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Monday, October 26, 2015

यह हार है बड़ी





देश के सबसे बड़े राजनैतिक दल और उसकी सरकार ने न केवल चुनावों को ठीक करने का बड़ा मौका गंवा दिया बल्कि चुनावों को दूषित करने वाले तरीकों को नए तरह से प्रामाणिक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. 


ह निष्कर्ष निकालने में कोई हर्ज नहीं है कि अगले साल बंगाल के चुनाव में आपराधिक छवि वाले प्रत्याशियों के बीच होड़ होने वाली है. चुनावी वादे अब लैपटॉप, साइकिल से होते हुए स्कूटी, पेट्रोल, मकान, जमीन देने तक पहुंच चुके हैं, अगले वर्ष के विधानसभा चुनावों में इसकी नई सीमाएं नजर आ सकती हैं. अगले साल तक चुनावों में काला धन बहाने के नए तरीके नजर आएंगे और वंशवाद की राजनीति का नया परचम लहराने लगेगा जो उत्तर प्रदेश की पंचायतों के चुनावों तक आ गया है. इन नतीजों पर पहुंचना इसलिए आसान है कयों कि बिहार के चुनाव में देश के सबसे बड़े राजनैतिक दल और उसकी सरकार ने न केवल चुनावों को ठीक करने का बड़ा मौका गंवा दिया बल्कि चुनावों को दूषित करने वाले तरीकों को नए तरह से प्रामाणिक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. 
नरेंद्र मोदी और बीजेपी से अपेक्षा तो यह थी कि सत्ता में आने के बाद यह पार्टी ऐलानिया तौर पर चुनाव सुधार शुरू करेगी, क्योंकि विपक्ष में रहकर न केवल बीजेपी ने भारतीय लोकतंत्र में चुनावों की गंदगी को समझा है बल्कि इसे साफ करने की आवाजों में सुर भी मिलाया है. आदर्श तौर पर यह काम महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड के चुनावों से शुरू हो जाना चाहिए था लेकिन अगर ये चुनाव जल्दी हुए तो बिहार से इसकी शुरुआत हो ही जानी चाहिए थी.
एक आम भारतीय मतदाता चुनावों में यही तो चाहता है कि उसे अपराधियों को अपना प्रतिनिधि चुनने पर मजबूर न किया जाए. याद कीजिए पिछले साल मई में मोदी की इलाहाबाद परेड ग्राउंड की जनसभा जिसमें उन्होंने कहा था कि ''सत्ता में आते ही राजनीति से अपराधीकरण खत्म करने की मुहिम शुरू होगी. सरकार सभी प्रत्याशियों के हलफनामे सुप्रीम कोर्ट के सामने रखकर मामलों की सुनवाई करने और फैसले सुनाने के लिए कहेगी. जो अपराधी पाए जाएंगे, उनकी सदस्यता जाएगी और उपचुनाव के जरिए सीटे भरी जाएंगी. यही काम विधानसभा में होगा." मोदी ने जोश में यह भी कहा था कि यदि दोषी होंगे तो वह खुद भी मुकदमे का सामना करेंगे लेकिन अगली संसद साफ-सुथरी होगी. पता नहीं, वह कौन-सी बहुमत की कमी है जिसने मोदी को यह प्रक्रिया शुरू करने से रोक रखा है. अलबत्ता देश को यह जरूर मालूम है कि बिहार के चुनाव के पहले चरण में आपराधिक छवि वाले सर्वाधिक लोग बीजेपी का टिकट लेकर चुनाव मैदान में हैं और बीजेपी में अपराधियों को टिकट बेचने का खुलासा करने के बाद पार्टी के सांसद आर.के. सिंह ने हाइकमान की डांट खाई है. चुनावों की निगहबानी करने वाली संस्था एडीआर का आंकड़ा बताता है कि पहले चरण के चुनाव में बीजेपी के 27 प्रत्याशियों में 14 पर आपराधिक मामले हैं. हमें मालूम है कि बीजेपी भी अब मुलायम, मायावती या लालू की तरह आपराधिक मामलों के राजनीति प्रेरित होने का तर्क देगी लेकिन अपेक्षा तो यही थी कि वह साफ -सुथरे प्रत्याशियों की परंपरा शुरू करने के साथ इस तर्क को गलत साबित करेगी.
लैपटॉप, साइकिलें, बेरोजगारी भत्ता आदि बांटने के चुनावी वादों पर भारत में बहस लोकसभा चुनाव से पहले ही शुरू हो गई थी और बीजेपी इस बहस का सक्रिय हिस्सा थी. जुलाई, 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को चुनावी वादों को लेकर दिशानिर्देश तय करने का आदेश देते हुए कहा था कि चुनाव से पहले घोषित की जाने वाली खैरात साफ-सुथरे चुनावों की जड़ें खोद देती है. बीजेपी को सत्ता में आने के बाद इस सुधार की अगुआई करनी थी, लेकिन बिहार के चुनाव में पार्टी ने स्कूटर, मकान, पेट्रोल और जमीन देने के वादे करते हुए इस बड़ी उक्वमीद को दफन कर दिया है कि भारत के चुनाव इस 'रिश्वतखोरी'  से कभी मुक्त हो सकेंगे. दिलचस्प है कि चुनावों में लोकलुभावन घोषणाओं पर सुप्रीम कोर्ट का आदेश तमिलनाडु में टीवी, मिक्सर-ग्राइंडर बांटने जैसे चुनावी वादों पर आया था. अगले साल तमिलनाडु में फिर चुनाव होने हैं इस बार वहां लोकलुभावन घोषणाओं का नया तेवर नजर आ सकता है.
इस अगस्त में जब बिहार चुनाव की तैयारियां पूरे शबाब पर थीं तब सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर राजनैतिक दलों को सूचना कानून के दायरे में लाने का विरोध किया. यह एक ऐसा सुधार था जो चुनावों में खर्च को सीमित करने और पार्टियों का हिसाब साफ-सुथरा करने की राह खोल सकता था. यहां से आगे बढ़ते हुए चुनावी चंदों में पारदर्शिता और काले धन के इस्तेमाल पर रोक के कदम उठाए जा सकते थे. बीजेपी सत्ता में आने से पहले इसके पक्ष में थी लेकिन बिहार की तरफ  बढ़ते हुए उसने खुद को उन दलों की जमात में खड़ा कर दिया जो भारतीय चुनावों को काले धन का दलदल बनाए रखना चाहते हैं. बिहार में जगह-जगह नकदी पकड़ी गई है और चुनाव आयेाग मान रहा है कि 25 फीसदी सीटें काले धन के इस्तेमाल के हिसाब से संवेदनशील हैं. अब जबकि राजनैतिक शुचिता पर बौद्धिक नसीहतें देने वाली पार्टी ही इस कालिख की पैरोकार है तो अचरज नहीं कि काले धन की नदी पंचायत से लेकर संसद तक बेरोक बहेगी.
राजनैतिक सुधारों को लेकर बीजेपी की कलाबाजी इसलिए निराश करती है कि सुधार तो दूर, पार्टी ने राजनीति के धतकर्मों को नई परिभाषाएं व प्रामाणिकता देना शुरू कर दिया है. मसलन इंडिया टुडे के पिछले अंक में अमित शाह ने देश को परिवारवाद की भाजपाई परिभाषा से परिचित कराया. 
यदि हम इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते कि चुनावों में हार जीत ही सब कुछ होती है तो हमें यह मानना पड़ेगा कि बिहार के चुनाव के जरिए सभी दलों ने राजनैतिक सुधारों की उम्मीद को सामूहिक श्रद्धांजलि दी है. बिहार चुनाव का नतीजा कुछ भी हो लेकिन भारतीय लोकतंत्र खुद को ठीक करने का एक बड़ा मौका चूक गया है.