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Tuesday, June 2, 2015

जोखिम में है गवर्नेंस



निगहबान और नियामक संस्‍थायें सरकार का सुरक्षा चक्र होती हैं. इनकी गैरमौजूदगी की वजह से पारदर्शिता के मामले में मोदी सरकार के जोखिम बढ़ने लगे हैं
सरकार के पहले एक साल में भ्रष्टाचार के किसी बड़े मामले का सामने न आना सिर्फ राहत की बात है, महोत्सव की हरगिज नहीं. ग्रैंड करप्शन सरकारों के पहले साल में नहीं उपजता. केंद्र में यूपीए की सरकार से लेकर राज्यों तक दर्जनों उदाहरण इसकी ताकीद करते हैं कि पुरानी होती सरकारें भ्रष्टाचार के खतरे के करीब खिसकती जाती हैं. यूपीए के घोटाले तो उसके दूसरे कार्यकाल के अंतिम वर्षों में निकले थे. ज्यादा चिंता इस बात पर होनी चाहिए कि नरेंद्र मोदी सरकार ने पूरा साल उन जरूरी संस्थाओं को बनाने या मजबूत किए बगैर बिता दिया है जो एक विशाल देश के जटिल तंत्र में साफ-सुथरे कामकाज के लिए जरूरी हैं. मोदी ने पहले साल में न तो सरकारी तंत्र पर निगाह रखने वाली संवैधानिक संस्थाओं को ताकत दी और न ही नियामक सुधारों की सुध ली. निगहबानी संस्थाएं सरकारों का सुरक्षा चक्र होती हैं और स्वतंत्र नियामक खुले बाजार का. इस सुरक्षा चक्र की नामौजूदगी के कारण पारदर्शिता के मामले में मोदी सरकार के जोखिम बढऩे लगे हैं.
पिछले एक साल के फैसलों और उन्हें लेने के तरीकों को गहराई से परखने पर सरकार में गवर्नेंस की दुविधा झलकने लगती है. बात केवल केंद्रीय सतर्कता आयुक्त या केंद्रीय सूचना आयुक्तों की एक साल से लंबित नियुक्ति की ही नहीं है जिसे लेकर विपक्ष के तेवरों के बाद प्रधानमंत्री ने पहली बार सक्रियता दिखाई हैं. हकीकत यह है कि लोकपाल की स्थापना से लेकर विभिन्न क्षेत्रों में नियामक बनाने तक, सरकार पिछले साल में एक इंच भी आगे नहीं बढ़ सकी. ऊहापोह केंद्रीकृत बनाम विकेंद्रित गवर्नेंस के बीच चुनाव की है. मोदी सत्ता के केंद्रीकरण को चुनते रहे हैं, जिसमें लोकपाल या सतर्कता आयोग जैसी संस्थाओं या स्वतंत्र आर्थिक नियामकों के लिए जगह मुश्किल से बनती है. जबकि आर्थिक सुधारों के बाद भारत में गवर्नेंस का जो मॉडल विकसित हुआ, उसमें सरकार और बाजार पर निगाह रखने वाली स्वायत्त संस्थाओं की ताकत बढ़ी है. दूरसंचार, बिजली बीमा और वित्तीय सेवाओं तक खुले बाजार को नियामकों ने बखूबी संभाला है जबकि सुप्रीम कोर्ट और सीएजी जैसी संवैधानिक संस्थाओं ने सरकारों की निगहबानी की है. इस नई व्यवस्था से अधिकारों में टकराव, फैसलों में देरी जैसी उलझनें जरूर पैदा हुई हैं लेकिन एक विशाल देश के भीमकाय बाजार और मनमाने राजनैतिक तंत्र को संभालने में इनकी उपयोगिता साबित भी हुई है.  मोदी सरकार अपने पहले एक साल में गवर्नेंस के इस बदले हुए ढांचे पर ठोस राय कायम नहीं कर सकी जिससे न केवल एक तदर्थवाद पैदा हुआ है, बल्कि रिजर्व बैंक के अधिकार कम करने की मुहिम ने यह बताया है कि सरकार स्वतंत्र नियामकों को लेकर सहज नहीं हैं. आदर्श तौर पर कोयला खदानों के पुनःआवंटन की प्रक्रिया एक स्वतंत्र नियामक को तय करनी चाहिए थी. यदि आवंटन में जल्दी थी तो उसके तत्काल बाद कोयला नियामक बनना चाहिए था ताकि कोयले की गुणवत्ता तय करने, कंपनियों के विवाद निबटाने, खनन की मॉनीटरिंग करने और कोयले की कीमत निर्धारित करने में सरकार का दखल कम होता. खदानों का आवंटन तो हो गया लेकिन नियामक न होने के कारण कोयला क्षेत्र में अपारदर्शिता व तदर्थवाद जस का तस है.
रेलवे में विदेशी निवेश परवान क्यों नहीं चढ़ा? रेलवे के लिए नियम बनाने का काम किसी स्वतंत्र रेगुलेटर को देना होगा ताकि बाजार में बराबरी की प्रतिस्पर्धा हो सके. रेलवे में सुधार के लिए बिबेक देबराय समिति मोदी सरकार ने ही बनाई थी लेकिन जब समिति ने रेगुलेटर बनाने की सिफारिश की तो सरकार सुस्त पड़ गई. विमानन, वित्तीय सेवाओं और रियल एस्टेट में रेगुलेटर बनाने पर भी कोई सक्रियता नजर नहीं आई है. मोदी को अपने पहले ही साल में लोकपाल के गठन की पहल करनी चाहिए थी. लेकिन यहां तो एक साल में केंद्रीय सतर्कता आयोग के अध्यक्ष का चयन भी नहीं हो सका. मोदी के लिए पारदर्शिता को लेकर अपने संकल्प को साबित करने का यह सबसे अच्छा मौका है, क्योंकि बीजेपी शुरू से सरकारी तंत्र के लिए लोकपाल जैसे ताकतवर नियामक के पक्ष में रही है. काला धन जैसे कानूनों के जरिए सरकारी अधिकारियों को नई ताकत से लैस किया जा रहा है, इस ताकत की निगहबानी के लिए संवैधानिक संस्थाओं का गठन और मजबूती, दरअसल पारदर्शिता को लेकर सरकार के कौल को और मुखर करेगी. मोदी का गवर्नेंस मॉडल राज्यों के लिए नजीर बन रहा है. पिछले बारह महीनों में जिस तरह प्रधानमंत्री कार्यालय में सत्ता का केंद्रीकरण बढ़ा है, ठीक उसी तर्ज पर राज्यों में मुख्यमंत्री कार्यालयों ने भी शक्तियां समेटी हैं. केंद्र में तो कम-से-कम सीएजी, सुप्रीम कोर्ट और दूसरी सक्रिय एजेंसियां हैं जो गवर्नेंस की निगहबानी कर सकती हैं, राज्यों में न तो सतर्कता का ढांचा है और न ही अदालतों के पास निगहबानी का अनुभव है. राज्यों में अभी नियामक सुधार शुरू भी नहीं हुए हैं जबकि निजीकरण और सरकारी खर्च के अगले बड़े आयोजन राज्यों में ही होने हैं.  निगहबानी व नियमन करने वाली संस्थाएं सरकार के अधिकारों में हिस्सा बंटाती हैं जो कोई सियासी नेता आसानी से देना नहीं चाहता. नरेंद्र मोदी ने भले गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर लोकायुक्त की ताकत को सीमित रखा हो या स्वतंत्र नियामक बनाने पर बहुत ध्यान न दिया हो लेकिन प्रधानमंत्री के तौर पर उन्हें लोकपाल बनाने, सतर्कता ढांचे मजबूत करने और नियामक सुधारों में देर नहीं करनी चाहिए. सरकार को एक साल में यह एहसास हो गया है कि अच्छे दिन लाना जादू नहीं है, ठीक इसी तरह खुले बाजार में एक साफ-सुथरी सरकार चलाना भी जादू नहीं है. नेतृत्व के पारदर्शी होना, पूरे सिस्टम के साफ-सुथरा होने की गारंटी नहीं भी है. इस सरकार में सभी फैसले प्रधानमंत्री केंद्रित हैं इसलिए अगर सरकार पारदर्शिता के मोर्चे पर फिसलती है तो खामियाजे भी प्रधानमंत्री के खाते में ही दर्ज होंगे. मजबूत और ताकतवर नियामक-निगहबान संस्थाओं का सुरक्षा चक्र बनाकर ही मोदी इस जोखिम को सीमित कर सकते हैं. क्या वे ऐसा कर पाएंगे?