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Thursday, December 16, 2021

आइने में आइना



ज‍िसका डर था बेदर्दी वही बात हो गईवारेन बफे के ओव‍ेर‍ियन लॉटरी वाले स‍िद्धांत को भारतीय नीति आयोग की मदद मिल गई है. यह फर्क अब कीमती है क‍ि आप भारत के किस राज्य में रहते हैं और तरक्‍की के कौन राज्‍य में शरण चाहिए. 

जन्म स्थान का सौभाग्य यानी ओवेरियन लॉटरी (वारेन बफे-जीवनी द स्नोबॉल) का स‍िद्धांत न‍िर्मम मगर व्‍यावहार‍िक है. इसक फलित यह है क‍ि अध‍िकांश लोगों की सफलता में (अपवादों को छोड़कर) बहुत कुछ इस बात पर निर्भर होता है क‍ि वह कहां पैदा हुआ है यानी अमेरिका में या अर्जेंटीना में !

अर्जेंटीना से याद आया क‍ि क‍ि वहां के लोग अब उत्‍तर प्रदेश या बिहार से सहानुभूति रख सकते हैं. मध्‍य प्रदेश झारखंड वाले, लैटिन अमेर‍िका या कैरेब‍ियाई देशों के साथ भी अपना गम बांट सकते हैं. गरीबी की पैमाइश के नए फार्मूले के बाद भारत की सीमा के भीतर आपको स्‍वीडन या जापान तो नहीं लेक‍िन अफ्रीकी गिन‍िया बिसाऊ और केन्‍या (प्रति‍ व्‍यक्‍ति‍ आय) से लेकर पुर्तगाल व अर्जेंटीना तक जरुर मिल जाएंगे.

बफे ने बज़ा फरमाते हैं क‍ि सफलता केवल प्रतिभा या क्षमता से ही तय नहीं होती है, जन्‍म स्‍थान के सौभाग्‍य से तय होती है. जैसे क‍ि  अर्जेंटीना की एक पूरी पीढ़ी दशकों से खुद पूछ रही है क‍ि यद‍ि यहां न पैदा न हुए होते तो क्‍या बेहतर होता?

अर्जेंटीना जो 19 वीं सदी में दुन‍िया के अमीर देशों में शुमार था उसका संकट इतनी बड़ी पहेली बन गया गया कि आर्थ‍िक गैर बराबरी की पैमाइश का फार्मूला (कुजनेत्‍स कर्व) देने वाले, जीडीपी के प‍ितामह सिमोन कुजनेत्‍स ने कहा था क‍ि दुनिया को चार हिस्‍सों - व‍िकस‍ित, अव‍िकस‍ित, जापान और अर्जेंटीना में बांटा जा सकता है.

Image – Kujnets Curve and Simon Kujnets

कुजनेत्‍स होते तो, भारत भी एसा ही पहेलीनुमा दर्जा देते. जहां भारत की उभरती अर्थव्‍यवस्‍था वाली तस्‍वीर भीतरी तस्‍वीर की बिल्‍कुल उलटी है. भारत में गरीबी की नई नापजोख बताती है क‍ि तेज ग्रोथ के ढाई दशकों, अकूत सरकारी खर्च, डबल इंजन की सरकारों के बावजूद अध‍िकांश राज्‍यों 10 में 2.5 से 5 पांच लोग बहुआयामी गरीबी के शिकार हैं. यह हाल तब है कि नीति‍ आयोग की पैमाइश में कई झोल हैं.

गरीबी की बहुआयामी नापजोख नया तरीका है जो संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ के जर‍िये दुन‍िया को मिला है. इसमें गरीबी को केवल कमाई के आधार पर नहीं बल्‍क‍ि सामाजिक आर्थ‍िक विकास के 12 पैमानों पर मापा जाता है. इनमें पोषण, बाल और किशोर मृत्यु दर, गर्भावस्‍था के दौरान देखभाल, स्कूली शिक्षा, स्कूल में उपस्थिति और खाना पकाने का साफ ईंधन, स्वच्छता, पीने के पानी की उपलब्धता, बिजली, आवास और बैंक या पोस्ट ऑफ़िस में खाते को शाम‍िल किया गया है

इस नापजोख में पेंच हैं. जैसे क‍ि इसके तहत मोबाइल फ़ोन, रेडियो, टेलीफ़ोन, कम्प्यूटर, बैलगाड़ी, साइकिल, मोटर साइकिल, फ़्रिज  में से कोई दो उपकरण (जैसे साइकिल और रेडियो) रखने वाले परिवार गरीब नहीं है घर मिट्टी, गोबर से नहीं बना है, तो गरीब नहीं. बिजली कनेक्‍शन, केरोस‍िन या एलपीजी के इस्‍तेमाल और परिवार में किसी भी सदस्य के पास बैंक या पोस्ट ऑफ़िस में अकाउंट होने पर उसे गरीब नहीं माना गया है. इसल‍िए अधि‍कांश शहरी गरीब को सरकार के ल‍ि‍ए गरीब नहीं हैं. तभी तो दिल्‍ली में गरीबी 5 फीसदी से कम बताई गई.

सरकारें आमतौर पर गरीबी छि‍पाती हैं, नतीजतन इस रिपोर्ट की राजनीत‍िक चीरफाड़ स्‍वाभाविक हैं, फिर भी हमें इस आधुन‍िक पैमाइश से जो निष्‍कर्ष मिलते हैं वे कोई तमगे नहीं है जिन पर गर्व किया जाए.

-    इस फेहर‍िस्‍त में जो पांच राज्‍य समृद्ध की श्रेणी में है पंजाब श्रीलंका या ग्‍वाटेमाला जैसी और तमि‍लनाडु अर्जेंटीना या पुर्तगाल जैसी अर्थव्‍यवस्‍थायें (उनमें जीडीपी महंगाई सहि‍त और पीपीपी) हैं. इसी कतार में आने वाले  केरल को अधिकतम जॉर्डन या चेक गणराज्‍य, सि‍क्‍क‍िम को बेलारुस और गोवा को एंटीगा के बराबर रख सकते हैं.

-    यद‍ि विश्‍व बैंक के डॉलर क्रय शक्‍ति‍ पैमाने से देखें को उत्‍तर प्रदेश, पश्‍च‍िम अफ्रीकी देश बेन‍िन और बिहार गिन‍िया बिसाऊ होगा. जीडीपी के पैमानों पर उत्‍तर प्रदेश पेरु और बिहार ओमान जैसी अर्थव्‍यवस्‍था हो सकती है. महाराष्‍ट्र, पश्‍च‍िम बंगाल, कर्नाटक, राजस्‍थान, आंध्र, मध्‍य प्रदेश तेलंगाना जैसे मझोले राज्‍य भी सर्बिया, थाइलैंड, ईराक, कजाकस्‍तान या यूक्रेन जैसी अर्थव्‍यवस्‍थायें हैं. इनमें कोई भी किसी विकस‍ित देश जैसा नहीं है.

धीमी पड़ती विकास दर, बढ़ते बजट घाटों और ढांचागत चुनौ‍त‍ियों की रोशनी में यह पैमाइश हमें कुछ बेहद तल्‍ख नतीजों की तरफ ले जाती है जैसे क‍ि

-    बीते दो दशकों में भारत की औसत विकास दर छह फीसदी रही, जो इससे पहले के तीन दशकों के करीब दोगुनी है. अलबत्‍ता सुधारों के 25 सालों में तरक्‍की की सुगंध सभी राज्‍यों तक नहीं पहुंची. सीएमआईई और रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक बीते बीस सालों में सबसे अगड़े और पिछड़े राज्‍यों में आय असमानता करीब 337 फीसदी बढ गई यानी क‍ि उत्‍तर प्रदेश आय के मामले में कभी भी स‍िक्‍कि‍म या पंजाब नहीं हो सकेगा.

-    औसत से बेहतर प्रदर्शन करने वाले ज्‍यादातर राज्‍य व केंद्रशास‍ित प्रदेश छोटे हैं यानी क‍ि उनके पास प्रवासि‍यों को काम देने की बड़ी क्षमता नहीं हैं. उदाहरण के ल‍िए अकेले बिहार या उत्‍तर प्रदेश में गरीबों की तादाद, नीति आयोग की गणना में ऊपर के पायदान पर खड़े नौ राज्‍यों में संयुक्‍त तौर पर कुल गरीबों की संख्‍या से ज्‍यादा है. यानी क‍ि बिहार यूपी के लोग जन्‍म स्‍थान दुर्भाग्‍य का चि‍रंतन सामना करेंगे.   

-    समृद्ध राज्‍यों की तुलना में पि‍छड़े राज्‍य श‍िक्षा स्‍वास्‍थ्‍य पर कम खर्च करते हैं लेक‍िन अगर सभी राज्‍यों पर कुल बकाया कर्ज का पैमाना लगाया जाए तो सबसे आगे और सबसे पीछे के राज्‍यों पर बकायेदारी लगभग बराबर ही है.

आर्थ‍िक राजनीत‍िक और सामाज‍िक तौर पर चुनौती अब शुरु हो रही है. भारत के विकास के सबसे अच्‍छे वर्षों में जब असमानता नहीं भर पाई तो तो आगे इसे भरना और मुश्‍क‍िल होता जाएगा. गरीबी नापने के नए पैमाने और वित्‍त आयोग की सि‍फार‍िशें बेहतर राज्‍यों को ईनाम देने की व्‍यवस्‍था दते हैं है जबक‍ि केंद्रीय सहायता में बड़ा हिस्‍सा गरीब राज्‍यों को जाता है.

अगड़े राज्‍य अपने बेहतर प्रदर्शन के लिए इनाम मांगेगे, संसाधनों में कटौती नहीं. यह झगड़ा जीएसटी पर भी भारी पड़ सकता है क्‍यों क‍ि निवेश को आकर्षि‍त करने ‍के लिए राज्‍यों को टैक्‍स र‍ियायत देने की आजादी चाहिए.

सरकारों को नीतियों का पूरा खाका ही बदलना होगा. स्‍थानीय अर्थव्‍यवस्‍थाओं के क्‍लस्‍टर बनाने होंगे और छोटों के ल‍िए बड़े प्रोत्‍साहन बढ़ाने होंगे, नहीं तो रोजगारों के ल‍िए अंतरदेशीय प्रवास पर राजनीति शुरु होने वाली है. हरियाणा और झारखंड एलान कर चुके हैं क‍ि रोजगार पर पहला हक राज्य के निवासियों का है.

यह असमानतायें भारत को एक दुष्‍चक्र में खींच लाई हैं जिसका खतरा गुन्‍नार मृदाल ने हमें 1944 ( क्‍युम्‍युलेटिव कैजुएशन) में ही बता दिया था.

मृदाल के मुताबिक अगर वक्‍त पर सही संस्‍थायें आगे न आएं तो शुरुआती तेज विकास बाद में बड़ी असमानताओं में बदल जाता  है. भारत में यही हुआ है, सुधारों के शुरुआती सुहाने नतीजे अब गहरी असमानताओं में बदलकर सुधारो के लि‍ए ही खतरा बन रहे हैं. ठीक एसा ही लैटि‍न अमेर‍िका के देशों के साथ हुआ है.  

भारतीय राजनीत‍ि अपनी पूरी ताकत लगाकर भी यह असमानतायें नहीं पाट सकती. वह एक बड़ी आबादी को ओवेर‍ियन लॉटरी की सुवि‍धा नहीं दे सकती. अलबत्‍ता इन अंतराराज्‍यीय असमानताओं बढ़ने से रोक द‍िया जाए क्‍यों क‍ि यह दरार बहुत चौड़ी है. नीति आयोग की रिपोर्ट को घोंटने पर पता चलता है क‍ि 1.31 अरब की कुल आबादी 28.8 करोड़ गरीब गांव में रहते हैं और केवल 3.8 करोड़ शहरों में.

यानी क‍ि गाजीपुर बनाम गाजियाबाद या चंडीगढ़ बनाम मेवात वाली स्‍थानीय असमानताओं की बात तो अभी शुरु भी नहीं हुई है.

 


Thursday, May 27, 2021

अंधेरी सुरंग

 


जापान और ब्रिटेन यानी दुनिया की तीसरी पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में क्या फर्क है? ब्रिटेन ने कोविड की भयावह पहली लहर के बाद 25 मई तक 100 में 92 लोगों को (35 फीसद आबादी को दोनों खुराक) वैक्सीन लगा दी. कारोबार शुरू हो गया और बेकारी घटने लगी है. (फाइनेंशियल टाइक्वस वैक्सीन ट्रैकर)

इधर, जापान जो पहली लहर में बच गया लेकिन अब तक 100 पर 8 लोगों को (महज 2.3 फीसद आबादी को दोनों खुराक) टीका लगा पाया. गंभीर संक्रमण के मामले रिकॉर्ड पर हैं, मंदी और गहरा गई है.

पहली लहर में भारत से दवा मंगाने वाले अमेरिका ने मौतों के कोहराम के बाद, अचूक वैक्सीन रणनीति से 25 मई तक अपने प्रति 100 में 87 लोगों (40 फीसद आबादी को दोनों खुराक) देकर दूसरी लहर रोक ली और अर्थव्यवस्था मंदी से निकल आई है.

दूसरी ओर, दुनिया की फार्मेसी या वैक्सीन फैक्ट्री यानी भारत में टीकाकरण कार्यक्रम ही (100 से 14 लोगों को वैक्सीन—25 मई तक) बीमार हो गया. केवल तीन फीसद आबादी को दोनों खुराक मिली हैं. इसलिए मंदी के टिकाऊ होने (V और U की बजाए L रिकवरी) के आकलन आने लगे हैं.

राज्य स्तरीय लॉकडाउन से हर महीने जीडीपी में 750 से 1.25 खरब डॉलर का नुक्सान हो रहा है (एमकेग्लोबल). पहली तिमाही डूबने के खतरे के साथ, वित्त वर्ष 2021-22 के लिए जीडीपी के आकलन 11-12 फीसद से घटकर 8-9 फीसद पर गए हैं. इस साल करीब 5.4 लाख करोड़ रुपए के नुक्सान का आकलन (बार्कलेज) है. 2020 में 20 लाख करोड़ रुपए का जीडीपी (-9, -10 फीसद) हमेशा के लिए खत्म हो गया. इस साल बढ़त तो दूर बीते साल का घाटा भरना भी मुश्कि है.

पेट्रोल-डीजल की कीमत में निर्मम एक तरफा बढ़त के कारण महंगाई पूरी ताकत से लौट आई है (10.49 फीसद थोक दर). बेकारी, बंदी और महंगाई के साथ लोगों का खर्च यानी खपत टूट गई है. 

वैक्सीन ही है जो कोविड और मंदी, दोनों से उबार रही है. यही वजह है कि वैक्सीन की ग्लोबल रणनीति तेजी से बदली है. जान और जहान (अर्थव्यवस्था) बचाने के लिए अब यूनिवर्सल वैक्सिनेशन (नवजात से लेकर बुजुर्ग) की तैयारी शुरू हो गई है और इस मामले में भारत बुरी तरह पिछड़ गया है.

- पूरी आबादी के लिए कुल 2.7 अरब (18 साल से ऊपर वालों के लिए 1.9 अरब) खुराकें चाहिए. दिसंबर तक 2.1 अरब खुराकें उपलब्ध होने के सरकारी दावे पर किसी को भरोसा नहीं है. फार्मा उद्योग का आकलन है कि सीरम, भारत बायोटेक, स्पुतनि और जायकोव-डी मिलकर जुलाई के बाद अधिकतम 24 करोड़ (वर्तमान 8.4 करोड़) खुराक दे पाएंगी

  - दिसंबर 2021 तक करीब 70% आबादी को वैक्सीन देने के लिए 65 लाख और यूनिवर्सल वैक्सिनेशन के लिए 1.3 करोड़ हर रोज टीके लगाने होंगे, जिसमें करीब 17 करोड़ खुराकों की कमी होगी. (एमकेग्लोबल) टीकों की कमी और नीतिगत असमंजस के कारण दैनिक वैक्सिनेशन औसत मई के तीसरे सप्ताह में घटकर 10-14 लाख रह गया है

-  केरल, छत्तीसगढ़, गुजरात में 15 फीसद आबादी को कम से कम एक खुराक मिल गई है जबकि उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में केवल 5 9 फीसद आबादी को. यानी कि वैक्सिनेशन की हालत देखते हुए सभी राज्य एक साथ कोविड की अंधी सुरंग से नहीं निकलेंगे.

-  वैक्सीन के आवंटन की नीति उलझी और विवादित है. अमेरिका में जहां मुक्त बाजार और पर्याप्त विकेंद्रीकरण है, वहां भी वैक्सीन कंपनियों से मोल-भाव और वितरण का फैसला केंद्रीय स्तर पर हुआ. 

इधर, चीन अब रोज 92 लाख लोगों को (अमेरिका का तीन गुना) टीके लगा रहा है. मई के दूसरे हफ्ते तक दुनिया में वैक्सीन की रफ्तार के आधार पर यूबीएस का आकलन है कि इस साल के अंत तक विकसित देशों में करीब 90 फीसद आबादी को वैक्सीन मिल जाएगी.

वैक्सीन आपूर्ति की मौजूदा हालत के मद्देनजर अगले साल जुलाई तक अधिकांश आबादी को वैक्सीन मिलने की संभावना नहीं है. पूरे देश की तुलना में, उत्तर प्रदेश महाराष्ट्र में सबको वैक्सीन मिलने में 15 से 17 माह और ज्यादा लग सकते हैं.

सनद रहे कि अगर कोविड तीसरी लहर ने बड़ी तबाही नहीं की तो भी ताजा कुप्रबंध और ध्वस्त वैक्सीन नीति के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था 2023-24 के पहले तक गर्त से बाहर नहीं सकेगी. यही वजह है कि भारत में बेकारी और गरीबी डरावने ढंग से बढ़ने के आंकड़ों की नई खेप आने लगी है.

दूसरी लहर के बाद भारत पर दुनिया का भरोसा डगमगाया है. भारत को यूनिवर्सल (बच्चों सहित) वैक्सिनेशन की अगुआई करनी थी, जिस पर जीडीपी के अनुपात में 0.6-0.7 यानी करीब 1.2 लाख करोड़ रुपए का खर्च होता (एमकेग्लोबल). लेकिन अब वैक्सिनेशन में देरी, लॉकडाउन और कारोबारी अनिश्चितता के कारण जीडीपी के 1 से 2 फीसद के बराबर का नुक्सान हो सकता है.

सरकार होने की पहली शर्त दूरदर्शिता है और हम इस मामले में अभागे साबित हुए हैं. हमारी जान और जहान, दोनों ही लंबी अंधेरी सुरंग में फंस गए हैं. इसलिए सरकारी प्रचार की बजाए अपनी दूरदर्शिता और सतर्कता पर भरोसा करिए क्योंकि खोने को हमारे पास कुछ नहीं बचा है.