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Sunday, August 12, 2018

सवाल हैं तो आस है


 
गूगल 2004 में जब अपना पहला पब्लिक इश्यू (पूंजी बाजार से धन जुटाना) लाया था तब मार्क जकरबर्गफेसमैश (फेसबुक का पूर्वज) बनाने पर हार्वर्ड यूनिवर्सिटी का गुस्सा झेल रहे थेक्योंकि उन्होंने यूनिवर्सिटी के डेटाबेस से छात्रों की जानकारियां निकाल ली थीं. इंटरनेट, गूगल के जन्म (1998) से करीब दस साल पहले शुरू हुआ. मोबाइल तो और भी पहले आया1970 के दशक की शुरुआत में.

आज दुनिया की कुल 7.5 अरब आबादी में (55 फीसदी लोग शहरी) करीब 4.21 अरब लोग इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं और 5.13 अरब लोगों के पास मोबाइल है. (स्रोतः आइटीयूग्लोबल वेब इंडेक्स)

पांच अरब लोगों तक पहुंचने में मोबाइल को 48 साल और इंटरनेट को चार अरब लोगों से जुडऩे में 28 साल लगेलेकिन सोशल नेटवर्क केवल एक दशक में 3.19 अरब लोगों तक पहुंच गए.

सोशल नेटवर्क के फैलने की रफ्तारइंटरनेट पर खोज की दीवानगी से ज्यादा तेज क्यों थी?

क्या लोग खोजने से कहीं ज्यादा पूछनेबताने के मौके चाहते थेयानी संवाद के?

सोशल नेटवर्कों की अद्भुत रफ्तार का रहस्यइक्कीसवीं सदी के समाजराजनीतिअर्थशास्त्र की बनावट में छिपा है. इंटरनेट की दुनिया यकीनन प्रिंटिंग प्रेस वाली दुनिया से कहीं ज्यादा लोकतांत्रिक हो गई थीफिर भी यह संवाद लोकतंत्र के जन्म (16-17वीं सदी) से आज तक एकतरफा ही तो था. 
सोशल नेटवर्क दोतरफा और सीधे संवाद की सुविधा लेकर आए थे. और लोकतंत्र पूरा हो गया. लोग अब सीधे उनसे सवाल पूछ सकते थे जो जिम्मेदार थे. वे जवाब न भी दें लेकिन लोगों के सवाल सबको पता चल सकते हैं.

प्रश्न पूछने की आजादी बड़ी आजादी क्यों है?

संवैधानिक लोकतंत्रों के गठन में इसका जवाब छिपा है. संसदीय लोकतंत्र आज भी इस बात पर रश्क करता है कि उसके नुमाइंदे अपने प्रधानमंत्री से सीधे सवाल कर सकते हैं. 

इक्कीसवीं सदी में लोकतंत्र के एक से अधिक मॉडल विकसित हो चुके हैं. लेकिन इनके तहत आजादियों में गहरा फर्क है. रूस हो या सिंगापुरचुनाव सब जगह होते हैं लेकिन सरकार से सवाल पूछने की वैसी आजादी नहीं है जो ब्रिटेनअमेरिका या भारत में है. इसलिए अचरज नहीं कि जैसे ही सोशल नेटवर्क फैलेभाषाएं आड़े नहीं आईं और उन देशों ने इन्हें सबसे तेजी से अपनाया जिनमें लोकतंत्र नगण्य या सीमित था. अरब मुल्कों में प्रिंटिंग प्रेस सबसे बाद में पहुंची लेकिन फेसबुक ट्विटर ने वहां क्रांति करा दी. चीन सोशल नेटवर्क का विस्तार तो रोक नहीं सका लेकिन अरब जगत से नसीहत लेकर उसने सरकारी सोशल नेटवर्क बना दिए.

संसदीय लोकतंत्र के संविधान सरकार को चैन से न बैठने देने के लिए बने हैं. सत्ता हमेशा टी बैग की तरह सवालों के खौलते पानी में उबाली जाती है. चुनाव लडऩे से पहले हलफनामेसंसद में लंबे प्रश्न कालसंसदीय समितियांऑडिटर्सऑडिटर्स की रिपोर्ट पर संसदीय समितियांविशेष जांच समितियांहर कानून को अदालत में चुनौती देने की छूटसवाल पूछती अदालतेंविपक्षमीडिया...इन सबसे गुजरते हुए टी बैग (सरकार) को बदलने या फेंकने (चुनाव) की बारी आ जाती है.

भारत की अदालतों में लंबित मुकदमों को देखकर एक बारगी लगेगा कि लोग सरकार पर भरोसा ही नहीं करते! लोग सरकार को कठघरे में खड़ा करते रहते हैं. यानी कि जो सवाल कानून बनाते समय नुमांइदे नहीं पूछ पातेउन्हें लोगों की ओर से अदालतें पूछती हैं.

लोकतंत्र में प्रश्नों का यह चिरंतन आयोजन केवल सरकारों के लिए ही बुना गया है. वजह यह कि लोग पूरे होशो-हवास में कुछ लोगों को खुद पर शासन करने की छूट देते हैं और अपनी बचतें व टैक्स उन्हें सौंप देते हैं. सरकारें सवालों से भागती हैं और लोकतंत्र की संस्थाएं उन्हें रह-रह कर सवालों से बेधती रहती हैं. 

इक्कीसवीं सदी में अब चुनाव की आजादी ही लोकतंत्र नहीं हैचुने हुए को सवालों में कसते रहने की आजादी अब सबसे बड़ी लोकशाही है इसलिए जैसे ही सोशल नेटवर्क फैलेलोगों ने समूह में सवाल पूछने प्रारंभ कर दिए.

प्रश्नों का तंत्र अब पूरी तरह लोकतांत्रिक हो रहा है. क्यों केवल पत्रकार ही कठोर सवाल पूछेंलोकतंत्रों में अब ऐसी संस्कृति विकसित करने का मौका आ गया है जब प्रत्येक व्यक्ति को सरकार से कठोर से कठोर प्रश्न पूछने को प्रेरित किया जाए.

सत्ता का यह भ्रम प्रतिक्षण टूटते रहना चाहिए कि जो उत्सुक या जिज्ञासु हैंवे मूर्ख नहीं हैं. और कई बार सवालजवाबों से कहीं ज्यादा मूल्यवान होते हैं.



Monday, August 14, 2017

आजादी के बाद आजादी



आजादी के बाद क्या होता है?
देश के लोग अपनी सरकार बनाते हैं.
आजादी के बादआजादी को सबसे बड़ा खतरा किससे होता है?
सरकार से!

राजनीतिशास्त्र के एक प्रोफेसर ठहाके के साथ यह संवाद अक्सर दोहराते थे और सवालों का गुबार छोड़ जाते थे.

विदेशी ताकत की गुलामी से मुक्त होते हीकिसी भी देश के लिए आजादी के मतलब पूरी तरह बदल जाते हैं. गुलामी से निजात के बाद ''अपनीसरकारों को अपने लोगों की आजादी में लगातार बढ़ोतरी करनी होती है. लोगों की अपनी सरकारें उनकी आजादियों के जिस तरह सजाती संवारती है उसी अनुपात में नागरिकों का दायित्‍व बोध निखरता चला जाता है  

भारत के पास सामाजिकवैचारिक और आर्थिक स्वाधीनताओं की अनोखी परंपरा रही है उपनिवेशवाद ने जिसे सीमित किया था ताकि इस गतिमान देश पर शासन किया जा सके. अब जबकि हर प्रमुख राजनैतिक दल या विचारधारा की सत्ता में आवाजाही हो चुकी है तब आजादी के सत्तर साल के मौके पर यह देखना जरूरी है कि हमारे हाकिमों ने भारतीय समाज की ऐतिहासिक स्वाधीनताओं से क्या सीखा और उसे कितना बढ़ाया या संवारा है?

- भारत एक था मगर एकरूप नहीं. ब्रितानीअपने राज के लिए इस जटिल देश को पीट-पाटकर एकरूप करने की कोशिश में लगे रहे. आजादी के बाद भी सरकारों ने एकरूपता (एकता नहीं) की जिद नहीं छोड़ी. किसी को यह विविधताएं विकास में बाधक लगीं तो किसी को राष्ट्रवाद में. क्षेत्रीय व स्थानीय अपेक्षाओं से कटी और ऊपर से थोपी गई नीतियों के कारण भारत गवर्नेंस की गफलतों का अजायबघर है.

-1950 से 2010 के बीच करीब 250 से अधिक से  सरकारी कंपनियां बनीं. आधी तो उदारीकरण के दौरान प्रकट हुईं. मुगल और ब्रिटिश राज के बीच भी अपनी स्वतंत्र उद्यमिता को बचाकर रखने वाला देश कभी यह नहीं समझ सका कि सरकारें आखिर कारोबार की पूरी आजादी क्यों नहीं देतीं. वह क्यों कारोबार करते रहना चाहती है या फिर कुछ खास अपनों को कारोबारी सफलता के अवसर देने में भरोसा रखती हैं. 

- सरकार को बड़ा करते जाने की सूझ लंदन वालों की विरासत थी. उन्हें शासन में मददगार लोग चाहिए थे. पिछले कुछ दशकों में ब्रिटेन में नौकरशाही छोटी होती गई लेकिन भारत में सरकारें मोटी होती गईं. इतिहास बताता है कि अधिकांश भारत ने (संकटों को छोड़कर) जीविका के लिए कभी राजा या सत्ता की तरफ नहीं देखा था. लेकिन फैलती सरकारें अपनी मुट्ठी भर नौकरियां लेकर आरक्षण की सियासत में उतर गईं.

-ब्रिटेन के लिए भारत कमाई का स्रोत था इसलिए उत्पादन और खपत पर टैक्स लगाने का सिलसिला 19वीं सदी के अंत में नमक और कपड़े पर टैक्स से शुरू हुआ. बीसवीं सदी के अंत में सभी उत्पादनों पर एक्साइज ड्यूटी लग गई. अगले दशकों में जब यूरोप मांगखपतउत्पादन और रोजगार बढ़ाने के लिए टैक्स घटा रहा था तब भारत सेवाओं पर भी टैक्स लगा रहा था. बढ़ती सरकार को पालने के लिए लोगों की जिंदगी महंगा करना जरूरी हो गया. जीएसटी ने इस परंपरा को पूरी पवित्रता के साथ जारी रखा है. जितना टैक्स हम चुकाते हैं यदि उतनी ही बड़ी सरकार हमें मिलने लगे तो पता नहीं तो क्या हाल होगा.

- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब पुराने कानूनों को खत्म कर रहे थे तो उनकी नजर उन बर्तानवी कानूनों पर भी गई होगी जो अभिव्यक्ति की आजादी पर रोक के लिए बने थे. अपनी’ सरकारों ने इन्हें सत्तर सालों मे सहेजा और बढ़ाया है. सरकार अपने नागरिकों की निजता के अधिकार पर बुरी तरह असहज है. सवाल पूछते लोग हुक्मरानों को डराने लगे तो सूचना का अधिकार टिकाऊ साबित नहीं हुआ.

- ब्रिटिश शासकों को मालूम था कि भारत ऐतिहासिक तौर पर ताकतवर समाज वाला देश हैइस समाज के सभी पुराने आख्यान राजाओं की ताकत सीमित करने के संदेश देते हैं. ताकतवर और स्वतंत्र समाज से मुकाबले के लिएबर्तानवी शासकों ने सत्ता को अकूत शक्तियों से लैस किया था. आजादी के बाद आई सरकारों ने सत्ता की ताकत बढ़ाने का मौका नहीं चूका. सरकारें फैलती चली गईं और संवैधानिक संस्थाओं के बीच टकराव भारत का स्थायी भाव बन गया.

आजादी को सिर्फ बचाना ही नहींबढ़ाना भी होता है. अमेरिका ने गुलामी से मुक्ति के बाद आजादियां बढ़ाने के नए प्रयेाग किए जो दुनिया के लिए आदर्श बने. भारत के हुक्मरान अगर अमेरिका नहीं तो कम से कम अपने भव्य अतीत से तो सबक ले ही सकते हैं .  

रोनाल्ड रीगन कहते थे सरकारें भौतिकी के क्रिया-प्रतिक्रिया नियम की तरह होती हैं. सरकार जितनी बड़ी होती जाती है आजादी उतनी ही छोटी होती जाती है.
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