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Wednesday, June 22, 2016

सफेद हाथियों का शौक


सरकारी कंपनियों को बनाए रखने के आग्रह दलीय बाधाएं तोड़कर भारतीय राजनीति का संस्कार बन चुके हैं
रकारी कंपनियों की बिक्री (निजीकरण) का फैसला गंभीर है. यह मिश्रित अर्थव्यवस्था की नीति से पीछे हटना है. सरकारी उपक्रमों को बेचने से बजट में कुछ संसाधन आएंगे लेकिन यह तो सब्जी का बिल चुकाने के लिए घर को बेचने जैसा है. बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि सरकार एयर इंडिया और इंडियन एयरलाइंस को बेचने की सोच रही है. मैं कभी सोच भी नहीं सकता जो विमानन कंपनियां हमारा झंडा दुनिया में ले जाती हैं, उन्हें बेचा जाएगा."


यदि आपको लगता है कि यह किसी कॉमरेड का भाषण है तो चौंकने के लिए तैयार हो जाइए. यह पी.वी. नरसिंह राव हैं जो भारतीय आर्थिक सुधारों के ही नहीं, पब्लिक सेक्टर कंपनियों में सरकार की हिस्सेदारी बेचने की नीति के भी पहले सूत्रधार थे. यह भाषण वाजपेयी सरकार की निजीकरण नीति के खिलाफ था जो उन्होंने बेंगलूरू में कांग्रेस अधिवेशन (मार्च 2001) के लिए तैयार किया था. भाषण तो नहीं हो सका लेकिन अधिवेशन के दौरान उन्होंने जयराम रमेश से चर्चा में निजीकरण पर वाजपेयी सरकार की नीति के विरोध में गहरा क्षोभ प्रकट किया था. रमेश की किताब टु द ब्हिंक ऐंड बैकइंडियाज 1991 स्टोरी में यह संस्मरण और भाषणनुमा आलेख संकलित है. 

सरकारी उपक्रमों को लेकर नरसिंह राव के आग्रह दस साल चली मनमोहन सरकार को भी बांधे रहे. अब जबकि मोदी सरकार में भी घाटे में आकंठ डूबे डाक विभाग को पेमेंट बैंक में बदला जा रहा है या स्टील सहित कुछ क्षेत्रों में नए सार्वजनिक उपक्रम बन रहे हैं तो मानना पड़ेगा कि सरकारी कंपनियों को लेकर भारतीय नेताओं का प्रेम आर्थिक तर्कों ही नहीं, दलीय सीमाओं से भी परे है.

सरकार बैंक, होटल, बिजली घर ही नहीं चलाती, बल्कि स्टील, केमिकल्स, उर्वरक, तिपहिया स्कूटर भी बनाती है, और वह भी घाटे पर. सरकार के पास 290 कंपनियां हैं, जो 41 केंद्रीय मंत्रालयों के मातहत हैं. बैंक इनके अलावा हैं. 234 कंपनियां काम कर रही हैं जबकि 56 निर्माणाधीन हैं. सक्रिय 234 सरकारी कंपनियों में 17.4 लाख करोड़ रु. का सार्वजनिक धन लगा है. इनका कुल उत्पादन 20.6 लाख करोड़ रु. है. सक्रिय कंपनियों में 71 उपक्रम घाटे में हैं. सार्वजनिक उपक्रमों से मिलने वाला कुल लाभ करीब 1,46,164 करोड़ रु. है यानी इनमें लगी पूंजी पर लगभग उतना रिटर्न आता है जितना ब्याज सरकार कर्जों पर चुकाती है. 

सार्वजनिक उपक्रमों का दो-तिहाई मुनाफा कोयला, तेल, बिजली उत्पादन व वितरण से आता है जहां सरकार का एकाधिकार यानी मोनोपली है या फिर उन क्षेत्रों से, जहां निजी प्रतिस्पर्धा आने से पहले ही सरकारी कंपनियों को प्रमुख प्राकृतिक संसाधन या बाजार का बड़ा हिस्सा सस्ते में या मुफ्त मिल चुका था.

सार्वजनिक उपक्रमों का कुल घाटा 1,19,230 करोड़ रु. है. यदि बैंकों के ताजा घाटे और फंसे हुए कर्ज मिला लें तो संख्या डराने लगती है. 863 सरकारी कंपनियां राज्यों में हैं जिनमें 215 घाटे में हैं. जब हमें यह पता हो कि निजी क्षेत्र के एचडीएफसी बैंक का कुल बाजार मूल्य एक दर्जन सरकारी बैंकों से ज्यादा है या रिलायंस इंडस्ट्रीज की बाजार की कीमत इंडियन ऑयल, भारत पेट्रोलियम, गेल और हिंदुस्तान पेट्रोलियम से अधिक है तो आर्थिक पैमानों पर सरकारी कंपनियों को बनाए रखने का ठोस तर्क नहीं बनता.  

सरकारी कंपनियों में महीनों खाली रहने वाले उच्च पद यह बताते हैं कि इनकी प्रशासनिक साज-संभाल भी मुश्किल है. रोजगार के तर्क भी टिकाऊ नहीं हैं. रोजगार बाजार में संगठित क्षेत्र (सरकारी और निजी) का हिस्सा केवल छह फीसदी है. केवल 1.76 करोड़ लोग सरकारी क्षेत्र में थे, जिनमें 13.5 लाख लोग सरकारी कंपनियों में हैं. विनिवेश व निजीकरण से रोजगार नहीं घटा, यह पिछले प्रयोगों ने साबित किया है. 

इन तथ्यों के बावजूद और अपने चुनावी भाषणों में मिनिमम गवर्नमेंट की अलख जगाने वाली मोदी सरकार नए सार्वजनिक उपक्रम बनाने लगती है तो हैरत बढ़ जाती है. जैसे डाक विभाग के पेमेंट बैंक को ही लें. 2015 में डाक विभाग का घाटा 14 फीसदी बढ़कर 6,259 करोड़ रु. पहुंच गया. खाता खोलकर जमा निकासी की सुविधा देने वाले डाक घर अर्से से पेमेंट बैंक जैसा ही काम करते हैं. केवल कर्ज नहीं मिलता जो कि नए पेमेंट बैंक भी नहीं दे सकते.

सरकारी बैंक बदहाल हैं और निजी कंपनियां पेमेंट बैंक लाइसेंस लौटा रही हैं. जब भविष्य के वित्तीय लेनदेन बैंक शाखाओं से नहीं बल्कि एटीएम मोबाइल और ऑनलाइन से होने वाले हों, ऐसे में डाक विभाग में 800 करोड़ रु. की पूंजी लगाकर एक नया बैंक बनाने की बात गले नहीं उतरती. असंगति तब और बढ़ जाती है जब नीति आयोग एयर इंडिया सहित सरकारी कंपनियों के विनिवेश के सुझावों पर काम कर रहा है.

सरकार को कारोबार में बनाए रखने के आग्रह आर्थिक या रोजगारपरक नहीं बल्कि राजनैतिक हैं. सत्ता के विकेंद्रीकरण और स्वतंत्र नियामकों के उभरने के साथ राजनेताओं के लिए विवेकाधीन फैसलों की जगह सीमित हो चली है. अधिकारों के सिकुडऩे के इस दौर में केवल सरकारी कंपनियां ही बची हैं जो राजनीति की प्रभुत्ववादी आकांक्षाओं को आधार देती हैं जिनमें भ्रष्टाचार की पर्याप्त गुंजाइश भी है. यही वजह है कि भारत को आर्थिक सुधार देने वाले नरसिंह राव निजीकरण को पाप बताते हुए मिलते हैं. मनमोहन सिंह दस साल के शासन में सार्वजनिक उपक्रमों का विनिवेश नहीं कर पाते हैं, जबकि निजी क्षेत्र की उम्मीदों के नायक नरेंद्र मोदी सरकारी कंपनियों के नए प्रणेता बन जाते हैं.

प्रधानमंत्रियों की इस सूची में केवल गठजोड़ की सरकार चलाने वाले अटल बिहारी वाजपेयी ही साहसी दिखते थे. उन्होंने निजीकरण की नीति बनाई और लगभग 28 कंपनियों के निजीकरण के साथ यह साबित किया कि होटल चलाना या ब्रेड बनाना सरकार का काम नहीं है.

सार्वजनिक कंपनियों में नागरिकों का पैसा लगा है. जब ये कंपनियां घाटे में होती हैं तो सिद्धांततः यह राष्ट्रीय संपत्ति की हानि है. जैसा कि सरकारी बैंकों में दिख रहा है जहां बजट से गया पैसा भी डूब रहा है और जमाकर्ताओं का धन भी लेकिन अगर यह नुक्सान राजनैतिक प्रभुत्व के काम आता हो तो किसे फिक्र होगी? हमें यह मान लेना चाहिए कि सरकारी कंपनियों को बनाए रखने के आग्रह दलीय बाधाएं तोड़कर भारतीय राजनीति का संस्कार बन चुके हैं, जिससे जल्दी मुक्ति अब नामुमकिन है.

Monday, May 21, 2012

फिर ग्रोथ की शरण में

हीं चाहिए खर्च में कंजूसी ! घाटे में कमी! निवेश करो !आर्थिक विकास बढ़ाओ! रोजगार दो! नहीं तो जनता निकोलस सरकोजी जैसा हाल कर देगी। .. ग्‍लोबल नेतृत्‍व को मिला यह सबसे ताजा ज्ञान सूत्र है जो बीते सप्‍ताह कैम्‍प डेविड (अमेरिका) में जुटे आठ अमीर देशों के नेताओं की जुटान से उपजा और अब दुनिया में गूंजने वाला है। फ्रांस के चुनाव में निकोलस सरकोजी की हार ने चार साल पुराने विश्‍व आर्थिक संकट को से निबटने के पूरे समीकरण ही बदल दिये हैं। सरकारों का ग्‍लोबल संहार शुरु हो गया है क्‍यों कि जनता रोजगारों से भी गई और सुविधाओं से भी। वित्‍तीय कंजूसी की एंग्‍लो सैक्‍सन कवायद अटलांटिक के दोनों पार की सियासत भारी पड़ रही है। अमेरिका और यूरोप अब वापस ग्रोथ की सोन चिडिया को तलाशने निकल रहे हैं। चीन ग्रोथ को दाना डालना शुरु कर चुका है। दुनिया के नेताओं को यह इलहाम हो गया है कि घाटे कम करने की कोशिश ग्रोथ को खा गई है। यानी कि मु्र्गी ( ग्रोथ और जनता) तो बेचारी जान से गई और दावतबाजों का हाजमा बिगड़ गया।...
देर आयद
अगर बजट घाटे न हों तो ग्रोथ की रोटी पर बेफिक्री का घी लग जाता है। लेकिन घी के बिना काम चल सकता है ग्रोथ की, सादी ही सही, रोटी के बिना नहीं। 2008 में जब लीमैन डूबा और दुनिया मंदी की तरफ से खिसकी तब से आज तक दुनिया की सरकारें यह तय नहीं कर पाई कि रोटी बचानी है या पहले इस रोटी के लिए घी जुटाना है। बात बैंकों के डूबने से शुरु हुई थी। जो अपनी गलतियों से डूबे, सरकारों ने उन्‍हें बचाया अपने बजटों से। बजटों में घाटे पहले से थे क्‍यों कि यूरोप और अमेरिकी सरकारें जनता को सुविधाओं से पोस रही थीं। घाटा बढ़ा तो कर्ज बढे और कर्ज बढ़ा तो साख गिरी। पूरी दुनिया साख को बचाने के लिए घाटे कम करने की जुगत में लग गई इसलिए यूरोप व अमेरिका की जनता पर खर्च कंजूसी के चाबुक चलने लगे। जनता गुस्‍साई ओर उसने सरकारें पलट दीं। तीन साल की इस पूरी हाय तौबा में कहीं यह बात बिसर गई कि मुकिश्‍लों का खाता आर्थिक सुस्‍ती

Monday, May 17, 2010

ऐसा भी हो सकता है?

ग्री का अपशकुन अब किसका घर घेरेगा? ऋण संकट का वेताल अब किस के आंगन में उतरेगा?.. यही तो सोच रहे हैं न आप? जवाब इस पहेली में छिपा है। आगे लिखी पंक्तियां पढि़ए और सवाल का जवाब दीजिए.. आईएमएफ की निगाह में ये देश ऋण संकट के वायरस का स्वागत करने को तैयार बैठे हैं। इनकी राज्य सरकारें डिफाल्ट होने लगी हैं। इनका कुल सार्वजनिक कर्ज इनके जीडीपी के मुकाबले 100 से 250 फीसदी तक हैं। इनके बजट अब कर्ज का बोझ नहीं संभाल सकते।
जरा बताइए तो यह इशारा किन देशों की तरफ है???
स्पेन, पुर्तगाल, आयरलैंड !!!!
नहीं.. इनके बारे में तो सबको पता है
यह बात अमेरिका, यूके (ब्रिटेन), जापान और कुछ हद तक जर्मनी की है !!!
चौंक गए न? ग्रीस के तूफान ने मजबूत दिखने वाले बड़ों के नकाब खींच दिए हैं। वित्तीय बाजार अब रेत से सर निकालकर यह निर्मम सच बोलने की हिम्मत जुटा रहा है कि बड़े भीतर से बड़े खोखले हैं। अमीर देशों के क्लब जी 20 के आधा दर्जन महारथी ऋण संकट के टाइम बम पर बैठे हैं। इनके सरकारी कर्ज खतरे के हर निशान से ऊपर हैं। वित्तीय बाजार इन्हें नया कर्ज देने में हिचक रहा है। वित्तीय संस्थाएं जल्द ही ट्रिपल ए रेटिंग के अवसान का ऐलान कर सकती हैं। मतलब उस सुनहरी साख का खात्मा होने वाला है जो दिग्गज देशों के सरकारी (सावरिन) बांड्स को मिलती है और इन्हें हर तरह से सुरक्षित होने का तमगा देती है। बताने की जरूरत नहीं कि वित्तीय बाजार निहायत कायर है। खतरे के एक अलार्म पर यहां कोई किसी की चिंता नहीं करता, बस सारी भेड़ें खाई में कूद पड़ती हैं।
कितनी दूर तक जाएगी बात?
सरकारों पर तंज करने वाले कहते हैं कि आम लोग अगर सरकारों की तरह व्यवहार करने लगें तो आप पुलिस को बुला लेंगे.. बात भी ठीक है, खाली जेब हो तो कोई कर्ज नहीं देता, लेकिन सरकारें खूब ऐसा करती हैं। अंतरराष्ट्रीय पैमाने के मुताबिक अगर किसी देश का कर्ज जीडीपी से 60 फीसदी ऊपर हो और ऊपर से वह विदेशी कर्ज हो तो उस मुल्क को कर्ज संकट रोग कभी भी पकड़ सकता है। मगर मूडी के आकलन के मुताबिक सिर्फ 2007 से 2009 के बीच दुनिया के जीडीपी के अनुपात में सरकारों का संप्रभु कर्ज 62 फीसदी से बढ़कर 85 फीसदी हो गया है। इनमें भी जी 20 के सदस्य नौ प्रमुख देशों में सात का संप्रभु कर्ज उनके जीडीपी की तुलना में दस फीसदी बढ़ गया है। जब कि इस दौरान जी 20 में औसत बजट घाटे एक फीसदी से बढ़कर करीब आठ फीसदी हो गए। निवेशकों को खतरा साफ दिख रहा है और संप्रभु डिफाल्ट तो छूत का रोग है। इसे देखते ही वित्तीय बाजार नाक मुंह पर सतर्कता का मास्क बांध लेता है।
इनका हाल तो देखो!
न्यूयार्क के मैनहट्टन में सिक्स्थ एवेन्यू पर लगी अमेरिका की राष्ट्रीय कर्ज घड़ी में नौ अक्टूबर, 2008 को कर्ज की वास्तविक स्थिति दिखाने के लिए अंक कम पड़ गए थे। अमेरिका के कर्ज ने तब दस ट्रिलियन डालर के आंकड़े को पार किया था। यह शायद अमेरिका में कर्ज संकट की उलटी गिनती की शुरुआत थी। यह घड़ी 16 मई रविवार को करीब 12.9 ट्रिलियन डालर का सार्वजनिक कर्ज दिखा रही थी। अमेरिका में केंद्रीय स्तर पर भले ही सब कुछ ढंका छिपा हो, मगर नीचे तो शुरुआत हो चुकी। अमेरिका का सबसे बड़ा राज्य, अर्नाल्ड श्वार्जनेगर का कैलिफोर्निया कर्ज चुकाने में चूकने वाला है और ओबामा से मदद की गुहार कर रहा है। 2009 में अमेरिकी नगर निकायों ने दीवालियेपन के 11000 मामले दायर किए हैं। जबकि 1937 से अब तक ऐसे केवल 600 मामले आए थे। चर्चा हैरिसबर्ग व डेट्रायट जैसे शहरी निकायों के दीवालिया होने की भी है। इससे 2800 बिलियन डालर का म्युनिसिपल बांड बाजार गर्त में है। अमेरिकी की फेडरल सरकार का संप्रभु कर्ज जीडीपी का करीब 85 फीसदी है और सकल कर्ज 150 फीसदी पर है। अमेरिका को इस साल बाजार से 1.6 ट्रिलियन डालर जुटाने हैं, वित्तीय बाजार डरा हुआ है, कोई नहीं जानता कि कैलिफोर्निया का हाल देख लोगों को अंकल सैम के बांडों पर कब तक भरोसा रहेगा।
और इनका क्या होगा?
दुनिया के अगुआ बांड हाउस पिमोको के ब्रिटेन के बाजार से हाथ खींचने की चर्चा लंदन के वित्तीय बाजारों में ठीक उस समय उभरी, जब ब्रितानी सरकार चुनाव से इंच भर दूर थी और करीब 200 बिलियन पौंड सरकारी कर्ज कार्यक्रम सर पर खड़ा था। पिमोको जैसे कई अन्य निवेशक भी यूके की हालत देख कर उखड़ रहे हैं। 1.5 ट्रिलियन पौंड का कुल सरकारी कर्ज और पूरे यूरोपीय समुदाय में सबसे ऊंचा बजट घाटा (जीडीपी के मुकाबले 12 फीसदी) किसी भी निवेशक को डरायेगा। ब्रिटेन यूरो जोन से बाहर है, इसलिए वह मुद्रा का अवमूल्यन कर रहा है, जो हालत और खराब करेगी। इस अमीर मुल्क को अगले तीन साल में 550 बिलियन पौंड का कर्ज चाहिए, लेकिन वित्तीय बाजार तो उसकी ट्रिपल ए रेटिंग वापस लेने की चर्चा कर रहा है। जर्मनी भी जीडीपी के अनुपात में करीब 78 फीसदी कर्ज के साथ खतरे के निशान से ऊपर है। वहां कई राज्यों में कर्ज का हाल कैलिफोर्निया से पांच गुना ज्यादा बुरा है।

पूरब तक फैला अंधियारा
दुनिया के अर्थशास्त्री इस समय इस बहस में जुटे हैं कि पहले यूके डिफाल्ट होगा या जापान। दरअसल जापान कुछ ज्यादा ही नाजुक हालत में है। आईएमएफ मानता है कि वहां इस साल सरकार का कर्ज जीडीपी की तुलना में 227 फीसदी पर पहुंच जाएगा। जापान को 213 ट्रिलियन येन के कर्ज चुकाने के लिए इस साल नया कर्ज चाहिए। पूरब के इस दिग्गज मुल्क में बचत दर नवें दशक के 15 फीसदी से घटकर अब दो फीसदी पर आ गई है। जापान के लोग सरकार के बांडों में पैसा लगाने की स्थिति में नहीं हैं। जापान का स्टेट पेंशन फंड (दुनिया का सबसे बड़ा पेंशन फंड) सरकारी बांड बेच रहा है। बैंकिंग उद्योग पहले से बेहाल है। आर्थिक विकास दर बहुत कमजोर है। दुनिया को मालूम है कि जापान का इतिहास भयंकर आर्थिक भूलों से भरा है।
यह सारा ब्यौरा अगर आपको किसी हारर स्टोरी की तरह लगे तो माफ करिएगा। लेकिन हकीकत छिपाने से फायदा भी क्या? सिटी ग्रुप के अर्थशास्त्री विलियम ब्यूटर तो और भी मुंहफट हैं। वह कहते हैं कि ''कुत्तों की जो नस्लें आज सबसे अच्छी मानी जा रही हैं, वह कभी दुनिया की सबसे खराब नस्लों में गिनी जाती थीं।'' उनका इशारा बड़ों के हाल की तरफ है, वित्तीय पैमानों पर दुनिया के कई पिछड़े मुल्क आज इन अगड़ों से ज्यादा बेहतर हैं। दिसंबर में हमने इसी स्तंभ में लिखा था महासंकट की उलटी गिनती शुरू होने वाली है। ग्रीस से शुरू होकर यह अपशकुन अब दुनिया के कई मुल्कों का दरवाजा खटखटाने लगा है। हर अमीर मुल्क कर्ज का डायनामाइट लपेटे नाच रहा है और भारी घाटों व राजस्व में कमी का पलीता हाथ में है। कोई नहीं जानता कौन किसका कितना कर्ज चुका पाएगा और जनता से क्या-क्या वसूला जाएगा? इलाज की कोशिशें भी जारी हैं, मगर इलाज भी संकट जितना ही भारी है। .. दानिशमंदों (बुद्धिमानों ) की नादानी दुनिया को अक्सर बहुत महंगी पड़ी है। यह संकट इसी की नजीर है।
बूदो बाश क्या पूछो लोगों हम उस शहर से आए हैं
नादानी दानाई जहां है दानाई नादानी है .. फिराक
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Monday, January 11, 2010

चुनौतियों की चकरी

इस होम में हाथ तो जलने ही थे। अलबत्ता होम तो हो गया, और सुनते हैं कि मंदी का अनिष्ट भी कुछ हद तक टल गया है लेकिन अब बारी हाथों की जलन तो रहेगी। अगर देश की अर्थव्यवस्था से कुछ वास्ता रखते हैं तो बस एक पखवाड़े के भीतर सरकारी घाटे और ऊंची ब्याज दरों की अप्रिय खबरें आपकी महंगी सुबह कसैली करने लगेंगी। बजट की उलटी गिनती और घाटे की सीधी गिनती शुरु हो चुकी है। मंदी की इलाज में सरकार ने खुद को बुरी तरह बीमार कर लिया है। राजकोषीय घाटा पिछले सत्रह साल के सबसे ऊंचे और विस्मयकारी स्तर पर है। महंगाई जी भरकर मार रही है। बाजार में मुद्रा के छोड़ने वाला पाइप अब संकरा होने वाला है अर्थात ब्याज दरें ऊपर जाएंगी। हम आप तो भले ही कर्ज न लें लेकिन सरकार तो कर्ज बिना एक कदम नहीं चल पाएगी। यानी ऊंचा घाटा, ज्यादा कर्ज, महंगाई, सख्त मौद्रिक नीति और ऊंचा ब्याज.. राजकोषीय चुनौतियों की चकरी धुरे पर बैठ गई है। इस दुष्चक्र की मार हमेशा से मीठी और लंबी होती है। मुसीबत का यह पहिया पहले भी घूमता रहा है लेकिन तब से अब में सबसे बड़ा फर्क यह है कि मंदी से उबरने की कोशिशों कायदे से शुरु हो पातीं इससे पहल ही यह दुष्चक्र शुरु हो गया है और वह भी उस वक्त जब नया वित्त वर्ष, केंद्र सरकार सामने पुराने कर्जो की भारी देनदारी का तकाजा खोलने वाला है।
वित्तीय अनुशासन का शीर्षासन
इस साल फरवरी में आने वाला बजट पिछले कुछ दशकों के सबसे अभूतपूर्व राजकोषीय घाटे वाला बजट हो तो चौंकियेगा नहीं। सरकार के आधिकारिक आंकड़ों में राजकोषीय और राजस्व घाटा, जीडीपी के अनुपात मे क्रमश: सात और पांच फीसदी, सत्रह साल के सबसे के सबसे ऊंचे स्तरों पर है। दरअसल दुनिया जब तक मंदी से निबटने की रणनीति बनाती भारत सरकार सांता क्लॉज बन कर वित्तीय रियायतों बांटने निकल पड़ी। चुनाव सामने था और सरकार मंदी को प्रोत्साहन के सहारे तमाम ऐसे खर्चे सब्सिडी और वेतन आयोग की सिफारिशों पर खर्च, ढकने थे जिन पर आम दिनों में वित्तीय सवाल उठ सकते थे। प्रोत्साहन पैकेज से मंदी से कितनी दूर हुई इस पर चर्चा फिर कभी लेकिन खजाना विकलांग हो गया है। उत्पादन व मांग घटने के कारण राजस्व घटा और इधर जुलाई में सरकार ने अब तक का सबसे बड़ा कर्ज , 4,50,000 करोड़ रुपये, कार्यक्रम घोषित किया। ताकि दस लाख करोड़ के खर्च का बजटीय गुब्बारे में हवा भरी जा सके। अचरज नहीं कि मार्च के अंत तक कर्ज इससे भी ऊपर चला जाए क्यों कि लिब्रहान आदि पर बहसों के बीच बीते माह सरकार ने संसद से अपने बढ़े खर्च का बिल पास करा लिया। और राजस्व की हालत पतली है। अगला साल खर्च में कोई रियायत देने नहीं जा रहा क्यों कि सब्सिडी, नरेगा आदि के मुंह पहले से बड़े हो गए हैं। वित्त आयोग की सिफारिशों के बाद राज्यों को करों में पहले से ज्यादा हिस्सा देना होगा। पूरी तरह बेहाथ हो चुके घाटे को भरने के लिए अगले वित्त वर्ष में सरकार बाजार से कितना कर्ज उठायेगी, अंदाज मुश्किल है। अब डरिये कि घाटे को देख अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारत की साख यानी रेटिंग न घट जाए।
मुंबई वाली मदद
आइये अब मुंबई वाले सूरमा को देखते हैं यानी रिजर्व बैंक जो कि चुनौतियों की इस चकरी को अपनी तरह से रफ्तार देने वाला है। प्रणव बाबू अब रिजर्व बैंक से यह उम्मीद तो नहीं कर सकते कि वह बाजार में घड़े में पानी भरता रहेगा ताकि सरकार को कर्ज मिल सके। रिजर्व बैंक को जो महंगाई दिख रही है वही प्रणव मुखर्जी की भी निगाहों के सामने है। भले ही यह महंगाई मौद्रिक नहीं बल्कि आर्थिक दुर्नीतियों का नतीजा हो लेकिन रिजर्व बैंक की किताब में महंगाई और मौद्रिक उदारता के बीच छत्तीस का फार्मूला है। इसलिए बजट से पहले ही मौद्रिक सख्ती शुरु हो जाएगी और साथ ही बढ़ने लगेंगी ब्याज दरें। महंगाई के बीच अगर ब्याज दरें भी बढ़ गई तो उद्योगों की पार्टी तो खत्म समझिये। एक तो महंगाई ने लोगों की क्रय शक्ति लूट ली ऊपर से अब कर्ज के सहारे ग्राहकी निकलने की उम्मीद भी खत्म क्यों कि महंगा कर्ज लेकर कौन खर्च करेगा? सरकार के लिए मुश्किलें दोहरी हैं। यह माहौल उत्पादन को हतोत्साहित करता है जिससे राजस्व में कमी आती है और दूसरी तरफ खर्च कम करने की कोई गुंजायश नहीं है।
तकाजे का वक्त
मुसीबतों के इस पहिये का सबसे चुनौती भरा मोड़ यह है कि सरकारी खजाने के लिए बेहद कठिन दशक इसी साल से शुरु हो रहा है। बीते सालों के सरकार ने जो जमकर कर्ज जुटाये थे उनकी भारी देनदारी 2010-11 से शुरु हो रही है। सरकारी ट्रेजरी बिलों के संदर्भ में रिजर्व बैंक का आंकड़ा बताता है कि इस साल सरकार को करीब 1,12,000 करोड़ रुपये का कर्ज चुकाना है। जो कि मौजूदा साल में महज 27000 करोड़ रुपये था। यह भारी तकाजे अगले एक दशक तक चलेगा और हर साल सरकार की देनदारी 70,000 करोड़ रुपये से ऊपर होगी। 2014-15 में तो इसके 1,75,000 करोड़ रुपये तक जाने का आकलन है। इधर ब्याज दर बढ़ने से ब्याज की देनदारी बढ़ेगी से अलग से। मौजूदा साल में खजाना 2,25,000 करोड रुपये का ब्याज दे रहा है यह रकम मौजूदा साल में सरकार को इनकम टैक्स से मिलने वाले राजस्व की दोगुनी और कुल कर राजस्व की लगभग आधी है। ब्याज देनदारी में बढ़ोत्तरी के पिछले आंकड़ों के आधार अगले साल यह तीन लाख करोड़ रुपये आसपास हो सकता । जाहिर इसे चुकाने के लिए सरकार को नया कर्ज चाहिए। इस पर चर्चा फिर कभी करेंगे कि क्या यह घरेलू ऋण संकट की शुरुआत है? लेकिन यह आंकड़ा जरुर जहन में रखना चाहिए कि जीडीपी के अनुपात में घरेलू कर्ज 60 फीसदी पर पहुंच गया है। दुनिया के कुछ मुल्कों के ताजे दीवालियेपन से डरे दुनिया के निवेशकों को डराने के लिए अब हमारे पास बहुत कुछ है।
बाड़ ने खेत को कितना बचाया तो यह बाद में पता चलेगा लेकिन मंदी रोकने की बाड़ राजकोष के खेत का बड़ा हिस्सा चट जरुर कर गई है। आर्थिक चुनौतियों का यह चरित्र है कि इसमें तात्कालिक उपाय अक्सर दूरगामी समस्या बन जाते हैं। जर्मनी की चांसलर एंजेला मार्केल ने बीते सप्ताह कहा है कि वित्तीय संकट अभी टला नहीं है बल्कि नए सिरे से आ रहा है। यकीनन उनका इशारा अब उस संकट की तरफ है जो बैंकों की बैलेंस शीट और निवेशकों के खातों से निकल कर सरकारी खजानों के हिसाब किताब में बैठ गया है। भारत भी इसी नाव में सवार है और हम व आप भी इसी नौका के यात्री हैं। बजट का इंतजार बेशक करिये मगर बहुत उम्मीद के साथ नहीं क्यों चुनौतियों का पहिया थमते-थमते ही थमेगा।

Tuesday, December 8, 2009

महासंकट की उलटी गिनती!

अगर दिल कमजोर है तो इसे जरा संभल कर पढ़ें। यह एक खौफनाक असली कहानी है जो दुनिया के वित्तीय बाजारों में लिखी जा रही है। यह हारर स्टोरी समाचारी सुर्खियों की शक्ल में कभी भी और किसी भी वक्त दुनिया के सामने फट सकती है। यह यथार्थ मंदी दूर होने के मुगालतों को मसलने की कूव्वत रखता है और दुनिया को संकटों की एक अभूतपूर्व दुनिया में ले जा सकता है। हो सकता है आप यकायक अगली पंक्तियों पर भरोसा न करें मगर यह सच है कि .. 2010 में ब्रिटेन की सरकार कर्ज के संकट में फंस सकती है!! दो हजार दस का बरस दुनिया में सरकारों के दीवालिया होने का बरस हो सकता है!! अर्थात सावरिन डेट क्राइसिस!! मतलब सरकारों का डिफाल्टर होना यानी कि उस कर्ज को चुकाने में चूक जो सरकारों ने अपनी संप्रभु गारंटी के बदले लिया है। ..अतीत में अर्जेटीना को भुगत चुके वित्तीय बाजार के लिए ये जुमले महाप्रलय की भविष्यवाणियों से कम नहीं हैं। दुबई के डिफाल्टर होने के बाद पूरी दुनिया के कई देशों पर अचानक कर्ज संकट के प्रेत मंडराने लगे हैं। कम से कम आधा दर्जन छोटे बड़े देशों में कर्ज का पानी नाक तक आ गया है। इनमें कुछ तो जी 10 और जी 20 देश भी हैं यानी दुनिया के विकसित, बड़े और अमीर भी। वित्तीय बाजार के लिए यह एक महासंकट की उलटी गिनती है क्योंकि जैसे ही दुनिया के केंद्रीय बैंक ब्याज दरें बढ़ाना शुरू करेंगे तमाम देश कर्ज चुकाने में चूकने लगेंगे और यह चूक मुद्राओं के अवमूल्यन से होती हुई पता नहीं कहां जाकर रुकेगी।
दुबई तो नमूना है
वित्तीय बाजार कह रहा है कि दुनिया का एक बड़ा देश जल्द ही अपने कर्जो में डिफाल्टर होने वाला है? यह रूस है या फिर ब्रिटेन या कोई और? तकरीबन एक सप्ताह पहले मोर्गन स्टेनले दुनिया को यह विश्लेषण पेश कर दुनिया को चौंका दिया कि वर्ष 2010 में ब्रिटेन ऋण संकट में फंस सकता है। मोर्गन तो सिर्फ आशंका जाहिर कर रहा था, मगर स्टैंडर्ड एंड पुअर ने तो ब्रिटेन की साख को लेकन अपने आकलन को नकारात्मक कर दिया। वित्तीय बाजारों का सूत्रधार ब्रिटेन और रेटिंग एजेंसियों की नजर में साख नकारात्मक? ..हैरतअंगेज या सनसनीखेज? विशेषणों की कमी पड़ जाएगी। रूस भी कर्जो के जबर्दस्त दबाव में है खासतौर पर छोटी अवधि के कर्ज जो उसने तेल कीमतों में तेजी के दौर में अपनी चमकती साख के वक्त लिये थे, इनका भुगतान सर पर है। जर्मनी पर कर्ज का बोझ यूरोपीय बाजारों की सांस रोकने लगा है। जब बड़ों का यह हाल है तो फिर छोटों की कौन कहे? दरअसल दुबई का तूफान पश्चिम और पूरब के कई देशों की वित्तीय बदहाली को उघाड़ गया है। आयरलैंड की अर्थव्यवस्था कर्ज के तूफान में घिर रही है। बाल्टिक देश तो कर्ज के गर्त के सबसे करीब हैं। लाटविया शायद ही मुश्किलों से बचे। एस्टोनिया और लिथुआनिया पर विदेशी कर्ज उनके जीडीपी से ज्यादा हो गया है। बुल्गारिया और हंगरी भी इन्हीं देशों की जमात में हैं। इन छोटे देशों की हालत को हलके में मत लीजिए, एक दुबई की बर्बादी ने दुनिया की चूलें हिला दी हैं इनमें एक देश भी अगर अपनी संप्रभु देनदारियों में चूका तो वित्तीय बाजारों में हाहाकार मच जाएगा।
संकट की सुनामी
संकटों के वक्त हमेशा कुछ सर रेत में धंस जाते हैं। इस मौके पर भी ऐसा ही हो रहा है। दुनिया को मंदी से उबरने की मरीचिका दिखाई जा रही है, लेकिन वित्तीय बाजार में तो संकट की सुनामी बनती दिख रही है। यह संकट दरअसल पिछले कुछ वर्षो की उदार मौद्रिक नीतियों, वित्तीय अपारदर्शिता और बाजार में बहे अकूत पैसे से उपजा है। दुनिया जब सुखी थी या सुखी दिखने का नाटक कर सकती थी, तब सरकारों ने और सरकार की गारंटियों के सहारे कंपनियों ने वित्तीय बाजार से अंधाधुंध पैसा उठाया। मंदी आई तो रिटर्न के स्रोत सूख गए। इसलिए जब कर्ज की पहली देनदारी निकली तो बाजार ने दुबई जैसों को ज्यादा वक्त देने से मना कर दिया। कल बाजार औरों से किनारा करेगा। पूरी दुनिया में ब्याज दरें बढ़ने वाली हैं अर्थात देनदारियों को चुकाने के लिए नया कर्ज महंगा और मुश्किल होगा। इसलिए दुबई के बाद पूरी दुनिया में देशों की रेटिंग उलट-पलट गई है। दुनिया के कर्ज और कर्ज की दुनिया के बारे में दिलचस्पी रखते हैं, तो विश्व के के्रडिट डिफाल्ट स्वैप (के्रडिट डिफाल्ट स्वैप अर्थात सीडीएस वित्तीय बाजार के जाने पहचाने उपकरण हैं। यह एक तरह का बीमा है जो कि एक कर्ज देने वाली संस्था किसी दूसरी संस्था से लेती है। ताकि अगर लेनदार डिफाल्टर हो तो पैसा न डूबे। इसके लिए कर्ज देने वाला स्वैप देने वाले को प्रीमियम देता है।) बाजार की ताजी तस्वीर देखिए। छोटों की कौन कहे यहां तो बड़ों की साख पर बन आई है। चीन के सीडीएस छह फीसदी, रूस के 19 फीसदी, इंडोनिशया के 28 फीसदी महंगे हो गए हैं। दांतों तले उंगली दबाइए क्योंकि फ्रंास, जर्मनी, इटली, जापान, ब्रिटेन, स्पेन और यहां तक अमेरिका भी कर्ज बाजार के ऋण जोखिम के सूचकांकों पर खतरे वाली श्रेणियों में चमकने लगे हैं। इन मुल्कों में कर्ज और जीडीपी का अनुपात खतरनाक हो गया है। जर्मनी का कुल कर्ज अगले साल उसके उत्पादन के 77 फीसदी के बराबर हो जाएगा। ब्रिटेन में यह 80 फीसदी है तो जापान में यह 200 फीसदी पर पहुंच रहा है। अमेरिका में ट्रेजरी यानी सरकार के कुल कर्ज का करीब 44 फीसदी हिस्सा अगले एक साल में चुकाया जाना है। तभी तो दुनिया विशेष ऋण बाजार में अमेरिका की साख को मिली ट्रिपल ए रेटिंग पर हैरत के साथ हंस रही है।
बचाएगा कौन?
कर्ज संकटों के इतिहास से वाकिफ कोई व्यक्ति कह सकता है कि आईएमएफ किस दिन काम आएगा। मगर देशों के कर्ज संकट के दो पहलू हैं, एक विदेशी कर्ज और दूसरादेशी। लाटविया, एस्टोनिया जैसे देशों पर विदेशी कर्ज है। आईएमएफ इन्हें विदेशी मुद्रा देकर कुछ समय के लिए बचा सकता है। अलबत्ता आईएमएफ का इलाज लेने वाले देशों की वित्तीय साख का कचरा बन जाता है। अर्जेटीना इसकी ताजी नजीर है। आईएमएफ की मदद लेने वाले देशों की कंपनियां दुनिया के बाजार में अछूत बन जाती हैं। हो सकता है ब्रिटेन, जापान, जर्मनी को आईएमएफ की जरूरत न पड़े, लेकिन इनके संकट आईएमएफ सुलझा भी नहीं सकता। ये देश घरेलू कर्ज की जकड़ में हैं। इन्हें ज्यादा घरेलू मुद्रा छापकर कर्ज पाटना होगा या फिर टैक्स बढ़ाना और खर्च घटाना होगा। इनमें से हर कदम खतरों भरा है। भारी राजकोषीय घाटे और नोटों की छपाई देशी मुद्रा का अवमूल्यन करती है और सरकार को अपने बांड खरीदने वाले भी नहीं मिलते। कर बढ़ाना और खर्च घटाना, मांग कम करता है और कर चोरी बढ़ाता है।
और भारत ?. आप कह सकते हैं कि कुछ सुरक्षित है या कुछ अर्थो में कतई सुरक्षित नहीं है। सरकार भले ही कर्जदार न हो, लेकिन वित्तीय बाजार तो दुनिया से जुड़ा है, इसलिए संकट की सुनामी हमें डुबाए भले न, लेकिन झकझोर जरूर देगी। हमारे लिए इतना ही काफी है। देशों के ऋण संकट वित्तीय बीमारियों की फेहरिस्त में सबसे भयानक हैं। इसके इलाज आर्थिक शरीर को बुरी तरह तोड़ देते हैं और अर्थव्यवस्था तहस-नहस हो जाती है। अर्जेंटीना छह साल बाद आज भी घिसट रहा है और मेक्सिको को पुरानी रौ में आने में वक्त लगेगा। कभी-कभी यह लगता है कि दुनिया का वित्तीय एकीकरण फायदे से ज्यादा नुकसान का सौदा साबित हो रहा है। अर्जेटीना की सुनामी ने केवल लैटिन अमेरिका के बाजारों को हिलाया था मगर अब जो सुनामी बन रही है, वह पूरे भूमंडल के वित्तीय बाजारों को लपेट सकती है। वजह यह कि उदारीकरण के लाभ भले ही सामूहिक न हों, मगर गलतियां और नुकसान सामूहिक रहे हैं। इसलिए 2012 की फिक्र छोडि़ए.. 2010 वित्तीय बाजारों पर बहुत भारी पड़ सकता है।
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