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Wednesday, July 29, 2015

पारदर्शिता का तकाजा


एक साल में गवर्नेंस में पारदर्शिता को लेकर नए उपाय करना तो दूर, मोदी सरकार ने मौजूदा व्यवस्था से ही असहमति जता दी. नतीजतन, आज वह उन्हीं सवालों से घिरी है, जिनसे वह कांग्रेस को शर्मसार करती थी


माना कि विदेश मंत्री सुषमा स्वराज (संदर्भः ललित मोदी) उदारमना हैं. शिवराज सिंह चौहान व्यापम घोटाले के व्हिसलब्लोअर हैं और वसुंधरा पर लगे आरोप प्रामाणिक नहीं हैं लेकिन यह सवाल तो फिर भी बना रहता है कि मोदी सरकार को क्रिकेट की साफ सफाई से किसने रोका था? व्यापम घोटाले की जांच के लिए अदालती चाबुक का इंतजार क्यों किया गया? खेलों में फर्जीवाड़ा रोकने वाले विधेयक को कानूनी जामा पहनाने में कौन बाधा डाल रहा है? पारदर्शिता के लिए कानूनी और संस्थागत ढांचा बनाने में कौन-सी समस्या है? मोदी सरकार अगर इस तरह के कदमों व फैसलों के साथ आज संसद में खड़ी होती तो एक साल के भीतर भ्रष्टाचार पर उसे उन्हीं सवालों का सामना नहीं करना पड़ता जो वह पिछले कई वर्षों से लगातार कांग्रेस से पूछती रही है. संसद की खींचतान से ज्यादा गंभीर पहलू यह है कि मोदी सरकार के पहले एक साल में उच्च पदों पर पारदर्शिता को लेकर वह बेबाक फर्क नजर नहीं आया जिसकी उम्मीद उससे की गई थी. केंद्र से लेकर राज्यों तक बीजेपी को शर्मिदगी में डालने वाले ताजे विवाद दरअसल गवर्नेंस की गलतियां हैं, सत्ताजन्य अहंकार या बेफिक्री जिनकी वजह होती है. ये गलतियां पहले ही साल में इसलिए आ धमकीं क्योंकि पिछले एक साल में गवर्नेंस में पारदर्शिता को लेकर नए उपाय करना तो दूर, सरकार ने मौजूदा व्यवस्था से ही असहमति जता दी. दागी व्यक्ति से दूरी बनाना सामान्य सतर्कता है. इसलिए जब सुषमा स्वराज जैसी तजुर्बेकार मंत्री कानून की नजर में अपराधी ललित मोदी की मदद के लिए इतने बेधड़क होकर अपने पद का इस्तेमाल करती हैं तो अचरज होना लाजिमी है. स्वराज और ललित मोदी के बीच पारिवारिक व पेशेवर रिश्तों की रोशनी में सुषमा को और ज्यादा सतर्क होना चाहिए था. पूर्व आइपीएल प्रमुख की मदद अगर विदेश मंत्री की गलती है तो यह चूक दरअसल सत्ता में होने की बेफिक्री का नतीजा है. ललित मोदी के खिलाफ गैर जमानती वारंट जारी होने पर सुषमा ज्यादा मुश्किल में होंगी.
पंकजा मुंडे के चिक्की व खिचड़ी खरीद फैसलों को देखकर अदना-सा क्लर्क भी यह बता देगा कि इस तरह के निर्णय सत्ता की ताकत सिर चढऩे की वजह से होते हैं. राज्य सरकार के नियमों के मुताबिक, एक करोड़ रुपए से ऊपर की खरीद टेंडर से ही हो सकती है जबकि पंकजा ने एकमुश्त 206 करोड़ रु. की खरीद कर डाली. इस सप्ताह विधानसभा में उन्होंने यह गलती मान भी ली. महाराष्ट्र में खेती मशीनों की खरीद का 150 करोड़ रु. और घोटाला खुला है, जिसमें टेंडर के सामान्य नियमों का खुला उल्लंघन किया गया है. फिक्र होनी चाहिए कि अगर बीजेपी की नई सरकारों में अन्य मंत्रियों ने भी सुषमा या पंकजा की तरह मनमाने फैसले किए हैं तो फिर पार्टी और मोदी सरकार के लिए आने वाले महीनों में कई बड़ी मुश्किलें तैयार हो रही हैं. सिर्फ शांता कुमार ही नहीं, बीजेपी में कई लोग यह कहते मिल जाएंगे कि पारदर्शिता को लेकर मोदी सरकार को कहीं ज्यादा सख्त होना चाहिए था. सख्ती दिखाने के मौकों की कमी भी नहीं थी. मसलन, सत्ता में आने के बाद बीजेपी स्पोर्टिंग फ्रॉड विधेयक को पारित कर सकती थी ताकि क्रिकेट का कीचड़ साफ हो सके. सट्टेबाजी जैसे अपराधों के लिए जेल व भारी जुर्माने की सजा का प्रावधान करने वाला विधेयक दो साल से लंबित है और इसके बिना लोढ़ा समिति की सिफारिशों के तहत सजा पाए मयप्पन और कुंद्रा पर कोई सख्त कार्रवाई नहीं हो सकती. इसी क्रम में खेल संघों को कानून के दायरे लाने की पहल भी खेलों को साफ-सुथरा बनाने के प्रति मोदी सरकार की गंभीरता का सबूत बन सकती थी. लेकिन पारदर्शिता के आग्रहों को मजबूत करने की बजाए वित्त मंत्री अरुण जेटली ने न केवल सीबीआइ को यह सलाह दे डाली कि उसे फैसलों में ईमानदार गलती (ऑनेस्ट एरर) व भ्रष्टाचार में फर्क समझना होगा, बल्कि इसके लिए भ्रष्टाचार निरोधक कानून में बदलाव की तैयारी भी शुरू कर दी. बजट सत्र के अंत में सरकार व्हिसलब्लोअर कानून में संशोधन ले आई, जिसके तहत भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने को बुरी तरह हतोत्साहित करने का प्रस्ताव है. अगर यह संशोधन पारित हुआ तो भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लगभग असंभव हो जाएगी. अगर सूचना के अधिकार पर ताजे पहरे इस फेहरिस्त में जोड़ लिए जाएं तो गवर्नेंस में पारदर्शिता को लेकर सरकार की नीयत पर सवाल उठना लाजिमी है. ताजा विवाद यह महसूस कराते हैं कि सरकार न केवल गवर्नेंस और गलतियों बल्कि भूलों के बचाव में भी कांग्रेसी तौर-तरीकों की ही मुरीद है. मध्य प्रदेश के गवर्नर रामनरेश यादव को फरवरी में ही विदा हो जाना चाहिए था जब व्यापम घोटाले में एफआइआर हुई थी. सुप्रीम कोर्ट के ताजा आदेश के बाद तो उनके पद पर बने रहने का मतलब ही नहीं है. यह मानते हुए कि यादव, भोपाल के राजभवन में कांग्रेस की विरासत हैं, उन्हें बनाए रखकर सरकार यूपीए जैसी फजीहत को न्योता दे रही है. सुषमा व पंकजा जैसे मंत्रियों की 'भूलें' बताती हैं कि बीजेपी की सरकारों में भी पारदर्शिता के आग्रह मजबूत नहीं हैं. ताजा विवाद, उच्च पदों पर भ्रष्टाचार को लेकर सरकार के नेतृत्व का असमंजस जाहिर करते हैं. यूपीए सरकार भी ठीक इसी तरह उच्च पदों पर भ्रष्टाचार को लेकर दो टूक फैसलों से बचती रही. नतीजतन अदालतों ने सख्ती की और सरकार अपनी साख गंवा बैठी. मोदी सरकार सत्ता में आने के बाद पहली बार रक्षात्मक दिख रही है और भ्रष्टाचार पर अदालतें फिर सक्रिय (व्यापम) हो चली हैं. प्रधानमंत्री को एहसास होना चाहिए कि भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त हुए बिना बात नहीं बनेगी. इसके लिए उन्हें उच्च पदों पर पारदर्शिता के कठोर प्रतिमान तय करने होंगे, क्योंकि संसद में विपक्ष का गतिरोध उतनी बड़ी चुनौती नहीं है, ज्यादा बड़ी उलझन यह है कि जो सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ जनादेश पर सवार होकर सत्ता में पहुंची वह एक साल के भीतर भ्रष्टाचार को लेकर बचाव की मुद्रा में है. यह नरेंद्र मोदी को लेकर बनी उम्मीदों का जबरदस्त ऐंटी-क्लाइमेक्स है.


Tuesday, June 23, 2015

फिसलन की शुरुआत

मोदीसत्ता में आते हुए इस सच से वाकिफ थे कि हितों के टकरावकॉर्पोरेट और नेता गठजोड़क्रोनी कैपटिलिज्मग्रैंड करप्शनतरह-तरह की तरफदारियां और भ्रष्टाचार के तमाम तरीके पूरे तंत्र में गहराई से भिदे हैं. उनसे इसी की साफ-सफाई की अपेक्षा थी.
बात इसी अप्रैल की है. वित्त मंत्री अरुण जेटली सीबीआइ दिवस पर कह रहे थे कि देश की शीर्षस्थ जांच एजेंसी को फैसलों में गलती (ऑनेस्ट एरर) और भ्रष्टाचार में फर्क समझना होगा. इसके लिए सरकार भ्रष्टाचार निरोधक कानून को भी बदलेगी. वित्त मंत्री की बात अफसरों के कानों में शहद घोल रही थी क्योंकि भ्रष्टाचार की दुनिया तोवैसे भी बचने के विभिन्न रास्तों से भरी पड़ी है. इस बीच अगर सरकार का सबसे ताकतवर मंत्री ईमानदार गलती और भ्रष्टाचार के बीच फर्क करने की सलाह दे रहा है तो यह मुंहमांगी मुराद जैसा था. अलबत्ता यह अंदाजा किसी को नहीं था कि इस तर्क का सबसे पहला इस्तेमाल सरकार को अपनी वरिष्ठतम मंत्री सुषमा स्वराज के बचाव में करना पड़ेगासरकार में आते ही जिनकी कथित मानवीयता कानून की नजर में बड़े गुनाहगार के काम आई है. आइपीएल के पूर्व प्रमुख ललित मोदी के खिलाफ फरारी के नोटिस की पुष्टि करने के बादसुषमा के बचाव में वित्त मंत्री अरुण जेटली के पास साफ नीयत की दुहाई के अलावा और कुछ नहीं था. ऐसा लग रहा था कि मानो जेटलीसुषमा-ललित मोदी प्रकरण को ऑनेस्ट एरर कहना चाहते थे.  
इसी जगह हमने जून की शुरुआत में (http://goo.gl/cVAy8P) लिखा था कि मोदी सरकार ने पिछले एक साल में ऐसा कुछ भी नहीं किया है जिससे पारदर्शिता बढ़ना तो दूर, बने रहने का भी भरोसा जगता हो. इसलिए भ्रष्टाचार को लेकर मोदी सरकार की साख खतरे में है. अब जब कि सुषमा-ललित मोदी-वसुंधरा प्रकरण में सरकार बुरी तरह लिथड़ चुकी है तो यह समझना जरूरी है कि पारदर्शिता का परचम लहराने वाली एनडीए सरकार के लिए पहले ही साल में यह नौबत क्यों आ गई, यूपीए जिससे अपनी दूसरी पारी के अंत में दो चार हुई थी.
सवाल बेशक पूछा जाना चाहिए कि प्रवर्तन निदेशालय ने ललित मोदी को वह नोटिस पिछले एक साल में क्यों नहीं भेजे जो यह प्रकरण खुलने के बाद दागे गए हैं? मोदी सरकार ने पिछले एक साल में यूपीए के घोटालों की जांच को कोई गति नहीं दी. एयरसेल मैक्सिस, नेशनल हेराल्ड, सीडब्ल्यूजी, आदर्श, वाड्रा, महाराष्ट्र सिंचाई जैसे बड़े घोटालों में जांच जहां की तहां ठप पड़ी है. इनमें आइपीएल भी शामिल है, जिसकी जांच अगर गंभीरता से होती तो ललित मोदी वर्ल्ड टूर पर न होते. सरकार के देखते देखते व्यापम घोटाले के प्रमुख सूत्र मौत का शिकार होते चले गए. राष्ट्रमंडल घोटाले में जमानत पर रिहा सुरेश कलमाडी व उनके सहायक ललित भनोत एशियन एथलेटिक्स एसोसिएशन के पदाधिकारी बन गए और बीजेपी बेदाग सरकार का पोस्टर बांटती रही. नतीजा यह हुआ है कि राज्यों में भी भ्रष्टाचार के बड़े मामलों की जांच धीमी पड़ गई है. घोटालों की जांच से बचना सदाशयता नहीं है बल्कि यह साहस व संकल्प की कमी है जिसने पारदर्शिता को लेकर मोदी सरकार की बोहनी खराब कर दी है.
ईमानदार गलती व भ्रष्टाचार के बीच अंतर बताने के लिए भ्रष्टाचार निरोधक कानून की धारा 13 को बदलने की कोशिशों पर सवाल इसलिए नहीं उठे थे क्योंकि फैसलों की रक्रतार बढ़ाने और अधिकारियों को दबाव से मुक्त करने पर विरोध था बल्कि अपेक्षा यह थी कि सरकार ऐसा करने से पहले लोकपाल गठित करेगी और सतर्कता ढांचे को मजबूत करेगी ताकि पारदर्शिता को लेकर भरोसा बन सके. सरकार ने नियामकों और निगहबानों को ताकत देना तो दूर पारदर्शिता की उपलब्ध खिड़कियों पर भी पर्दे टांग दिए. सूचना के अधिकार पर पहरे बढ़ा दिए गए. सरकार के फैसलों पर पूछताछ वर्जित हो गई और स्वयंसेवी संस्थाओं के हर कदम की निगहबानी होने लगी. पारदर्शिता के मौजूदा तंत्र पर रोक और नए ढांचे की अनुपस्थिति से कामकाज की गति तो तेज नहीं हुई अलबत्ता सरकार के इरादे जरूर गंभीर सवालों में घिर गए. 
सवाल तो बनता ही है कि क्रिकेट में 2008 से लेकर आज तक दर्जनों घोटाले हुए हैं और बीजेपी हर घोटाले के विरोध में आगे रही है तो सत्ता में आने के बाद क्रिकेट को साफ करने के कदम क्यों नहीं उठाए गए जबकि विपक्ष में रहते हुए यह पार्टी इसके लिए कानून की मांग कर रही थी. साफ-सुथरी सरकार का यह चेहरा समझ से परे था जिसमें बीजेपी के एक सांसद और प्रमुख बीड़ी निर्माता संसदीय समिति के सदस्य के तौर पर अपने ही उद्योग के लिए नियम बना रहे थे. इस संसदीय समिति लामबंदी के बाद सरकार ने खतरे की चेतावनी को प्रभावी बनाने का फैसला अंततः ठंडे बस्ते में डाल दिया. जनसेवाओं को पारदर्शी बनाने, छोटे और बड़े भ्रष्टाचार के खिलाफ व्यापक संस्थागत ढांचा बनाने और नियामक संस्थाओं की मजबूती पर ध्यान न देने से पारदर्शिता को लेकर सरकार में यथास्थितिवाद पैठ गया है. इसकी वजह से पहले ही साल में एक बड़ी गफलत सामने आ गई है.
ललित मोदी-वसुंधरा-सुषमा प्रकरण भारत में उच्च पदों पर हितों के टकराव और फायदों के लेन-देन का बेहद ठोस उदाहरण है. राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा के बेटे की कंपनी में ललित मोदी का निवेश और सुषमा स्वराज परिवार से मोदी के प्रोफेशनल व निजी रिश्ते प्रामाणिक हैं. वित्तीय धांधली के आरोपी ललित मोदी को इन रिश्तों के बदले मिले फायदे भी दस्तावेजी हैं. बीजेपी इन मामलों पर बचाव के लिए कांग्रेस के धतकरमों को ढाल बना सकती है लेकिन बात भ्रष्टाचार में प्रतिस्पर्धा की नहीं है बल्कि पिछली सरकार से प्रामाणिक रूप से अलग होने की है.
अपनी ताजा यात्रा के दौरान नरेंद्र मोदी को चीन के स्वच्छता मिशन के बारे में जरूर पता चला होगा, जहां राष्ट्रपति शी जिनपिंग अपनी ही पार्टी के 1.82 लाख पदाधिकारियों पर भ्रष्टाचार को लेकर कार्रवाई कर चुके हैं. भ्रष्टाचार पर मोदी सरकार से भी ऐसे ही साहस की अपेक्षा थी क्योंकि मोदी, सत्ता में आते हुए इस सच से वाकिफ थे कि हितों के टकराव, कॉर्पोरेट और नेता गठजोड़, क्रोनी कैपटिलिज्म, ग्रैंड करप्शन, तरह-तरह की तरफदारियां और भ्रष्टाचार के तमाम तरीके पूरे तंत्र में गहराई से भिदे हैं. उनसे इसी की साफ-सफाई की अपेक्षा थी. मोदी को समझना होगा कि उच्च पदों पर पारदर्शिता तय करना उनको मिले जनादेश का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है और इस मामले में उनकी सरकार की फिसलन शुरू हो चुकी है.