पोरेट फ्रॉड के 209 मामले दर्ज किए, यह संख्या 2016 के मुकाबले दोगुनी है. जेट एयरवेज और कुछ अंतरराष्ट्रीय ऑडिट कंपनियों सहित करीब आधा दर्जन बड़ी कंपनियां एसएफआइओ की ताजा जांच का हिस्सा हैं.

महंगी होती पूंजी और घोटालों के रिश्ते ऐतिहासिक हैं. जनवरी 2009 में सत्यम घोटाला, 2008 में लीमैन बैंक ध्वंस के चलते बाजार में तरलता के संकट के बाद निकला था. अमेरिका का प्रसिद्ध बर्नी मैडॉफ घोटाला भी इसी विध्वंस के बाद खुला. अमेरिका में डॉटकॉम का बुरा दौर शुरू होने के 15 माह और 9/11 के एक माह के बाद, एनरॉन के धतकरम से परदा उठा था.
छोटी अवधि (एक साल या कम) के कर्ज भारतीय कारोबारी दुनिया की प्राण वायु हैं. इनमें अंतर बैंक, बैंक व वित्तीय कंपनी, म्युचुअल फंड और वित्तीय कंपनी, एनबीएफसी और कंपनियों के बीच कर्ज का लेनदेन शामिल है जो विभिन्न माध्यमों (सीधे कर्ज, बॉन्ड या कॉमर्शियल पेपर) के जरिये होता है.

जब तक आसानी से कर्ज मिलता है, कंपनियों के प्रवर्तक मनमाने तरीकों से इसका इस्तेमाल करते और छिपाते रहते हैं. उनकी बैलेंस शीट और रेटिंग चमकदार दिखती है. लेकिन जब कर्ज महंगे होते हैं तो उनकी कारोबारी शृंखला में डिफॉल्ट का दुष्चक्र शुरू हो जाता है.

बड़ी कंपनियां आमतौर पर अपने शेयर या संपत्ति के बदले कर्ज लेती हैं. तलरता के संकट में इनकी कीमत गिरती है और कर्ज देने वाले बैंक वसूली दबाव बढ़ाते हैं. नीरव मोदी, मेहुल चोकसी जैसे मामले इसका उदाहरण हैं.

अर्थव्यवस्था में अच्छी विकास दर के साथ कंपनियों की कमाई बढ़ती रहती है और उनको छोटी अवधि के कर्ज मिलते रहते हैं लेकिन मंदी की शुरुआत के साथ बैंक, कंपनियों के नतीजों पर निगाह जमाकर ब्याज की दर बढ़ाते हैं और संकट फट पड़ता है. मसलन अब ऑटोमोबाइल की बिक्री कम होने के बाद कंपनियों के लिए सस्ता कर्ज मुश्किल हो जाएगा. 

पूंजी और कर्ज की ताजा किल्लत के पीछे धतकरम और घोटाले छिपे हैं. इन्हें सूंघकर ही रिजर्व बैंक ने, सरकार के दबाव को नकार कर संकटग्रस्त गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) की मदद से न केवल इनकार कर दिया है बल्कि इनके लिए नए सख्त नियम भी बना दिए हैं.

दूसरी मोदी सरकार का पहला पूर्ण बजट, कर्ज व डिफॉल्ट की हकीकतों से अलग खड़ा नजर आए तो चौंकिएगा मत. अर्थव्यवस्था के सूत्रधारों की बेचैन निगाहें भी दरअसल बजट पर नहीं बल्कि अगली तिमाही पर है जब गिरती रेटिंग और बढ़ते घोटालों के बीच गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के 1.1 खरब रुपए के बकाया कर्ज वसूली के लिए आएंगे.