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Saturday, August 10, 2019

सुधार की हार



Art- Asit 
ठीक ही कहते थे रोनाल्ड रेगनसरकारें समस्याओं का समाधान नहीं करतीं बल्कि उन्हें नए क्रम में पुनर्गठित कर देती हैंदो साल पुरानी भारत की दूसरी आजादी यानी जीएसटी को लेकर अगर आपको भी ऐसा ही महसूस होता है तो अब देश के संवैधानिक ऑडिटर यानी सीएजी को अपने दर्द से इत्तेफाक करता हुआ पाएंगे.

सीएजी ने जीएसटी की ‘समग्र असफलता’ का रिपोर्ट कार्ड संसद को सौंप दिया हैजिसे पढ़ते हुए बरबस 30 जून, 2017 की मध्य रात्रि याद आ जाती है जब जगमगाते संसद भवन और दिग्गजों से सजे सेंट्रल हॉल में युगांतरकारी जीएसटी अवतरित हुआ थाचैनल-चैनल घूमकर बधाई गाते हुए सरकार के मंत्री बता रहे थे कि जीएसटी के अवतार के बाद

·       कारोबार करना दुनिया में सबसे आसान हो जाएगा
·       टैक्स चोर तो दिखेंगे ही नहीं        
·       सरकार का खजाना भर जाएगा
·       देश की विकास दर में कम से दो फीसद का इजाफा तो तय समझिए 

जीएसटी पर सीएजी की ताजा रिपोर्ट 1991 के बाद भारत के सबसे बडे़ आर्थिक सुधार की श्रद्धांजलि है.

जीएसटी के तहत कारोबारी सहजता (ईज ऑफ डूइंग बिजनेसको तलाशने निकले सीएजी को क्या मिला?

ऑडिटर ने रजिस्ट्रेशन सिस्टम की पड़ताल से शुरुआत की जो करदाता के लिए जीएसटी के तिलिस्म का प्रवेश द्वार हैपता चला कि कई जरूरी सूचनाएं गलत भरी जा रही हैंयहां तक कि कंपोजिशन स्कीम (छोटे टैक्सपेयर के लिए टर्न ओवर आधारित जीएसटीका गलत फायदा लिया जा रहा है.

निर्माता और सप्लायर की इनवॉयस यानी बिल का शत प्रतिशत  (रियल टाइममिलान जीएसटी का सबसे बुनियादी सुधार था क्योंकि इसके आधार पर कच्चे माल पर चुकाया गया कर वापस (रिफंडहोना थायह व्यवस्था कभी लागू नहीं हो सकीनतीजतनजीएसटी में जमकर फ्रॉड हुएएक करदाता ने 6 लाख करोड़ रुके रिफंड का दावा कर दियाजिसे बाद में सुधारा गया.

पंजीकरणहिसाब-किताब (इनवॉयस मिलानकी तरह ही टैक्स भुगतान का सिस्टम भी घिसट रहा हैडेबिट क्रेडिट कार्ड से टैक्स भुगतान आज तक शुरू नहीं हुआइन असफलताओं के चलते औसतन 60 फीसद करदाता ही रिटर्न फाइल करते हैं.

सीएजी ने दुख के साथ सूचित किया कि जीएसटी आने के बाद कर ईमानदारी तो नहीं बढ़ी अलबत्ता चोरी काफी बढ़ गई है.

कर नियमों के पालननए करदाताओं और खपत (कर दरों में रियायत के कारणमें बढ़ोतरी की मदद से राजस्व बढ़ना था लेकिन यह सुधार तो सरकारी खजानों को बहुत महंगा पड़ा हैजीएसटी लागू होने से पहले (2016-17) में सरकार के राजस्व में बढ़ोतरी की दर 21.33 फीसद थी जो घटकर करीब एक-चौथाई यानी 5.80 फीसद (2017-18) रह गईजीएसटी में कई टैक्स शामिल किए गए थेउनसे मिलने वाले राजस्व की तुलना में केंद्र की जीएसटी से कमाई दस फीसद (2017-18) घट गई.

ऑडिटर की रिपोर्ट यह भी बताती है कि सरकार ने अंतर्राज्यीय कारोबार पर लगने वाले आइजीएसटी को राज्यों के साथ बांटने में संविधान के नियमों का उल्लंघन कियाइसमें कई राज्यों के साथ भेदभाव हुआ हैइस गफलत पर सीएजी की मुहर के बाद राज्य मुखर हो सकते हैं.

लगभग 122 पेज की यह रिपोर्ट नियमों में बार-बार बदलावजीएसटीएन में तकनीकी खामियांगलत गणनाओं की पड़ताल करते हुए कहती हैसरकार को यह समझना चाहिए था कि जीएसटी जैसे विशाल और जटिल सिस्टम में जरा सी चूक बड़े नुक्सान व असुविधा का सबब बनेगी लेकिन यहां तो दो साल से जीएसटी का संक्रमण पूरा होता ही नहीं दिख रहा है.

याद रखना जरूरी है कि उस मध्य रात्रि के जीएसटी अवतरण की गहमागहमी के बीच देश की विकास दर दो फीसद बढ़ने का सपना भी दिखाया गया थाजीएसटी में असंख्य बदलाव हुए लेकिन इस सुधार के बाद न केवल हर प्रमुख उत्पाद की खपत गिरी है बल्कि आर्थिक विकास दर हर तिमाही नए गड्ढे तलाश रही है.

सबसे गंभीर बात यह है कि वित्त मंत्रालय ने तमाम लानत-मलामत के बावजूद सीएजी को जीएसटी के अखिल भारतीय आंकड़े का ऑडिट करने की छूट नहीं दीसीएजी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि ये खामियां फील्ड ऑडिट के आधार पर पाई हैंइसलिए यह सीमित ऑडिट है.

सनद रहे कि जीएसटी कानून के प्रारंभिक प्रारूप की धारा 65 के तहत सीएजी को जीएसटी काउंसिल से सूचनाएं तलब करने का अधिकार था लेकिन अक्तूबर 2017 में जीएसटी काउंसिल ने इस सुधार की निगहबानी से सीएजी को दूर कर दिया. 

समझा जा सकता है कि सरकार जीएसटी से सीएजी को क्यों दूर रखना चाहती थी.

एक घटिया सुधार ने अर्थव्यवस्था के दो साल बर्बाद कर दिएजीएसटी का समग्र ऑडिट और इस विफलता पर सरकार की जवाबदेही अब लोकतंत्र का तकाजा है.


Friday, March 8, 2019

सवाल हैं तो सुरक्षा है


अगर 1999 या 2000 आज (2019) जैसा होता तो हम कभी यह नहीं जान पाते कि करगिल के युद्ध में सरकार या सेना ने क्या गलती की थी? उस युद्ध में जितनी बहादुरी सेना ने दिखाई थी उतनी ही वीरता से सामने आया था भारत का लोकतंत्र, सवाल जिसके प्राण हैं.

करगिल के बाद भारत में ऐसा कुछ अनोखा हुआ था जिस पर हमें बार-बार फख्र करना चाहिए. करिगल की जांच के लिए तत्कालीन वाजपेयी सरकार ने एक समिति बनाई. यह समिति सरकारी नहीं थी लेकिन कैबिनेट सचिव के आदेश से इसे अति गोपनीय रणनीतिक दस्तावेज भी दिखाए गए.

बहुआयामी अधिकारी और रणनीति विशेषज्ञ के. सुब्रह्मण्यम के नेतृत्व में इस समिति ने न केवल सुरक्षा अफसरों से बल्कि तत्कालीन और पूर्व प्रधानमंत्रियों, रक्षा मंत्रियों, विदेश मंत्रियों यहां तक कि पूर्व राष्ट्रपति से भी पूछताछ की. करीब 15 खंड और 14 अध्यायों की इसकी रिपोर्ट ने करगिल में भयानक भूलों को लेकर सुरक्षा, खुफिया तंत्र और सैन्य तैयारियों की धज्जियां उड़ा दीं.

अगर 2017 भी आज जैसा होता तो फिर हम यह कभी नहीं जान पाते कि भारत की फटेहाल फौज के पास दस दिन के युद्ध के लायक भी गोला-बारूद नहीं है. सीएजी ने 2015 में ऐसी ही पड़ताल की थी. अगर 1989 भी आज की तरह होता तो बोफोर्स पर एक मरियल-सी सीएजी रिपोर्ट (राफेल जैसी) सामने आ जाती.

सेना या सुरक्षा बलों से रणनीति कहीं नहीं पूछी जाती. लेकिन लोकतंत्र में सेना सवालों से परे कैसे हो सकती है? रणनीतिक फैसले यूं ही कैबिनेट की सुरक्षा समिति नहीं करती है, जहां सेनानायक भी मौजूद होते हैं. इस समिति में वे सब लोग होते हैं जो अपने प्रत्येक आचरण के लिए देश के प्रति जवाबदेह हैं.

लोकतंत्र के संविधान सरकारों को सवालों में घेरते रहने का संस्थागत आयोजन हैं. संसद के प्रश्न काल, संसदीय समितियां, ऑडिटर्स, उनकी रिपोर्ट पर संसदीय जांच... सेना या सैन्य प्रतिष्ठान इस प्रश्न-व्यवस्था के बाहर नहीं होते.

लोकतंत्र में वित्तीय जवाबदेही सबसे महत्वपूर्ण है. सैन्य तंत्र भी संसद से मंजूर बजट व्यवस्था का हिस्सा है जो टैक्स या कर्ज (बैंकों में लोगों की बचत) पर आधारित है. इसलिए सेना के खर्च का भी ऑडिट होता है, जिसमें कुछ संसद से साझा किया जाता है और कुछ गोपनीय होता है.

पाकिस्तान में नहीं पूछे जाते होंगे सेना से सवाल लेकिन भारत में सैन्य प्रतिष्ठान से पाई-पाई का हिसाब लिया जाता है. गलतियों पर कैफियत तलब की जाती है. सेना में भी घोटाले होते हैं. जांच होती है.

लोकतंत्र में निर्णयों और उत्तरदायित्वों का ढांचा संस्‍थागत है, व्यक्तिगत नहीं. सियासत किसी एक व्यक्ति को पूरी व्यवस्था बना देती है, जिसमें गहरे जोखिम हैं इसलिए समझदार राजनेता हमेशा संस्था‍ओं का सुरक्षा चक्र मजबूत करते हैं ताकि संस्थाएं जिम्मेदारी लें और सुधार करें.

करगिल के बाद भी राजनीति हुई थी. कई सवाल उठे थे, संसद में बहस भी हुई. सेना को कमजोर करने के आरोप लगे लेकिन तब शायद लोकतंत्र ज्यादा गंभीर था इसलिए सरकार ने सेना और अपनी एजेंसियों पर सवालों व जांच को आमंत्रित किया और स्वीकार किया कि करगिल की वजह भयानक भूलें थीं. सुब्रह्मण्यम की रिपोर्ट पर कार्रवाई के लिए मंत्रिसमूह बना.

मई 2012 में तत्कालीन यूपीए सरकार ने संसद को बताया था कि करगिल समीक्षा रिपोर्ट की 75 में 63 सिफारिशें लागू की जा चुकी हैं. इन पर क्रियान्वयन के बाद भारत में सीमा प्रबंधन पूरी तरह बदल गया, खुफिया तंत्र ठीक हुआ, नया साजो-सामान जुटाया गया और सेना की कमान को समन्वित किया गया. करगिल पर उठे सवालों की वजह से हम पहले से अधिक सुरक्षित हो गए.

जोश चाहे जितना हो लेकिन उसमें लोकतंत्र का होश बने रहना जरूरी है. सवालों की तुर्शी और दायरा बढऩा परिपक्व लोकतंत्र का प्रमाण है जबकि सत्ता हमेशा सवालों के दायरे से बाहर रहने का उपक्रम करती है, जो गलतियों व जोखिम को सीधा न्योता है.

क्या हम नहीं जानना चाहेंगे कि पुलवामा, उड़ी और पठानकोट हमलों में किसी एजेंसी की चूक थी? इनकी जांच का क्या हुआ? क्या सैन्य साजो-सामान जुटाने में देरी की वजह या अभियानों की सफलता- विफलता की कैफियत नहीं पूछना चाहेंगे?

राजनेता कई चक्रों वाली सुरक्षा में रहते हैं. खतरे तो आम लोगों की जिंदगी पर हैं. शहीद फौजी होता है. लोकतंत्र में सरकार से सवाल पूछना सबसे बड़ी देशभक्ति‍ है क्योंकि सवाल ही हमारा सबसे बड़ा सुरक्षा कवच हैं.

Monday, February 27, 2017

सीएजी से कौन डरता है?


सरकारें जीएसटी से सीएजी को क्यों दूर रखना चाहती हैं ? 


जीएसटी यानी भारत के सबसे बड़े कर सुधार पर संवैधानिक ऑडिटर नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) की निगहबानी नहीं होगी!

यदि संसद ने दखल न दिया तो सीएजी जीएसटी से केंद्र व राज्यों को होने वाले नुक्सान-फायदे पर सवाल नहीं उठा पाएगा! 

डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि सीएजी सुप्रीम कोर्ट से ज्यादा महत्वपूर्ण संस्था है. इसे केंद्र और राज्यों के राजस्व को प्रमाणित करने का संवैधानिक अधिकार है मगर इसे जीएसटी में राजस्व को लेकर सूचनाएं मांगने का अधिकार भी नहीं मिलने वाला. राज्य सरकारें भी कब चाहती हैं कि कोई उनकी निगरानी करे. 

क्या यह पिछली सरकार में सीएजी की सक्रियता से उपजा डर है?

या फिर संवैधानिक संस्थाओं की भूमिका सीमित करने का कोई बड़ा आयोजन?

जीएसटी सरकारों (केंद्र व राज्य) के राजस्व से संबंधित है, जो ऑडिट के संवैधानिक नियमों का हिस्सा हैं. इसी आधार पर सीएजी ने 2जी और कोयला घोटालों की जांच की थी, क्योंकि उनसे मिला राजस्व सरकारी खजाने में आया था.

जीएसटी कानून के प्रारंभिक प्रारूप की धारा 65 के तहत सीएजी को यह अधिकार था कि वह जीएसटी काउंसिल से सूचनाएं तलब कर सकता है. 

पिछले साल अक्तूबर में, केंद्र सरकार के नेतृत्व में चुपचाप इस प्रावधान को हटाने की कवायद शुरू हुई.  सीएजी ने पत्र लिखकर अनुरोध किया था कि धारा 65 को न हटाया जाए क्योंकि संवैधानिक नियमों के टैक्स मामलों का ऑडिट सीएजी की जिंम्मेदारी है. अलबत्ता जीएसटी काउंसिल की ताजा बैठक में केंद्र और राज्य सीएजी को जीएसटी से दूर रखने पर राजी हो गए.  

इस फैसले के बाद केंद्र व राज्यों के राजस्व में संवैधानिक ऑडिटर की भूमिका बेहद सीमित हो जाएगी.   

सरकारें जीएसटी से सीएजी को क्यों दूर रखना चाहती हैं, इस पर शक लाजिमी है. जबकि जिस फॉर्मूले के तहत राज्यों को जीएसटी से होने वाले नुक्सान की भरपाई करेगी, उसके राजस्व के आंकड़ों को प्रमाणित करने का अधिकार सीएजी के पास है.

विवाद जीएसटी नेटवर्क को लेकर भी है, सीएजी को जिसका ऑडिट करने की इजाजत नहीं मिल रही है. 
  • यह नेटवर्क एक निजी कंपनी  (51 फीसदी हिस्सा बैंकों व वित्तीय कंपनियों का और 49 फीसदी सरकार का) के मातहत है जो केंद्र व राज्यों के टैक्स सिस्टम को जोडऩे वाला विशाल कंप्यूटर नेटवर्क बनाएगी व चलाएगी, कर जुटाएगी और राजस्व का बंटवारा करेगी. 
  • इस कंपनी में केंद्र व राज्य सरकारें 4000 करोड़ रु. लगा चुकी हैं. वित्त मंत्रालय का व्यय विभाग इस पर सवाल उठा रहा है. जीएसटी का नेटवर्क बना रही एक कंपनी पर सर्विस टैक्स चोरी का मामला भी बना है, अलबत्ता वित्त मंत्रालय इस नेटवर्क के सीएजी ऑडिट को तैयार नहीं है. 


हैरत नहीं कि सीएजी को जीएसटी से दूर रखने का ऐलान करते हुए वित्त मंत्री ने आयकर कानून का जिक्र किया, जहां सीएजी को विशेष अधिकार नहीं मिले हैं. इनकम टैक्स को लेकर तो सीएजी और सरकार के बीच एक जंग सी छिड़ी है जो सुर्खियों का हिस्सा नहीं बनती. 

सीएजी के गलियारों में सीएजी नब्‍बे के दशक के अंतिम वर्षों किस्से याद किए जा रहे हैं जब सरकार स्वैच्छिक आय घोषणा योजना (वीडीआइएस) लेकर आई थी और वित्त मंत्रालय ने उसके ऑडिट की छूट नहीं दी थी. तब बाकायदा ऑडिटर ने आयकर अधिकारियों के खिलाफ पुलिस में शिकायत की थी. इस समय भी हालात कुछ ऐसे ही हैं.  

सीएजी ताजा इनकम डिस्क्लोजर स्कीम का ऑडिट करना चाहता है लेकिन वित्त मंत्रालय तैयार नहीं है. आयकर कानून में सीएजी के अधिकार सीमित होने के कारण वित्त मंत्रालय इनकम टैक्स के आंकड़े नहीं देता जिस पर हर साल खींचतान होती है.  

यकीनन, पिछले दो साल में सीएजी ने कोई बड़ा चैंकाने वाला ऑडिट नहीं किया (करने नहीं दिया गया) है लेकिन इसके बाद भी तीन मौकों पर सीएजी ने सरकार को असहज किया हैः 

पहला, जब सीएजी ने एलपीजी सिलेंडर छोडऩे की योजना से 22,000 करोड़ रु. की बचत के दावे को खोखला साबित किया था. 

दूसरा, जब सीएजी ने कोयला ब्लॉक नीलामी में छेद पाए थे. 

तीसरा, केजी बेसिन में गुजरात सरकार (2005) के निवेश पर सवाल उठाए थे.


आंबेडकर सीएजी को संघीय वित्तीय अनुशासन रीढ़ बनाने जा रहे थे इसलिए संविधान सभा ने लंबी बहस के बाद राज्यों के लिए अलग-अलग सीएजी बनाने का प्रस्ताव नहीं माना. वे तो चाहते थे कि सीएजी का स्टाफ नियुक्त करने का अधिकार भी सरकार के पास नहीं होना चाहिए लेकिन अब पारदर्शिता के स्थापित संवैधानिक पैमाने भी सरकारों को डराने लगे हैं, खास तौर पर वे लोग कुछ ज्यादा ही डरे हैं जो साफ-सुथरी और ईमानदार राजनीति का बिगुल बजाते हुए सत्ता में आए थे.  

Monday, January 13, 2014

निजीकरण का ऑडिट

निजी कंपनियों का सीएजी ऑडिट,  निजीकरण से उपभोक्‍ताओं के लाभ की थ्‍योरी को सवालों में घेरने वाला है, जो पिछले एक दशक में निजीकरण के फैसलों का आधार रही है।

भारत के आर्थिक सुधार पुरुष बीते हफ्ते जब इतिहास से दया के लिए चिरौरी कर रहे थे तब तारीख डा. मनमोहन सिंह को केवल एक असफल प्रधानमंत्री के तौर पर ही दर्ज नहीं कर रहा था तारीख यह भी लिख रही थी कि भारत की दूसरी आजादी उसी व्‍यकित की अगुआई में दागी हो गई जिसे खुद  उसने ही गढ़ा था। अनोखा संयोग है कि मनमोहन सिंह का रिटायरमेंट सफर और देश के उदारीकरण दूसरा ऑडिट एक साथ शुरु हो रहे हैं। देश का संवैधानिक ऑडीटर निजी कंपनियों के खातों को खंगालेगा और जरुरी सेवाओं की कीमतें तय करने के फार्मूले परखेगा। इस पड़ताल में घोटालों का अगला संस्‍करण निकल सकता है। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की पहली जांच में देश को प्राकृतिक संसाधनों की बंदरबांट व नेता कंपनी गठजोड़ का पता चला था जबकि दूसरा ऑडिट , निजीकरण से उपभोक्‍ताओं के लाभ की थ्‍योरी को सवालों में घेरने वाला है, जो पिछले एक दशक में निजीकरण के फैसलों का आधार रही है। भारत के सुधार पुरोधा का यह परम दुर्भाग्‍य है कि उनके जाते जाते भारत के खुले बाजार की साख कुछ और गिर चुकी होगी।