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Monday, July 5, 2010

सियासत के सलीब

अर्थार्थ
दोषियों से दोस्ती भी और पीडि़तों की अगुआई भी। दोनों काम एक साथ। चिढ़ते रहिए आप, मगर यह विशेषाधिकार सिर्फ सियासत और सत्ता को मिला है। माहौल बदलते ही सियासत गलती करने वालों से गलबहियां छोड़कर, मुंसिफ बन जाती है। दुनिया भर की सरकारें आजकल इसी भूमिका में हैं। अमेरिका में व्हाइट हाउस से लेकर लंदन में टेन डाउनिंग स्ट्रीट और ऑस्ट्रेलिया तक सलीबों की सप्लाई अचानक बढ़ गई है। ब्रिटेन के नए प्रधानमंत्री डेविड कैमरून ने बैंकों को अरबों पौंड के नए टैक्स की सूली पर टांग दिया है। अमेरिका, जर्मनी व फ्रांस भी बैंकों के लिए यही सजा मुकर्रर करने वाले हैं। व्हाइट हाउस ने पेट्रोल कंपनी बीपी को आर्थिक जुर्माने की सलीब पर चढ़ा दिया है। टोयोटा पहले से कठघरे में खड़ी है। दरअसल यह सूलियां सजाने का मौसम है, जिसमें बाजार के बादशाहों के खजाने निशाने पर हैं। मगर अपना मुल्क इस मामले में कुछ अलग है। घोटालों में झुलसे लोगों का दर्द गवाह है कि हम कायदे से सजा भी नहीं दे पाते। 26 साल पुराने भोपाल हादसे का दाग भी अपने ही बजट से धोने जा रहे हैं यानी कि करदाता सूली पर चढ़ेंगे। शर्मिदगी से बचने के लिए हम बस, खुद को सजा दे लेते हैं।
बुरे फंसे बैंक
सरकारें इस समय ताजा वित्तीय संकट के मुजरिम तय करने में जुटी हैं। कोशिश जल्द से जल्द सजा देने की है ताकि अपना दामन बचा रहे। बैंक व वित्तीय संस्थाएं पुराने पापी हैं। सरकारों की निगाह में इनका एडवेंचर दुनिया को महंगा पड़ा है। बैंकों को डूबने से बचाने पर सरकारें नौ ट्रिलियन (सोलह शून्य वाली संख्या) डॉलर तक खर्च चुकी हैं। इसलिए सजा भी माकूल होनी चाहिए। ब्रिटेन की नई सरकार के चांसलर जॉर्ज ऑसबोर्न ने ताजा बजट में बैंकों से दो बिलियन पौंड वसूलने का इंतजाम कर दिया है। जर्मनी व फ्रांस के शिकंजे भी बन चुके हैं। अमेरिका में कानून तैयार है, हालांकि लामबंदी जारी है, मगर टैक्स लगना तय है क्योंकि बैंक व वित्तीय संस्थाएं लामबंदी व रसूख में चाहे जितने मजबूत हों, सियासत में राजनेताओं को नहीं पछाड़ सकते। नेताओं ने बहुत सफाई के साथ टैक्स लगा भी दिया और टैक्स लगाने की सामूहिक (जी 20 की बैठक) तोहमत भी नहीं ली। अंतरराष्ट्रीय मंच से कर लगने का ऐलान शेयर बाजारों को तोड़ कर बैंकों की चीख पुकार को ऊंचा कर देता। इसलिए जी 20 ने बैंक टैक्स पर खुलकर बात ही नहीं की और देशों को टैक्स लगाने के लिए आजाद कर दिया। वैसे भी अमेरिका व यूरोप के प्रमुख देशों में इसकी शुरुआत पहले ही हो चुकी थी। इसके बदले बैंकों पर दूसरा सामूहिक शिकंजा कसा जा रहा है। बैंकिंग के कामकाज को सख्त पाबंदियों में बांधने वाले बेसिल नियमों की तीसरी पीढ़ी तैयार है। टैक्स के बाद बचा हुआ काम ये नियम कर देंगे। इसके बाद बैंक व वित्तीय संस्थाओं के लिए जोखिम लेकर मुनाफा कमाने के रास्ते बहुत संकरे हो जाएंगे।
माफी का मौका नहीं
अमेरिका नामक सबसे उदार बाजार ने पिछले कुछ महीनों में प्रमुख कार कंपनी टोयोटा के अध्यक्ष अकीयो टोयोदा को वस्तुत: आठ आठ आंसू रुला दिए। शेयरधारकों ने बाकायदा बैठक में झिड़का कि टोयोदा महोदय आप सुबकते हुए अच्छे नहीं लगते। टोयोटा की कारों के एक्सीलरेटर पैडल खराब थे। कारें अचानक तेज दौड़ पड़ती थीं। अमेरिका में हादसे हुए तो मामला गरमाया और टोयोदा को अपराधियों की तरह अमेरिकी संसद की समिति के सामने पेश होना पड़ा। पूरी दुनिया में एक करोड़ कारें वापस ली गई। कंपनी मुकदमे लड़ रही है और हर्जाना दे रही है। कमाई को दो बिलियन डॉलर की चपत लग चुकी है। टोयोटा के कर्मचारियों का वेतन दस फीसदी घटाया गया है। मैक्सिको की खाड़ी में बहते तेल में डूब रही बीपी का किस्सा सबको मालूम है। ओबामा ने कंपनी की गर्दन पकड़कर 20 बिलियन डॉलर का चेक ले लिया। बीपी अब लंबी मुकदमेबाजी के लिए तैयार हो रही है। सजा देने का यह मानसून ऑस्ट्रेलिया तक पहुंच चुका है। प्रधानमंत्री केविन रड ने मंदी को देखते हुए देश के सबसे ताकतवर खनन उद्योग पर 40 फीसदी टैक्स लगाया तो कुर्सी खिसक गई। नई प्रधानमंत्री जूलिया गिलार्ड ने कुछ रियायत दी है, मगर टैक्स कायम है। बाजार को याद है कि जब मौका आया तो अमेरिका ने 246 बिलियन डॉलर का हर्जाना वसूल लिया और सिगरेट कंपनियां मिमियाती रह गई।
सजा की सियासत
सिगरेट कंपनियों से वसूली गई मोटी रकम में कितनी लोगों की सेहत सुधारने पर खर्च हुई या बीपी से मिले 20 बिलियन डॉलर कहां जाएंगे, इस पर अमेरिका में भी दर्जनों सवाल हैं। आप बेशक कह सकते हैं कि अमेरिकी सरकार ने पिछले साल एआईजी, फेनी मे और फ्रेडी मैकजैसी कंपनयिों को बचा लिया था। जबकि आज गोल्डमैन सैक्श, बीपी आदि को सजाएं सुनाई जा रही है। जी हां, यही तो सियासत है। वक्त बदला तो दुनिया का सबसे उदार बाजार कंपनियों के लिए सबसे क्रूर हो गया। मगर भारत को तो सजा देते हुए दिखना भी नहीं आता। सबसे ताकतवर राजनीतिक परिवार को लपेट में आता देख हमारी सरकार ने अचकचाकर भोपाल का हर्जाना 26 साल बाद अपने ही गले बांध लिया। कार्बाइड तो गई, अब गलती का बिल (1500 करोड़ रुपये का पैकेज) बजट यानी करदाता चुकाएंगे। उदारीकरण के बाद भारत में एक दर्जन से ज्यादा बड़े घोटालों में हजारों लोगों ने अपने हाथ जलाए हैं, लेकिन हर्जाना दिलाने का यहां कोई रिवाज नहीं है। दूसरी तरफ जमीन मकान के बाजार में फर्जीवाड़ा खुलने और जनता के गुस्साने के बाद ओबामा का प्रशासन सब प्राइम प्रॉपर्टी बाजार में धोखाधड़ी करने वालों के खिलाफ ऑपरेशन स्टोलेन ड्रीम चला रहा है। 191 मामले दर्ज हो चुके हैं और 147 मिलियन डॉलर की रिकवरी हो चुकी है। मतलब यह कि बात जब राजनीति के दामन तक पहुंचे किसी को भी टांगा जा सकता है।
दुनिया में कोई यह कभी नहीं जान पाएगा कि लीमन ब्रदर्स सहित दर्जनों बैंक अपनी गलती से डूबे या सरकारों अर्थात नियामकों की लापरवाही से। बीपी के कुएं से तेल का बहना कंपनी की चूक थी या सरकारी देखभाल की। जनता चाहे कहीं की भी हो, अपनी कमजोर याददाश्त की वजह से सिर्फ हादसे या घोटाले और उनके नतीजे या उपचार याद रख पाती है। यही वजह है कि पश्चिम की सियासत का इंसाफ बीपी, टोयोटा पर जुर्माने या बैंक टैक्स के तौर पर दुनिया को दिख जाता है। जबकि हमारे यहां दोषी नहीं, बल्कि पीडि़त ही सजा पाता है। दरअसल हम जरा कच्चे हैं। भारत की व्यवस्था न तो हादसे या घोटाले रोक पाती है और न ही इंसाफ देती नजर आती है। हमारी सियासत बस पूरे मामले में अपने हाथ काले कर लेती है और बाद में उन्हीं हाथों के पीछे मुंह भी छिपा लेती है। ..हमें कुछ सीखना चाहिए।
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