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Friday, June 10, 2022

असली ताकत तो इधर है




अमेरिकी राष्‍ट्रपतियों के इतिहास में, जो बाइडेन को क्‍या जगह मिलेगी, यह वक्‍त पर छोड़‍िये फिलहाल तो ब्‍लादीम‍िर पुतिन  की युद्ध लोलुपता से अमेरिका को वह एक ध्रुवीय दुनिया गढ़ने का मौका मिल गया है जिसकी कोश‍िश में बीते 75 बरस में. अमेरिका के 13 राष्‍ट्रपति इतिहास बन गए.

आप यह मान सकते हैं क‍ि युद्ध के मैदान में रुस का खेल अभी खत्‍म नहीं हुआ है लेक‍िन युद्ध के करण बढी महंगाई के बाद ग्‍लोबल मुद्रा बाजार में अमेरिकी डॉलर अब अद्व‍ितीय है. मुद्रा बाजार में अन्‍य करेंसी के मुकाबले अमेरिकी डॉलर की ताकत बताने वाला डॉलर इंडेक्‍स 20 साल के सर्वोच्‍च स्‍तर पर है.

अमेरिका ने फ‍िएट करेंसी (व्‍यापार की आधारभूत मुद्रा) की ताकत के दम पर रुस के विदेशी मुद्रा भंडार को (630 अरब अमेर‍िकी डॉलर) को बेकार कर दिया है. पुतिन का मुल्‍क ग्‍लोबल व‍ित्‍तीय तंत्र से बाहर है. इसके बाद तो चीन भी लड़खड़ा गया है.

विश्‍व बाजार में अमेरिकी डॉलर की यह ताकत निर्मम है और चिंताजनक है.

एसे आई ताकत

अमेर‍िकी डॉलर का प्रभुत्‍व जिस इतिहास की देन है अब फिर वह नई करवट ले रहा है.

दूसरे विश्‍व युद्ध में पर्ल हार्बर पर जापानी हमले ने दुनिया की मौद्रिक व्‍यवस्‍था की बाजी पलट दी थी. इससे पहले तक अमेरिका दूसरी बड़ी जंग में  सीधी दखल से दूर था. जापान की बमबारी के बाद, ब्रिटेन के प्रधानमंत्री विंस्‍टन चर्चिल जंगी जहाज लेकर अमेरिका पहुंच गए और तीन हफ्ते के भीतर अमेरिका को युद्ध में दाख‍िल हो गया. यह न होता तो हिटलर शायद ब्रिटेन को भी निगल चुका होता.

जुलाई 1944 में ब्रेटन वुड्स समझौता हुआ. गोल्‍ड स्‍टैंडर्ड के साथ (अमेरिकी डॉलर और सोने की विन‍िमय दर) आया. दुनिया के देशों ने अमेरिकी डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडान बनाना शुरु कर दिया. 1945 में हिटलर की मौत और दूसरे विश्‍व युद्ध की समाप्‍त‍ि से पहले ही अमेरिकी डॉलर का डंका बजने लगा था.

अमेरिकी में आर्थि‍क चुनौतियों और फ्रांस के राष्‍ट्रपत‍ि चार्ल्‍स ड‍ि गॉल के कूटनीतिक वार के बाद अमेरिकी राष्‍ट्रपत‍ि रिचर्ड निक्‍सन ने 1971 में गोल्‍ड स्‍टैंडर्ड तो खत्‍म कर दिया लेक‍िन तब तक अमेरिकी डॉलर दुनिया की जरुरत बन चुका था. 

डॉलर कितना ताकतवर

अमेरिकी डॉलर की ताकत है कितनी? बकौल फेड रिजर्व ग्‍लोबल जीडीपी में अमेरिका का हिस्‍सा 20 फीसदी है मगर मुद्रा की ताकत देख‍िये क‍ि दुनिया में विदेशी मुद्रा भंडारों में अमेरिकी डॉलर का हिस्‍सा (2021) करीब 60 फीसदी था.

डॉलर, अमेरिका की दोहरी ताकत है. व्‍यापार व निवेश के जरिये विदेशी मुद्रा भंडारों में पहुंचे अमेरिकी डॉलरों का का निवेश अमेरिकी बांड में होता है. अमेरिकी फेडरल रिजर्व की तरफ से जारी कुल बांड में विदेशी निवेशकों का हिस्‍सा 33 फीसदी है. यूरो, ब्रिटिश पौंड और जापानी येन के बांड में निवेश से कहीं ज्‍यादा.  मौद्रिक साख और ताकत का यह मजबूत चक्र टूटना  मुश्‍क‍िल है.

 नकदी के तौर पर भी डॉलर खूब इस्‍तेमाल होता है 2021 की पहली ति‍माही में करीब 950 अरब अमेरिकी डॉलर के बैंकनोट दुनिया विदेश में थे यह बाजार में उपलब्‍ध कुल नकद अमेरिकी डॉलर का लगभग आधा है.

विश्‍व के लगभग 80% निर्यात इनवॉयस, 60% विदेशी मुद्रा बांड और ग्‍लोबल बैंकिंग की करीब 60% देनदारियां भी अमेरिकी डॉलर में हैं.

विकल्‍प क्‍या 

दुनिया के देश एक दूसरे अपनी मुद्राओं में विनिमय क्‍यों नहीं करते ? क्‍यों क‍ि दुनिया की कोई अमेरिकी डॉलर नहीं हो सकती.

पहली शर्त है मुद्रा की साख-  करेंसी के की पीछे मजबूत राजकोषीय व्‍यवस्‍था ही करेंसी स्‍टोर वैल्‍यू बनाती है . एक दशक पहले तक यूरो को अमेरिकी डॉलर का प्रतिद्वंद्वी माना गया था लेकि‍न यूरो के पीछे कई छोटे देशों की अर्थव्‍यवस्‍थायें हैं. किसी भी एक देश में उथल पुथल से यूरो लड़खड़ा जाता है.

विदेशी मुद्रा भंडारों में यूरो का हिस्‍सा केवल 21 फीसदी है.  ब्रिटिश पाउंड, जापानी येन, युआन का हिस्‍सा और भी कम है. 

मुद्रा का मुक्‍त रुप से ट्रेडेबल या व्‍यापार योग्‍य दूसरी शर्त है इसी से  करेंसी की करेंसी यानी गति तय होती है. चीन का युआन दावेदार नहीं बन पाता.  दुनिया का सबसे बडा निर्यातक अपनी करेंसी को कमजोर रखता है, मुद्रा संचालन साफ सुथरे नहीं हैं. इसलिए युआन को विदेश्‍ी मुद्रा भंडारों में दो फीसदी जगह भी नहीं मिली है.

मुद्रा की स्‍थ‍िरता सबसे जरुरी शर्त है. 2008 के वित्‍तीय संकट के बाद मुद्रा स्‍थ‍िरता सूचकांक में अमेरिकी डॉलर करीब 70 फीसदी स्‍थिर रहा है, यूरो 20 फीसदी पर है. येन और युआन काफी नीचे हैं. स्‍थ‍िरता अमेरिकी डॉलर बडी ताकत है.

क्रिप्‍टोकरेंसी के साथ डॉलर के विकल्‍प की कुछ बहसें शुरु हुईं थीं. अलबत्‍ता कोविड के बाद  क्रिप्‍टोकरेंसी बुलबुला फूट गया और रुस पर प्रतिबंधों से डॉलर की क्रूर रणनीतिक ताकत भी सामने आ गई.

इतिहास की वापसी 

अमेरिकी डॉलर का प्रभुत्‍व दूसरे विश्‍व के बाद पूरी तरह स्‍थाप‍ित हो गया था.  डॉलर की ताकत के दम पर यूरोप की मदद के लिए 1948 में अमेरिका ने 13 अरब डॉलर का मार्शल प्‍लान (वि‍देश मंत्री जॉर्ज सी मार्शल)   लागू किया था. युद्ध से तबाह यूरोप के करीब 18 देशों को इसका बड़ा लाभ मिला. हालांक‍ि यही प्‍लान शीत युद्ध की शुरुआत भी था. यूरोप में रुस व अमेरिकी खेमों में नाटो (1948-49) और वारसा संधि (1955) में बंट गया.

अब फिर महामारी और युद्ध का मारा यूरोप अमेरिका ऊर्जा व रक्षा जरुरतों के लिए अमेरिका पर निर्भर हो रहा है डॉलर की इस नई ताकत के सहारे अमेरिकी राष्‍ट्रपति जो बाइडेन एक तरफ यूरोप को रुस के हिटलरनुमा खतरे बचने की गारंटी दे रहे है तो दूसरी तरफ एश‍िया में चीन डरे देशों नई छतरी के नीचे जुटा रहे हैं.  अमेरिकी डॉलर की बादशाहत इन्‍हीं हालात से निकली थी.  महंगा होता अमेरिकी कर्ज डॉलर को नई मौद्रिक ताकत दे रहा है. इसलिए यूरो, युआन,रुपया सबकी हालत पतली है.

विदेशी मुद्रा बाजार वाले कहते हैं डॉलर अमेरिका का सबसे मजबूत सैन‍िक है. यह कभी नहीं हारता. दूसरी करेंसी को बंधक बनाकर वापस अमेरिका के पास लौट आता है


Tuesday, July 7, 2015

ग्रीक ट्रेजडी के भारतीय मिथक

ग्रीस की ट्रेजडी को घटिया गवर्नेंस व सियासत ने गढ़ा है. ग्रीस के ताजा संकट के कई मिथक भारत से मिलते हैं 

ग्रीस की पवित्र वातोपेदी मॉनेस्ट्री के महंत इफ्राहीम व देश के शिपिंग मंत्री की पत्नी सहित 14 लोगों को पिछले साल नवंबर में जब ग्रीक सुप्रीम कोर्ट ने धोखाधड़ी का दोषी करार दिया, तब तक यह तय हो चुका था कि ग्रीस (यूनान) आइएमएफ के कर्ज में चूकने वाला पहला विकसित मुल्क बन जाएगा और दीवालिएपन से बचने के लिए उसे लंबी यंत्रणा झेलनी होगी. आप कहेंगे कि 10वीं सदी की क्रिश्चियन मॉनेस्ट्री का ग्रीस के संकट से क्या रिश्ता है? दरअसल, ट्रेजडी का पहला अंक इसी मॉनेस्ट्री ने लिखा था. महंत इफ्राहीम ने 2005 में नेताओं व अफसरों से मिलकर एक बड़ा खेल किया. उन्होंने मॉनेस्ट्री के अधिकार में आने वाली विस्तोनिदा झील ग्रीक सरकार को बेच डाली और बदले में 73 सरकारी भूखंड व भवन लेकर वाणिज्यिक निर्माण शुरू कर दिए.
इन कीमती संपत्तियों में एथेंस ओलंपिक (2004) का जिम्नास्टिक स्टेडियम भी था. 2008 में इसके खुलासे के साथ न केवल तत्कालीन सरकार गिर गई बल्कि भ्रष्टाचार, क्रोनी कैपिटलिज्म व सरकारी फर्जीवाड़े की ऐसी परतें उघड़ीं कि ग्रीस दीवालिएपन की कगार पर टंग गया. ग्रीस, तकनीकी तौर पर मंदी से उपजे कर्ज संकट का शिकार दिखता है लेकिन दरअसल उसकी ट्रेजडी को घटिया गवर्नेंस व सियासत ने गढ़ा है. ग्रीस के ताजा संकट को पढ़ते हुए इस एहसास से बचना मुश्किल है कि भारत में कई ग्रीस पल रहे हैं.
बीते सप्ताह बैंक के बंद होने के बाद ग्रीस की ट्रेजडी का कोरस शुरू हो गया था. कर्ज चुकाने में चूकना किसी देश के लिए घोर नर्क है. तबाही की शुरुआत देश की वित्तीय साख टूटने व खर्च में कटौती से होती है और बैंकों की बर्बादी से दीवालिएपन तक आती है. ग्रीस का पतन 2008 में शुरू हुआ. 2010 के बाद यूरोपीय समुदाय व आइएमएफ ने 240 अरब यूरो के दो पैकेज दिए, जिसमें 1.6 अरब यूरो की देनदारी बीते मंगलवार को थी, ग्रीस जिसमें चूक गया. ताजा डिफॉल्ट के साथ 1.1 करोड़ की आबादी वाला ग्रीक समाज वित्तीय मुश्किलों की लंबी सुरंग में उतर गया है. अब उसे कठोर शर्तें मानकर खर्च में जबरदस्त कटौती करनी होगी या खुद को दीवालिया घोषित करते हुए उस निर्मम दुनिया से निबटना होगा है जहां सूदखोर शायलॉक की तरह कर्ज वसूला जाता है. हाल का सबसे बड़ा डिफॉल्टर अर्जेंटीना पिछले एक दशक से यह आपदा झेल रहा है.
ग्रीस के संकट की वित्तीय पेचीदगियां उबाऊ हो सकती हैं लेकिन इस ट्रेजडी के कारणों में भारत में दिलचस्पी जरूर होनी चाहिए. वहां के सबसे बड़े जमीन घोटाले को अंजाम देने वाले वातोपेदी मॉनेस्ट्री को ही लें, जो उत्तर माउंट एटॉस प्रायद्वीप पर स्थित है और बाइजेंटाइन युग से ऑर्थोडॉक्स क्रिश्चियनिटी का सबसे पुराना केंद्र है. वित्तीय संकटों के अध्येता माइकल लेविस अपनी किताब बूमरैंग में लिखते हैं कि महंत इफ्राहीम इतना रसूखदार था कि वह एक ग्रीक बैंकर के साथ वातोपेदी रियल एस्टेट फंड बनाने वाला था. झील के बदले उसने जो सरकारी संपत्तियां हासिल कीं उनका दर्जा (लैंड यूज) बदलकर उन्हें वाणिज्यिक किया गया ताकि उन पर आधुनिक कॉम्प्लेक्स बनाए जा सकें. वातोपेदी मठ की यह कथा क्या आपको भारत के वाड्रा, आदर्श घोटाले अथवा धर्म ट्रस्टों के जमीन घोटालों की सहोदर नहीं लगती?
हेलेनिक या पश्चिमी सभ्यता के गढ़ ग्रीस की बदहाली बताती है कि सरकारें जब सच छिपाती हैं तो कयामत आती है. यूरोमुद्रा अपनाने के लिए ग्रीस को घाटे व कर्ज को (यूरोजोन ग्रोथ ऐंड स्टेबिलिटी पैक्ट) को काबू में रखने की शर्तें माननी थीं. इन्हें पूरा करने के लिए सरकार ने कई तरह के ब्याज, पेंशन, कर्जों की माफी, स्वास्थ्य सब्सिडी आदि भुगतानों को बजट से छिपा लिया और घाटे को नियंत्रित दिखाते हुए बाजार से खूब कर्ज उठाया. यूरोपीय समुदाय के आंकड़ा संगठन (यूरोस्टैट) की पड़ताल में पता चला कि 2009 में देश का घाटा जीडीपी के अनुपात में 12.5 फीसदी था जबकि सरकार ने 3.7 फीसदी होने का दावा किया था. इसके बाद देश की साख ढह गई. भारत के आंकड़ों में तो इतने फर्जीवाड़े हैं कि एक दो नहीं दसियों ग्रीस मिल जाएंगे. 
माइकल लुइस बूमरैंग में एक कंस्ट्रक्शन कंपनी का जिक्र करते हैं, जिसने एथेंस शहर में कई बड़ी इमारतें बनाकर बेच डालीं और एक भी यूरो का टैक्स नहीं दिया जबकि उस पर करीब 1.5 करोड़ यूरो के टैक्स की देनदारी बनती थी. इस फर्म ने दर्जनों छोटी कंपनियां बनाईं, फर्जी खर्च दिखाए और अंततः केवल 2,000 यूरो का टैक्स देकर बच निकली. ग्रीस में टैक्स चोरी के नायाब तरीके भले ही यूरोप व अमेरिका में दंतकथाओं की तरह सुने जाते हों लेकिन एथेंस की कंस्ट्रक्शन कंपनी की कर चोरी जैसे कई किस्से तो भारत में आपको एक अदना टैक्स इंस्पेक्टर सुना देगा.
 ग्रीस के बैंक उसकी त्रासदी का मंच हैं और बैंकों के मामले में भारत व ग्रीस में संकट के आकार का ही अंतर है. यूरोपीय बैंक अगर जोखिम भरे निवेश में डूबे हैं तो भारतीय बैंक सियासी-कॉर्पोरेट गठजोड़ में हाथ जला रहे हैं. भारतीय बैंक करीब तीन लाख करोड़ का कर्ज फंसाए बैठे हैं, जिनमें 40 फीसदी कर्ज सिर्फ 30 बड़ी कंपनियों पर बकाया है. भारत में बैंक नहीं डूबते क्योंकि सरकार बजट से पैसा देती रही हैं. देशी बैंक जमाकर्ताओं के पैसे से सरकार को कर्ज देते हैं और फिर सरकार उन्हें उसी पैसे से उबार लेती है. दरअसल यह आम लोगों की बचत या टैक्स भुगतान ही हैं जो बैंकों, सरकार व चुनिंदा कंपनियों के बीच घूमता है.
सरकारों का डिफॉल्टर होना नया नहीं है. दुनिया ने 1824 से 2006 के बीच 257 बार सॉवरिन डिफॉल्ट देखे हैं. दिवालिएपन पर आर्थिक शोध का अंबार मौजूद है, जिसे पढ़े बिना भी यह जाना जा सकता है कि यह त्रासदी सिर्फ वित्तीय बाजार की आकस्मिकताओं से नहीं आती बल्कि खराब गवर्नेंस, भ्रष्टाचार व वित्तीय अपारदर्शिता देशों मोहताज बना देती है.
यूरोप में कहावत है कि ग्रीस हमेशा अपनी क्षमता से बड़ा इतिहास बनाता है. उसने इस बार भी निराश नहीं किया. भारत व ग्रीस अब सिर्फ मिथकों या इतिहास के आइने में एक जैसे नहीं हैं, ग्रीस का वर्तमान भी भारत के लिए नसीहतें भेज रहा है. शुक्र है कि हम सुरक्षित हैं लेकिन क्या हम ग्रीस से कुछ सीखना चाहेंगे?



Monday, May 20, 2013

संकट की सफलता



ब्रिटेन ने आधा दर्जन टैक्‍स हैवेन पर नकेल डाल दी है। लक्‍जमबर्ग व आस्ट्रिया कर गोपनीयता बनाये रखने की जिद छोड़ने पर मजबूर हुए हैं। यह पारदर्शिता के ग्‍लोबल आग्रहों की पहली बड़ी जीत है।
माज यदि जागरुक व संवेदनशील है तो संकट सुधारों को जन्‍म देते हैं। सितंबर 2011 में अमेरिका पर अलकायदा का हमला न हुआ होता तो दुनिया आतंक को पोसने वाले वित्‍तीय तंत्र से गाफिल ही रहती। डब्‍लूटीसी के ढहने के साथ ही संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ से लेकर फाइनेंशियल एक्‍शन टास्‍क फोर्स जैसी संस्‍थाओं के नेतृत्‍व में आतंक की ग्‍लोबल आर्थिक नसें काट दी गईं और आतंक की रीढ़ काफी हद तक टूट गई। ठीक इसी तरह अगर कर्ज संकट न आया होता तो शायद यूरोप टैक्‍स हैवेन को हमेशा की तरह पालता रहता।  यूरोप की सरकारें खुद ब खुद काली कमाई के जमाघरों के पर्दे नोच रही है। ब्रिटेन ने आधा दर्जन टैक्‍स हैवेन पर नए नियमों की नकेल डाल दी है और यूरोपीय संघ ने अपने दिग्‍गज सदस्‍यों लक्‍जमबर्ग व आस्ट्रिया को कर गोपनीयता बनाये रखने की जिद छोड़ने पर मजबूर किया है। यह पारदर्शिता के ग्‍लोबल आग्रहों की पहली बड़ी जीत है।
यूरोप में नैतिक दबावों और वित्‍तीय गोपनीयता के बीच के निर्णायक रस्‍साकशी शुरु हो चुकी है। टैक्‍स हैवेन, यूरोप की सरकारों को एक गहरी ग्‍लानि में धकेल रहे हैं। कर्ज संकट के कारण जनता की सुविधायें काटते और टैकस लादते हुए यूरोप के हाकिमो को  यह स्‍वीकार करना पड़ा है कि काले धन के टैक्‍स फ्री जमाघरों को संरंक्षण और जनता पर सख्‍ती एक साथ नहीं चल सकतीं, क्‍यों कि ताजे आंकडों के मुताबिक इन जन्‍नतों में करीब 32 खरब डॉलर की काली कमाई जमा है। टैक्‍स हैवेन यूरोपीय वित्‍तीय तंत्र के अतीत व वर्तमान  का मजबूत हिस्‍सा हैं। स्विटजरलैंड ने टैक्‍स हैवेन का धंधा, 1930 की मंदी से डर कर शुरु किया था। ऑस्ट्रिया व स्विटजरलैंड के बीच मौजूदा छोटी सी रियासत लीचेंस्‍टीन भी तब तक अपने कानून बदल कर टैक्‍स हैवेन बन चुकी थी। ज्‍यूरिख-जुग-लीचेंस्‍टीन की तिकड़ी को

Monday, May 6, 2013

महंगाई का ग्लोबल बाजार


 इन्‍फेलशन बनाम  डिफ्लेशन की बहस हमेशा, दोनों की गुणवत्‍ता व संतुलन पर ही खत्‍म होती है जो अब ग्‍लोबल स्‍तर पर बिगड़ गया है। 


बीते सप्‍ताह जब सोना औंधे मुंह गिर रहा था और भारत में इसके मुरीदों की बांछें खिल रही थीं तब विकसित देशों में निवेशक ठंडा पसीना छोड़ रहे थे। सोने के साथ, अन्‍य धातुयें व कच्‍चा तेल जैसे ढहा उसे देखकर यूरोप अब डिफ्लेशन के खौफ से बेजार हो रहा है। मुद्रास्‍फीति के विपरीत डिफ्लेशन यानी अपस्‍फीति मांग, कीमतों में बढोत्‍तरी व मुनाफे खा जाती है। यूरोप में इसकी आहट के बाद अब दुनिया सस्‍ते व महंगे बाजारों में बंट गई हैं। यूरोप, अमेरिका व जापान जरा सी महंगाई बढ़ने के लिए तरस रहे हैं ताकि मांग बढे। मांग तो भारत व चीन भी चाहिए लेकिन वह महंगाई में कमी के लिए बेताब हैं, ताकि लोग खर्च करने की जगह बना सकें। यूरोप, अमेरिका व जापान के केंद्रीय बैंकों ने डिफ्लेशन थामने के लिए बाजार में पूंजी का पाइप खोल दिया है तो महंगाई से डरे भारतीय रिजर्व बैंक ने अपनी मुट्ठी खोलने से मना कर दिया है। ग्‍लोबल बाजारों के इस ब्रांड न्‍यू परिदृश्‍य में एक तरफ सस्‍ती पूंजी मूसलाधार बरस रही है, तो दूसरी तरफ कम लागत वाली पूंजी का जबर्दस्‍त सूखा है। यह एक नया असंतुलन है जो संभावनाओं व समस्‍याओं का अगला चरण हो सकता है।
यह बहस पुरानी है कि कीमतों का बढ़ना बुरा है या कम होना। वैसे इन्‍फेलशन बनाम  डिफ्लेशन की बहस हमेशा, दोनों की गुणवत्‍ता व संतुलन पर ही खत्‍म होती है जो अब ग्‍लोबल स्‍तर पर बिगड़ गया है। उत्‍पादन, प्रतिस्‍पर्धा या तकनीक बढ़ने से कीमतों कम होना अच्‍छा है। ठीक इसी तरह मांग व खपत बढने से कीमतों में कुछ बढोत्‍तरी आर्थिक सेहत के लिए

Monday, March 25, 2013

साइप्रस का सच



साइप्रस काली कमाई की ग्‍लोबल पनाहगाह है और एक टैक्‍स हैवेन को उदारता से उबारने के लिए यूरोप में कोई तैयार नहीं था। 

नैतिक तकाजे अब राजनीतिक और आर्थिक तकाजों पर कम ही भारी पडते हैं। लेकिन जब भी नैतिकता ताकतवर होती है तो सच को छिपाना मुश्किल हो जाता है। कई व्‍यावहारिक झूठ गढते हुए यूरोप अपने आर्थिक ढांचे के उस सच को छिपाने की कोशिश कर रहा था जिसे दुनिया टैक्‍स हैवेन के नाम से जानती है। साइप्रस के संकट के साथ काली कमाई को छिपाने वाले यूरोपीय अंधेरे खुल गए हैं। यह वही साइप्रस है जिसे यूरोपीय संघ में शामिल कराने के लिए ग्रीस ने 2004 में बाकायदा ब्‍लैकमेल किया था और संघ के विस्‍तार की योजना को वीटो कर दिया था। अंतत: इस टैक्‍स हैवेन को एकल यूरोपीय मुद्रा के चमकते मंच पर बिठा लिया गया। लेकिन अब जब साइप्रस डूबने लगा तो यूरो जोन के नेता इसे बचाने के लिए ग्रीस, इटली या स्‍पेन जैसे दर्दमंद इसलिए नहीं हुए क्‍यों कि नैतिकता भी कोई चीज होती है। साइप्रस काली कमाई की ग्‍लोबल पनाहगाह है और एक टैक्‍स हैवेन को उदारता से उबारने के लिए यूरोप में कोई तैयार नहीं है। इसलिए साइप्रस पर सख्‍त शर्तें लगाई गईं और यूरोपीय संकट में पहली बार यह मौका आया जब यूरोपीय संघ अपनी एकता की कीमत पर साइप्रस को संघ से

Monday, January 7, 2013

उनकी सियासत सबकी मुसीबत


हॅालीवुड के सबसे काबिल रोमांच निर्माता मिल कर भी दुनिया को थर्राने की उतनी कुव्‍वत नही रखते जितनी काबिलियत अमेरिका के मुट्ठी भर राजनेताओं में है। 2012 के अंतिम दिन फिस्‍कल क्लिफ से बचने की कोशिश, अमेरिकी सियासत का सन्‍न कर देने वाला तमाशा थी। राजकोषीय संकट की गोली कान के पास निकल गई। अमेरिका वित्‍तीय संकटों के भयानक टाइम बम पर बैठा है जो किस्‍म किस्‍म के घाटों, अकूत कर्ज, कमजोर ग्रोथ के बारुद से बने हैं। बुरी तरह विभाजित अमेरिकी सियासत पलीता लेकर इस बारुद के पास नाच रही है। फिस्‍कल क्लिफ की मुसीबत टलने से किसी को राहत नहीं मिली है कयों कि ग्‍लोबल अर्थव्‍यवस्‍था के लिए अमेरिकी फैक्‍ट्री में कुछ और बड़े संकट बन रहे हैं, जिनसे बचने के लिए राजनीतिक सहमति जरुरी होगी  जबकि अमेरिकी सियासत तो आत्‍मघाती संकटों की दीवानी हो चली है। दुनिया की सरकारों, बाजारों व बैंको को 2013 में अमेरिका के नेताओं से डरना चाहिए यूरोप के कर्ज से नहीं।
2013 के पहले दिन अमेरिका तकनीकी तौर राजकोषीय संकट में फंस गया था। पिछले वर्षों में लागू की गई कर रियायतों और खर्च में बढ़ोत्‍तरी को रोकने का आटोमेटिक सिस्‍टम ही फिस्‍कल क्लिफ था जो एक जनवरी 2013 को लागू हो गया। असर इसलिए नहीं हुआ कि क्‍यों कि नए साल की छुट्टिया थीं। घाटा कम करने के लिए टैक्‍स बढ़ाने पर एक ढीली ढाली सहमति बन गई, जिसे अमेरिकी कांग्रेस ने मंजूरी दे दी। अमेरिका के लिए बजट घाटे की फांस खत्‍म नहीं

Monday, May 21, 2012

फिर ग्रोथ की शरण में

हीं चाहिए खर्च में कंजूसी ! घाटे में कमी! निवेश करो !आर्थिक विकास बढ़ाओ! रोजगार दो! नहीं तो जनता निकोलस सरकोजी जैसा हाल कर देगी। .. ग्‍लोबल नेतृत्‍व को मिला यह सबसे ताजा ज्ञान सूत्र है जो बीते सप्‍ताह कैम्‍प डेविड (अमेरिका) में जुटे आठ अमीर देशों के नेताओं की जुटान से उपजा और अब दुनिया में गूंजने वाला है। फ्रांस के चुनाव में निकोलस सरकोजी की हार ने चार साल पुराने विश्‍व आर्थिक संकट को से निबटने के पूरे समीकरण ही बदल दिये हैं। सरकारों का ग्‍लोबल संहार शुरु हो गया है क्‍यों कि जनता रोजगारों से भी गई और सुविधाओं से भी। वित्‍तीय कंजूसी की एंग्‍लो सैक्‍सन कवायद अटलांटिक के दोनों पार की सियासत भारी पड़ रही है। अमेरिका और यूरोप अब वापस ग्रोथ की सोन चिडिया को तलाशने निकल रहे हैं। चीन ग्रोथ को दाना डालना शुरु कर चुका है। दुनिया के नेताओं को यह इलहाम हो गया है कि घाटे कम करने की कोशिश ग्रोथ को खा गई है। यानी कि मु्र्गी ( ग्रोथ और जनता) तो बेचारी जान से गई और दावतबाजों का हाजमा बिगड़ गया।...
देर आयद
अगर बजट घाटे न हों तो ग्रोथ की रोटी पर बेफिक्री का घी लग जाता है। लेकिन घी के बिना काम चल सकता है ग्रोथ की, सादी ही सही, रोटी के बिना नहीं। 2008 में जब लीमैन डूबा और दुनिया मंदी की तरफ से खिसकी तब से आज तक दुनिया की सरकारें यह तय नहीं कर पाई कि रोटी बचानी है या पहले इस रोटी के लिए घी जुटाना है। बात बैंकों के डूबने से शुरु हुई थी। जो अपनी गलतियों से डूबे, सरकारों ने उन्‍हें बचाया अपने बजटों से। बजटों में घाटे पहले से थे क्‍यों कि यूरोप और अमेरिकी सरकारें जनता को सुविधाओं से पोस रही थीं। घाटा बढ़ा तो कर्ज बढे और कर्ज बढ़ा तो साख गिरी। पूरी दुनिया साख को बचाने के लिए घाटे कम करने की जुगत में लग गई इसलिए यूरोप व अमेरिका की जनता पर खर्च कंजूसी के चाबुक चलने लगे। जनता गुस्‍साई ओर उसने सरकारें पलट दीं। तीन साल की इस पूरी हाय तौबा में कहीं यह बात बिसर गई कि मुकिश्‍लों का खाता आर्थिक सुस्‍ती

Monday, June 20, 2011

विश्‍वत्रासदी का ग्रीक थियेटर

दीवालियेपन के प्रेतों की बारात ग्रीस में उतर आई है। पंद्रहवीं सदी का फ्रांस, अठारहवीं सदी का स्पेन और पिछली सदी के अर्जेंटीना, मेक्सिको व उरुग्वे आदि एथेंस के मशहूर हेरोडियन थियेटर में खास मेहमान बन कर बैठे हैं और ग्रीस की कर्ज त्रासदी देखने को बेताब है। ग्रीक ट्रेजडी का कोरस ( पूर्व गान) शुरु हो गया है। थियेटर में रह रह कर संवाद गूंज रहा है कि उम्मीद व ग्रीस अब एक दूसरे के विलोम हैं !!!! ... बड़ा भयानक सपना था।...जापानी निवेशक आधी रात में डर कर जग गया।  एक संप्रभु मुल्क. का दीवालिया होना यानी कर्ज चुकाने में चूकना ! देश की साख खत्म होना अर्थात बैंकों और मुद्रा का डूबना ! वित्तीय जगत की सबसे बड़ी विपत्ति अर्थात जनता के लिए एक लंबी दर्दनाक त्रासदी !! .... निवेशक का खौफ जायज है ग्रीस की महात्रासदी अब शुरु ही होने वाली है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद पहली बार कोई अमीर मुल्क डूबने वाला है। राजनीतिक व वित्तील समाधान ढह रहे हैं निवेशकों ने अपना जी कड़ा कर लिया है, ग्रीस की साख का सूर्य डूबते ही बाजार ग्रीस में निवेश करने वाले बैंकों, कंपनियों को सूली पर टांगने लगेगा। ...बात यहां से निकल कर दूर तलक जाएगी क्यों कि ग्रीस अकेले नहीं डूबेगा। इस त्रासदी के साथ बहुत कुछ गर्त हो सकता है।
डूबने को तैयार
ग्रीस फिर अपनी हैसियत से बड़ा इतिहास रचने (एक यूरोपीय कहावत) को तैयार है कयों कि सॉवरिन डिफाल्ट या देश का दीवालियापन छोटी विपत्ति नहीं है। ग्रीस का संकट देश के वित्तीय हिसाब में सरकारी फर्जीवाड़े से निकला है। घाटा छिपाकर कर्ज लेते रहे ग्रीस का सच (जीडीपी के अनुपात में अब 180 फीसदी कर्ज) 2009 में अंत यूरोपीय समुदाय की वित्ती‍य पड़ताल में खुला था। 110 अरब यूरो के पैकेज और यूरोपीय केंद्रीय बैंक की तरफ से ग्रीस के बांडों की खरीद के साथ ग्रीस को बचने के लिए जो एक साल मिला था

Monday, December 13, 2010

साख नहीं तो माफ करो!

अर्थार्थ
साख नहीं तो माफ करो! .. दुनिया का बांड बाजार अर्से बाद जब इस दो टूक जबान में बोला तो लंदन, मैड्रिड, रोम, ब्रसेल्स और न्यूयॉर्क, फ्रैंकफर्ट, बर्लिन और डबलिन में नियामकों व केंद्रीय बैंकों की रीढ़ कांप गई। दरअसल जिसका डर था वही बात हो गई है। वित्तीय बाजारों के सबसे निर्मम बांड निवेशकों ने यूरोप व अमेरिका की सरकारों की साख पर अपने दांत गड़ा दिए हैं। घाटे से घिरी अर्थव्यवस्थाओं से निवेशक कोई सहानुभूति दिखाने को तैयार नहीं हैं। ग्रीस व आयरलैंड को घुटनों के बल बिठाकर यूरोपीय समुदाय से भीख मंगवाने के बाद ये निवेशक अब स्पेन की तरफ बढ़ रहे हैं। स्पेन, यूरोप की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था, क्या आयरलैंड व ग्रीस की राह पर जाएगा? सोच कर ही यूरोप की सांस फूल रही है। लेकिन यह बाजार तो स्पेन के डेथ वारंट पर दस्तखत करने लगा है, क्योंकि इस क्रूर बाजार में बिकने वाली साख यूरोप की सरकारों के पास नहीं है और तो और, इस निष्ठुर बाजार ने अमेरिका की साख को भी खरोंचना शुरू कर दिया है।
खतरे की खलबली
पूरी दुनिया में डर की ताजा लहर बीते हफ्ते यूरोप, अमेरिका व एशिया के बांड बाजारों से उठी, जब सरकारों की साख पर गहरे सवाल उठाते हुए निवेशकों ने सरकारी बांड की बिकवाली शुरू कर दी और सरकारों के लिए कर्ज महंगा हो गया। बीते मंगलवार अमेरिकी सरकार के (दस साल का बांड) बाजार कर्ज की लागत सिर्फ कुछ घंटों में

Monday, July 26, 2010

इंस्‍पेक्‍टर राज इंटरनेशनल !

अर्थार्थ
मौसम अचानक बिल्कुल बदल गया है। वित्तीय कारोबार पर कड़े नियमों की धुआंधार बारिश होने वाली है। पूंजी बाजारों में बेलौस और बेपरवाह वानर लीला कर रहे वित्तीय कारोबारियों पर कठोर पहरे की तैयारी हो गई है। बैंक, इन्वेस्टमेंट बैंक, हेज फंड, बांड फंड, म्यूचुअल फंड व इस जाति के सभी प्रतिनिधियों को सख्त पहरे में सांस लेनी होगी। अमेरिका में ताजा पीढ़ी के सबसे कठोर वित्तीय नियमन कानून को राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने दस्तखत से नवाज दिया है। वित्तीय कारोबार पर एक समग्र यूरोपीय सख्ती के लिए यूरोप की सरकारें भी बीते सप्ताह ब्रुसेल्स में सहमत हो चुकी हैं। यूरोप के नामी 91 बैंकों को एक अभूतपूर्व परीक्षा, स्ट्रेस टेस्ट से गुजार कर उनकी कुव्वत परख ली गई है। भारत में नियामकों का नियामक यानी सुपर रेगुलेटर (बजट में घोषित आर्थिक स्थायित्व व विकास परिषद) आने को तैयार है। आपस में झगड़ते भारत के वित्तीय नियामक इसकी राह आसान कर रहे हैं। हर तरफ एक नया इंस्पेक्टर राज तैयार हो रहा है। नौकरशाह नियामकों की फौज हर जगह वित्तीय बाजार व इसके खिलाडि़यों की आठों पहर निगरानी करेगी।
..और फ्यूनरल प्लान भी
आपके अंतिम संस्कार का प्लान क्या है? सवाल बेहूदा हो सकता है, लेकिन ताजा कानून के तहत अमेरिका के वित्तीय कारोबारियों को इसका जवाब देना होगा। बैंकों व वित्तीय कंपनियों से पूछा जाएगा कि यदि संकट में फंस कर बर्बाद हुए तो वे अपनी दुकान किस तरह बंद करना चाहेंगे? 1930 के बाद अमेरिका में वित्तीय कानूनों में सबसे बड़ा बदलाव हो गया है। वॉलस्ट्रीट पर शिकंजा कसने वाला डॉड-फ्रैंक बिल तमाम दहलीजें पार करते हुए बीते सप्ताह लागू हो गया। 2300 पेज का यह भीमकाय कानून अपनी सख्ती और पाबंदियों के लिए दुनिया में नजीर बनेगा। अमेरिका के लोग एफएसओसी, फिनरेग और वोल्कर रूल जैसे नए शब्द सीख रहे हैं। एफएसओसी बोले तो.. फाइनेंशियल स्टेबिलिटी ओवरसाइट काउंसिल। एक सुपर रेगुलेटर यानी सबसे बड़ा नियामक। यह काउंसिल वित्तीय तंत्र के लिए जोखिम बनने वाली कंपनियों की लगातार पहचान करेगी। मतलब यह कि एफसीओसी ने जिसे घूरा उसका काम पूरा। बेफिक्र और मस्तमौला हेज फंड हों या निवेश बैंक सबके लिए कानून में कड़ी शर्ते हैं। बैंकों को जमा के बीमा पर ज्यादा रकम लगानी होगी ताकि अगर बैंक डूबें तो जमाकर्ता भी न डूब जाएं। वोल्कर रूल तय करेगा कि बैंक कौन से कारोबार और कहां निवेश न करें। 615 ट्रिलियन डॉलर के डेरिवेटिव्स कारोबार को पहली बार लगाम का स्वाद मिलेगा। क्रेडिट रेटिंग, बीमा, ब्रोकर, मॉरगेज, निवेशक आदि सब इस कानून के दायरे में हैं। सबसे अहम यह है कि अमेरिका की सरकार डूबने वाले एआईजी (बीमा कंपनी जिसे अमेरिकी सरकार ने उबारा था) जैसों का पाप अपने सर नहीं लेगी। हर कंपनी अपने अंतिम संस्कार की योजना पहले घोषित करेगी ताकि अगर वह बर्बाद हो तो उसे शांति से विदा किया जा सके। इस कानून पर हस्ताक्षर करते हुए तालियों की गूंज के बीच ओबामा ने कहा अब अमेरिका की जनता वॉलस्ट्रीट की गलतियों का बिल नहीं चुकाएगी। उदारता से पूरी दुनिया को ईर्ष्‍या से भर देने वाला अमेरिकी बाजार अब सख्ती का आदर्श बनेगा।
बैंकों की अग्निपरीक्षा

27 देश, 91 बैंक और एक परीक्षा!! बेचैनी, रोमांच, असमंजस! इस 23 जुलाई को पूरी दुनिया के वित्तीय बाजारों में समय मानो ठहर सा गया था। यूरोप के बैंक स्ट्रेस टेस्ट से गुजर रहे थे, यह साबित करने के लिए अगर संकट आया तो कौन सा बैंक बचेगा और कौन निबट जाएगा? पैमाना गोपनीय था अलबत्ता परीक्षा मोटे तौर पर कर्ज का बोझ, जोखिम भरे निवेश का हिसाब-किताब और पूंजी की स्थिति आदि के आधार पर ही हुई। शुक्रवार की रात भारत में जब लोग सोने की तैयारी कर रहे, तब इस परीक्षा का रिजल्ट आया। यूरोप के सात बैंक फेल हो गए। पांच स्पेन के और एक-एक जर्मनी व ग्रीस का। इन्हें अब अपनी सेहत सुधारने के लिए 3.5 बिलियन यूरो जुटाने होंगे, जो आसान नहीं है। फेल का रिपोर्ट कार्ड लेकर निकलने वाले इन बैंकों के साथ वित्तीय बाजार नरमी नहीं बरतेगा। मगर जो बैंक इस आग के दरिया से निकल आए हैं, उनके स्वागत के लिए एक नया सख्त समग्र यूरोपीय नियामक तैयार है। यूरोपीय समुदाय नया वित्तीय दो स्तरीय नियामक ढांचा बना रहा है। वित्तीय बाजार पर दैनिक नियंत्रण देशों के पास होगा, लेकिन व्यापक नियंत्रण एक बड़े यूरोपीय नियामक के हाथ में रहेगा। बैंकों के लिए अभी कई और स्ट्रेस टेस्ट तैयार हो रहे हैं।
नियामकों का नियामक

अमेरिका की फाइनेंशियल स्टेबिलिटी ओवरसाइट काउंसिल, यूरोप की पैन यूरोपियन अथॉरिटी या फिर भारत की प्रस्तावित आर्थिक स्थायित्व व विकास परिषद आदि सब उसी सुपर रेगुलेटर के अलग-अलग नाम रूप हैं, जो अब आ ही पहुंचा है। दरअसल वित्तीय दुनिया में कई नियामक हैं, सो खूब गफलत भी है। अमेरिका में डेरिवेटिव और हेज फंड को लेकर नियामक ठीक उसी तरह उलझते रहे हैं, जैसे कि यूलिप को लेकर भारत में इरडा और सेबी लड़ रहे हैं। घोटालेबाज इस भ्रम पर खेलते हैं। भारत संकट से बाल-बाल बच गया, लेकिन नसीहत के तौर पर सुपर रेगुलेटर न होने की गलती जल्द ही दूर की जा रही है। दरअसल तीसरी दुनिया के लिए सिर्फ नियम कानून चाक चौबंद करने की ही झंझट नहीं है, उन्हें एक और झटके से निबटना होगा। फिलहाल यह कहना मुश्किल है कि वित्तीय निवेशक इस नए कानूनी माहौल के बाद कैसा व्यवहार करेंगे, लेकिन जब निवेश की आजादी पर दर्जनों पहरे होंगे तो निवेश की आदत में कुछ फर्क तो आएगा ही। ..उभरते बाजारों को इस असर से निबटने की तैयारी भी करनी होगी।
भारत जैसी अधखुली अर्थव्यवस्थाएं तो बचे-खुचे इंस्पेक्टर राज के विदा होने की मन्नत मांग रहीं थीं, मगर यहां तो इंस्पेक्टर राज ताजा अंतरराष्ट्रीय अवतार में वापस लौट आया है। अमेरिका, यूरोप व एशिया के वित्तीय बाजारों की लगाम नए किस्म की ब्यूरोक्रेसी के हाथ आने जा रही है। बाजार के खिलाडि़यों को वित्तीय नौकरशाह या नियामक नौकरशाहों की एक नई पीढ़ी के नाज-नखरे उठाने होंगे। वित्तीय बाजार आजादी पाकर बौरा गया था अब उसे पाबंदियों की पांत में चलना होगा। ..बस एक चूक और पुर्नमूषकोभव !!

Monday, July 19, 2010

पूंजी बदले पैंतरा

अर्थार्थ
क्या खरीदना चाहेंगे आप.?? ब्रिटेन की हाई स्पीड यूरोपियन रेल सेवा या ग्रीस के कैसिनो, जापान की डाक सेवा (दुनिया की सबसे बड़े बचत बैंक की मालिक) या फ्रांस व जर्मनी में सरकारी जमीन-मकान अथवा पोलैंड की सरकारी टकसाल और फोन कंपनी में हिस्सेदारी।... दमघोंट घाटे से घिरे यूरोप और जापान ने दुनिया में एक से नायाब सरकारी संपत्तियों का बाजार सजा दिया है। सरकारों के रत्‍‌न ( कंपनियां व प्रतिष्ठान) ग्राहकों के इंतजार में वित्तीय बाजारों के शो केस में बिठा दिये गए हैं। ..घाटा जो न कराये सो थोड़ा !!!. कर्ज पाटने और घाटा काटने के लिए सरकारी संपत्तियों की बिक्त्री तो तीसरी दुनिया का सहारा थी मगर अब तो बड़े बड़े इस बाजार में आवाज लगा रहे हैं। यह भारत के लिए फिक्त्रमंद होने मौका है। दुनिया भर के सरकारी रत्‍‌नों के इस व्यापार मेले में उसके जवाहर लालों ( सार्वजनिक उपक्त्रम विनिवेश) को कितने ग्राहक मिलेंगे? दरअसल विदेशी पूंजी अब पैंतरे बदल रही है। विदेशी निवेशकों को उनके अपने वतन बुला रहे हैं। संकट में घिरे यूरोप और अमेरिका अपने निजी क्षेत्र को उनका क‌र्त्तव्य याद दिला रहे हैं। इन कंपनियों का राष्ट्रप्रेम तीसरी दुनिया को परेशान कर सकता है। यानी कि भारत को अब विदेशी पूंजी की चिंता करनी चाहिए। उस कायर पूंजी की नहीं जो शेयर बाजार में संकट आते ही उड़ जाती है बल्कि उस विदेशी निवेश की जो अर्थव्यवस्था की जड़ों में उतर कर देश का हिस्सा हो जाता है।
सरकारों का बाजार
दुनिया के इस सबसे खास बाजार में आपका स्वागत है। इसे सरकारों के घाटे ने तैयार किया है। 232 बिलियन डॉलर के रिकार्ड घाटे से परेशान, ब्रिटेन, यहां मशहूर यूरोपियन हाई स्पीड ट्रेन सेवा बेचने (1.5 बिलियन डॉलर का जुगाड़ संभव) के लिए खड़ा है। यह ट्रेन इंग्लिश चैनल के समुद्र के नीचे से गुजरती है। ब्रितानी आकाश में विमानों की निगहबान, नेशनल एयर ट्रैफिक सर्विसेज (नैट्स) का निजीकरण हो रहा है। डाक कंपनी रॉयल मेल में भी सरकारी हिस्सेदारी बिक रही है। ब्रिटेन ने इस बिक्त्री अभियान से एक दशक में करीब 53 बिलियन डॉलर जुटाने का मीजान लगाया है। ग्रीस 3.7 बिलियन डॉलर जुटाने के लिए कई सरकारी रत्‍‌न बेचने निकल पड़ा है। शिपिंग के स्वर्ग इस मुल्क में कई बंदरगाह, रेलवे, हवाई अड्डे, डाक सेवा और एथेंस में पेयजल की आपूर्ति करने वाले प्रतिष्ठान तक, आंशिक या पूर्ण निजीकरण के लिए ग्राहक तलाश रहे हैं। कतर जैसे अमीर अरब मुल्क ग्रीस के नेशनल बैंक में हिस्सेदारी लेने की कोशिश में हैं। ग्रीस के मशहूर कैसिनो भी इस बाजार में सजे हैं। पूर्वी यूरोप में पौलेंड की सरकार दस बिलियन डॉलर के जुगाड़ के लिए अपनी टकसाल (मेनिका पोलस्का), बीमा, रसायन व फोन कंपनियों हिस्सेदारी बेच रही है। घाटा घटाने के लिए जर्मनी की सरकारी संपत्ति बिक्त्री कंपनी 'बीमा' करीब 3.4 बिलियन यूरो की संपत्तियां बेचने को तैयार है तो फ्रांस अपने छह फीसदी सरकारी भवन बेच डालेगा। घाटे में घिरी जापानी सरकार ,जापान पोस्ट का हिस्सा बेचने को तैयार है। डाक सेवा चलाने वाली यह कंपनी निवेशकों के 117 ट्रिलियन येन संभालती है। दुनिया का यह सबसे बड़ा बचत बैंक, जापान सरकार के बांडों में सबसे बड़ा निवेशक भी है। .. अर्थात सभी को मोटी जेब वाले कुछ निजी ग्राहकों का इंतजार है।
बांटने वालों की मुश्किल
यूरोप व अमेरिका में निजी क्षेत्र से ऐसी उम्मीदें कम दिखती हैं। इन क्षेत्रों में नए निवेश के स्त्रोत बाकी दुनिया से फर्क रहे हैं। बुनियादी ढांचा बनाने का जिम्मा आमतौर पर सरकारों का है। इनके संसाधनों की नदी अरबों खरबों के बांड बाजार से निकलती है। स्थांनीय निकाय और रेलवे, पेयजल, बिजली, कचरा प्रबंधन आदि से जुड़ी सरकारी कंपनियां बांड बाजार से पैसा उठा कर शहरों व देशों को रहने लायक बनाती हैं। इनके बांडों पर मिलने वाली कर छूट निवेशकों को आकर्षित करती है। मगर ताजे संकट ने सब बदल दिया। 2.7 ट्रिलियन डॉलर का अमेरिकी स्टेट व म्युशनिसिपल बांड बाजार ढह गया है। इस बाजार में कैलीफोर्निया को 'अमेरिका का ग्रीस' कह रहे हैं। जाहिर है जब देशों की साख कचरा हो रही हो तो स्थानीय निकायों के बांड कौन खरीदे। अमेरिका में पिछले छह माह में 1.5 बिलियन डॉलर के म्युनिसिपिल बांड डिफाल्ट हो चुके हैं। नतीजतन सरकारी संपत्तियां खरीदने व निवेश के लिए निजी क्षेत्र की टेर लग रही है। ब्रिटेन के नए वित्त मंत्री जॉर्ज ऑसबोर्न ने कहते हैं कि सरकारी खर्च घट रहा है, निजी क्षेत्र को अब आर्थिक विकास का इंजन संभालना होगा।
उलटी धार निवेश की
मंदी और संकट का विस्फोट दुनिया में निवेश की धारा उलट सकता है। जो मुल्क आज परेशान हैं उन्हीं की कंपनियां तीसरी दुनिया के देशों में निवेश उड़ेल रही थीं। अब इनके संसाधन इनके अपने ही देश में ही रुकने का खतरा है। स्वतंत्र आकलनों के मुताबिक अगले कुछ वषरें में दुनिया में 132 बिलियन डॉलर तक की सरकारी संपत्तियां बिकेंगी। इस नक्कारखाने में भारत के सार्वजनिक उपक्त्रम विनिवेश की तूती मुश्किल से ही सुनाई देगी। विदेशी निवेश के लिए बाजार को खोलना अमेरिका की सबसे ताजी बहस है। अमेरिका की बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में विदेशी कंपनियां बिरले ही निवेश करती हैं। लेकिन संसाधनों की किल्लत पुराने नियम बदल रही है। अब अगर कैलीफोर्निया या लुइजियाना अथवा एथेंस या मानचेस्टर में निवेश के मौके निकले तो उत्तर प्रदेश अथवा पटना, जयपुर को कौन पूछेगा? आउटसोर्सिंग या कंपनियों के अधिग्रहण को लेकर हाल के प्रसंग गवाह है कि पश्चिम की सरकारें गजब की संरंक्षणवादी हैं, वह कर रियायतों से लेकर तमाम नियमों के जरिये निजी निवेश को अपने देश में रोकने की कुव्वत रखती हैं। कई झंझावातों के बाद जब भारत ने जब निवेशकों का भरोसा हासिल किया तो निवेश की हवायें ही बदलने लगीं हैं।
भारत की उलझन बड़ी दिलचस्प है। उभरती अर्थव्यवस्था से आकर्षित होकर निवेशकों के झुंड शेयर बाजारों में उतर रहे हैं। मगर यह डरपोक निवेश है, जो जरा से संकट पर बोरिया बिस्तर समेट लेता है। देश को वह विदेशी पूंजी चाहिए जो तकनीक, रोजगार व उत्पादन लेकर आए। सरकारी लक्ष्यों के मुताबिक 2012 तक देश को हर साल ऐसे 50 बिलियन डॉलर चाहिए, जो यहां की आर्थिक जमीन में उतर जाएं। अलबत्ता अच्छे वषरें में भी इस किस्म की विदेशी पूंजी 25-26 बिलियन डॉलर से ऊपर नहीं गई है। अब जबकि निवेश के उद्गम क्षेत्रों के इर्दगिर्द ही सूखा पड़ा है तो पूंजी की धारायें की भारत जैसे दूरदराज के इलाकों तक मुश्किल से ही पहुंचेंगी। हैरत नहीं कि दुनिया के अन्यं इलाकों से भी निवेशक यूरोप अमेरिका का रुख कर लें क्यों कि वहां के बाजारों में भारत जैसे रोड़े नहीं हैं। ..भारत को अब विदेशी निवेश के संभावित सूखे से निबटने के लिए तैयारी शुरु कर देनी चाहिए।
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Monday, July 12, 2010

घट-घट में घाटा

अर्थार्थ
छि:
! इतना घाटा! ..संभालो नहीं तो बीमार हो जाओगे। बजट घाटा बड़ा महंगा पड़ता है। ..टोरंटो की जी 20 बैठक में दुनिया के बड़ों को कुछ इस अंदाज में नसीहत दे रहे थे भारतीय प्रधानमंत्री। यह दरअसल उन उलाहनों या झिड़कियों की सूद समेत वापसी थी, जो घाटे को लेकर अगड़े देशों ने पिछले दशक में कई बार भारत को दी हैं, लेकिन तब भारत इस मर्ज के चुनिंदा मरीजों में एक था। ताजा दौर तो बिलकुल अलग है। सरकारों के घाटे अब सर्वव्यापी हैं। क्या बड़ा क्या छोटा, क्या अगड़ा और क्या पिछड़ा.. हर नामचीन देश की सरकार खाली खजानों और बदसूरत बजट को लेकर हलकान है। अमेरिका के स्थानीय निकाय घाटे को घटाने के लिए पुलिस जैसी जरूरी सेवाएं भी रोकने लगे हैं। यूरोप में सरकारें पेंशन काटकर अपनी बुढ़ाती आबादी से कुर्बानी मांग रही हैं। पहाड़ जैसे घाटे से डरा जापान सरकारी कर्ज की सीमा बांध रहा है। अगर सिर्फ सरकारों के बजट घाटे के आधार पर दुनिया का कोई नक्शा बनाया जाए तो हर महाद्वीप के हर दिग्गज देश के खजाने पर घाटे का लाल झंडा टंगा दिखेगा। ..राजकोषीय घाटे का यह साम्यवाद अभूतपूर्व है। अब इस हमाम में कौन किससे लजाए और कौन किसको चादर ओढ़ाए?
तीन साल में यह हाल
भारत जैसों को जाने दीजिए, यहां तो बजट घाटे वित्तीय संस्कृति का हिस्सा हैं मगर यूरोप व अमेरिका तो चुस्त राजकोषीय प्रबंधन की नजीर थे। किसी को भी यह जानकार हैरत होगी कि 2007 में विकसित मुल्कों का औसत घाटा जीडीपी के अनुपात में केवल 1.1 फीसदी था, मगर 2010 में यह 8.4 फीसदी हो गया। 2007 में विकसित मुल्कों की सरकारें जीडीपी के अनुपात में 73 फीसदी का औसत कर्ज दिखा रही थीं। अब यह इनके कुल जीडीपी से ज्यादा (सौ फीसदी से ऊपर) हो गया है। सिर्फ तीन साल की आर्थिक समस्याओं के फेर में इनके पूरे वित्तीय प्रबंधन का कचूमर निकल गया। इससे यह सिद्ध हुआ है कि इन मुल्कों का ढांचा कितने नाजुक तारों से बंधा था। इनके बजट अर्थव्यवस्थाओं को नए खर्च की थोड़ी सी खुराक देने में कंगाल हो गए। बची खुची कसर मंदी के कारण कमाई में कमी ने पूरी कर दी। दुनिया में मुस्कराती इठलाती अर्थव्यवस्थाएं सिर्फ 36 माह के भीतर घाटे में गले तक धंस गई हैं।
डॉलर वालों की ढाल
अमेरिका में दक्षिण कैलिफोर्निया का शहर मेवुड अपनी पुलिस फोर्स बंद कर रहा है। अधिकांश सरकारी कर्मचारी नौकरी गंवा चुके हैं। मेवुड अमेरिका के भीतर घाटे की भयानक हालत का उदाहरण है। हालांकि बाहर की दुनिया के लिए अमेरिका के पास अनोखी ढाल है। दरअसल घाटे व कर्ज के जिस स्तर पर ग्रीस डूबा है या यूरोप में हाय तौबा मची है, उससे कहीं ज्यादा फटी जेब के साथ अमेरिका मुस्करा सकता है क्योंकि उसके पास डॉलर है। यानी दुनिया के वित्तीय तंत्र की केंद्रीय मुद्रा। यूरो ढहने लगा तो अमेरिका के घाटे को बिसरा कर दुनिया डॉलर समेटने लगी। हर मुल्क का विदेशी मुद्रा खजाना डॉलर में है। इसलिए कमजोर वित्तीय हालत के बावजूद अमेरिका के बांड बिक जाते हैं। यानी कि डॉलर के सहारे अमेरिका घाटे को घटाने की गति धीमी रख सकता है और जीडीपी की तुलना में 100 फीसदी से ज्यादा कर्ज लेकर भी खड़ा रह सकता है। .. लेकिन नतीजा निकालने से पहले जरा ठहरिए। डॉलर का यह सहारा अमेरिका के भीतर किसी काम का नहीं है। अमेरिकी राज्यों का संयुक्त घाटा अगले साल 112 बिलियन डॉलर हो जाएगा। कर्ज में डूबे स्थानीय निकाय पुलिस, शिक्षा, अस्पताल जैसी जरूरी सेवाओं पर खर्च रोकने लगे हैं। अमेरिकी व्यवस्था में स्थानीय निकायों पर बहुत कुछ निर्भर है। उनका संकट आम लोगों पर भारी पड़ने लगा है। म्युनिसिपल बांड मार्केट ध्वस्त है यानी स्थानीय निकायों के लिए पूंजी का स्रोत बंद है। नतीजतन अमेरिका में सड़क, पुल, पार्किग आदि में विदेशी निवेश खोलने की बहस शुरू हो गई है। अमेरिका के लिए यह अनोखी स्थिति है। डॉलर की अम्मा भले ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खैर मना ले, लेकिन देश के भीतर तो घाटा नाक तक आ गया है।
यूरो वालों का कौन पुरसाहाल
यूरोपीय देशों के खजाने पूरी दुनिया की मुश्किल हैं। उनके पास तो डॉलर जैसा, खोखला ही सही, सहारा भी नहीं है। यूरोप का घाटा यहां के देशों व इनकी मुद्रा अर्थात यूरो दोनों को डुबा रहा है। मगर यूरो से दूरी बनाने वाले ब्रिटेन जैसे भी कम संकट में नहीं हैं। ब्रिटेन की नई सरकार का बजट वहां के लोगों पर आफत बन कर टूटा। घाटा जीडीपी का 10.1 फीसदी है। वित्त मंत्री ऑसबोर्न जब सालाना 44 बिलियन डॉलर का खर्च घटाएंगे, तब भी घाटे की बाढ़ उतरने में पांच साल लग जाएंगे। जीडीपी के अनुपात में करीब 80 फीसदी कर्ज के साथ ब्रिटेन सबसे ज्यादा खतरे में है। ग्रीस, स्पेन, हंगरी, इटली, पुर्तगाल, जर्मनी, आयरलैंड सबके सब भारत वाली बीमारी के बड़े मरीज हैं। यहां घाटों को ठीक करने के दो मॉडल काम कर रहे हैं। जिनकी रीढ़ कुछ मजबूत है वह देश खर्च घटा रहे हैं और जो बुरी तरह बदहाल हैं वह भारी टैक्स लगा रहे हैं।
मंदी की शुरुआत से पहले तक दुनिया के नीति निर्माताओं ने लगभग एक दशक का बसंत देखा था, यानी भरे हुए खजाने, नियंत्रण में घाटे, दिल खोलकर कर्ज देता बाजार आदि। मगर एक वित्तीय संकट व छोटी सी मंदी ने बाजी पलट दी और बजटीय घाटों ने सबको धर दबोचा। सरकारों को घाटे से बचाने या उबारने की इस भूमंडलीय बीमारी का कोई टीका नहीं है यानी कि हर देश को अपना फटा खुद अपनी तरह से सीना है। इस सूरत में कोई नहीं जानता कि किसका रफू कितना लंबा चलेगा। मसलन जापान ने कर्ज की सीमा तय की है। अलबत्ता सरकार मानती है कि घाटा कम होते-होते पांच साल लग जाएंगे। दुनिया के ज्यादातर देशों के घाटा नियंत्रण कार्यक्रम पांच-छह साल बाद ही नतीजे देंगे, क्योंकि घाटे ही इतने बड़े हैं, और वह भी तब जब कि कोई नया संकट न आ धमके।
दुनिया भर के हाकिम अब अपनी तलवारें बांधकर घाटे से जंग के लिए मैदान में कूद पड़े हैं। इस अभूतपूर्व समस्या के इलाज के लिए हर पैंतरा इस्तेमाल में है। मगर नतीजों को लेकर असमंजस है। बस पूरी दुनिया इस बात पर आश्वस्त है कि बजट के गड्ढों को भरने में मंदी से उबरने की उम्मीद काम आ जाएगी। यानी किघाटे का कचरा साफ होने तक दुनिया की आर्थिक मशीन खिच-खिच करते हुए ही चलेगी। मोटी बात यह कि टैक्स बढ़ेगा कमाई नहीं और खर्च घटेगा महंगाई नहीं। ..यह बात ठीक है कि घाटा काटने वाली तलवारें अंतत: आम लोगों की जेब पर ही चलती हैं, लेकिन सरकारें यह तलवारें हमारे भले के लिए ही तो उठाती हैं? है न?
हाकिम की तलवार मुकद्दस होती है।
हाकिम की तलवार के बारे मत लिक्खो।
(अहमद फराज)
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Monday, June 7, 2010

सिद्धांतों का शीर्षासन

अर्थार्थ
नकल्याण के रास्ते अगर आपदा के गर्त में पहुंचा दें तो? एकजुट होने से सुविधा व सुरक्षा के बजाय समस्या व संकट बढ़ने लगे तो? दुनिया के अमीर पहलवान यदि अपनी खुराक के लिए पिद्दी पिछड़ों पर निर्भर हो जाएं तो? तो क्या करेंगे आप? यही न कि, सिद्धांतों को फिर से लिखने की सोचेंगे? जरा गौर से आसपास देखिए, इस समय कई सिद्धांत एक साथ शीर्षासन कर रहे हैं। यूरोप का प्रसिद्ध कल्याणकारी राज्य (वेलफेयर स्टेट) कर्ज के ढेर में सर के बल खड़ा है। विकासशील चीन की एक करवट वित्तीय बाजार में अब परमाणु ताकतों के घुटने कंपा देती है। दुनिया को जीतने के लिए यूरो करेंसी के जहाज पर सवार हुए यूरोप के मुल्कों का अब यह जजीरा खुद डूबता व उन्हें डुबोता नजर आ रहा है। यह शक्ति संतुलन, आर्थिक एकजुटता और राज्य व्यवस्था से जुड़े सिद्धांतों का बिल्कुल ही नया चेहरा है। स्थापित परिभाषाएं और मान्यताएं बड़ी निर्ममता के साथ बदल रही हैं।
कल्याण की कीमत
मोटे बेकारी भत्ते, तनख्वाह सहित साल भर लंबी छुट्टी, सुरक्षित नौकरी, तरह तरह की सरकारी रियायतें, पचास साल के बाद सेवानिवृत्ति, मोटी पेंशन, मुफ्त चिकित्सा और शानदार व सस्ता रहन सहन! यूरोप के पास दुनिया को जलाने व चिढ़ाने के लिए बहुत कुछ है। यूरोप यूं ही, रोटी व दवा को तरसते अफ्रीका के लिए जन्नत और बेहतर जीवन स्तर के लिए बेकरार एशिया के लिए आदर्श नहीं बन गया। दूसरे विश्व युद्ध के बाद यहां की सरकारों ने अपनी आबादी को मुफ्त शिक्षा, चिकित्सा, मोटी पेंशन जैसी रियायतों व सामाजिक सुरक्षा की छांव में रखा। वेलफेयर स्टेट या कल्याणकारी राज्य के पालने में बैठी यूरोप की जनता अपने वर्तमान व भविष्य से इतनी बेफिक्र और बेलौस थी कि अभी हाल तक यूरोप में कल्याणकारी राज्य के नॉर्डिक (डेनमार्क, स्वीडन) कॉन्टीनेंटल (जर्मनी, फ्रांस, ऑस्टि्रया), एंग्लोसैक्सन (ब्रिटेन व आयरलैंड) और मेडीटरेनियन (ग्रीस, इटली, पुर्तगाल) मॉडलों के तहत दी जा रही सुविधाओं के बीच होड़ चलती थी। मसलन जर्मनी में अगर नौकरी जाने के बदले सरकार की तरफ से बेकारी भत्ते के तौर पर 60 फीसदी तनख्वाह मुकर्रर है तो ग्रीस में नौकरी हर हाल में सुरक्षित थी। यूरोप की जनता को अब पता चला कि सरकारों की उदारता का (सरकारों के कुल खर्च का 25 से 40 फीसदी तक जल कल्याण स्कीमों पर) यह करिश्मा कर्ज पर आधारित है। बस एक छोटी सी मंदी और वित्तीय संकट ने इस कल्याणकारी राज्य को कर्ज के गटर में घसीट लिया। यूरोप में पेंशन वेतन घट रहे हैं, नौकरियां जा रही हैं, सरकार कंजूस हो रही है और वेलफेयर स्टेट बिखर रहा है। आशावादी कहते हैं कि 70-80 के दशक की राजकोषीय सख्ती की तरह कुछ नुकसान के साथ यह तूफान भी गुजर जाएगा लेकिन आंकड़े बताते हैं कि बेशुमार कर्ज, कमजोर विकास दर और यूरो की कमजोरी से घिरे वेलफेयर स्टेट का अब फेयरवेल हो सकता है। नतीजा तो वक्त बताएगा, अलबत्ता नसीहतें लेनी हों तो कल्याणकारी राज्य से इस समय यूरोप की सड़कों पर मिला जा सकता है जहां वह जनता का गुस्सा झेल रहा है
संकट बढ़ाने वाली एकता
दक्षेस व आसियान में एकल मुद्रा के पैरोकार आजकल चुप हैं। अगले साल यूरोजोन में शामिल होने की बारात सजाए बैठे आइसलैंड व एस्टोनिया भी सन्नाटा खींच गए हैं। विश्व के देश जिस अनोखी यूरोपीय मौद्रिक एकता को भविष्य का सफल मॉडल माने बैठे थे , वही देश अब इसके पतन की तारीख गिन रहे हैं। यूरो जोन के संकट ने इस सिद्धांत को औंधे मंुह पटक दिया है कि आर्थिक या मौद्रिक एकजुटता संकट से बचाव है। यूरोप की अर्थव्यवस्थाओं को लगता था कि उनकी साझी मुद्रा उनका कवच बन जाएगी और एक के संकट के समय दूसरे की साख काम आएगी लेकिन यहां तो सबने मिल कर यूरो की साख को ही संकट में डाल दिया। ग्रीस, इटली, पुर्तगाल, स्पेन ने एक दूसरे के बीच कर्ज-कर्ज का खेल खेला था। जर्मनी फ्रांस सहित दूसरे भी इस खेल में शामिल थे। तभी तो ग्रीस कर्ज में यूरोजोन के बैंकों का हिस्सा 150 हिस्सा तक है। इसलिए एक के डूबते ही यूरो के डूबने की नौबत आ जाएगी। बचाव के लिए कोई आजादी नहीं है क्योंकि सबकी मुद्रा एक है। अर्थात कोई नोट छाप कर घाटा नहीं भर सकता। अब यूरोजोन में शामिल होने की नहीं बल्कि इसे छोड़ने की मुहिम शुरू होने वाली है। अफ्रीकी व कैरेबियाई दुनिया से बाहर यह पहली बड़ी व अहम मौद्रिक एकता थी। यूरोजोन के बिखरते ही आर्थिक एकजुटता का सिद्धांत नई व्याख्या मांगने लगेगा।
ताकत की नई परिभाषा
बीते सप्ताह बाजारों में अफवाह दौड़ी कि चीन यूरोजोन के बांडों में 630 बिलियन डॉलर के निवेश पर अपना रुख बदल रहा है और यूरो चार साल के सबसे निचले स्तर पर आ गया। बाजार भरभरा गए। चीन ने अगले दिन इस बात को नकारा तो बाजारों की सांस लौटी लेकिन दो दिन बाद बाजार इस खबर पर फिर कांप गया कि चीन में उत्पादन घट रहा है। 2447 बिलियन डॉलर के विदेशी मुद्रा भंडार (विश्व के गैर स्वर्ण विदेशी मुद्रा भंडार का 31 फीसदी) पर बैठे चीन ने दुनिया में आर्थिक ताकत का संतुलन बदल दिया है। चीन की डॉलर तिजोरी दुनिया के विदेशी मुद्रा भंडार में पांच सबसे बड़े देशों के कुल भंडार से भी बड़ी है। इस ताकत के जरिए चीन दुनिया के दोनों बड़े वित्तीय बाजारों, अमेरिका और यूरोप के बीच दिलचस्प ढंग से कूटनीतिक व आर्थिक संतुलन बना रहा है। चीन का जरा सा गर्दन हिलाना इन दोनों बाजारों की धड़कनें बढ़ा देता है। यूरोप को उसने पहले डराया और फिर अभयदान दे दिया। इधर अमेरिकी सरकार के ट्रेजरी बांडों में भी चीन का निवेश 780 बिलियन डॉलर के करीब है। ताकत की इसी नाप तौल के बाद अमेरिका ने चीन की मुद्रा युआन की कमजोरी के खिलाफ अपनी मुहिम फाइलों में बंद कर दी है। यह दुनिया में शक्ति का अनदेखा और अनोखा संतुलन है। बताते चलें कि चीन दुनिया की परिभाषाओं में अभी विकासशील देश है!
यह स्तंभ लिखते-लिखते हंगरी में कर्ज संकट और डिफॉल्ट के खतरे की खबर भी आ गई। ग्रीक त्रासदी पूर्वी यूरोप तक पहुंच गई है। पूर्वी यूरोप को मदद देने वाले वैसे भी कम हैं। यूरोप का वर्तमान देख कर तीसरी दुनिया को सबसे ज्यादा डरना चाहिए। जहां अभी कल्याणकारी राज्य की कायदे से शुरुआत भी नहीं हुई है, और बाजार इसकी ऊंची लागत को अस्वीकृत करने लगा है। इन मुल्कों की गरीब आबादी को इज्जत की जिंदगी देने की ऊंची लागत बड़ी उलझन बनने वाली है। अगर यूरोजोन ढहा तो छोटे मुल्कों के आर्थिक भविष्य और दुनिया की व्यापारिक एकजुटता के सवाल और बडे़ हो जाएंगे। रही बात चीन को तो इसे अब बहुत गौर से देखने की जरूरत है। हमारा यह पड़ोसी आने वाले एक दशक में दुनिया में बहुत कुछ बदलने की कुव्वत रखता है।
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Monday, May 31, 2010

पछतावे की परियोजनायें

अर्थार्थ......
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रबूजा हमेशा से बदकिस्मत है। कभी तो वह खुद चाकू पर टपक जाता है, तो कभी चाकू को उस पर प्यार आ जाता है। लेकिन इससे नतीजे में कोई फर्क नहीं पड़ता। कटता खरबूजा ही है, ठीक उस तरह जैसे कि आर्थिक संकट में फंसे देशों के आम लोग कटते हैं। पहले वित्तीय आपदाएं जनता को झुलसाती हैं और फिर इन संकटों के इलाज या प्रायश्चित खाल उतार लेते हैं। यूरोजोन में वित्तीय कंजूसी और टैक्स बढ़ाने की अभूतपूर्व मुहिम शुरू हो चुकी है। अमेरिका व शेष दुनिया भी इस पाठ को दोहराने वाली है। सरकारें ताजा संकट पर प्रायश्चित कर रही हैं, मगर पछतावे की ये परियोजनाएं जनता की पीठ पर लाद दी गई हैं। मंदी की मारी जनता के जख्मों पर करों में बढ़ोतरी और वेतन-पेंशन में कटौती की तीखी मिर्च मली जा रही है। बुढ़ाते यूरोप के लिए तो यह एक ऐसा दर्दनाक इलाज है, जिसके सफल होने की कोई शर्तिया गारंटी भी नहीं है। इधर मंदी से घुटने तुड़वा चुकी दुनिया की अर्थव्यवस्था के लिए भी यह सबसे चिकने रास्ते के जरिए पहाड़ चढ़ने जैसा है। इस सफर में प्रोत्साहनों, सस्ते कर्ज, अच्छी खपत जैसी सुविधाओं पर सख्त पाबंदी है।
चादर तो बढ़ने से रही
कर्ज संकट में फंसे देशों का इलाज सिर्फ शायलाकों के साथ सौदेबाजी यानी कर्ज पुनर्गठन से ही नहीं हो जाता। इस सौदेबाजी की साख के लिए उन्हें जनता पर नए टैक्स लादने होते हैं और वेतन-पेंशन जैसे खर्चो को क्रूरता के साथ घटाना होता है। दरअसल कर्ज संकट चादरें छोटी होने और पैर बाहर होने का ही नतीजा है। बस एक बार यह पता भर चल जाए कि अमुक देश में खर्च और कमाई का हिसाब-किताब ध्वस्त हो गया और कर्ज चुकाने के लाले हैं तो सरकारों के लिए संसाधनों के स्रोत सबसे पहले सूखते हैं। साख गिरते ही वित्तीय बाजार को उस देश से घिन आने लगती है। अपने ही बैंक सरकार को नखरे दिखाते हैं यानी कि कर्ज मिलना मुश्किल हो जाता है। ग्रीस, स्पेन, पुर्तगाल इसके वर्तमान और अर्जेटीना, रूस, पाकिस्तान, उरुग्वे हाल के ताजे उदाहरण हैं। जाहिर है कि संसाधन न मिलें तो सरकारी मशीनरी बंद हो जाएगी। इसलिए कर्ज संकट आते ही एक पीड़ादायक प्रायश्चित शुरू हो जाता है। नए और मोटे टैक्स लगाकर राजस्व जुटाया जाता है, वेतन, पेंशन काटे जाते हैं, सामाजिक सेवाओं पर खर्च घटता है। घाटा कम करने के आक्रामक लक्ष्य रखे जाते हैं। यह सब इसलिए होता है कि अब कम से कम चादर और तो न सिकुड़े और बाजार को यह भरोसा रहे कि पछतावा शुरू हो गया है।
..तो पैर छोटे करो
ब्रिटेन के मंत्री अब पैदल या बस से दफ्तर जाएंगे! देश की सरकार बच्चों को तोहफे नहीं देगी! सरकारी यात्राओं में कटौती होगी! आदि आदि। करीब 6.2 बिलियन पाउंड बचाने के लिए ब्रिटेन के नए प्रधानमंत्री डेविड कैमरून के इस नुस्खे पर आप बेशक मुस्करा सकते हैं, लेकिन इस तथ्य पर हंसना शायद मुश्किल है कि ग्रीस ने अपने यहां अगले तीन साल के लिए पेंशन-तनख्वाहें और त्यौहारी बोनस व अन्य भत्त्‍‌ो रोक या घटा दिए हैं। यूरोजोन में सरकारी भर्तियों पर पाबंदी लग गई है। पुर्तगाल, स्पेन व आयरलैंड सरकारी कर्मचारियों के वेतन घटा रहे हैं। फ्रांस दस फीसदी खर्च कम करने की तैयारी में है तो पुर्तगाल सरकारी उपक्रम बेचकर पैसा कमाने की जुगाड़ में है। पर जरा ठहरिए! इस तलवार की दूसरी धार और भी तीखी है। कर्ज चुकाने के लिए संसाधन तलाश रहे यूरो जोन में नए टैक्सों की बाढ़ सी आ गई है। पुर्तगाल, ग्रीस, स्पेन आदि ने सभी तरह के कर बढ़ा दिए हैं। ग्रीस कंपनियों पर नया कर थोप रहा है, तो स्पेन ऊंची आय वालों पर टैक्स बढ़ा रहा है। पूरे यूरोजोन में सभी मौजूदा करों की दरें बढ़ गई हैं। वित्तीय कंजूसी और घाटे कम करने के नए लक्ष्य तय किए गए हैं। ब्रिटेन, फ्रांस सहित सभी प्रमुख देशों को अगले दो साल में अपने घाटे तीन से पांच फीसदी तक घटाकर इस इलाज की सफलता साबित करनी है। यह बात दीगर है कि यूरोप के लोग सरकारों की गलतियों का बिल भरने को तैयार नहीं है। पेंशन, वेतन कटने और टैक्स बढ़ने से खफा लोग ग्रीस में लाखों की संख्या में सड़कों पर हैं। इटली व पुर्तगाल के सबसे बडे़ श्रमिक संगठनों ने हड़ताल की धमकी दे दी है। पूरे यूरोप में श्रम आंदोलनों का एक नया दौर शुरू हो रहा है।
गारंटी फिर भी नहीं
यूरोप के इन नाराज लोगों को लाटविया और आयरलैंड के ताजे उदाहरण दिख रहे हैं। जिनका मर्ज करों में बढ़ोत्तरी और खर्च में कटौती की तगड़ी सर्जरी के बाद भी ठीक नहीं हुआ। आयरलैंड ने 2008 में वित्तीय कंजूसी शुरू की, लेकिन इसके बावजूद घाटा दो गुना हो गया। यानी कि मुर्गी जान से गई और बात फिर भी नहीं बनी। यूरोप की चिंताएं शेष दुनिया से कुछ फर्क हैं। यूरोप बुजुर्ग हो रहा है। जहां 39 फीसदी आबादी 50 साल से ऊपर की उम्र वाली हो, उसके लिए पेंशन में कटौती और करों का बोझ बुढ़ापे में बड़ी बीमारी से कम नहीं है। विशाल बुजुर्ग आबादी वाले इटली जैसे मुल्कों के लिए तो यह संकट बहुत बड़ा है। इस पर तुर्रा यह कि आम जनता की यह कुर्बानी तेज विकास की गारंटी नहीं है। यूरोप के परेशान हाल मुल्कों में अगले दो साल के दौरान विकास दर शून्य से नीचे ही रहनी है। जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन जैसे बड़े मुल्कों सहित पूरे यूरोप में अगले दो साल के लिए आर्थिक विकास दर के आकलन 1.2 फीसदी से ऊपर नहीं जा रहे। यूरोप के देश जिन बांड निवेशकों को मनाने के लिए यह कठिन योग साध रहे हैं, उन देवताओं को भी भरोसा नहीं कि इलाज कारगर होगा। बल्कि उनकी राय में यूरोजोन की साख और कमजोर हो सकती है। अर्जेटीना, यूक्रेन, रूस आदि के ताजे अतीत गवाह हैं कि कर्ज, मुद्रा और बैंकिंग संकटों का यह मिला-जुला महामर्ज तीन से पांच साल तक सताता है। कुछ मामलों में यह आठ साल तक गया है। ..यूरोप की आबादी मोटी पेंशन, सस्ती चिकित्सा और ढेर सारी दूसरी रियायतों के साथ कल्याणकारी राज्य का भरपूर आनंद ले रही थी कि अचानक मेला उखड़ गया है।
मंदी और वित्तीय संकट जितनी तेजी से फैलते हैं, उनके इलाज भी उतनी ही तेजी से अपनाए जाते हैं। दुनिया भर की सरकारें अपनी लाड़ली जनता के लिए नए करों की कटारें तैयार कर रही हैं। अमेरिका का केंद्रीय बैंक फेड रिजर्व लोगों को करों के बोझ व खर्चो में कमी को सहने के लिए सतर्क कर रहा है। वहां के डिफाल्टर राज्यों में टैक्स बढ़ने लगे हैं। भारत का ताजा कठोर बजट भी इसी तर्ज पर बना था। मंदी से कमजोर हुई अपनी अर्थव्यवस्थाओं को प्रोत्साहन का टानिक देते-देते सरकारें अचानक जनता से रक्तदान मांगने लगी हैं। एक साल पहले तक लोग मंदी के कारण नौकरियां गंवा रहे थे, अब वे वित्तीय बाजारों में अपनी सरकारों की साख को बचाने के लिए वेतन और पेंशन गंवाएंगे। ..सजा हर हाल में आम लोगों के लिए ही मुकर्रर है।
हमको सितम अजीज, सितमगर को हम अजीज
ना मेहरबां नहीं हैं, अगर मेहरबां नहीं
---गालिब
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Monday, May 17, 2010

ऐसा भी हो सकता है?

ग्री का अपशकुन अब किसका घर घेरेगा? ऋण संकट का वेताल अब किस के आंगन में उतरेगा?.. यही तो सोच रहे हैं न आप? जवाब इस पहेली में छिपा है। आगे लिखी पंक्तियां पढि़ए और सवाल का जवाब दीजिए.. आईएमएफ की निगाह में ये देश ऋण संकट के वायरस का स्वागत करने को तैयार बैठे हैं। इनकी राज्य सरकारें डिफाल्ट होने लगी हैं। इनका कुल सार्वजनिक कर्ज इनके जीडीपी के मुकाबले 100 से 250 फीसदी तक हैं। इनके बजट अब कर्ज का बोझ नहीं संभाल सकते।
जरा बताइए तो यह इशारा किन देशों की तरफ है???
स्पेन, पुर्तगाल, आयरलैंड !!!!
नहीं.. इनके बारे में तो सबको पता है
यह बात अमेरिका, यूके (ब्रिटेन), जापान और कुछ हद तक जर्मनी की है !!!
चौंक गए न? ग्रीस के तूफान ने मजबूत दिखने वाले बड़ों के नकाब खींच दिए हैं। वित्तीय बाजार अब रेत से सर निकालकर यह निर्मम सच बोलने की हिम्मत जुटा रहा है कि बड़े भीतर से बड़े खोखले हैं। अमीर देशों के क्लब जी 20 के आधा दर्जन महारथी ऋण संकट के टाइम बम पर बैठे हैं। इनके सरकारी कर्ज खतरे के हर निशान से ऊपर हैं। वित्तीय बाजार इन्हें नया कर्ज देने में हिचक रहा है। वित्तीय संस्थाएं जल्द ही ट्रिपल ए रेटिंग के अवसान का ऐलान कर सकती हैं। मतलब उस सुनहरी साख का खात्मा होने वाला है जो दिग्गज देशों के सरकारी (सावरिन) बांड्स को मिलती है और इन्हें हर तरह से सुरक्षित होने का तमगा देती है। बताने की जरूरत नहीं कि वित्तीय बाजार निहायत कायर है। खतरे के एक अलार्म पर यहां कोई किसी की चिंता नहीं करता, बस सारी भेड़ें खाई में कूद पड़ती हैं।
कितनी दूर तक जाएगी बात?
सरकारों पर तंज करने वाले कहते हैं कि आम लोग अगर सरकारों की तरह व्यवहार करने लगें तो आप पुलिस को बुला लेंगे.. बात भी ठीक है, खाली जेब हो तो कोई कर्ज नहीं देता, लेकिन सरकारें खूब ऐसा करती हैं। अंतरराष्ट्रीय पैमाने के मुताबिक अगर किसी देश का कर्ज जीडीपी से 60 फीसदी ऊपर हो और ऊपर से वह विदेशी कर्ज हो तो उस मुल्क को कर्ज संकट रोग कभी भी पकड़ सकता है। मगर मूडी के आकलन के मुताबिक सिर्फ 2007 से 2009 के बीच दुनिया के जीडीपी के अनुपात में सरकारों का संप्रभु कर्ज 62 फीसदी से बढ़कर 85 फीसदी हो गया है। इनमें भी जी 20 के सदस्य नौ प्रमुख देशों में सात का संप्रभु कर्ज उनके जीडीपी की तुलना में दस फीसदी बढ़ गया है। जब कि इस दौरान जी 20 में औसत बजट घाटे एक फीसदी से बढ़कर करीब आठ फीसदी हो गए। निवेशकों को खतरा साफ दिख रहा है और संप्रभु डिफाल्ट तो छूत का रोग है। इसे देखते ही वित्तीय बाजार नाक मुंह पर सतर्कता का मास्क बांध लेता है।
इनका हाल तो देखो!
न्यूयार्क के मैनहट्टन में सिक्स्थ एवेन्यू पर लगी अमेरिका की राष्ट्रीय कर्ज घड़ी में नौ अक्टूबर, 2008 को कर्ज की वास्तविक स्थिति दिखाने के लिए अंक कम पड़ गए थे। अमेरिका के कर्ज ने तब दस ट्रिलियन डालर के आंकड़े को पार किया था। यह शायद अमेरिका में कर्ज संकट की उलटी गिनती की शुरुआत थी। यह घड़ी 16 मई रविवार को करीब 12.9 ट्रिलियन डालर का सार्वजनिक कर्ज दिखा रही थी। अमेरिका में केंद्रीय स्तर पर भले ही सब कुछ ढंका छिपा हो, मगर नीचे तो शुरुआत हो चुकी। अमेरिका का सबसे बड़ा राज्य, अर्नाल्ड श्वार्जनेगर का कैलिफोर्निया कर्ज चुकाने में चूकने वाला है और ओबामा से मदद की गुहार कर रहा है। 2009 में अमेरिकी नगर निकायों ने दीवालियेपन के 11000 मामले दायर किए हैं। जबकि 1937 से अब तक ऐसे केवल 600 मामले आए थे। चर्चा हैरिसबर्ग व डेट्रायट जैसे शहरी निकायों के दीवालिया होने की भी है। इससे 2800 बिलियन डालर का म्युनिसिपल बांड बाजार गर्त में है। अमेरिकी की फेडरल सरकार का संप्रभु कर्ज जीडीपी का करीब 85 फीसदी है और सकल कर्ज 150 फीसदी पर है। अमेरिका को इस साल बाजार से 1.6 ट्रिलियन डालर जुटाने हैं, वित्तीय बाजार डरा हुआ है, कोई नहीं जानता कि कैलिफोर्निया का हाल देख लोगों को अंकल सैम के बांडों पर कब तक भरोसा रहेगा।
और इनका क्या होगा?
दुनिया के अगुआ बांड हाउस पिमोको के ब्रिटेन के बाजार से हाथ खींचने की चर्चा लंदन के वित्तीय बाजारों में ठीक उस समय उभरी, जब ब्रितानी सरकार चुनाव से इंच भर दूर थी और करीब 200 बिलियन पौंड सरकारी कर्ज कार्यक्रम सर पर खड़ा था। पिमोको जैसे कई अन्य निवेशक भी यूके की हालत देख कर उखड़ रहे हैं। 1.5 ट्रिलियन पौंड का कुल सरकारी कर्ज और पूरे यूरोपीय समुदाय में सबसे ऊंचा बजट घाटा (जीडीपी के मुकाबले 12 फीसदी) किसी भी निवेशक को डरायेगा। ब्रिटेन यूरो जोन से बाहर है, इसलिए वह मुद्रा का अवमूल्यन कर रहा है, जो हालत और खराब करेगी। इस अमीर मुल्क को अगले तीन साल में 550 बिलियन पौंड का कर्ज चाहिए, लेकिन वित्तीय बाजार तो उसकी ट्रिपल ए रेटिंग वापस लेने की चर्चा कर रहा है। जर्मनी भी जीडीपी के अनुपात में करीब 78 फीसदी कर्ज के साथ खतरे के निशान से ऊपर है। वहां कई राज्यों में कर्ज का हाल कैलिफोर्निया से पांच गुना ज्यादा बुरा है।

पूरब तक फैला अंधियारा
दुनिया के अर्थशास्त्री इस समय इस बहस में जुटे हैं कि पहले यूके डिफाल्ट होगा या जापान। दरअसल जापान कुछ ज्यादा ही नाजुक हालत में है। आईएमएफ मानता है कि वहां इस साल सरकार का कर्ज जीडीपी की तुलना में 227 फीसदी पर पहुंच जाएगा। जापान को 213 ट्रिलियन येन के कर्ज चुकाने के लिए इस साल नया कर्ज चाहिए। पूरब के इस दिग्गज मुल्क में बचत दर नवें दशक के 15 फीसदी से घटकर अब दो फीसदी पर आ गई है। जापान के लोग सरकार के बांडों में पैसा लगाने की स्थिति में नहीं हैं। जापान का स्टेट पेंशन फंड (दुनिया का सबसे बड़ा पेंशन फंड) सरकारी बांड बेच रहा है। बैंकिंग उद्योग पहले से बेहाल है। आर्थिक विकास दर बहुत कमजोर है। दुनिया को मालूम है कि जापान का इतिहास भयंकर आर्थिक भूलों से भरा है।
यह सारा ब्यौरा अगर आपको किसी हारर स्टोरी की तरह लगे तो माफ करिएगा। लेकिन हकीकत छिपाने से फायदा भी क्या? सिटी ग्रुप के अर्थशास्त्री विलियम ब्यूटर तो और भी मुंहफट हैं। वह कहते हैं कि ''कुत्तों की जो नस्लें आज सबसे अच्छी मानी जा रही हैं, वह कभी दुनिया की सबसे खराब नस्लों में गिनी जाती थीं।'' उनका इशारा बड़ों के हाल की तरफ है, वित्तीय पैमानों पर दुनिया के कई पिछड़े मुल्क आज इन अगड़ों से ज्यादा बेहतर हैं। दिसंबर में हमने इसी स्तंभ में लिखा था महासंकट की उलटी गिनती शुरू होने वाली है। ग्रीस से शुरू होकर यह अपशकुन अब दुनिया के कई मुल्कों का दरवाजा खटखटाने लगा है। हर अमीर मुल्क कर्ज का डायनामाइट लपेटे नाच रहा है और भारी घाटों व राजस्व में कमी का पलीता हाथ में है। कोई नहीं जानता कौन किसका कितना कर्ज चुका पाएगा और जनता से क्या-क्या वसूला जाएगा? इलाज की कोशिशें भी जारी हैं, मगर इलाज भी संकट जितना ही भारी है। .. दानिशमंदों (बुद्धिमानों ) की नादानी दुनिया को अक्सर बहुत महंगी पड़ी है। यह संकट इसी की नजीर है।
बूदो बाश क्या पूछो लोगों हम उस शहर से आए हैं
नादानी दानाई जहां है दानाई नादानी है .. फिराक
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Tuesday, December 8, 2009

महासंकट की उलटी गिनती!

अगर दिल कमजोर है तो इसे जरा संभल कर पढ़ें। यह एक खौफनाक असली कहानी है जो दुनिया के वित्तीय बाजारों में लिखी जा रही है। यह हारर स्टोरी समाचारी सुर्खियों की शक्ल में कभी भी और किसी भी वक्त दुनिया के सामने फट सकती है। यह यथार्थ मंदी दूर होने के मुगालतों को मसलने की कूव्वत रखता है और दुनिया को संकटों की एक अभूतपूर्व दुनिया में ले जा सकता है। हो सकता है आप यकायक अगली पंक्तियों पर भरोसा न करें मगर यह सच है कि .. 2010 में ब्रिटेन की सरकार कर्ज के संकट में फंस सकती है!! दो हजार दस का बरस दुनिया में सरकारों के दीवालिया होने का बरस हो सकता है!! अर्थात सावरिन डेट क्राइसिस!! मतलब सरकारों का डिफाल्टर होना यानी कि उस कर्ज को चुकाने में चूक जो सरकारों ने अपनी संप्रभु गारंटी के बदले लिया है। ..अतीत में अर्जेटीना को भुगत चुके वित्तीय बाजार के लिए ये जुमले महाप्रलय की भविष्यवाणियों से कम नहीं हैं। दुबई के डिफाल्टर होने के बाद पूरी दुनिया के कई देशों पर अचानक कर्ज संकट के प्रेत मंडराने लगे हैं। कम से कम आधा दर्जन छोटे बड़े देशों में कर्ज का पानी नाक तक आ गया है। इनमें कुछ तो जी 10 और जी 20 देश भी हैं यानी दुनिया के विकसित, बड़े और अमीर भी। वित्तीय बाजार के लिए यह एक महासंकट की उलटी गिनती है क्योंकि जैसे ही दुनिया के केंद्रीय बैंक ब्याज दरें बढ़ाना शुरू करेंगे तमाम देश कर्ज चुकाने में चूकने लगेंगे और यह चूक मुद्राओं के अवमूल्यन से होती हुई पता नहीं कहां जाकर रुकेगी।
दुबई तो नमूना है
वित्तीय बाजार कह रहा है कि दुनिया का एक बड़ा देश जल्द ही अपने कर्जो में डिफाल्टर होने वाला है? यह रूस है या फिर ब्रिटेन या कोई और? तकरीबन एक सप्ताह पहले मोर्गन स्टेनले दुनिया को यह विश्लेषण पेश कर दुनिया को चौंका दिया कि वर्ष 2010 में ब्रिटेन ऋण संकट में फंस सकता है। मोर्गन तो सिर्फ आशंका जाहिर कर रहा था, मगर स्टैंडर्ड एंड पुअर ने तो ब्रिटेन की साख को लेकन अपने आकलन को नकारात्मक कर दिया। वित्तीय बाजारों का सूत्रधार ब्रिटेन और रेटिंग एजेंसियों की नजर में साख नकारात्मक? ..हैरतअंगेज या सनसनीखेज? विशेषणों की कमी पड़ जाएगी। रूस भी कर्जो के जबर्दस्त दबाव में है खासतौर पर छोटी अवधि के कर्ज जो उसने तेल कीमतों में तेजी के दौर में अपनी चमकती साख के वक्त लिये थे, इनका भुगतान सर पर है। जर्मनी पर कर्ज का बोझ यूरोपीय बाजारों की सांस रोकने लगा है। जब बड़ों का यह हाल है तो फिर छोटों की कौन कहे? दरअसल दुबई का तूफान पश्चिम और पूरब के कई देशों की वित्तीय बदहाली को उघाड़ गया है। आयरलैंड की अर्थव्यवस्था कर्ज के तूफान में घिर रही है। बाल्टिक देश तो कर्ज के गर्त के सबसे करीब हैं। लाटविया शायद ही मुश्किलों से बचे। एस्टोनिया और लिथुआनिया पर विदेशी कर्ज उनके जीडीपी से ज्यादा हो गया है। बुल्गारिया और हंगरी भी इन्हीं देशों की जमात में हैं। इन छोटे देशों की हालत को हलके में मत लीजिए, एक दुबई की बर्बादी ने दुनिया की चूलें हिला दी हैं इनमें एक देश भी अगर अपनी संप्रभु देनदारियों में चूका तो वित्तीय बाजारों में हाहाकार मच जाएगा।
संकट की सुनामी
संकटों के वक्त हमेशा कुछ सर रेत में धंस जाते हैं। इस मौके पर भी ऐसा ही हो रहा है। दुनिया को मंदी से उबरने की मरीचिका दिखाई जा रही है, लेकिन वित्तीय बाजार में तो संकट की सुनामी बनती दिख रही है। यह संकट दरअसल पिछले कुछ वर्षो की उदार मौद्रिक नीतियों, वित्तीय अपारदर्शिता और बाजार में बहे अकूत पैसे से उपजा है। दुनिया जब सुखी थी या सुखी दिखने का नाटक कर सकती थी, तब सरकारों ने और सरकार की गारंटियों के सहारे कंपनियों ने वित्तीय बाजार से अंधाधुंध पैसा उठाया। मंदी आई तो रिटर्न के स्रोत सूख गए। इसलिए जब कर्ज की पहली देनदारी निकली तो बाजार ने दुबई जैसों को ज्यादा वक्त देने से मना कर दिया। कल बाजार औरों से किनारा करेगा। पूरी दुनिया में ब्याज दरें बढ़ने वाली हैं अर्थात देनदारियों को चुकाने के लिए नया कर्ज महंगा और मुश्किल होगा। इसलिए दुबई के बाद पूरी दुनिया में देशों की रेटिंग उलट-पलट गई है। दुनिया के कर्ज और कर्ज की दुनिया के बारे में दिलचस्पी रखते हैं, तो विश्व के के्रडिट डिफाल्ट स्वैप (के्रडिट डिफाल्ट स्वैप अर्थात सीडीएस वित्तीय बाजार के जाने पहचाने उपकरण हैं। यह एक तरह का बीमा है जो कि एक कर्ज देने वाली संस्था किसी दूसरी संस्था से लेती है। ताकि अगर लेनदार डिफाल्टर हो तो पैसा न डूबे। इसके लिए कर्ज देने वाला स्वैप देने वाले को प्रीमियम देता है।) बाजार की ताजी तस्वीर देखिए। छोटों की कौन कहे यहां तो बड़ों की साख पर बन आई है। चीन के सीडीएस छह फीसदी, रूस के 19 फीसदी, इंडोनिशया के 28 फीसदी महंगे हो गए हैं। दांतों तले उंगली दबाइए क्योंकि फ्रंास, जर्मनी, इटली, जापान, ब्रिटेन, स्पेन और यहां तक अमेरिका भी कर्ज बाजार के ऋण जोखिम के सूचकांकों पर खतरे वाली श्रेणियों में चमकने लगे हैं। इन मुल्कों में कर्ज और जीडीपी का अनुपात खतरनाक हो गया है। जर्मनी का कुल कर्ज अगले साल उसके उत्पादन के 77 फीसदी के बराबर हो जाएगा। ब्रिटेन में यह 80 फीसदी है तो जापान में यह 200 फीसदी पर पहुंच रहा है। अमेरिका में ट्रेजरी यानी सरकार के कुल कर्ज का करीब 44 फीसदी हिस्सा अगले एक साल में चुकाया जाना है। तभी तो दुनिया विशेष ऋण बाजार में अमेरिका की साख को मिली ट्रिपल ए रेटिंग पर हैरत के साथ हंस रही है।
बचाएगा कौन?
कर्ज संकटों के इतिहास से वाकिफ कोई व्यक्ति कह सकता है कि आईएमएफ किस दिन काम आएगा। मगर देशों के कर्ज संकट के दो पहलू हैं, एक विदेशी कर्ज और दूसरादेशी। लाटविया, एस्टोनिया जैसे देशों पर विदेशी कर्ज है। आईएमएफ इन्हें विदेशी मुद्रा देकर कुछ समय के लिए बचा सकता है। अलबत्ता आईएमएफ का इलाज लेने वाले देशों की वित्तीय साख का कचरा बन जाता है। अर्जेटीना इसकी ताजी नजीर है। आईएमएफ की मदद लेने वाले देशों की कंपनियां दुनिया के बाजार में अछूत बन जाती हैं। हो सकता है ब्रिटेन, जापान, जर्मनी को आईएमएफ की जरूरत न पड़े, लेकिन इनके संकट आईएमएफ सुलझा भी नहीं सकता। ये देश घरेलू कर्ज की जकड़ में हैं। इन्हें ज्यादा घरेलू मुद्रा छापकर कर्ज पाटना होगा या फिर टैक्स बढ़ाना और खर्च घटाना होगा। इनमें से हर कदम खतरों भरा है। भारी राजकोषीय घाटे और नोटों की छपाई देशी मुद्रा का अवमूल्यन करती है और सरकार को अपने बांड खरीदने वाले भी नहीं मिलते। कर बढ़ाना और खर्च घटाना, मांग कम करता है और कर चोरी बढ़ाता है।
और भारत ?. आप कह सकते हैं कि कुछ सुरक्षित है या कुछ अर्थो में कतई सुरक्षित नहीं है। सरकार भले ही कर्जदार न हो, लेकिन वित्तीय बाजार तो दुनिया से जुड़ा है, इसलिए संकट की सुनामी हमें डुबाए भले न, लेकिन झकझोर जरूर देगी। हमारे लिए इतना ही काफी है। देशों के ऋण संकट वित्तीय बीमारियों की फेहरिस्त में सबसे भयानक हैं। इसके इलाज आर्थिक शरीर को बुरी तरह तोड़ देते हैं और अर्थव्यवस्था तहस-नहस हो जाती है। अर्जेंटीना छह साल बाद आज भी घिसट रहा है और मेक्सिको को पुरानी रौ में आने में वक्त लगेगा। कभी-कभी यह लगता है कि दुनिया का वित्तीय एकीकरण फायदे से ज्यादा नुकसान का सौदा साबित हो रहा है। अर्जेटीना की सुनामी ने केवल लैटिन अमेरिका के बाजारों को हिलाया था मगर अब जो सुनामी बन रही है, वह पूरे भूमंडल के वित्तीय बाजारों को लपेट सकती है। वजह यह कि उदारीकरण के लाभ भले ही सामूहिक न हों, मगर गलतियां और नुकसान सामूहिक रहे हैं। इसलिए 2012 की फिक्र छोडि़ए.. 2010 वित्तीय बाजारों पर बहुत भारी पड़ सकता है।
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