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Friday, April 22, 2022

चीन क्‍या कर रहा है यह .... !

 



आनंद भाई का घनघोर कमाई वाट्स अप ग्रुप उदास रहता है अब घाटे कवर करने की सिफार‍िशों ही तैरती रहती हैं

लंबे वक्‍त तक शांत‍ि के बाद ग्रुप पर भूपेश भाई का संदेश चमका.

क्रेडिट सुइस ने भारत के शेयर बाजार में निवेश घटाकर चीन आस्‍ट्रेल‍िया और इंडोन‍ेशि‍या में बढ़ाने का फैसला क‍िया था

जेपी मोर्गन ने भी इंडिया का डाउनग्रेड कर दि‍या. यानी अब दूसरे बाजारों को तरजीह दी जाएगी.

आश्‍चर्य, असमंजस वाली इमोजी बरस पड़ी ग्रुप में

आनंद भाई ने पूछा यह विदेशी भारत से क्‍यों भाग रहे हैं

भूपेश भाई ने कहा ... लंबा किस्‍सा छोटे में किस तरह सुनाना

शाम को कॉफी पर मिलकर तलाशते हैं कि विदेशी निवेशक कहां जा रहे हैं यह चीन पर रीझने का नया मामला क्‍या है ?

शाम को लगी बैठकी ...

बात शुरु होते ही आनंद ने चुटकी ली कौन कमॉड‍िटी ट्रेड‍िंग शुरु कर रहा है अब ? देख‍िये 911 अरब डॉलर की एसेट संभालने वाला और 2.8 अरब के मुनाफे वाला स्‍विस बैंकर क्रेडिट सुई इक्‍व‍िटी बाजारों का लालच छोड़ कमॉड‍िटी वाली अर्थव्‍यवस्‍थाओं आस्‍ट्रेल‍िया चीन और इंडोनेश‍िया पर दांव लगा रहा है.

यह बाजार है पेचीदा  

भूपेश भाई बोले क‍ि कमॉड‍िटी वाले इन्‍हीं दिनों के इंतजार में थे कहते है कमॉडिटी ट्रेड‍िंग कमजोर दिल वालों का कारोबार नहीं हैं यहां बड़ा फायदा कम ही होता है. खन‍िज,तेल, कृष‍ि जिंस की कीमतें बढ़ने से महंगाई बढ़ती है इसलिए दुन‍िया में कोई कमॉड‍िटी या जिंस की महंगाई नहीं चाहता.

1970 से 2008 तक करीब चालीस साल में शेयर बाजार और प्रॉपर्टी कहां से कहां पहुंच गए लेक‍िन बकौल रसेल इंडेक्‍स कमॉडिटी पर सालाना रिटर्न 6.24 फीसदी ही रहा. 2008 से 2021 के बीच दरअसल यह रिटर्न नकारात्‍मक -12.69 फीसदी रहा लेकिन उतार-. चढाव बहुत तेज हुआ यानी भरपूर जोखिम और नुकसान.

क्रूड ऑयल, नेचुरल गैस, सोना चांदी, कॉपर, निकल, सोयाबीन, कॉर्न, शुगर और कॉफी सबसे सक्रिय कमॉडि‍टी हैं. जनवरी 2022 में जारी विश्‍व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले 50 साल यह बाजार पूरी ग्‍लोबल वजहों से खौलता है. पांच दशक में करीब 39 कमॉड‍िटी कीमतों बढ़ने वजह अंतरराष्‍ट्रीय रही हैं. यह कॉमन ग्‍लोबल फैक्‍टर मेटल और एनर्जी पर यह समान कारक ज्‍यादा ज्‍यादा असर करता है. कृषि‍ और उर्वरक पर कम. 

1990 के बाद से तो कीमतों पर इस कॉमन फैक्‍टर का असर  30 से 40 फीसदी हो गया. यानी कि मेटल व एनर्जी की कीमतों में बदलाव और उथल पुथल पूरी दुनिया में एक साथ होती है

मनी की नई गण‍ित

कमॉडिटी में उतार चढाव नए नहीं लेक‍िन एसा कया हुआ कि विदेशी निवेशकों को इक्‍वि‍टी की जगह कमॉड‍िटी में भविष्‍य दिखने लगा.

दरअसल रुस का विदेशी मुद्रा भंडार जब्‍त होने के बाद यह अहसास हुआ कि जिस करेंसी रिजर्व को प्रत्येक संकट का इलाज माना जाता है वही बेकार हो गया है.

क्रेडिट सुई के विशेषज्ञ जोलान पोत्‍जार ने इस नए पर‍िदृश्‍य को ब्रेटन वुड्स थ्री की शुरुआत कहा है. पहला ब्रेटन वुड्स की पहली मौद्रि‍ क व्‍यवस्‍था में अमेरिकी डॉलर की कीमत सोने के साथ के समानांतर तय हुई थी. अमेर‍िकी राष्‍ट्रपति  रिचर्ड न‍िक्‍सन 1971 में इसे खत्‍म कर डॉलर की सोने परिवर्तनीयता रद्द कर दी. इसके बाद आई इनसाइड मनी जो जो दअरसल बैंकों का कर्ज लेन देन है. इसमें मनी एक तरफ जमाकर्ता की एसेट है तो दूसरी तरफ बैंक व कर्ज लेने की देनदारी.

मनी की चार कीमतें होती हैं एक अंक‍ित मूल्‍य यानी फेस वैल्‍यू, दूसरा टाइम वैल्‍यू यानी ब्‍याज, तीसरा दूसरी मुद्रा से विनिमय दर कि और चौथी प्राइस वैल्‍यू यानी किसी कमॉडिटी के बदले उसका मूल्‍य.

जोलान पोत्‍जार कह रहे हैं कि अब यह चौथी कीमत के चढ़ने का दौर है. दुनिया के देश और केंद्रीय बैंक अपने विदेशी मुद्रा भंडारों को सोने व धातुओं से बदल रहे हैं. यही वजह है कि  रुस का संकट बढ़ने के साथ कमॉड‍िटी कीमत और फॉरवर्ड सौदे नई ऊंचाई पर जा रहे हैं.

करेंसी और कमॉड‍िटी का यह नया रिश्‍ता दुनिया  उन देशों को करेंसी को मजबूत कर रहा है जिनके पास धातुओं ऊर्जा के भंडार है जिनके पास यह नहीं है वे विदेशी मुद्रा भंडार के डॉलर को जिंसो से बदल रहे हैं. इनमें चीन सबसे आगे है जिसके पास 3000 अरब डॉलर का भरपूर विदेशी मुद्रा भंडार है 

इसलिए क्‍या अचरज क‍ि क्रेडिट सुई जैसे निवेशक चीन पर दांव लगायेंगे.

 

चीन की तैयार‍ियां

भूपेश भाई पानी पीने के लिए रुके तो आनंद चीन के आंकड़े लेकर आ गए

चीन का दुनिया का सबसे बड़ा जिंस उपभोक्‍ता और दूसरा सबसे बड़ा आयातक है. सीमेंट, निकल, स्‍टील, कॉटन, अल्‍युमिन‍ियम, कॉर्न, सोयाबीन, कॉपर, जिंक, कच्‍चा तेल और  कोयला के आयात व खपत में दुनिया या पहले या दूसरे नंबर पर है.

2021 में जब दुनिया कोविड की उबरने की कोशिश मे थी तब मंदी के बावजूद चीन ने कमॉडि‍टी आयात का अभियान शुरु किया. आस्‍ट्रेल‍िया की वेबसाइट स्‍टॉकहेड के मुताबिक 2021 में चीन में कोयला ,ऑयरन ओर, सोयाबीन का आयात 2020 की तुलना में 6 से 18 फीसदी तक बढ़ा. कॉपर व स्‍क्रैप के आयात में 80 फीसदी इजाफा हुआ.  नेचुरल गैस, कोबाल्‍ट और  कोयले के आयात भी नई ऊंचाई पर था.

2021 में नैसडाक की एक र‍िपोर्ट, फूड प्रोसेस‍िंग उद्योग के आंकड़े और स्‍वतंत्र अध्‍ययन बताते हैं क‍ि 2020 में डॉलर की  कमजोरी के कारण चीन ने बीते साल तांबा और कृषि ‍उत्‍पादों का आयात बढ़ाकर भारी भंडार तैयार किया है.

चीन कमॉडिटी के गोपनीय रणनीतिक रिजर्व बनाता हैं. रायटर्स की एक रिपोर्ट बताती है कि चीन में करीब 15 से 20 लाख टन तांबा , 8-9 लाख टन अल्‍युम‍िन‍ियम, 4 लाख टन जिंक, 700 टन कोबाल्‍ट  का रिजर्व है. निकल, मॉलबेडनम, इंडियम आदि के रिजर्व भी बनाये हैं. 200 मिलियन बैरल का तेल और 400 मिल‍ियन टन का कॉमर्श‍ियल कोल रिजर्व है और गेहूं, सोयाबीन व कॉर्न के बडे भंडार हैं.

चीन का सोना भंडार 

गोल्‍ड अलायंस की एक रिपोर्ट चौंकाती है 2021 में हांगकांग के जरिये चीन का शुद्ध सोना आयात 40.9 टन से बढ़कर 334.3 टन हो गया हो गया. यह आंकड़ा स्‍विस कस्‍टम से जुटाया गया है जहां से चीन का अध‍िकांश सोना आता है. इसके बदले अमेरिका को चीन का सोना निर्यात 508 टन से घटकर 113 टन रह गया.

इसके अलावा चीन दुनिया का सबसे बड़ा सोना उत्‍पादक भी है. गोल्‍ड अलायंस के अनुसान बीते 20 साल में चीन में 6500 टन सोना निकाला गया.. चीन इस सोने का निर्यात नहीं करता. चीन की कंपनियां दुनिया के देशों में जो सोना निकालती हैं, शंघाई गोल्‍ड एक्‍सचेंज से उसका कारोबार होता है.

ढहता रुस किसका?

रुस के संकट के बाद अब चीन की नजर वहां की खनन व तेल कंपनियों पर है. ब्‍लूमबर्ग की एक रिपोर्ट बताती है कि चीन की विशाल सरकारी तेल, ऊर्जा, अल्‍युम‍िन‍ियम कंपनियां रुस की गैजप्रॉम, यूनाइटेड, रसेल आदि के संपर्क में हैं क्‍यों यूरोपीय कंपनियों रुसी दिग्‍गजों से रिश्‍ते तोड़ लिये हैं. 

क्रेडिट सुई के पोल्‍जार ठीक कहते हैं. रुसी कमॉडिटी सब प्राइम सीडीओ जैसी हैं जिनमें डिफाल्‍ट हो रहा है जबकि कमॉड‍िटी में अमीर अन्‍य देश अब अमेरिका के ट्रेजरी बिल जैसें जिनकी साख चमक रही है.

युद्ध खत्‍म होने तक कमॉड‍िटी चीन की बादशाहत और मजबूत हो जाएगी. डॉलर अभी मजबूत है क्‍यों कि वह दुनिया की केंद्रीय मुद्रा है लेक‍िन बाजार यह मान रहा है कि युद्ध के बाद डॉलर कमजोर होगा और तब कमॉडटी की ताकत के साथ चीन का युआन कहीं ज्‍यादा मजबूत होगा.  

जेपी मोर्गन और क्रेडटि सुई को देखकर आनंद और भूपेश भाई कि एक कमॉडिटी का सुपरसाइक‍िल शुरु हो रहा है. जहां कमॉड‍िटी की महंगाई  लंबे वक्‍त चलती है.

पहला सुपरसाइकिल 1890 में अमेरिका के औद्योगीकरण से लेकर पहले विश्‍व युद्ध  तक चला. दूसरी सुपरसाइक‍िल दूसरे विश्‍वयुद्ध से 1950 तक और तीसरी 1970 से 1980 तक और तीसरी 2000 में शुरु हुई जब चीन डब्‍लूटीओ में आया था लेकि‍न 2008 के बैंकिंग संकट ने इसे बीच में रोक दिया.

उत्‍पादन बढ़ने व मांग आपूर्त‍ि का सुधरने में वक्‍त लगता है इसलिए कमॉड‍िटी के सुपरसाइकिल लंबी महंगाई लाते हैं. यद‍ि धातुओं उर्जा की तेजी एक सुपरसाइकिल है तो भारत के लि‍ए अच्‍छी खबर नहीं है. भारत को सस्‍ता कच्‍चा माल और सस्‍ती पूंजी चाहिए और भरपूर खपत भी. नीति नि‍र्माताओं को पूरी गणित ही बदलनी पडेगी. शायद यही वजह है भारत की विकास दर को लेकर अनुमानों में कटौती शुरु हो गई है

 

 

 

Thursday, March 24, 2022

तेल की तेजी का आख‍िरी उबाल



  

यूक्रेन पर रुस के हमले बाद बाजारों का हाल देखकर न‍िकोलस और डैनियल चढ़ गए पहाड़ पर.

नीचे तलहटी में 140 डॉलर प्रति बैरल के कच्‍चे तेल की कौआ-रोर मची थी. गोल्‍डमैन ने सैक्‍शे ब्रेंट क्रूड पर 185 डॉलर की कीमत का दांव लगा चुका था. लंदन के हेज फंड वेस्‍टबेक कैपिटन ने तो कच्‍चे तेल 200 डॉलर की मंज‍िल तक जाता देख ल‍िया.

न‍िकोलस और डैनियल दोनों सयाने निवेशक हैं वे दूर की देखना जानते हैं. दूरबीनों से उन्‍होंने अंदाज लगाया, नोट्स बनाये, और पता चला कि दोनों के पास एक जैसे आंकड़े थे.

बस वे फुर्ती से रोप वे पकड़कर नीचे आ गए.

लेक‍िन यह क्‍या नीचे उतरते ही डैनियल ने आनन फानन में तांबे यानी कॉपर के फ्यूचर्स की महंगाई पर दांव लगा दिया. कुछ पैसा उन्‍होंने नेचुरल गैस की पाइपलाइन बिछाने वाली कंपनियों और ग्रीन हाइड्रोजन तकनीक वाली कंपनियों में लगा दिया.

इधर निक ने ब्रेंट का फ्यूचर्स खरीद ल‍िया. तेल महंगा होने पर पूंजी लगा दी. मोर्गन ने उन्‍हीं तेल कंपन‍ियों में अपने न‍िवेश को और बढ़ा दि‍या, जो रुस छोड़ कर निकली हैं और उन्‍हें फिलहाल नुकसान हुआ है.

निकोलस मान रहे हैं कि उनकी किस्‍मत से 80 से 100 डॉलर प्रति बैरल वाले तेल के खेल को नई उम्र लग गई है. तेल की यह तेजी जल्‍दी नहीं जाने वाली. सो मौका है चौके पर चौका लगाने का

डेनियल भी मानते हैं कि न‍िकोलस का फार्मूला जब तक काम करेगा यानी तेल खौलता रहेगा उनके लिए मौका ही मौका होगा. अलबत्‍ता लेक‍िन उन्‍होंने तांबे का फ्यूचर्स क्‍यों खरीद डाला इस पर आगे बात करेंगे पहले देखें कि नि‍कोलस और डैन‍ियल को तेल की तेजी टिकाऊ क्‍यों लग रही है या कि वे एसा क्‍यों मान रहे हैं कि दुनिया 100 डॉलर प्रति बैरल का तेल बर्दाश्‍त कर सकती है

न‍िकोलस का दांव पहली ही चोट में सटीक बैठा. जब दुनिया भर के ज्ञानी कह रहे थे कि तेल की महंगाई के बाद अब ओपेक पर उत्‍पादन बढ़ाने का दबाव बनाया जाएगा. अमेरिका और यूरोप मध्‍य पूर्व के देशों का हुक्‍का पानी बंद कर देंगे तब सऊदी अरब ने दुनिया के सभी बाजारों के ल‍िए शुक्रवार 4 मार्च को कच्‍चे तेल की कीमत बढ़ा दी. इससे पहले ट्यूनीस‍िया एक माह से कम समय में दो बार तेल की कीमत बढ़ा चुका है.

उम्‍मीद तो यह थी ऊर्जा बाजार में लगी आग के बाद 23 तेल उत्पादक देशों के कार्टेल ओपेक उत्‍पादन बढ़ायेगा ताक‍ि कीमतें कम हों लेकि‍न यहां तो कीमतें बढ़ा दी गईं. सऊदी अरब जो ओपेक के तेल उत्‍पादन में 30 फीसदी हिस्‍सा रखता है. जो मांग आपूर्ति के हिसाब उत्‍पादन घटाने बढ़ाने की क्षमता रखता है यानी स्‍विंग प्रोड्यूसर है रुसी आपूर्ति टूटने से तेल में लगी महंगाई की आग में कीमत बढ़ाने का पेट्रोल छिड़क दिया.

न‍िकोलस ने वह आंकड़े पढ़ रखे हैं जिनको देखकर तेल की कीमतों और उत्‍पादन के रिश्‍ते का भ्रम हो जाता है. यकीनन दुनिया का 60 फीसदी तेल उत्‍पादन ओपेक देशों से बाहर है. यह अमेरिका, नॉर्थ सी ओर पुराने  सोव‍ियत के अलग हुए देशों के पास है.

तेल खौलना शुरु हुआ तो बहुतों ने दावा किया कि गैर ओपेक देश अपना उत्‍पादन बढ़ायेंगे और ओपेक वालों को घुटने पर लाएंगे. यह सुनकर मोर्गन मुस्‍करा दिये थे

इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी के वर्गीकरण में गैर ओपेक देश आमतौर पर प्राइस टेकर्स माने जाते हैं. वे कीमतों का फायदा उठाते हैं कीमतें प्रभावित नहीं करते. इन देशों उत्‍पादन अपनी पूरी क्षमता पर हैं इसलिए मांग व आपूर्ति का अंतर ओपेक देश पूरा करते हैं. ओपेक कीमत प्रभावित करता है यानी प्राइस इन्‍फ्लुऐंसर है.

गैर ओपेक मुल्‍कों को उत्‍पादन की लागत ज्‍यादा है. वे तेल के साथ ल‍िक्‍विड नेचुरल गैस (एनजीएल) के उत्‍पादन तो ज्‍यादा तवज्‍जो देते हैं इसलिए बात जब कच्‍चे तेल की होते ओपेक का कार्टेल ही राजा है.

नि‍कोलस जैसे निवेशक बखूबी यह जानते हैं कि प्राइस टेकर्स होने के कारण कीमतें बढ़ने का लाभ अमेरिका जैसे तेल उत्‍पादकों को खूब मिलता है इसलिए तेल बाजार में बहुत कुछ बदलता नहीं. इस बार भी भी नहीं बदला और कीमतें अपने आप ही नीचे आएंगी

न‍िकोलस के पास एक गज़ब का आंकडा है जिसने उन्‍हें तेल फ्यूचर्स में निवेश बढ़ाने का आधार दिया है. जे पी मोर्गन का एक अध्‍ययन बताता है कि 2010 से 2015 के बीच कच्‍चे तेल कीमत औसत 100 डॉलर के आसपास रही लेकि‍न दुन‍िया में कोई संकट नहीं आया. अर्थव्‍यवस्‍थायें बढ़ती रहीं. इस आधार पर अन्‍य एसेट, महंगाई वेतन आद‍ि की बढ़त की तुलना में देखने पर दुनिया 130 डॉलर प्रति‍ बैरल तक का तेल बर्दाश्‍त कर लेगी.

न‍िकोलस चार्ट देखकर बताते हैं कि एमएससीआई वर्ल्‍ड इंडेक्‍स के अनुसार बीते 2011 के बाद एक दशक में दुनिया में शेयर कीमत 125 फीसदी और अचल संपत्‍ति‍ की कीमत दोगुनी हो गई लेकिन ब्रेंट फ्यूचर्स दस फीसद के नुकसान में हैं

यानी कच्‍चा तेल तो अभी भी बहुत सस्‍ता है !

बैंक ऑफ अमेरिका का एक अध्‍ययन भी कहता है क‍ि दुनिया में मुश्‍क‍िल तब आती है जब ऊर्जा की लागत ग्‍लोबल जीडीपी की 8 फीसदी हो जाए अभी ता यह छह फीसदी पर है तो इसल‍िए बाजारों को बहुत फर्क नहीं पड़ेगा

निकोलस को पता है कि 2014 में ओपेक देशों ने अपनी पुरानी परिपाटी छोड़कर कीमतों को एक निर्धारित ऊंचे स्‍तर बनाये रखने का फैसला किया था ताक‍ि बाजार बचा रहे. एसा इसलिए क्‍यों क‍ि तेल का इस्‍तेमाल अब घट रहा है. ऊर्जा के अन्‍य स्रोत बड़ी जरुरतें पूरी कर रहे हैं. ओपेक देशों के पास तेल के अलावा कुछ नहीं है जबकि गैर ओपेक देश बहुत आयामी अर्थव्‍यवस्‍थायें हैं.

ओपेक देशों पास दो तीन दशक का समय है इस बीच उन्‍हें अध‍िकतम कमाई कर अपनी अर्थव्‍यवस्‍थाओं के लिए नए विकल्‍प तलाशने होंगे क्‍यों कि तेल परिवहन ईंधन मात्र रह गया है और यहां भी इलेक्‍ट्र‍िक वाहनों के साथ माहौल बदलने वाला है.

 

अब यहां से हम डैनियल से मिलते हैं. उन्‍होंने तांबे का फ्यूचर्स इसलिए खरीदा कि दुनिया में इलेक्‍ट्र‍िक या बैटरी वाहनों के बिजली  की क्षमता बढ़ाई जा रही है. जहां तांबा मुख्‍य कच्‍चा माल है. नि‍कोलस की तरह डैनियल का दांव भी सटीक बैठा. तांबे की कीमतों 7 मार्च को बाजार में नई ऊंचाई नाप ली. 

डैन‍ियल दरसअल निकोलस से पूरी तरह इत्‍त‍िफाक कर रहे हैं. ओपेक तेल की महंगाई को बढ़ाये रखने पर मजबूर है क्‍यों यह जितनी तेज रहेगी. वैकल्पिक उर्जा पर निवेश उतना ही तेज बढेगा और डैन‍ियल  कमाई का भविष्‍य चमकता जाएगा.  

डैनियल को पता है बाकी तो यह ओपेक देशों की आखिरी यल़गार है.  तेल इकोनॉमी अपने अंतिम चरण में है. को‍लंबिया यून‍िवर्सिटी के सेंटर फॉर ग्‍लेाबल एनर्जी पॉलिसी की एक रिपोर्ट बताती है कि 1973 से 2019 के बीच विश्‍व के जीडीपी की तेल पर निर्भरता यानी ऑयल इंटेंस‍िटी 56 फीसदी कम हुई. ऑयल इंटेंस‍िटी यानी एक यूनिट जीडीपी उत्‍पादन लगने वाली तेल की मात्रा. यानी अगर 1973 में एक बैरल तेल से 1000 डॉलर का उत्पादन होता था तब उतना ही उत्‍पादन आधा बैरल से हो जाता है

इसकी बड़ी वजह है कि बिजली उत्‍पादन में अब तेल का इस्‍तेमाल बहुत कम हो चुका है. वहां गैस और कोयला है. परिवहन के लिए इसका इस्‍तेमाल अभी भी है लेक‍िन आटोमोबाइल इंजन की तकनीकों के वकिास से वाहनों का माईलेज बढ़ा है और तेल की खपत घटी है.

दुन‍िया की ऊर्जा खपत में तेल का हिस्‍सा 1970 में करीब 50 फीसदी था जो अब 28 फीसदी रह गया है. आईईए के अनुसार 2030 तक यह कम होकर 22 फीसदी रह जाएगा. इसी क्रम में वैकल्‍पिक उर्जा का हिस्‍सा 12 फीसदी से बढ़कर 2030 तक 19 और 2050 तक 37 फीसदी हो जाएगा.

दरअसल निकोलस और डैनियल अप्रैल 2020 कोविड के दौरान इसी तरह पहाड़ चढ़े थे. तब अमेरिका वाले तेल यानी डब्‍लूटीआई कीमतें नेगेटिव हो गई थीं, ब्रेंट भी टूटकर दस डॉलर पर आ गया.

निकोलस को तेल इकोनॉमी डूबती लग रही थी और डैनियल को लग रहा था कि अब कौन खरीदेगा इलेक्‍ट्र‍िक वेहक‍िल जब तेल मुफ्त मिलेगा

निकोलस नसीम तालेब का सूत्र है क‍ि यदि कोई बात आपको तर्कसंगत नहीं यानी  बेसिर पैर लगती है मगर वह लंबे समय से जारी है तो बहुम मुमक‍िन है क‍ि तर्कसंगत यानी रेशनलटी को लेकर आपकी परिभाषा ही गलत हो

उधर यूक्रेन पर बम बरस रहे हैं लेक‍िन अब तेल बाजार वाले मुतमइन हैं क‍ि अगले एक साल तक तेल 80 से 100 डॉलर के बीच झूलता रहेगा. दुनिया को लंबी ऊर्जा महंगाई ल‍िए तैयार रहना चाहिए क्‍यों क‍ि तेल के साथ जो गैस व कोयला भी महंगे हो रहे हैं

भारतीय अपनी पीठ और ज्‍यादा मजबूत रखें क्‍यों क‍ि यहां मुसीबत ज्‍यादा पेचीदा है. मुद्रा कमजोर हैं. डॉलर मूल्‍य में भारत के लिए ब्रेंट करीब 70 फीसदी महंगा हो गया है..   

Sunday, March 20, 2022

एसे बदलता है इतिहास


क्‍या दुनिया का ऊर्जा बाजार इजरायल और सीरिया व इज‍िप्‍ट के बीच यॉम किपुर युद्ध वाले प्रस्‍थान बिंदु पर आ गया है  ?

युक्रेन पर रुस का हमला और दुनिया के तेल गैस बाजारों में अफरा तफरी हमें 1970 वाले मुकाम पर ले आई है जहां से ऊर्जा बाजार को नई दिशा चुननी पड़ी थी

वह यॉम किपुर का ही दिन था. यहूद‍ियों का सबसे पवित्र सबसे मुबारक दिन. कहते हैं इसी दिन मोजे़ज पर ज्ञान उतरा था यहूदियों के लिए यॉम किपुर को क्षमा याचना और प्रायश्‍च‍ित का दिन है  हैं. 1973 का  यॉम क‍िपुर अक्‍टूबर में आया था.

इज़रायल की खुफ‍िया एजेंसियों को अनुमान तो था कि 1967 के छह दिन वाले युद्ध बदला लेने के लिए इजिप्‍ट और सीरिया कुछ तो करने वाले हैं .. 1967  में जब  इज़रायल की वायुसेना ने 5 जून की सुबह अचानक सुबह इजिप्‍ट और सीरिया के हवाई अड्डों पर हमला इन देशों की 90 फीसदी वायु सेना खत्‍म कर दी थी और  गाज़ा पट्टी व  सि‍नाई प्रायद्वीप पर कब्‍जा कर ल‍िया.

अनवर सादात और असद के नेृतत्‍व में इजिप्‍ट और सीर‍िया ने  6 अक्‍टूबर की दोपहर 1973 इजरायल पर बहुत बड़ा हमला बोला. गोल्‍डा मायर के इज़़रायल को तगड़ी चोट लगी. अमेरिकी राष्‍ट्रपति रिचर्ड निक्‍सन इज़रायल की मदद के लिए आगे आए. तो ओपेक देशों ने अमेरिका को तेल निर्यात रोक दिया और उत्‍पादन घटा दिया. तेल की कीमत खौलने लगी. अमेर‍िका में ऊर्जा संकट शुरु हो गया.

ओपेक का ऑयल इंबार्गो  अमेरिका की महंगाई के बीच आया थी. 1968 से 1973 के बीच ब्रेटन वुड्स व्‍यवस्‍था खत्‍म हो रही थी. जिसके तहत सोने के बदले डॉलर का एक मूल्‍य तय किया गया था  जो 35 डॉलर प्रति औंस था. राष्‍ट्रपति निक्‍सन ने अगस्‍त 1973 में डॉलर और सोने का रिश्‍ता खत्‍म कर दिया. डॉलर के अवमूल्‍यन से अमेरिकी निर्यात को फायदा हुआ लेक‍िन तेल निर्यातक देशों को बड़ा नुकसान हुआ जिनका निर्यात की कमाई डॉलर में थी. इस वजह से भी  अमेर‍िका को तेल निर्यातकों का गुस्‍सा झेलना पड़ा.

ब्रेटन वुड्स गया तो अन्‍य देशों ने अपने मुद्रा विनिमय न‍ियम तय करने शुरु कर दिये. अमेरिका को तेल निर्यात पर पाबंदी मार्च 1974 में खत्‍म हो गई. सितंबर 1978 में कैम्प डेविड समझौते के साथ मध्‍य पूर्व के देशों और इज़रायल का झगड़ा भी निबट गया लेकिन अमेरिका पर ओपेक की छह  माह तेल निर्यात पाबंदी के साथ पूरी दुनिया में  ऊर्जा बाजार में बड़े बदलाव की बुनियाद रख दी गई .

यहां से  यूरोप में नेचुरल गैस और विंड एनर्जी, सौर ऊर्जा और बाद में दशकों में अमेरिका में शेल ऑयल का उत्‍पादन परवान चढ़ा.

अलबत्‍ता इन बदलावों से पहले युक्रेन में फटती मिसाइलों के बीच ऊर्जा बाजार के मौजूदा माहौल को करीब देखना जरुरी है ताकि इसका यॉम किपुर संदर्भ  समझा जा सके

बहुत कुछ बदल गया तब से

2006 और 2009 में रुस ने यूक्रेन के जरिये यूरोप जाने वाली गैस की आपूर्ति में कटौती की थी. यह गैस का रणनीतिक प्रयोग था. कई देशों  में औद्योगिक उत्‍पादन पर गहरा असर पडा. इसके बाद 2010 ने नाटो ने ऊर्जा सुरक्षा पर ब्रसेल्स में एक नया डिवीजन और ल‍िथुआन‍िया में विशेष केंद्र बनाया.

बीसवीं सदी के अंत से दुनिया में पर्यावरण की जागरुकता के साथ बिजली उत्‍पादन  के लिए प्रदूषण वाले कोयले की जगह नेचुरल गैस का प्रयोग होने लगा.  जिसकी मदद से कार्बन उत्‍सर्जन में कमी आई. यूरोस्‍टैट के आंकड़ों के अब केवल 20 फीसदी ऊर्जा कोयले से आती है 80 फीसदी बिजली उत्‍पादन में क्षमता विंड एनर्जी सहित अक्षय ऊर्जा स्रोतों और  नेचुरल गैस व ऑयल बराबर के हिस्‍सेदार हैं.  यूरोप 2025 तक अपने अध‍िकांश कोयला बिजली संयंत्र खत्‍म कर देगा.

इस बदलाव से नेचुरल गैस बीते एक दशक में नेचुरल गैस और एलएनजी की मांग करीब 6 फीसदी की सालाना दर से बढ़ी  जो प्रमुख तेल कंपनी शेल के अनुसान 2040 तक दोगुनी हो जाएगी.

यूरोप को नॉर्थ सी गैसे मिलती थी जिसका उत्‍पादन कम होने लगा था.  यूरोप को बिजली के साथ सर्दी में घर गर्म रखने के लिए भी गैस चाहिए. मांग बढ़ी तो  रुस की ताकत गैस के बाजार में बढ़ती चली गई जो करीब 47.8 अरब क्‍यूबिक मीटर गैस उत्‍पादन के दुनिया का सबसे बड़ा गैस उत्‍पादक है और यूरोप अपनी 40 फीसदी जरुरत के लिए  रुस की गैस का मोहताज़ है. जो चार पाइपलाइनों के जरिये यूरोप आती है जिसमें एक नार्ड स्‍ट्रीम का दूसरा चरण जिस पर अब प्रति‍बंध लग गया है. यह लाइन तैयार है बस शुरु होने वाली थी.  यूरोप के लिए  नार्वे दूसरा बड़ा स्रोत है. अल्‍जीरिया तीसरा.

रुस के बाद  गैस का दूसरा सबसे बड़ा उत्‍पादक देश ईरान है और फिर कतर और अमेरिका हैं. ईरान से टर्की होते हुए एक गैस पाइप लाइन यूरोप तक आनी थी जिसे पर्श‍ियन पाइप लाइन कहा गया था. ईरान पर प्रतिबंधों के बाद यह योजना अधर में है.

रुस की ताकत का तोड़

कच्‍चे तेल के उत्‍पादन में जो ताकत अरब देशों के पास संयुक्‍त तौर पर  है वह गैस में वह अकेले रुस के पास  है.  रुस ने बदलती भू राजनी‍त‍ि में  नेचुरल गैस की बड़ी पाइपलानों से टर्की और चीन को जोड़ा है. टर्कस्‍ट्रीम पाइप लाइन  यूक्रेन को अलग करते हुए ब्‍लैक सी के रास्‍ते टर्की जाती  है जिसका उद्घाटन जनवरी 2020 में हुआ. पॉवर ऑफ साइबेरिया पाइप लाइन चीन को गैस पहुंचाती है. यह यूरोप वाले गैस नेटवर्क का हिस्‍सा नहीं यानी रुस रणनीतिक तौर पर यूरोप में गैस महंगी करती है चीन में नहीं. पॉवर ऑफ साइबेरिया पाइप लाइन का दूसरा चरण शुरु होने वाला है. कजाकस्‍तान के जरिये एक और लाइन डालने की तैयारी भी है.

2019 के बाद यूरोप में विंडी एनर्जी का उत्‍पादन घटा, कोविड के कारण गैस व तेल की आपूर्ति बाधित हुई और 2019 से गैस कीमत बढ़ने लगी. कोविड के बाद 2021 में गैस की कीमत 500 फीसदी तक बढ़ गई. बीते दो बरसों के दौरान ओपेक ने अंतरराष्‍ट्रीय दबाव के बावजूद  तेल उत्‍पादन में बढ़ोत्‍तरी की नियंत्र‍ित रखा है और कीमतों कम नहीं होने द‍िया.

अब रुस यूक्रेन जंग के बाद यूरोप में बिजली और परिवहन महंगी हो रहा है वहीं कोयला संयंत्रों को बंद करने योजना पर फिर से विचार हो रहा है यानी पर्यावरण के लिए खतरा बढ़ जाएगा. दूसरी तरफ पूरी दुनिया में तेल की प्रमुख खपत वाले देशों को पूरी अर्थव्‍यवस्‍था ही टूट रही है. तेल और गैस एक साथ महंगे हाते हैं तो एलएनजी जो टैंकर दुनिया भर में जाती है उसकी कीमतों में भी आग लगी है.

क्‍या बदल गया 1970 के बाद

वापस लौटते हैं यौम किपुर यानी 1970 के तेल इंबार्गो की तरफ, जिसके बाद अमेरिका को ईरान संकट से कारण भी तेल की कमी झेलनी पड़ी थी.  उस संकट ने दुनिया को एक तरह से बदल दिया

पहला- अमेरिका में ऊर्जा नीति बदली. तेल गैस की खोज में निवेश बढ़ा. जो शेल तक आया. तेल के इस्‍तेमाल से अमेरिका में बिजली का उत्‍पादन लगभग खत्‍म हो गया. अमेरिका 2018 में दुनिया का सबसे बड़ा तेल उत्‍पादन और  2019 तेल आयात में  आत्‍मनिर्भर  हो गया. निर्यात भी खोल दिया.

दूसरा- रणनी‍त‍िक तेल रिजर्व बनने शुरु हुए.

तीसरा- आटो कंपनियों के लिए नियम बदले.तेल निगलने वाली कारों की जगह छोटी और ज्‍यादा माइलनेज की कारें बननी शुरु हुई. इस क्रांति पूरी दुनिया में आटो उद्योग को पंख लग गए

चौथा. अक्षय उर्जा यानी विंड सोलर ऊर्जा और एथनॉल के आदि के उत्‍पादन शुरु हुए. इसके बाद यूरोप ने तेजी से अपनी बिजली उत्‍पादन को अक्षय ऊर्जा पर केंद्रित किया

अब आगे क्‍या

रुस यूक्रेन संकट बाद 2022 1970 की तुलना में 2022 और कठिन है क्‍यों कि तेल और गैस की बादशाहत सिरफिरे और जिद्ी नेताओं के हाथ है जबकि दुनिया सस्‍ती ऊर्जा के लिए बेचैन है जिसमें नेचुरल गैस उसकी पूरी रणनीति का केंद्र है. अब रुस और अरब मुल्‍क मिलकर देशों की अर्थव्‍यवस्‍था चौपट कर रहे  हैं.

यहां तीन प्रमुख रास्‍ते निकलते दिखते हैं

पहला- दुनिया इलेक्‍ट्र‍िक वाहनों की तरफ जा रही है ताकि पेट्रोल निर्भरता और प्रदूषण रोका जा सके. लेकिन बिजली के लिए नेचुरल गैस पर निर्भरता बढ़ती जा रही है जहां ओपेक जैसा ही हाल है. अब अगले एक दशक में दुनिया को कोयले से पर्यावरण के तौर पर सुरक्ष‍ित बिजली बनाने पर निवेश करना होगा क्‍यों कि वही एक ऊर्जा स्रोत है जो लगभग हर महाद्वीप के पास है. वर्ल्‍ड कोल एसोस‍िएशन के अध्‍यन मानते हैं कि कोयल से ग्रीन एनर्जी पूरी तरह मुमक‍िन है और इसकी तकनीकें तैयार हैं.

दूसरा- दुनिया के देशों को नेचुरल गैस और तेल के नए स्रोत तलाशने होंगे. साइंस डायरेक्‍ट में प्रकाशित अध्‍ययन मानते हैं कि दुनिया में अभी आधे रिजर्व भी खोजे गए हैं. इनमें बड़ा हिस्‍सा समुद्रों में है. जिसकी तलाश करनी होगी. 2015 में जीई की एक रिपोर्ट ने बताया था भारत में करीब 18 ट्र‍िलियन क्‍यूबिक फिट का रिजर्व पहचाना जा चुका है मगर उत्‍पादन शुरु नहीं हुआ है.

तीसरा- न्‍यूनतम प्रदूषण के साथ हाइड्रोजन एनर्जी भविष्‍य का‍ विकल्‍प है. अभी यह महंगी है और तकनीकें बन रही हैं लेकिन 1970 में शेल गैस या विंड एनर्जी के बारे में भी इसी तरह के ख्‍याल थे

दुनिया का पहले  ऊर्जा मानच‍ित्र को 1970 के अरब इजरायल युद्ध ने बदला था. 2010 तक दुनिया पूरी तरह बदल चुकी थी अब 2050 तक हम नए नई ऊर्जा अर्थव्‍यवस्‍था में होंगे जो शुरुआत में महंगी हो सकती है लेकिन बाद में शायद सुरक्ष‍ित और स्‍थायी हो सकेगी. 


Monday, March 25, 2013

साइप्रस का सच



साइप्रस काली कमाई की ग्‍लोबल पनाहगाह है और एक टैक्‍स हैवेन को उदारता से उबारने के लिए यूरोप में कोई तैयार नहीं था। 

नैतिक तकाजे अब राजनीतिक और आर्थिक तकाजों पर कम ही भारी पडते हैं। लेकिन जब भी नैतिकता ताकतवर होती है तो सच को छिपाना मुश्किल हो जाता है। कई व्‍यावहारिक झूठ गढते हुए यूरोप अपने आर्थिक ढांचे के उस सच को छिपाने की कोशिश कर रहा था जिसे दुनिया टैक्‍स हैवेन के नाम से जानती है। साइप्रस के संकट के साथ काली कमाई को छिपाने वाले यूरोपीय अंधेरे खुल गए हैं। यह वही साइप्रस है जिसे यूरोपीय संघ में शामिल कराने के लिए ग्रीस ने 2004 में बाकायदा ब्‍लैकमेल किया था और संघ के विस्‍तार की योजना को वीटो कर दिया था। अंतत: इस टैक्‍स हैवेन को एकल यूरोपीय मुद्रा के चमकते मंच पर बिठा लिया गया। लेकिन अब जब साइप्रस डूबने लगा तो यूरो जोन के नेता इसे बचाने के लिए ग्रीस, इटली या स्‍पेन जैसे दर्दमंद इसलिए नहीं हुए क्‍यों कि नैतिकता भी कोई चीज होती है। साइप्रस काली कमाई की ग्‍लोबल पनाहगाह है और एक टैक्‍स हैवेन को उदारता से उबारने के लिए यूरोप में कोई तैयार नहीं है। इसलिए साइप्रस पर सख्‍त शर्तें लगाई गईं और यूरोपीय संकट में पहली बार यह मौका आया जब यूरोपीय संघ अपनी एकता की कीमत पर साइप्रस को संघ से

Monday, January 2, 2012

मध्‍यवर्ग की माया

Welcome 2012
त्‍तर प्रदेश की मुख्‍यमंत्री मायावती की सबसे बड़ी उलझन क्‍या होने वाली है, वही जो मनमोहन, सोनिया व राहुल की है। अरे वही जो होस्‍नी मुबारक वगैरह को ले डूबी और  ओबामा, पुतिन, कैमरुन, वेन जियाबाओ को सता रही है। उभरता ग्‍लोबल मध्‍यवर्ग दुनिया भर की सियासत की साझी मुसीबत है। यह मझले अमेरिका में वाल स्‍ट्रीट को आकुपायी करने के लिए चढ़ दौड़े है तो रुस व चीन में क्रांति की जबान बोल रहे हैं। अरब में विरोध का बसंत और यूरोप की अशांति (लंदन में हिंसा) भी इनके कंधे पर सवार थी। इसी मध्‍य वर्ग ने भ्रष्‍टाचार के खिलाफ मुहिम से भारतीय सियासत को पानी मंगवा दिया। मध्‍य वर्ग का यह तेवर अनदेखा है। संचार तकनीक से खेलते इन मझलों की मुखरता बेजोड़ है। इनकी अपेक्षायें सियासत की चतुरता का इम्‍तहान ले रही है। 2012 चुनावों के ग्‍लोबल उत्‍सव (अमेरिका, फ्रांस, रुस सहित 75 देशों में चुनाव) का वर्ष है। यानी कि एक तरफ बेचैन मध्‍य वर्ग और दूसरी तरफ सियासत की परीक्षा। नए साल की बिसात बड़ी सनसनीखेज है।
भौंचक सियासत 
बेताब मध्‍य वर्ग और उस में भी ज्‍यादातर युवा! यह जोड़ी खतरनाक है। भारत में 40 फीसदी वोटर युवा हैं। कोई नहीं जानता कि बाबरी ध्‍वंस के बाद जन्‍मे मध्‍यवर्गीय युवा उत्‍तर प्रदेश (53 लाख नए युवा वोटर) के चुनाव में क्‍या फैसला देंगे। भारत का मौन, मजबूर व परम संतोषी को मध्‍य वर्ग लोकपाल के लिए ऐसे सड़क पर आएगा, यह किसने सोचा था। रुस के राष्‍ट्रपति ब्‍लादीमिर पुतिन भी हैरान हैं कि  देश में आर्थिक प्रगति के बावजूद मध्‍य वर्ग और युवा आंदोलित क्‍यों हैं। दो सबसे बड़े दुश्‍मनों (सद्दाम और ओसामा) की मौत से अमेरिकी मध्‍यवर्ग को राष्‍ट्रपति बराक ओबामा पर रश्‍क नहीं हुआ। वह तो यही जाते हैं एक फीसदी अमेरिकियों के पास बहुत कुछ है और 99 फीसदी बस ऐ वेईं हैं। पूंजीवादी अमेरिका का मझला तबका वाल स्‍ट्रीट को निशाना बनाकर एक नया साम्‍यवाद गढ़ रहा है। चीन के कम्‍युनिस्‍ट शासन की सख्‍ती तोड़कर लोगों ने एक गांव (वुकान) को कबजा लिया और वह भी सबसे धनी गुएनडांग प्रांत में। तियेन आनमन और जास्मिन क्रांति अतीत वाले इस देश में मध्‍य वर्ग का मिजाज

Tuesday, August 17, 2010

निवाले पर आफत

अर्थार्थ
रोटी या डबल रोटी, जो भी खाते हों, अब उसकी ले-दे मचने वाली है। मुश्किल वक्त में कुदरत भी अपना तकाजा लेकर आ पहुंची है। दुनिया सिर झुकाए वित्तीय संकटों की गुत्थियां खोलने में जुटी थी मगर इसी बीच अनाज बाजार ने पंजे मारने शुरू कर दिए। जमीन के एक बहुत बड़े हिस्से पर इस साल प्रकृति का गुस्सा बरस रहा है। मौसम अपने सबसे डरावने चेहरे के साथ दुनिया की कृषि के सामने खड़ा है। रूस में सूखे, पाकिस्तान में बाढ़, अफगानिस्तान व ऑस्ट्रेलिया में टिड्डी और भारत में असंतुलित वर्षा ने मिलकर जून से अब तक दुनिया में गेहूं की कीमत 50 फीसदी बढ़ा दी है। कई देश अनाज का निर्यात बंद करने लगे हैं जबकि आयात पर निर्भर देशों के व्यापारी वायदा बाजार में हवा भर रहे हैं। महंगाई से तप रहे भारत जैसे मुल्कों के लिए यह बीमारी के बीच अस्पतालों की हड़ताल जैसा है। यहां खेती अस्थिर है, मौसम इस बार भी नखरे दिखा रहा है। खाद्य अर्थव्यवस्था बदहाल है इसलिए अनाज बिकता या बंटता नहीं बल्कि सड़ता है और अंतत: अक्सर आयात की नौबत आती है।
डरावना मौसम
विश्व के कई हिस्सों ने मौसम का ऐसा गुस्सा अरसे बाद देखा है। भारत में लेह से लेकर रूस के एक बड़े हिस्से तक प्रकृति की निर्ममता बिखरी है। दुनिया के तीसरे सबसे बड़े गेहूं उत्पादक रूस के 27 राज्यों में इमर्जेसी लगी है। यह पूरा इलाका रूस की गेहूं उत्पादक पट्टी है। रूस में पिछले तीस साल का सबसे भयानक सूखा पड़ा है। तापमान 130 साल के सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच गया है और देश के सात भौगोलिक हिस्सों में जंगल आग का समंदर बने हुए हैं। रूस अपने ताजा इतिहास की सबसे बड़ी प्राकृतिक आपदा झेल रहा है। जंगलों के धुएं से मॉस्को सात दिन तक बंद रहा है। इस सूरत में दुनिया को रूस से गेहूं मिलने की उम्मीद नहीं है। मौसम केवल रूस का ही दुश्मन नहीं है। पड़ोसी राज्य यूक्रेन में भी भयानक सूखा है। दुनिया के छठे सबसे बड़े गेहूं उत्पादक यूक्रेन की काफी फसल पहले ही पाले की भेंट चढ़ चुकी है। पाकिस्तान के भी एक बहुत बड़े हिस्से के लिए रमजान बहुत बुरा बीत रहा है। यहां करीब दस लाख एकड़ की कृषि भूमि ताजा इतिहास की सबसे भयानक बाढ़ में डूब चुकी है। पड़ोसी अफगानिस्तान में गेहूं की फसल का एक बड़ा हिस्सा टिड्डी चाट गई है। टिड्डी का असर ऑस्ट्रेलिया की फसल तक है, जहां करीब 30 लाख टन उपज का नुकसान संभव है। गेहूं बाजार के प्रमुख खिलाड़ी ऑस्ट्रेलिया का पश्चिमी हिस्सा पहले ही सूखे से जूझ रहा है और चीन व कनाडा में बाढ़ की तबाही है। यही वजह है कि अमेरिका के कृषि विभाग ने पूरी दुनिया में गेहूं का उत्पादन करीब ढाई फीसदी घटने का आकलन किया है। अगले साल मार्च तक विश्व के गेहूं भंडार में करीब सात फीसदी की कमी संभव है। दुनिया की आबादी को देखते हुए उत्पादन और भंडार में यह गिरावट संकट से कम नहीं है।
कीमती अनाज
लेनिन ने जिस अनाज को मुद्राओं की मुद्रा कहा था वह रूस के लिए अचानक बहुत कीमती हो चला है। ब्लैक सी से लेकर उत्तरी काकेशस और पश्चिमी कजाखिस्तान तक फैले रूस के विशाल उर्वर इलाके में भयानक सूखे के बाद इस रविवार से दुनिया के बाजार में रूस का गेहूं पहुंचना बंद हो गया है। वोल्गा नदी से सिंचित यह क्षेत्र रूस को दुनिया का प्रमुख अनाज निर्यातक बनाता है। पुतिन की सरकार ने इस साल निर्यात चार करोड़ टन पहुंचाने का लक्ष्य रखा था, लेकिन अब निर्यात पर चार माह की पाबंदी लग गई है। रूस अपने गेहूं उत्पादन का बीस फीसदी हिस्सा निर्यात करता है। रूस के इस फैसले के बाद उत्तरी अफ्रीका, मध्य पूर्व और यूरोप के बाजारों में अफरा-तफरी फैली है। यूक्रेन भी गेहूं का प्रमुख निर्यातक है जो अगले सप्ताह तक निर्यात पर रोक लगाने वाला है। शिकागो के जिंस एक्सचेंज में गेहूं का वायदा 1973 के बाद सबसे ऊंचे स्तर पर खुला है। इसे देखते हुए विश्व बैंक को दुनिया के देशों से निर्यात रोकने की होड़ बंद करने का अनुरोध करना पड़ा है। दो साल पहले चावल को लेकर भी इसी तरह की होड़ मची थी और कीमतें रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंच गई थीं। कई प्रमुख उत्पादक देशों में मक्के और जौ की उपज भी घटी है। दुनिया में मक्के का भंडार 13 साल के सबसे निचले स्तर पर बताया जा रहा है। अनाज को लेकर दुनिया में संवेदनशीलता काफी ज्यादा है। इसलिए उत्पादन घटने का आंकड़ा आने के बाद पिछड़े और अगड़े सभी देश अपने भंडार भरने में लग जाते हैं, जिससे बाजार में कीमतें और ऊपर जाती हैं। यानी बाजार में बदहवासी बढ़ रही है।
बहुआयामी मुश्किल
अनाजों के बाजार का संतुलन बड़ा नाजुक है। कुछ ही देशों के बूते दुनिया में मांग व आपूर्ति का पलड़ा संभलता रहता है क्योंकि ज्यादातर देशों की पैदावार उनकी जरूरत भर की होती है। 2007-08 में दुनिया ने अनाज बाजार में जबर्दस्त तेजी का दौर देखा था जो लौटता दिख रहा है। भारत जैसे देशों के लिए तो यह आफत है। एक अरब से ज्यादा आबादी वाले भारत में खेती सिरे से गैर भरोसेमंद हो चली है। भोजन के अंतरराष्ट्रीय बाजार पर भारत की निर्भरता तेजी से बढ़ी है। पिछले कई वर्षो से दुनिया का बाजार भारत को दाल व खाद्य तेल खिला रहा है। गेहूं व चावल के आयात की नौबत अक्सर आती रहती है। बीते ही साल चीनी का भी आयात हुआ है। इसलिए दुनिया के अनाज बाजार का बदलता रंग चिंतित करता है। भारत में पिछले एक दशक में मौसम के रंग बदले हैं। वर्षा का क्षेत्रीय वितरण उलट-पलट रहा है। ताजा मानसून ने उत्तर में पंजाब और हरियाणा के खेतों को बुवाई से पहले ही पानी से भर दिया जबकि पूर्व व मध्य भारत के धान उत्पादक इलाके सूख रहे हैं। भारत में अनाज उत्पादन के आकलन लगातार उलटे पड़ते हैं। खाद्य बाजारों में आ रही महंगाई को भारत पहुंचने तक कोई नहीं रोक सकता। अलबत्ता अगर फसल बिगड़ी तो अनाज को लेकर भारत का बजट भी बिगड़ सकता है।
दुनिया यह मान रही थी कि अगले दो दशक में उसे अपनी अनाज उपज दोगुनी करनी होगी ताकि बढ़ती आबादी का पेट भरा जा सके। हालांकि खेती का यह एजेंडा वित्तीय संकट से निपटने के बाद ही सामने आना था। तब तक दुनिया इस बात से मुतमइन थी कि मांग आपूर्ति में संतुलन बनाने भर की पैदावार होती रहेगी अलबत्ता कुदरत को कुछ और मंजूर था। मौसम के बदले मिजाज ने अब हाथों से तोते उड़ा दिए हैं। बैंकों और वित्तीय कानूनों में उलझी सरकारें अचानक खेतों को लेकर परेशान होने लगी हैं क्योंकि हर जगह बात निवाले की है। .. यकीनन रोटी से ज्यादा बड़ा सवाल और क्या हो सकता है ??
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