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Tuesday, September 6, 2016

आखिरी मंजिल की चुनौती


ढाई साल पूरे कर रही मोदी सरकार को अब क्रियान्वयन की चुनौती से दो-दो हाथ करने चाहिएजो उसके अच्छे-अच्छे इरादों को पटरी से उतार रही है.

दिल्ली से 150 किमी दूर उत्तर प्रदेश का गांव नगला फतेला मोदी सरकार की नई किरकिरी है. गांवों में बिजली पहुंचाने को लेकर एक साल पुराने अभियान की सफलता का जिक्र करते हुए प्रधानमंत्री ने लाल किले से ऐलान कर दिया कि इस गांव में सत्तर साल बाद बिजली पहुंच चुकी है. भाषण को सात घंटे भी नहीं बीते थे कि सरकार को पता चला कि दावा गलत हैक्योंकि गांव में अब तक अंधेरा है. इसके बाद ट्वीट वापस लेने और उत्तर प्रदेश सरकार से कैफियत तलब करने का दौर शुरू हुआ.
स्कीमों को लाभार्थी तक पहुंचाने की चुनौती भारतीय गवर्नेंस की बुनियादी उलझन है. नगला फतेला इसका सबसे नया नुमाइंदा है. मोदी सरकार के साथ यह उलझन ज्यादा बढ़ गई है क्योंकि नई महत्वाकांक्षी स्कीमें बनाने से पहले पुराने तजुर्बों से कुछ नहीं सीखा गया. दूसरी तरफ प्रचार इतना तेज हुआ कि नगला फतेला कई जगह नजर आने लगे.
स्कीमें बनाने में हमारे नेता लासानी हैं. अच्छी स्कीमें पहले भी बनीं और इस सरकार ने भी बनाईं. स्कीमों की दूसरी मंजिल संसाधन जुटानेसमन्वय (केंद्रराज्य और सरकारी विभागों से) और लक्ष्य  तय करने की है. लाभार्थी तक पहुंचाने के बाद स्कीम को आखिरी मंजिल मिलती है. सरकार की कई स्कीमें दूसरी मंजिल भी पार कर नहीं कर पाई हैंजबकि मध्यावधि लग चुकी है.
नगला फतेला के संदर्भ में तीन प्रमुख स्कीमों की पड़ताल की जा सकती हैजो लास्ट माइल चैलेंज की शिकार हैं.
नवंबर, 2015 में जब सरकार ने सर्विस टैक्स पर 0.5 फीसदी सेस लगायातब तक स्वच्छता अभियान को एक साल बीत चुका था और स्कीम के लक्ष्यक्रियान्वयन का तरीका व संसाधन तय नहीं हो पाए थे. सफाई का मिशन नगरों व गांवों में संपूर्ण स्वच्छता की उम्मीद जगाता थालेकिन एक साल के भीतर ही इसे यूपीए सरकार के निर्मल ग्राम की तर्ज पर गांवों में शौचालय बनाने और खुले में शौच को समाप्त करने पर सीमित कर दिया गया.
नया टैक्स लगने से संसाधन मिलने लगेलेकिन अभियान में गति नहीं आई. शहरों की सफाई अंतत: नगर निकायों को करनी है जिनके पास संसाधन नहीं हैं. यदि संसाधन नगर निगमों को जाने लगते तो शहरों में सफाई का पहिया घूम सकता था. गांवों में शौचालय बनाते समय यह नहीं देखा गया कि पानी की आपूर्ति और मल निस्तारण का इंतजाम कैसे होगा. इन दोनों बुनियादी जरूरतों के लिए संसाधनों की व्यवस्था स्कीम में शामिल नहीं थी. इसलिए गांवों में बने शौचालय इस्तेमाल के लायक नहीं हो सके.
ताजा सूरते-हाल यह है कि सरकारी संकल्पस्कीमोंविभागों और नए टैक्स के बावजूद शहर व गांव जस के तस गंदे हैं. 
दूसरा उदाहरण डायरेक्ट बेनीफिट ट्रांसफर (लाभार्थियों तक सीधे सब्सिडी) स्कीम का है. स्कीम के पास संसाधनों की चुनौती नहीं थी क्योंकि सब्सिडी पहले से बांटी जा रही थी. अलबत्ता एलपीजी सब्सिडी बांटने में मिली सफलता के बाद स्कीम ठिठक-सी गई. दरअसलएलपीजी सब्सिडी यूनिवर्सल थी यानी सबको मिलनी थी. केरोसिन या दूसरी सब्सिडी स्कीमों की तरहइसमें लाभार्थियों को पहचानने की चुनौती नहीं थी. 
एलपीजी के बाद डीबीटी का सफर धीमा पड़ गया. केरोसिन व खाद्य सब्सिडी की डीबीटी स्कीमें सक्रिय नहीं हो सकीं. सब्सिडी वाली स्कीमों को अलग-अलग मंत्रालय चलाते हैं. इसमें राज्य सरकारों की भूमिका भी महत्वपूर्ण है. यह समग्र समन्वय ही डीबीटी की दूसरी मंजिल है. एलपीजी में यह काम आसानी से हो गया क्योंकि पेट्रोलियम मंत्रालयतेल कंपनियों और कुछ सौ गैस एजेंसियों को यह स्कीम लागू करनी थी. अन्य स्कीमों के मामले में यह इतना आसान नहीं है. लाभार्थियों की पहचान इस स्कीम की आखिरी मंजिल हैजिसका पैमाना अभी तक तय नहीं है. मनरेगा को डीबीटी से जोडऩे की कोशिशें तेज नहीं हो सकीं क्योंकि राज्यों व केंद्र के बीच तालमेल नहीं बन पाया.
डीबीटी के लिए सरकार के पास संसाधन हैं. सफलताओं का तजुर्बा भी हैलेकिन समन्वय और क्रियान्वयन की चुनौतियों के कारण मंजिल नहीं मिल सकी है.
सांसद आदर्श ग्राम योजना भारत में ग्रामीण विकास की सबसे क्रांतिकारी पहल हो सकती थी क्योंकि पहली बार किसी सरकार ने चुने हुए सर्वोच्च प्रतिनिधि को लोकतंत्र की सबसे निचली इकाई यानी पंचायत से जोड़ा था. सांसद निधि से जोड़े जाने पर यह स्कीम चमत्कारिक हो सकती थी. लेकिन योजना के लक्ष्य अस्पष्ट थे. गांवों में केंद्र व राज्य की दर्जनों स्कीमें चलती हैं जिनसे समन्वय नहीं हुआ इसलिए सरकारी विभाग तो दूरसांसदों ने भी गांवों को अपनाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई और एक बड़ी पहल बीच में ही दम तोड़ गई.
कैबिनेट में ताजे फेरबदल से पहले प्रधानमंत्री ने कहा था कि मेरे लिए सफलता का अर्थ यह है कि लोग बदलाव महसूस करें. यदि उपलब्धियों का दावा करना पड़े तो मैं इसे सफलता नहीं मानूंगा. हालांकि प्रधानमंत्री को खुदलाल किले के मैराथन भाषण में रह-रहकर दावे करने पड़े.
स्वाधीनता दिवस पर प्रधानमंत्री का भाषण उनकी बेचैनी बता रहा था कि सरकार आधा रास्ता पार कर चुकी हैलेकिन स्कीमों के असर नजर नहीं आ रहे हैं. अच्छा है कि प्रधानमंत्री बेचैन हैंकांग्रेस की तरह हकीकत से गाफिल नहीं. राजनेताओं की बेचैनी अच्छी होती है खासतौर पर तब जबकि सरकार को हकीकत का अंदाजा हो.

ढाई साल पूरे कर रही मोदी सरकार को अब क्रियान्वयन की चुनौती से दो-दो हाथ करने चाहिएजो उसके अच्छे-अच्छे इरादों को पटरी से उतार रही है. सरकार को स्कीमों की भीड़ से निकल कर चुनिंदा कार्यक्रमों को चुनना होगा और उन्हें नतीजों तक पहुंचाना होगा ताकि बदलाव महसूस हो सके. प्रधानमंत्री के पास अब नगला फतेला जैसे तजुर्बों की कोई कमी नहीं है. अपेक्षाओं के खेल का जोखिम भी अब तक उन्हें समझ आ गया होगा. उनकी होड़ अब वक्‍त के साथ हैजिसके गुजरने की रफ्ता्र पर उनका कोई काबू नहीं है. 

Tuesday, May 17, 2016

अब मिशन पुनर्गठन


बेहतर मंशा के बावजूद पिछले दो साल में सरकार के कई अभियान और मिशन जमीनी हकीकत से गहरी असंगति का शिकार हो गए हैं
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 14 अप्रैल को जब मध्य प्रदेश में ग्राम उदय से भारत उदय अभियान की शुरुआत कर रहे थे, उस समय उनकी सरकार सूखे पर सुप्रीम कोर्ट के लिए जवाब तैयार कर रही थी, जो उसे अदालत की फटकार के बाद दाखिल करना था. अप्रैल के तीसरे हफ्ते में जब सरकार ने अदालत को बताया कि देश की एक-चौथाई आबादी सूखे की चपेट में है, उस दौरान पार्टी अपने मंत्रियों और सांसदों को गांवों में किसान मेले लगाने का कार्यक्रम सौंप रही थी. नतीजतन, पानी की कमी, खेती की बदहाली और सूखे के बीच ग्राम उदय जनता तो क्या, बीजेपी के सांसदों के गले भी नहीं उतरा जो सरकारी स्कीमों का भरपूर प्रचार न करने को लेकर आजकल प्रधानमंत्री से अक्सर झिड़कियां और नसीहतें सुन रहे हैं.

करिश्माई नेतृत्व की अगुआई में प्रचंड बहुमत वाली किसी सरकार के सांसदों का दो साल में ही इतना हतोत्साहित होना अचरज में डालता है. खासतौर पर ऐसी पार्टी के सांसद जो लंबे अरसे बाद सत्ता में लौटी हो और जिसकी सरकार लगभग हर महीने कोई नया मिशन या स्कीम उपजा रही हो.

सरकार के अभियानों और स्कीमों पर उसके अपने सांसदों का ठंडा रुख एक सच बता रहा है, सरकार जिसे समझने को तैयार नहीं है. सिर्फ ग्रामोदय ही नहीं, बेहतर मंशा के बावजूद पिछले दो साल में सरकार के कई अभियान और मिशन जमीनी हकीकत से गहरी असंगति के नमूने बन गए हैं. यही वजह है कि ऐसे बदलाव नहीं नजर आए, जिन्हें लेकर सांसद अपेक्षाओं से भरी जनता से नजरें मिला सकें.

मोदी सरकार ने गवर्नेंस और सामाजिक-आर्थिक क्षेत्रों की कई दुखती रगों पर उंगली रखने की कोशिश की है लेकिन अधिकतर प्रयोग जड़ें नहीं पकड़ सके. कुछ मिशन कायदे से शुरू भी नहीं हो पाए तो कुछ स्कीमों को चलाने लायक व्यवस्था तैयार नहीं थी, इसलिए दो साल के भीतर ही मोदी सरकार के लगभग सभी प्रमुख मिशन और स्कीमें एक जरूरी पुनर्गठन की टेर लगाने लगी हैं. मिसाल के तौर पर मेक इन इंडिया को ही लें, जो आर्थिक वास्तविकता से कटा होने के कारण जहां का तहां ठहर गया.

कोई शक नहीं कि मैन्युफैक्चरिंग में निवेश जरूरी है लेकिन मोदी सरकार जब सत्ता में आई, तब औद्योगिक क्षेत्र ऐसी मंदी की गिरफ्त में था, जिसमें कंपनियों के पास भारी उत्पादन क्षमताएं तैयार पड़ी हैं लेकिन मांग नहीं है. जब कर्ज में दबी कंपनियां बैंकों की मुसीबत बनी हैं तो निवेश क्या होगा. दो साल में जो विदेशी निवेश आया, वह सर्विस सेक्टर में चला गया जिस पर सरकार का फोकस नहीं था, जबकि मैन्युफैक्चरिंग इकाइयां बंद हो रही हैं या उत्पादन घटा रही हैं. कारोबार आसान बनाने की मुहिम मेक इन इंडिया का हिस्सा थी जो परवान नहीं चढ़ी, क्योंकि राज्यों ने बहुत उत्साह नहीं दिखाया. मेक इन इंडिया को अगर प्रासंगिक रखना है तो इसे चुनिंदा उद्योगों पर फोकस करना होगा, तभी कुछ नतीजे मिल सकेंगे.

स्वच्छता मिशन मौजूदा नगरीय प्रबंधन की हकीकत से कटा हुआ था, इसलिए यह सड़क बुहारती साफ-सुथरी छवियों से आगे नहीं गया. इसे पूरे देश में एक साथ शुरू करने की गलती की गई, जो न केवल असंभव था, बल्कि अव्यावहारिक भी. भारत में नगरीय स्वच्छता का जिम्मा स्थानीय निकायों का है, जिनके पास पर्याप्त संसाधन, श्रमिक और तकनीक का अभाव है. स्कीम के डिजाइन, लक्ष्यों और रणनीति में नगर प्रशासनों की भूमिका नहीं थी, इसलिए मिशन मजाक बनकर गुजर गया. सुनते हैं कि स्वच्छता मिशन का पुनर्गठन होने वाला है. इसे अब चुनिंदा शहरों पर फोकस किया जाएगा. देर आए, दुरुस्त आए.

सब कुछ मोबाइल और इंटरनेट पर देने की मुहिम लेकर शुरू हुआ डिजिटल इंडिया इस हकीकत से कोई वास्ता नहीं रखता था कि जब शहरों में ही मोबाइल नेटवर्क काम नहीं करते तो गांवों का क्या हाल होगा, जहां इंटरनेट तो क्या, वॉयस नेटवर्क भी ठीक से नहीं चलता. गांवों में स्मार्ट फोन की पहुंच सीमित है और मोबाइल इंटरनेट की लागत एक जरूरी पहलू है. यही वजह है कि डिजिटल इंडिया सरकारी सेवाओं के कुछ मोबाइल ऐप्लिकेशनों तक सीमित रह गया, जबकि मोबाइल नेटवर्क पर कॉल ड्रॉप बढ़ते चले गए.

जनधन में 50 फीसदी खाते अब भी जीरो बैलेंस हैं, जिनमें न लोगों ने पैसा रखा और न सरकार ने कोई ट्रांसफर किया. डायरेक्ट बेनीफिट ट्रांसफर रसोई गैस की सब्सिडी बांटने तक ठीक चली क्योंकि उसमें लाभार्थियों की पहचान का टंटा नहीं था, लेकिन जैसे ही लाभार्थी पहचान कर केरोसिन बांटने की बारी आई, स्कीम ठिठक गई.

सांसद आदर्श ग्राम योजना के लक्ष्य ही स्पष्ट नहीं थे, सांसद भी बहुत उत्साही नहीं दिखे. पेंशन और बीमा योजनाएं पिछले प्रयोगों की तरह कमजोर डिजाइन और सीमित लाभों के चलते परवान नहीं चढ़ीं. सबके लिए आवास और स्मार्ट सिटी जैसे मिशन क्रियान्वयन रणनीति की कमी का शिकार हो गए, जबकि मुद्रा बैंक की जिम्मेदारी बैंकों को उस वक्त मिली जब वे फंसे हुए कर्जों में जकड़े हैं.

सत्ता में दो साल पूरे कर रहे प्रधानमंत्री को यह एहसास जरूर होना चाहिए कि उनकी सरकार ने दो साल में स्कीमों और मिशनों का इतना बड़ा परिवार खड़ा कर दिया है, जिनकी मॉनिटरिंग ही मुश्किल है, नतीजे निकाल पाना तो दूर की बात है. जल्दी नतीजों के लिए मोदी सरकार को घोषित स्कीमों और मिशनों को मिशन मोड में पुनर्गठित करना होगा ताकि वरीयताओं की सूची नए सिरे से तय हो सके. गांव से लेकर शहर तक, बैकिंग से लेकर कूड़े-कचरे तक और डिजिटल से लेकर स्किल तक फैले अपने दो दर्जन से अधिक मिशन-स्कीम समूह में से चुनिंदा चार या पांच कार्यक्रमों पर फोकस करना होगा.

सरकारी स्कीमों को लेकर बीजेपी सांसदों की बेरुखी बेसबब नहीं है. वे सियासत की जमीन के सबसे करीब हैं और नतीजों की नामौजूदगी में मोहभंग की तपिश महसूस कर रहे हैं. सांसद जानते हैं कि अगले तीन साल चुनावी सियासत से लदे-फदे होंगे, जिसमें कुछ बड़ा करने की गुंजाइश कम होती जाएगी. इसलिए जो हो चुका है, उसे चुस्त-दुरुस्त कर अगर नतीजे निकाले जा सकें तो पार्टी सांसदों का उत्साह लौटने की सूरत बन सकती है.



Wednesday, February 3, 2016

मंदी स्वच्छता मिशन


लगभग ढाई दर्जन स्कीमों के मिशन और अभियानों से लदी-फदी सरकार उस जमीनी असर की तलाश में बेचैन है जो इतनी कोशिशों के बाद नजर आना चाहिए था.


मामि गंगे, स्वच्छता मिशन, डिजिटल इंडिया जैसे मिशन का औद्योगिक मंदी के इलाज से क्या रिश्ता है? सवाल इस तरह से भी पूछा जा सकता है कि मोदी सरकार के मिशन मोड का उसके पिछले बजटों से क्या रिश्ता है, क्योंकि अगर मोदी के अभियानों का बजट यानी सरकारी खर्च या परियोजनाओं से कोई ठोस रिश्ता होता तो शायद हम मंदी के समाधान को जमीन पर उतरता देख रहे होते. मोदी सरकार जब अपने तीसरे बजट से महज तीस दिन दूर है तब यह महसूस करना कतई मुश्किल नहीं है कि अगर स्वच्छता, डिजिटल इंडिया, गंगा सफाई जैसे मिशन बजटीय नीतियों और खर्च के कार्यक्रमों से ठोस ढंग से जुड़ते तो इनसे मंदी दूर करने और रोजगार बहाल करने का जरिया निकल सकता था.
सरकार के गलियारों में टहलते और खबरों को सूंघते हुए यह अंदाजा लग जाता है कि मोदी सरकार अब अपने फैसले की समीक्षा के दौर में है. लगभग ढाई दर्जन स्कीमों के मिशन और अभियानों से लदी-फदी सरकार उस जमीनी असर की तलाश में बेचैन है जो इतनी कोशिशों के बाद नजर आना चाहिए था. समीक्षाओं का यह दौर चाहे जो नतीजा लेकर निकले, दो तथ्य स्पष्ट हो रहे हैं कि एक तो मिशन अपेक्षित नतीजे नहीं दे सके और दूसरा सरकार की बड़ी बुनियादी ढांचा परियोजनाएं खड़ी नहीं हो सकीं जो अर्थव्यवस्था में मांग व बदलाव की उम्मीद जगातीं. ऐसा लगता है कि शायद वरीयताओं के किलों के नीचे परियोजनाओं और आवंटनों की नींव नहीं रखी गई. अगर ऐसा हुआ होता तो कई मिशन औद्योगिक ग्रोथ की गाड़ी में मांग और नए रोजगारों का ईंधन भर सकते थे. 
नमूने के तौर पर स्वच्छता और डिजिटल इंडिया को लिया जा सकता है जो विशुद्ध रूप से आर्थिक और बुनियादी ढांचा सेवाओं से जुड़े मिशन हो सकते थे, जिन्हें सरकार ने जनभागीदारी के प्रतीकों से जोड़कर प्रचार अभियान में बदल दिया और आर्थिक नतीजे सीमित हो गए.
अक्तूबर 2014 तक सड़कें बुहारती वीआइपी छवियों का दौर खत्म होने लगा था और न केवल गंदगी अपनी जगह मुस्तैद हो गई थी बल्कि सरकार में इस स्वच्छता मिशन को लेकर एक तरह का आलस पसरने लगा था. 2015 के बजट में जब सरकार से स्वच्छता मिशन को लेकर ठोस परियोजनाओं के ऐलान की उम्मीद थी, तब इसे जन चेतना से जोड़ दिया गया और स्वच्छता मिशन का चश्मा धूमिल पडऩे लगा.
स्वच्छता मिशन जो भारत में बुनियादी ढांचे को रक्रतार देने का जरिया बना सकता था, अब सिर्फ उम्मीदों में है. स्वच्छता को अगर आदत और जागरूकता की बहसों से बाहर निकाल कर देखा जाए तो यह शत प्रतिशत आर्थिक सर्विस है जो ठीक उसी तरह का बुनियादी ढांचा, तकनीक, लोग, विशेषज्ञताएं निवेश मांगती है जो शायद सिंचाई, रेलवे या दूरसंचार जैसी किसी भी दूसरी आर्थिक सेवा को चाहिए.
योजना आयोग का आकलन है कि नगरपालिकाओं में प्रति दिन लगभग 1.15 लाख टन से ज्यादा कचरा निकलता है और 12वीं पंचवर्षीय योजना के मुताबिक, भारत में ठोस कचरा निस्तारण का कोई इंतजाम है ही नहीं. 2001 की जनगणना के अनुसार, क्लास वन और टू शहरों में 80 फीसदी सीवेज का ट्रीटमेंट नहीं होता. पिछली जनगणना ने बताया कि शहरों में 37 फीसदी आवास खुली नालियों से जुड़े हैं जबकि 18 फीसदी घरों का पानी सड़क पर बहता है. बरसाती पानी संभालने के लिए 80 फीसदी सड़कों के साथ ड्रेनेज नहीं है. ईशर अहलुवालिया समिति का आकलन था कि शहरों में सीवेज, ठोस कचरा प्रबंधन और बरसाती पानी की नालियों को बनाने के लिए पांच लाख करोड़ रु. की जरूरत है. कोई भी स्वयंसेवा संसाधनों की इस भीमकाय जरूरत का विकल्प नहीं बन सकती थी लेकिन अगर सरकार चाहती तो दो साल में स्वच्छता को लेकर बुनियादी ढांचा परियोजनाओं की कतार खड़ी कर सकती थी.
पिछले दो साल में देश के ज्यादातर शहरों में कचरा निस्तारण, ड्रेनेज और सीवेज की बड़ी परियोजनाएं शुरू हो सकती थीं जो शहरों को रहने लायक बनातीं, उद्योगों के लिए मांग पैदा करतीं, बड़े रोजगारों का रास्ता खोलतीं, कचरा नियंत्रण और शहर प्रबंधन की नई तकनीकों की तलाश शुरू करतीं, लेकिन एक आर्थिक सेवा को प्रतीकों तक सीमित रखने का नतीजा यह हुआ कि बड़ी बुनियादी ढांचा क्रांति सिर्फ नेताओं के ड्राइंग रूम में टंगी झाड़ू विभूषित छवियों तक सिमट गई.  
पिछले साल, 1 जुलाई को जब प्रधानमंत्री मोदी, इंदिरा गांधी इंडोर स्टेडियम में डिजिटल इंडिया मिशन लॉन्च कर रहे थे तब उस कार्यक्रम में मौजूद लोग कॉल ड्रॉप की शिकायत कर रहे थे. मुट्ठी भर ऐप्लिकेशन आधारित सेवाओं और ई-गवर्नेंस के पुराने प्रयोगों के नवीनीकरण के साथ नमूदार हुआ डिजिटल इंडिया भव्य तो था लेकिन ठोस नहीं.
नैसकॉम-मैकेंजी की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में तकनीक व संबंधित सेवाओं का बाजार 2025 तक 350 अरब डॉलर पर पहुंच जाएगा जो पिछले साल 132 अरब डॉलर पर था. तकनीकों के बाजार की गहरी पड़ताल यह बताती है कि भारत बुनियादी तकनीकों का सबसे बड़ा बाजार है, अभी देश के पास कचरा निस्तारण, पेयजल आपूर्ति और शुद्धता, सरकारी सेवाओं का डिजिटाइजेशन, बेसिक हेल्थ सेवाएं जैसी तकनीकों की ही कमी है. मोबाइल ऐप्लिकेशन आधारित सेवाएं इसके बाद आती हैं.
जनभागीदारी से राजनैतिक परिवर्तन तो हो सकते हैं लेकिन आर्थिक बदलाव नहीं हो पाते. आर्थिक परिवर्तन के लिए नीतियों को लंबे समय तक सिंझाना होता है, गवर्नेंस को बार-बार हिलाते-मिलाते और पलटते रहना होता है, तब जाकर ग्रोथ का रसायन तैयार होता है. वित्त मंत्री अरुण जेटली अगले सप्ताह जब अपने तीसरे बजट का भाषण लिख रहे होंगे तो उनकी चुनौती घाटे के आंकड़े नहीं बल्कि वाजपेयी की सड़क परियोजना या मनमोहन की मनरेगा की तरह कुछ बड़ी परियोजनाओं को हकीकत बनाना होगा ताकि जमीन पर बदलावों की नापजोख हो सके. दुर्भाग्य से ऐसा करने के लिए मोदी सरकार के पास यह आखिरी बजट है क्योंकि 2017 2018 के बजट दस राज्यों के चुनाव की छाया में बनेंगे और उन बजटों में वित्तीय आर्थिक प्रबंधन और मंदी से जूझने की जुगत दिखाने का ऐसा मौका शायद फिर नहीं मिलेगा.


Tuesday, June 9, 2015

नीयत, नतीजे और नियति


नरेंद्र मोदी से ताबड़तोड़ मिशन और स्कीमों के ऐलान की उम्मीद किसी ने नहीं की थी. लोग तो यह समझ रहे थे कि मोदी गवर्नेंस के पुनर्गठन की नई सूझ लेकर आए हैं जिसमें पहले वे इस डायनासोरी सरकारी तंत्र को ठीक करेंगे 

राष्ट्रीय स्वच्छता मिशन, सड़कें बुहारती वीआईपी छवियों के पाखंड से आगे नहीं बढ़ सका. सौ से अधिक सांसद तो आदर्श ग्राम योजना में गांव तक नहीं चुन सके और चुने हुए गांवों में कुछ बदला भी नहीं. जन धन में 15.59 करोड़ खाते खुले, लोगों ने 16,918 करोड़ रु. जमा भी किए लेकिन केवल 160 लोगों को बीमा और 8,000 लोगों को ओवरड्राफ्ट (महज 2,500 रु.) मिला. वित्त मंत्री अरुण जेटली को कहना पड़ा कि औद्योगिक निवेश नहीं बढ़ रहा है जो मेक इन इंडिया पर परोक्ष टिप्पणी थी. यह फेहरिस्त सरकार की असफलताओं की नहीं बल्कि बड़े इरादों के शुरुआत में ही ठिठक जाने की है. मोदी सरकार के एक साल की अनेक शुरुआतें उसी दलदल में धंस गई हैं जिसमें फंसकर पिछले कई प्रयोग बरबाद हुए हैं. स्कीमों के डिजाइन में खामी, क्रियान्वयन तंत्र की कमजोरी, दूरगामी सोच की कमी और स्पष्ट लक्ष्यों का अभाव भारतीय गवर्नेंस की बुनियादी चुनौती है. मोदी को इसी गवर्नेंस में सुधार का जनादेश मिला था. उन्होंने इसमें सुधार का साहस दिखाए बगैर पुराने सिस्टम पर नए मिशन और स्कीमें थोप दीं. यही वजह है कि पहले ही साल में नतीजों की शून्यता, नीयत की भव्यता पर भारी पड़ गई है.
सरकार के एक साल के कामकाज का ब्योरा बनाते हुए केंद्र सरकार के मंत्रालय खासी मुश्किल से दो-चार थे. सरकारी मंत्रालयों को ऐसी उपलब्धियां मुश्किल से मिल पा रही थीं जिन्हें आंकड़ों के साथ स्थापित किया जा सके. कोयला खदानों और स्पेक्ट्रम आवंटन (जो सरकार के सामान्य कामकाज का हिस्सा है) को छोड़कर मंत्रालयों के पास बताने के लिए कुछ ठोस इसलिए नहीं था, क्योंकि तमाम इरादों और घोषणाओं के बावजूद सरकार एक ऐसी स्कीम या सुधार को तरस गई जिसकी उपलब्धि सहज ही महसूस कराई जा सके. मोदी सरकार के सभी अभियानों और स्कीमों की एक सरसरी पड़ताल किसी को भी यह एहसास करा देगी कि स्कीमें न केवल कामचलाऊ ढंग से गढ़ी गईं बल्कि बनाते समय यह भी नहीं देखा गया कि इस तरह के पिछले प्रयोग क्यों और कैसे विफल हुए हैं. सबसे बड़ा अचरज इस बात का है कि एक से अधिक कार्यक्रम ऐसे हैं जिनके साथ न तो क्रियान्यवन योजना है और न लक्ष्य. इसलिए प्रचार का पानी उतरते ही स्कीमें चर्चा से भी बाहर हो गईं. स्वच्छता मिशन का हाल देखने लायक है, जो सड़कों की तो छोड़िए, प्रचार से भी बाहर है. जन उत्साह से जुड़े एक कीमती अभियान को सरकार का तदर्थवाद और अदूरदर्शिता ले डूबी. एक साल में इस मिशन के लिए संसाधन जुटना तो दूर, रणनीति व लक्ष्य भी तय नहीं हो सके. पूरा साल बीत गया है और सरकार विभिन्न एजेंसियों खास तौर पर स्थानीय निकायों को भी मिशन से नहीं जोड़ सकी. नगर निगमों के राजस्व को चुस्त करने की रणनीति के अभाव में गंदगी अपनी जगह वापस मुस्तैद हो गई है जबकि झाड़ू लगाती हुई छवियां नेताओं के घरों में सजी हैं. अब सरकार में कई लोग यह मानने लगे हैं कि इस मिशन से बहुत उम्मीद करना बेकार है. सरकार की सर्वाधिक प्रचारित स्कीम जन धन दूरदर्शिता और सूझबूझ की कमी का शिकार हुई है. यह स्कीम उन लोगों के वित्तीय व्यवहार से तालमेल नहीं बिठा पाई जिनके लिए यह बनी है. 50 फीसदी खाते तो निष्क्रिय हैं, दुर्घटना बीमा और ओवरड्राफ्ट ने कोई उत्साह नहीं जगाया. जब खातों में पैसा नहीं है तो रुपे कार्ड का कोई काम भी नहीं है. स्कीम के नियमों के मुताबिक, पूरा मध्यवर्ग जन धन से बाहर है. दूसरी तरफ, नई बीमा स्कीमें बताती हैं कि पिछले प्रयोगों की असफलता से कुछ नहीं सीखा गया. इन स्कीमों को लागू करने वाला प्रशासनिक तंत्र, बजटीय सहायता और लक्ष्य तो नदारद हैं ही, स्कीमों के प्रावधानों में गहरी विसंगतियां हैं. इनसे मिलने वाले लाभ इतने सीमित हैं (मसलन बीस साल तक योगदान के बाद 60 साल की उम्र पर 1,000 से 5,000 रु. प्रति माह की पेंशन) कि लोगों में उत्साह जगना मुश्किल है. इनके डिजाइन इन्हें लोकप्रिय होने से रोकते हैं जबकि इनकी असंगतियां इन्हें बीमा कंपनियों के लिए बेहतर कारोबारी विकल्प नहीं बनातीं. अपने मौजूदा ढांचे में प्रधानमंत्री का जनसुरक्षा पैकेज लगभग उन्हीं विसंगतियों से लैस है, आम आदमी बीमा, जन श्री, वरिष्ठ पेंशन और स्वावलंबन जैसी करीब आधा दर्जन स्कीमें जिनका शिकार हुई हैं.
मेक इन इंडिया, आदर्श ग्राम, डिजिटल इंडिया जैसे बड़े अभियान भी साल भर के भीतर घिसटने लगे हैं तो इसकी वजह कमजोर मंशा नहीं बल्कि तदर्थ तैयारियां हैं. स्कीमें, मिशन और अभियान न केवल तैयारियों और गठन में कमजोर थे बल्कि इन्हें उसी प्रणाली से लागू कराया गया जिसकी असफलता असंदिग्ध है. अब बारह माह बीतने के बाद सरकार में यह एहसास घर करने लगा है कि न केवल पिछली सरकार की स्कीमों को अपनाया गया है बल्कि गवर्नेंस की खामियों को कॉपी-पेस्ट कर लिया गया है इसलिए सरकार के महत्वाकांक्षी अभियान असहज करने वाले नतीजों की तरफ बढ़ रहे हैं.
नरेंद्र मोदी से ताबड़तोड़ मिशन और स्कीमों के ऐलान की उम्मीद किसी ने नहीं की थी. लोग तो यह समझ रहे थे कि मोदी गवर्नेंस के पुनर्गठन की नई सूझ लेकर आए हैं जिसमें पहले वे इस डायनासोरी सरकारी तंत्र को ठीक करेंगे जिसमें अव्वल तो अच्छी पहल ही मुश्किल है और अगर हो भी जाए तो यह तंत्र उसे निगल जाता है. लेकिन मोदी सरकार ने तो हर महीने एक नई स्कीम और मिशन उछाल दिया जिसे संभालने और चलाने का ढांचा भी तैयार नहीं था. 'मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस' से लोगों ने यही समझा था कि मोदी चुस्त और नतीजे देने वाली सरकार की बात कर रहे हैं, लेकिन एक साल में उनकी ज्यादातर स्कीमों और मिशनों ने मैक्सिमम गवर्नमेंट यानी नई नौकरशाही खड़ी कर दी है और नतीजे उतने ही कमजोर हैं, जितने कांग्रेस के दौर में होते थे. स्कीमों या मिशनों की विफलता नई नहीं है. मुश्किल यह है कि मोदी सरकार के इरादे जिस भव्यता के साथ पेश हुए हैं, उनकी विफलताएं भी उतनी ही भव्य हो सकती हैं. नरेंद्र मोदी को अब किस्म-किस्म की स्कीम व मिशन की दीवानगी छोड़कर गवर्नेंस सुधारने और नतीजे दिखाने का मिशन शुरू करना होगा नहीं तो मोहभंग की भव्यता को संभालना, उनके लिए मुश्किल हो जाएगा.