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Tuesday, December 8, 2009

महासंकट की उलटी गिनती!

अगर दिल कमजोर है तो इसे जरा संभल कर पढ़ें। यह एक खौफनाक असली कहानी है जो दुनिया के वित्तीय बाजारों में लिखी जा रही है। यह हारर स्टोरी समाचारी सुर्खियों की शक्ल में कभी भी और किसी भी वक्त दुनिया के सामने फट सकती है। यह यथार्थ मंदी दूर होने के मुगालतों को मसलने की कूव्वत रखता है और दुनिया को संकटों की एक अभूतपूर्व दुनिया में ले जा सकता है। हो सकता है आप यकायक अगली पंक्तियों पर भरोसा न करें मगर यह सच है कि .. 2010 में ब्रिटेन की सरकार कर्ज के संकट में फंस सकती है!! दो हजार दस का बरस दुनिया में सरकारों के दीवालिया होने का बरस हो सकता है!! अर्थात सावरिन डेट क्राइसिस!! मतलब सरकारों का डिफाल्टर होना यानी कि उस कर्ज को चुकाने में चूक जो सरकारों ने अपनी संप्रभु गारंटी के बदले लिया है। ..अतीत में अर्जेटीना को भुगत चुके वित्तीय बाजार के लिए ये जुमले महाप्रलय की भविष्यवाणियों से कम नहीं हैं। दुबई के डिफाल्टर होने के बाद पूरी दुनिया के कई देशों पर अचानक कर्ज संकट के प्रेत मंडराने लगे हैं। कम से कम आधा दर्जन छोटे बड़े देशों में कर्ज का पानी नाक तक आ गया है। इनमें कुछ तो जी 10 और जी 20 देश भी हैं यानी दुनिया के विकसित, बड़े और अमीर भी। वित्तीय बाजार के लिए यह एक महासंकट की उलटी गिनती है क्योंकि जैसे ही दुनिया के केंद्रीय बैंक ब्याज दरें बढ़ाना शुरू करेंगे तमाम देश कर्ज चुकाने में चूकने लगेंगे और यह चूक मुद्राओं के अवमूल्यन से होती हुई पता नहीं कहां जाकर रुकेगी।
दुबई तो नमूना है
वित्तीय बाजार कह रहा है कि दुनिया का एक बड़ा देश जल्द ही अपने कर्जो में डिफाल्टर होने वाला है? यह रूस है या फिर ब्रिटेन या कोई और? तकरीबन एक सप्ताह पहले मोर्गन स्टेनले दुनिया को यह विश्लेषण पेश कर दुनिया को चौंका दिया कि वर्ष 2010 में ब्रिटेन ऋण संकट में फंस सकता है। मोर्गन तो सिर्फ आशंका जाहिर कर रहा था, मगर स्टैंडर्ड एंड पुअर ने तो ब्रिटेन की साख को लेकन अपने आकलन को नकारात्मक कर दिया। वित्तीय बाजारों का सूत्रधार ब्रिटेन और रेटिंग एजेंसियों की नजर में साख नकारात्मक? ..हैरतअंगेज या सनसनीखेज? विशेषणों की कमी पड़ जाएगी। रूस भी कर्जो के जबर्दस्त दबाव में है खासतौर पर छोटी अवधि के कर्ज जो उसने तेल कीमतों में तेजी के दौर में अपनी चमकती साख के वक्त लिये थे, इनका भुगतान सर पर है। जर्मनी पर कर्ज का बोझ यूरोपीय बाजारों की सांस रोकने लगा है। जब बड़ों का यह हाल है तो फिर छोटों की कौन कहे? दरअसल दुबई का तूफान पश्चिम और पूरब के कई देशों की वित्तीय बदहाली को उघाड़ गया है। आयरलैंड की अर्थव्यवस्था कर्ज के तूफान में घिर रही है। बाल्टिक देश तो कर्ज के गर्त के सबसे करीब हैं। लाटविया शायद ही मुश्किलों से बचे। एस्टोनिया और लिथुआनिया पर विदेशी कर्ज उनके जीडीपी से ज्यादा हो गया है। बुल्गारिया और हंगरी भी इन्हीं देशों की जमात में हैं। इन छोटे देशों की हालत को हलके में मत लीजिए, एक दुबई की बर्बादी ने दुनिया की चूलें हिला दी हैं इनमें एक देश भी अगर अपनी संप्रभु देनदारियों में चूका तो वित्तीय बाजारों में हाहाकार मच जाएगा।
संकट की सुनामी
संकटों के वक्त हमेशा कुछ सर रेत में धंस जाते हैं। इस मौके पर भी ऐसा ही हो रहा है। दुनिया को मंदी से उबरने की मरीचिका दिखाई जा रही है, लेकिन वित्तीय बाजार में तो संकट की सुनामी बनती दिख रही है। यह संकट दरअसल पिछले कुछ वर्षो की उदार मौद्रिक नीतियों, वित्तीय अपारदर्शिता और बाजार में बहे अकूत पैसे से उपजा है। दुनिया जब सुखी थी या सुखी दिखने का नाटक कर सकती थी, तब सरकारों ने और सरकार की गारंटियों के सहारे कंपनियों ने वित्तीय बाजार से अंधाधुंध पैसा उठाया। मंदी आई तो रिटर्न के स्रोत सूख गए। इसलिए जब कर्ज की पहली देनदारी निकली तो बाजार ने दुबई जैसों को ज्यादा वक्त देने से मना कर दिया। कल बाजार औरों से किनारा करेगा। पूरी दुनिया में ब्याज दरें बढ़ने वाली हैं अर्थात देनदारियों को चुकाने के लिए नया कर्ज महंगा और मुश्किल होगा। इसलिए दुबई के बाद पूरी दुनिया में देशों की रेटिंग उलट-पलट गई है। दुनिया के कर्ज और कर्ज की दुनिया के बारे में दिलचस्पी रखते हैं, तो विश्व के के्रडिट डिफाल्ट स्वैप (के्रडिट डिफाल्ट स्वैप अर्थात सीडीएस वित्तीय बाजार के जाने पहचाने उपकरण हैं। यह एक तरह का बीमा है जो कि एक कर्ज देने वाली संस्था किसी दूसरी संस्था से लेती है। ताकि अगर लेनदार डिफाल्टर हो तो पैसा न डूबे। इसके लिए कर्ज देने वाला स्वैप देने वाले को प्रीमियम देता है।) बाजार की ताजी तस्वीर देखिए। छोटों की कौन कहे यहां तो बड़ों की साख पर बन आई है। चीन के सीडीएस छह फीसदी, रूस के 19 फीसदी, इंडोनिशया के 28 फीसदी महंगे हो गए हैं। दांतों तले उंगली दबाइए क्योंकि फ्रंास, जर्मनी, इटली, जापान, ब्रिटेन, स्पेन और यहां तक अमेरिका भी कर्ज बाजार के ऋण जोखिम के सूचकांकों पर खतरे वाली श्रेणियों में चमकने लगे हैं। इन मुल्कों में कर्ज और जीडीपी का अनुपात खतरनाक हो गया है। जर्मनी का कुल कर्ज अगले साल उसके उत्पादन के 77 फीसदी के बराबर हो जाएगा। ब्रिटेन में यह 80 फीसदी है तो जापान में यह 200 फीसदी पर पहुंच रहा है। अमेरिका में ट्रेजरी यानी सरकार के कुल कर्ज का करीब 44 फीसदी हिस्सा अगले एक साल में चुकाया जाना है। तभी तो दुनिया विशेष ऋण बाजार में अमेरिका की साख को मिली ट्रिपल ए रेटिंग पर हैरत के साथ हंस रही है।
बचाएगा कौन?
कर्ज संकटों के इतिहास से वाकिफ कोई व्यक्ति कह सकता है कि आईएमएफ किस दिन काम आएगा। मगर देशों के कर्ज संकट के दो पहलू हैं, एक विदेशी कर्ज और दूसरादेशी। लाटविया, एस्टोनिया जैसे देशों पर विदेशी कर्ज है। आईएमएफ इन्हें विदेशी मुद्रा देकर कुछ समय के लिए बचा सकता है। अलबत्ता आईएमएफ का इलाज लेने वाले देशों की वित्तीय साख का कचरा बन जाता है। अर्जेटीना इसकी ताजी नजीर है। आईएमएफ की मदद लेने वाले देशों की कंपनियां दुनिया के बाजार में अछूत बन जाती हैं। हो सकता है ब्रिटेन, जापान, जर्मनी को आईएमएफ की जरूरत न पड़े, लेकिन इनके संकट आईएमएफ सुलझा भी नहीं सकता। ये देश घरेलू कर्ज की जकड़ में हैं। इन्हें ज्यादा घरेलू मुद्रा छापकर कर्ज पाटना होगा या फिर टैक्स बढ़ाना और खर्च घटाना होगा। इनमें से हर कदम खतरों भरा है। भारी राजकोषीय घाटे और नोटों की छपाई देशी मुद्रा का अवमूल्यन करती है और सरकार को अपने बांड खरीदने वाले भी नहीं मिलते। कर बढ़ाना और खर्च घटाना, मांग कम करता है और कर चोरी बढ़ाता है।
और भारत ?. आप कह सकते हैं कि कुछ सुरक्षित है या कुछ अर्थो में कतई सुरक्षित नहीं है। सरकार भले ही कर्जदार न हो, लेकिन वित्तीय बाजार तो दुनिया से जुड़ा है, इसलिए संकट की सुनामी हमें डुबाए भले न, लेकिन झकझोर जरूर देगी। हमारे लिए इतना ही काफी है। देशों के ऋण संकट वित्तीय बीमारियों की फेहरिस्त में सबसे भयानक हैं। इसके इलाज आर्थिक शरीर को बुरी तरह तोड़ देते हैं और अर्थव्यवस्था तहस-नहस हो जाती है। अर्जेंटीना छह साल बाद आज भी घिसट रहा है और मेक्सिको को पुरानी रौ में आने में वक्त लगेगा। कभी-कभी यह लगता है कि दुनिया का वित्तीय एकीकरण फायदे से ज्यादा नुकसान का सौदा साबित हो रहा है। अर्जेटीना की सुनामी ने केवल लैटिन अमेरिका के बाजारों को हिलाया था मगर अब जो सुनामी बन रही है, वह पूरे भूमंडल के वित्तीय बाजारों को लपेट सकती है। वजह यह कि उदारीकरण के लाभ भले ही सामूहिक न हों, मगर गलतियां और नुकसान सामूहिक रहे हैं। इसलिए 2012 की फिक्र छोडि़ए.. 2010 वित्तीय बाजारों पर बहुत भारी पड़ सकता है।
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Tuesday, December 1, 2009

समृद्धि का नकलिस्‍तान

दुनिया का सबसे महंगा होटल, सबसे बड़ी शॉपिंग मॉल, रेगिस्तान के बीच आइस स्कीइंग का इंडोर स्टेडियम, समुद्र के बीच शानदार इमारत... पिछले करीब दो दशकों में दुनिया का बहुत कुछ शानदार ठीक हमारे पड़ोस में उगा है और वह भी रेत बीच जहां तेल तक नहीं था। अब इस स्वर्ग के ढहने की बारी है। दुबई तो इस साल की शुरुआत से ही ढह रहा है मगर हमें पता तब तक इसने अर्जेटीना की राह पकड़ ली जो इसे दीवालियेपन की तरफ ले जाती है। दुबई नई उदार दुनिया का एक ऐसा अनोखा मॉडल है जिसमें अपनी पूंजीवाद न्यूनतम अच्छाइयों और अधिकतम बुराइयों के साथ मुखरित हुआ था। अचल संपत्ति लालच, कर्ज और खोखले विकास का यह मॉडल जितने कम वक्त में उभरंा था उससे भी कम समय में जमींदोज होने लगा है। खरबों डॉलर के वित्तीय संकट के धुंऐ के छंटने की उम्मीद में वित्तीय दुनिया जब आंखे खोलने की कोशिश कर रही थी तब दुबई के बवंडर की रेत इसकी आंखों में भर गई है।
रेत के महल. सच में !
नकली विकास का क्या मतलब होता है? दुबई से अच्छा कोई सबक नहीं है। नखील.. यही तो नाम है दुबई की उस कंपनी का जिस कर्ज न चुका पाने से यह पूरी कहानी शुरु हुई है। समृद्धि का नखलिस्तान बनाने की कोशिश में लगी दुबई सरकार की यह कंपनी नकली विकास का प्रतीक बन कर उभरी है। दुबई पास सिर्फ तीन चीजें थीं। एक समृद्ध अरबी का पड़ोसी, दूसरी शेखों की सल्तनत जिसमें कानून बनाना व बदलना आसान था और एक दूरदर्शी व आधुनिक उदारता, जो अरब के अन्य मुल्कों में दुर्लभ थी। यह दुबई के शासक शेख मोहम्मद बिन राशिद अल मकतूम के परिवार को अन्य अरब शेखों से अलग करती है और चौथा खुद ब्रांड दुबई यानी कामयाब मार्केटिंग। इन चार के सहारे कोई देश लंबे समय तक नहीं खड़ा हो सकता अलबत्ता इन्होंने मिलकर दुबई को चुटकियों में कमाई कराने वाली मरीचिका जरुर बना दिया। तेल की नेमत से महरुम दुबई सत्तर के दशक तक महज एक बंदरगाह था। नब्बे के दशक में यह अमीर अरब देशों की बदौलत व्यापार का केंद्र बन गया। मगर दुबई की अचंभित कर देने वाली नई तस्वीर महज दस साल पहले बननी शुरु हुई थी। ऐसा मानने वालों की कमी नहीं है कि अमेरिका जब डब्लूटीसी ढहा तो दुबई में इमारतों के शिखर कंगूरे बनने शुरु हुए। आकलन है कि कानूनों में बदलाव और सख्ती से डरे अरब के समृद्ध निवेशक करीब एक खरब डॉलर वापस मध्य पूर्व में लाए थे और जिन्होंने अचल संपत्ति के कारोबार को चमका दिया। रुस के अमीरों ने इसे बढ़ाया और ब्रिटेन डेवलपरों व फाइनेंसरों को इसमें मोटी कमाई मिली जिनके पीछे लंदन का उदार वित्तीय बाजार खड़ा था। 2003 के ईराक युद्ध के बाद तेल से कमाने वालों का अकूत धन भी इस कथित स्वर्ग में लगा और कुछ वर्षों के भीतर दुबई में इतना कुछ बन गया कि देखने वाले हैरत में पड़ गए। चाहे वह बुर्ज अल अरब होटल हो या समुद्र के बीच बन रहा नखील का स्वप्निल पाम जुमेरा या मरुस्थल के बीच स्कीइंग अथवा 1.5 अरब डॉलर की लागत से होटल अटलांटिस जिसकी उद्घाटन पार्टी पर ही 20 लाख डॉलर खर्च हुए थे। दुनिया की 25 फीसदी विशालयकाय क्रेनें अकेले दुबई में खपने लगीं और निर्माण के आधुनिक आश्चर्य डिस्कवरी व नेट जिओ जैसे चैनलों की नियमित कथाओं में बदल गए। छोटे से दुबई में इस साल फरवरी तक करीब 4000 इमारतें बन रही थीं।
छोटा नहीं है यह बवंडर
दुबई का संकट विशुद्ध रुप से अचल संपत्ति का है दुबई के पास इसके अलावा कुछ है भी नहीं। जमीन और भवनों की बेसिर पैर कीमतें। मकान बनने से पहले ही कई बार बिक जाना और अंधाधुंध मुनाफा। अकेले इस साल दुबई में 60,000 अपार्टमेंट बिकने को तैयार थे। मंदी से मांग घटी और सब कुछ ढह गया बचा सिर्फ कर्ज और बेकारी। इस साल फरवरी में जब बुर्ज दुबई ने 2.5 अरब डॉलर के कर्ज के लिए रिफाइनेंस की अर्जी डाली थी तभी से यह स्पष्ट हो गया था कि दुबई में अचल संपत्ति का गुब्बारा फूटने की तरफ बढ़ रहा है। बुर्ज को अमीरात के दो बैंकों ने मदद की लेकिन कुछ माह के भीतर ही नखील के लिए कर्ज मुश्किल बनने लगा और जोखिम भरी रेटिं" के कयास लगने लगे। इस वक्त दुबई की कई सरकारी व गैर सरकारी कंपनियां और दुबई वाटर एंड इलेक्टिसिटी अथॉरिटी कर्ज भुगतान टलवाने वालों की कतार में आ गए थे। अगर कोई इसे सिर्फ 80 अरब डॉलर का संकट मान रहा है तो वह गलती पर है। यह कर्ज सिर्फ नखील और दुबई व‌र्ल्ड या डीपी व‌र्ल्ड जैसे सरकारी डेवलपरों का है। इससे कहीं ज्यादा कर्ज लेकर निजी कंपनियां वहां आई थीं और इमारतें बना रहीं थीं। दुबई का संकट इसलिए गहराने वाला है क्यों कि इसमे केवल अरब के धनकुबेरों का नहीं पैसा नहीं लगा तमाम बैंकरों, वित्तीय संस्थाओं, ने शेयर व बांड बाजारों से पैसा जुटा कर भी नकली स्वर्ग लगाया है। दुबई में यह बीमारी 'यादा बड़ी है, मगर कतर और अबूधाबी में पिछले कुछ सालों में दुबई की नकल गई है। पूरे अमीरात में बन रही लगभग आधी अचल संपत्ति परियोजनायें बंद हो गई हैं। जिनकी संयुक्त लागत 582 अरब डॉलर है। इनमें बहुचर्चित पाम जुमेरा सहित स्नोडोम और दुबई के इर्द गिर्द अरब कैनाल जैसी परियोजनायें भी हैं। कतर में भी मुश्किल है और कुवैत का एक बड़ा निवेश बैंक इस साल की शुरुआत में दो करोड़ डॉलर के कर्ज में डिफाल्टर हो चुका है। यानी कि यह रोग अरब में और फैलेगा और मारेगा उन प्रवासियों जो यहां अपनी जीविका के लिए आए थे।
शानदार गलतियां करने की कला
दुबई ने उन गलतियों को ज्यादा भव्य और बेफिक्री के साथ किया जिन्हें अन्य देश पहले से करते आए हैं। यानी अचल संपत्ति पर आधारित विकास और कर्ज का सहारा। मगर दुबई का पूरा आर्थिक मॉडल एक मामले में दुनिया में अनोखा और सबसे ज्यादा जोखिम भरा हो गया। दुबई ने अपने इस पूरे विकास में जिन्हें बाजार बनाया वह दुनिया का बहुत समृद्ध तबका था। जबकि कर्ज और अचल संपत्ति के जोखिम को कम से एक बड़ा देशी बाजार तो चाहिए ही। मगर दुबई की अधिकांश आबादी प्रवासियों की है जो सिर्फ काम करने के लिए आए हैं। विकास के बेहद महंगे मॉडल को इस महंगे मॉडल को थामने के लिए न तो देश के भीतर कोई बड़ा बाजार था और कोई दूसरा उद्योग। देश की अधिकांश आबादी प्रवासियों की है। बन रहे भवनों, होटलों या मॉल में जिनके लिए कोई जगह नहीं है। दुबई के पास कोई प्राकृतिक संसाधन या निर्यात भी नहीं है। विदेशी मुद्रा का स्रोत पर्यटन व सेवायें हैं, जिनका बाजार बहुत संवेदनशील है। इसलिए जब मंदी आई तो बड़े ग्राहक किनारा कर "ए और कर्जदारों ने अंगूठा दिखा दिया। दुबई पड़ोसी भी अपनी साख का लेकर चिंतित हैं इसलिए मदद पता नहीं कितनी होगी।
मार्केटिंग की दुनिया का प्रिय जुमला है कि अगर कोई कहानी किसी खास ढंग से सुनाई जाए तो यह भी एक अच्छा कारोबार है.. दुबई ने दुनिया को अपनी कहानी बहुत कायदे से सुनाई। दुबई पिछले दशक की सबसे बड़ी ब्रांडिंग सफलता है। संसाधनों से महरुम दुबई ने बहुत नपे तुले ढंग से स्वयं दुनिया की सबसे भव्य, सुंदर, सर्वश्रेष्ठ, आरामदेह और प्रतिष्ठित जिंदगी देने वाले देश के रुप में और प्रस्तुत किया। ब्रांड दुबई ने दुनिया के हर बड़े चर्चित व्यक्ति को खींचा नतीजतन तमाम तरह की अनोखी परियोजनायें जो कभी नहीं बनीं मगर चर्चा में रहीं। दुबई सिंगापुर की तरह एक व्यापार केंद्र बनने निकला था और अंतत: बन गया अचल संपत्ति का कैसिनो यानी जुआघर। दुनिया को सीखना चाहिए कि कुछ लाख अरबपतियों के बसने या सबसे भव्य इमारतो से कोई अर्थव्यवस्था मजबूत नहीं होती। माफ कीजिये! दुबई ने जल्दी ढह कर दुनिया पर उपकार किया है।
anshumantiwari@del,jagran.com