Showing posts with label jobs. Show all posts
Showing posts with label jobs. Show all posts

Sunday, March 19, 2023

इसी का तो खतरा था


 

 

कानपुर के दीपू घरेलू खपत की सामानों के डिस्‍ट्रीब्‍यूटर हैं. बीते पांच छह महीने में हर सप्‍ताह जब उनका मुनीम उन्‍हें हिसाब दिखाता है उलझन में पड़ जाते हैं. ज्‍यादातर सामानों की बिक्री बढ़ नहीं रही है. कुछ की बिक्री घट रही है और कई सामानों की मांग जिद्दी की तरह एक ही जगह अड़ गई है, बढ़ ही नहीं रही.

दीपू हर सप्‍ताह कंपनियों के एजेंट को यह हाल बताते हैं कंपनियां अगली खेप में कीमत बढ़ा देती हैं या पैकिंग में माल घटा देती हैं. दीपू के कमीशन में कमी नहीं हुई मगर मगर बिक्री टर्नओवर नहीं बढ़ रहा. ज्‍यादा बिक्री पर इंसेटिव लेने का मामला अब ठन ठन गोपाल है. कोविड के बाद बाजार खुलते ही दीपू ने तीन लडकों की  डिलीवरी टीम बनाई थी, अब दो को हटा दिया है. नए दुकानदार नहीं जुड़ रहे और नए आर्डर मिल रहे हैं.

दीपू की डिलीवरी टीम में एक लड़का बचा है जिसके साथ वह खुद माल पहुंचाते हैं. वसूली करते हैं. उधारी लंबी हो रही है.

 

दीपू जैसा हाल अगर आपने अपने आसपास सुना हो तो समझ‍िये कि आप अर्थशास्‍त्र की हकीकत के करीब पहुंच गए हैं. दीपू का रोजनामचा और बैलेंस शीट अर्थशास्‍त्र‍ियों के अध्‍ययन का विषय होनी चाहिए. आर्थ‍िक सिद्धांतों में जिस स्‍टैगफ्लेशन का जिक्र होता है, उसकी पूरी व्‍यंजन विध‍ि दीपू के हिसाबी पर्चे में है. स्‍टैगफ्लेशन की खिचड़ी महंगाई, मांग में कमी और बेरोजगारी से बनती है. स्‍टैगफ्लेशन के स्‍टैग का मतलब है विकास दर में स्‍थिरता. यह मंदी नहीं है मगर ग्रोथ भी नहीं. तरक्‍की बस पंचर कार की तरह ठहर जाती है. फ्लेशन यानी इन्‍फेलशन यानी महंगाई.

दुनिया की सबसे जिद्दी आर्थ‍िक बीमारी है यह. जिसमें कमाई नहीं बढती, लागत और कीमतें बढ़ती जाती हैं. दुनिया के बैंकर इतना मंदी से नहीं डरते. मंदी को सस्‍ते कर्ज की खुराक से दूर किया जा सकता है लेक‍िन स्‍टैगफ्लेशन का इलाज नहीं मिलता. सस्‍ता कर्ज महंगाई बढता और महंगा कर्ज मंदी.

मांग और महंगाई 

शायद आपको लगता होगा कि बाजार में माल तो बिक रहा है. जीएसटी बढने के आंकडे तो कहीं से महंगाई के असर नहीं बताते तो फिर यह स्‍टैगफ्लेशन कहां से आ रही है. महंगाई से मांग गिरने के असर को लेकर अक्‍सर तगड़ी बहस चलती है क्‍यों कि पैमाइश जरा मुश्‍क‍िल है. भारत में तो इस वक्‍त इतने परस्‍पर विरोधी तथ्‍य तैर रहे हैं कि तय करना मुश्‍क‍िल है कि महंगाई का असर है भी या नहीं.

इसके लिए आंकड़ो को कुछ दूसरे नजरिये से देखते हैं. अर्थव्‍यवस्‍था में हमेशा बड़ी तस्‍वीर ही पूरी तस्‍वीर होती है और अब हमारे पास महंगाई से मांग टूटने के कुछ ठोस तथ्‍य हैं. बजट की तरफ बढ़ते हुए इन्‍हें देखना जरुरी है

 महंगाई ने मांग खाई

खपत और उत्‍पादन का रिश्‍ता नापने के लिए सबसे व्‍यावहारिक बाजार उपभोक्‍ता उत्‍पादों का है. इस वर्ग में हर तरह के उपभोक्‍ता शामिल है, चाय मंजन , मसालों से लेकर सीमेंट और कारों तक. हर माह जारीहोने वाला औद्योगिक उत्‍पादन सूचकांक इनके उत्‍पादन में कमी या बढत की जानकारी देती है.

अप्रैल से अक्‍टूबर 2022 के दौरान कंज्‍यूमर ड्यूरेबल्‍स के उत्‍पादन में 6.6 फीसदी की गिरावट दर्ज हुई इसमें इलेक्‍ट्रानिक्‍स उत्‍पाद से लेकर कारें तक शामिल हैं 2021 में यहां करीब 30.4 फीसदी की बढ़त हुई थी. कंज्‍यूमर नॉन ड्यूरे‍बल्‍स यानी साबुल मंजन, बिस्‍क‍िट आदि के उत्‍पादन तो अप्रैल अक्‍टूबर 2022 में सिकुड़कर -4.2 फीसदी रह गई जो बीते साल इसी दौरान 7.2 फीसदी बढ़ी थी

यही तो बडे वर्ग हैं जहां महंगाई से मांग का सीधा रिश्‍ता दिखता है. बैंक ऑफ बडोदा के एक ताजा अध्‍ययन में महंगाई और मांग के रिश्‍ते को करीब से पढा गया है.

औद्योगिक उत्‍पादन सूचकांक और महंगाई के आंकडों को एक साथ देखने पर करीब 20 से अध‍िक उत्‍पाद एसे मिलते हैं महंगाई के कारण जिनकी मांग में कमी आई जिसके कारण उत्‍पादन में गिरावट दर्ज हुई

उर्वरकों का किस्‍सा दिलचस्‍प है सरकार की सब्‍स‍िडी के बावजूद इस साल महंगाई के कारण उर्वरक की मांग टूटी. गिरावट दर्ज हुई पोटाश और फास्‍फेट वर्ग के उर्वरक में, जहां सब्‍स‍िडी नही मिलती नतीजतन 2021 में कीमतों की बढ़त 3.2 फीसदी थी 2022 में 12.1 फीसदी हो गई. महंगाई के कारण खरीफ मौसम में बुवाई के बढ़ने के बावजूद उर्वर‍क की बिक्री अप्रैल से अक्‍टूबर 2022 में करीब 5.5 फीसदी कम रही.  

स्‍टील की कीमतों में 2022 में महंगाई का रफ्तार धीमी तो पड़ी लेक‍िन दहाई के अंक में थी इसलिए बिक्री में केवल 11.7 फीसदी बढ़ी जो 2021 में 28 फीसदी बढ़ी थी.

खाद्य सामानों में मक्‍खन, घी, केक, बिस्‍किट, चॉकलेट चाय, कॉफी, कपडे, फुटवियर में महंगाई ने 5 से 12.5 फीसदी तक की बढ़त दिखाई तो बिक्री ने तेज गोता लगाया.

मक्‍खन, केक, लिनेन फुटवियर की बिक्री तो नकारात्‍मक हो गई.

ठीक इसी तरह अप्रैल अक्‍टूबर 2022 में सीमेंट और ज्‍यूलरी की बिक्री में तेज गिरावट आई जिसकी वजह यहां 6 से सात फीसदी की महंगाई थी.

महंगाई के बावजूद

महंगाई से न प्रभावित होने वालों सामानों की सूची बहुत छोटी है. यानी एसे उत्‍पाद जिनकी बिक्री बढ़ी जबकि इनकी कीमतें भी बढ़ी थीं. इसमें सब्‍स‍िडी वाली उर्वरक यानी यूरि‍या और डीएपी है. इसके अलावा आइसक्रीम, डिटर्जेंट, टूथपेस्‍ट और मोबाइल फोन हैं. हालांकि त्‍योहारी मौसम खत्म होने यानी अक्‍टूबर के बाद मोबाइल की बिक्री घटने के संकेत भी मिलने लगे थे.

 

बैंक ऑफ बडोदा के इस अध्‍ययन में कुछ उत्‍पाद एसे भी मिले हैं जिनकी बिक्री का महंगाई से रिश्‍ता स्‍पष्‍ट नहीं होता. जैसे कि कारें, ट्रैक्‍टर, दोपहिया-तिपहिया वाहन और कंप्‍यूटर. इन सबकी कीमतें बढ़ी लेकिन दिसंबर तक कारों की बिक्री ने सारा पुराना घाटा पाट दिया. 2018 के बाद सबसे ज्‍यादा कारें बिकीं.

बजट की पृष्‍ठभूमि

2022-23 में कुल उत्‍पादन में कमी नजर आने की एक वजह 2021 में तेज बिक्री रही थी जिसे बेसइ इफेक्‍ट कहते हैं लेक‍िन आंकड़ो को करीब से देखने पर महंगाई और मांग का रिश्‍ता साफ दिख जाता है.

इससे यह भी जाहिर होता है कि सरकार का जीएसटी संग्रह महंगाई के कारण बढ़ रहा है, बिक्री बढ़ने के कारण नहीं. महंगाई के कारण जीएसटी संग्रह बढ़ने के सबूत पहले से मिल रहे हैं.

स्‍टैगफ्लेशन की रोशनी में बजट गणित पेचीदा हो गई है. अर्थव्‍यवस्‍था के चार प्रमुख भागीदार हैं. पहला है उत्‍पादक, दूसरा है उपभोक्‍ता  तीसरे हैं रोजगार और चौथी है सरकार  

महंगाई और लागत बढ़ने के साथ उत्‍पादकों ने अपनी गणित बदल ली. कानपुर के दीपू को महंगा माल मिल रहा है क्‍यों कि मांग में कमी के साथ कंपनियां क्रमश: कीमतें अपने न्‍यूनतम मार्जिन सुनश्‍च‍ित कर रही हैं. वितरकों के कमीशन सुरक्षति हैं लेक‍िन कारोबार में बढ़त नहीं है.


दूसरी तरफ उपभोक्‍ता है. इस माहौल ने उनकी खपत का नजरिया बदल दिया है. तभी तो जरुरी चीजों की मांग गिरी है. रिजर्व बैंक का ताजा कंज्‍यूमर कान्‍फीडेंस सर्वे बताता है कि ज्‍यादातर उभोक्‍ता अगले एक साल तक गैर जरुरी सामान पर खर्च नहीं करना चाहता है. जरुरी सामानों पर भी उनके खर्च में बड़ी बढ़त नहीं होगी. यही वजह है दीपू को नए दुकानदार नहीं मिल रहे और पुराने दुकानदार आर्डर बढ़ा नहीं रहे हैं.   

अप्रैल से दिसंबर के बीच भारत में बेरोजगारी दर 7 फीसदी से ऊपर रही है. दिसंबर में शहरी बेरोजगारी दस फीसदी से ऊपर निकल गई. गांवों में भी काम नहीं. स्‍टैगफ्लेशन का सबूत यही है. रोजगार इसलिए टूट रहे हैं क्‍यों कि कंपनियों ने नई क्षमताओं में निवेश रोक दिया और उत्‍पादन को घटाकर मांग से हिसाब से समायोजित क‍िया है. इस सूरत में नौकर‍ियां आना तो दूर खत्‍म होने की कतार लगी है. श्रम बाजार में काम के लिए लोग हैं मगर काम कहां है. दीपू ने भी बेकारी बढाने में अपनी योगदान किया है. अपने टीम के दो लड़के हटा दिये.

अगर इस वित्‍त वर्ष में भारत की जीडीपी दर 6.9 फीसदी भी रहती है तो भी बीते तीन साल में भारत की औसत विकास दर केवल 2.8 फीसदी रहेगी जो कि बीते तीन साल की औसत विकास दर यानी 5.7 फीसदी का आधी है

अर्थात भारत का सकल घरेलू उत्‍पादन या बीते 36 महीनों में तीन फीसदी की दर से भी नहीं बढ़ा है. इसी का सीधा असर हमें खपत पर दिख रहा है. वित्‍त वर्ष 2024 की विकास दर अगर छह फीसदी से नीचे रहती है तो फिर चार साल तक देश के लोगों की कमाई में कोई खास बढ़त नजर नहीं आएगी. यही वजह है कि अब माना जा रहा है कि यदि 2023 में महंगाई 6 फीसदी से नीचे आ भी गई तो भी लोगों के पास कमाई नहीं होगी जिससे मांग को तेज बढ़त मिल सके. मांग के बि‍ना कंपनियां नया निवेश नहीं करेंगी तो रोजगार कहां बनेंगे. विकास दर के गिरने के साथ सरकार के लिए जीएसटी संग्रह में तेजी बनाये रखना मुश्‍क‍िल होगा.

यही तो जिद्दी स्‍टैगफ्लेशन है जो दीपू की बैलेंस शीट पर दस्‍तखत कर चुकी है. सरकार को अब कुछ और ही करना होगा क्‍यों कि महंगाई कम होने मात्र से मांग के तुरंत लौटने की उम्‍मीद नहीं है.

कमाई बढेगी तभी शायद बात बनेगी

 

 

Monday, February 6, 2017

ट्रंप बिगाड़ देंगे बजट

पिछले दो दशक में दुनिया के सभी आर्थिक उथल पुथल की तुलना में ट्रंप भारत की ग्‍लोबल सफलताओं के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन रहे हैं

सात-आठ साल पहले अटलांटा (जॉर्जियाअमेरिका) में कोका कोला के मुख्यालय की यात्रा के दौरान मेरे लिए सबसे ज्यादा अचरज वाला तथ्य यह था कि इस ग्लोबल अमेरिकी दिग्गज की करीब पंद्रह सदस्यीय ग्लोबल शीर्ष प्रबंधन टीम में छह लोग भारतीय थे. तब कोका कोला की भारत में वापसी को डेढ़ दशक ही बीता था और सिलिकॉन वैली में भारतीय दक्षता की कथाएं बनना शुरू ही हुई थीं. इसके बाद अगले एक दशक में दुनिया के प्रत्येक बड़े शहर के सेंट्रल बिजनेस डिस्ट्रिक्टयुवा भारतीय प्रोफेशनल्स की मौजूदगी से चहकने लगे क्योंकि भारत के दूरदराज के इलाकों में सामान्य परिवारों के युवा भी दुनिया में बड़ी कंपनियों में जगह बनाने लगे थे.
भारत की यह उड़ान उस ग्लोबलाइजेशन का हिस्सा है जिस पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप मंडराने लगे हैं.
बजटोत्तर अंक में ट्रंप की चर्चा पर चौंकिए नहीं!
बजट तो खर्च हो गया. कभी-कभी सरकार कुछ न करे तो ज्यादा बेहतर होता है. इस बजट में सरकार ने कुछ भी नहीं कियाकोई पॉलिसी एडवेंचरिज्म (नीतिगत रोमांच) नहीं. नोटबंदी के घावों को वक्त के साथ भरने के लिए छोड़ दिया गया है. इसलिए भारतीय अर्थव्यवस्था की बड़ी चिंता फीका बजट नहीं बल्कि एक अति आक्रामक अमेरिकी राष्ट्रपति है जो भारत की सफलताओं पर भारीबहुत भारी पडऩे वाला है.
पिछले 25 साल के आंकड़े गवाह हैं कि अगर भारत ग्लोबल अर्थव्यवस्था से न जुड़ा होता तो शायद विकास दर चार-पांच फीसद से ऊपर न निकलती. ग्लोबलाइजेशन भारतीय ग्रोथ में लगभग एक-तिहाई हिस्सा रखता है.
भारत की ग्रोथ के तीन बड़े हिस्से अंतरराष्ट्रीय हैं. 
पहलाः भारत में विदेशी निवेशजो बड़ी कंपनियांतकनीकइनोवेशन और रोजगार लेकर आया है.
दूसराः भारतवंशियों को ग्लोबल कंपनियों में रोजगार और सूचना तकनीक निर्यात.
तीसराः ारतीय शेयर बाजार में विदेशी निवेशकों का भरपूर निवेश.
डोनाल्ड ट्रंप इन तीनों के लिए ही खतरा हैं. 
विदेशी निवेश (डिग्लोबलाइजेशन)
दुनिया की दिग्गज कंपनियों का 85 फीसदी ग्लोबल निवेश 1990 के बाद हुआ. इसमें नए संयंत्रों की स्थापनानए बाजारों को निर्यातमेजबान देशों की कंपनियों का अधिग्रहण शामिल था. भारत सहित उभरती अर्थव्यवस्थाएं इस निवेश की मेजबान थीं. इसलिए 1995 के बाद से दुनिया के निर्यात में उभरती अर्थव्यवस्थाओं का हिस्सा और चीन-भारत का विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ता चला गया. बहुराष्ट्रीय निवेश का यह विस्तार और भारत का उदारीकरण एक तरह से सहोदर थे इसलिए दुनिया की हर बड़ी कंपनी ने भारतीय बाजार में निवेश किया.
ट्रंप डिग्लोबलाइजेशन के नए पुरोधा हैं. उनकी धमक से बाद भारत में सक्रिय बहुराष्ट्रीय कंपनियों की विस्तार योजनाएं व नए निवेश टल रहे हैं. अमेरिका अगर अपना बाजार बंद करेगा तो दुनिया के अन्य देश भी ऐसी ही प्रतिक्रिया करेंगे. अर्थव्यवस्थाएं संरक्षणवाद की राह पकड़ लेंगी और संरक्षणवाद की नीति युद्ध नीति जैसी होती हैजैसा कि ऑस्ट्रियन अर्थशास्त्री लुडविग वॉन मिसेस मानते थे. सरकार की ताजा आर्थिक समीक्षा भी ट्रेड वार के खतरे की घंटी बजा रही है.
रोजगार (संरक्षणवाद)
भारत के नए मध्यवर्ग की अगुआई सूचना तकनीक ने की है. कंप्यूटरों ने न केवल जिंदगी बदली बल्कि नई पीढ़ी को रोजगार भी दिया. आउटसोर्सिंग पर ट्रंप का नजला गिरने और नए वीजा नियमों के बाद भारत के हजारों मध्यमवर्गीय परिवारों में चिंता गहरा गई है. अमेरिकी वीजा दोबारा मिलना और वहां नौकरी मिलना तो मुश्किल है हीवीजा रहने तक भारत आकर वापस अमेरिका लौटना भी मुश्किल होने वाला है.
सूचना तकनीक व फार्मा भारत की सबसे बड़ी ग्लोबल सफलताएं हैंजो न केवल भारत में विदेशी निवेश लाईं बल्कि बड़े पैमाने पर प्रोफेशनल की कमाई (रेमिटेंस) भी भारत आई जो बाजार में मांग का आधार है. अगले दो साल के भीतर प्रशिक्षित मगर बेकार लोगों की जो भीड़ विदेश से वापस लौटेगी उसके लिए नौकरियां कहां होंगी?
मजबूत डॉलर (शेयर बाजार)
कमजोर डॉलर और सस्ते कर्ज ने भारत के शेयर बाजार को दुनिया भर के निवेशकों का दुलारा बना दिया. सन् 2000 के बाद भारत के वित्तीय बाजार में करीब दस लाख करोड़ रु. का विदेशी निवेश आया. लेकिन ट्रंप के आगमन के साथ ही अमेरिका में ब्याज दरें बढऩे लगीं. ट्रंप की व्यापार व बजट नीतियां डॉलर की मजबूती की तरफ इशारा करते हैं जो रुपए की कमजोरी की वजह बनेगा और भारत के वित्तीय निवेश पर असर डालेगा. यही वजह है कि इस बार शेयर बाजार मोदी के बजट के बजाए ट्रंप के फैसलों को लेकर ज्यादा फिक्रमंद थे.
भारत के लिए जब आक्रामक उदारीकरण के जरिए ग्लोबलाइजेशन के बचे-खुचे मौके समेटने की जरूरत थी तब वित्त मंत्री एक रक्षात्मक बजट लेकर आए हैं जो ग्लोबल चुनौतियों को पीठ दिखाता लग रहा है.