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Sunday, October 14, 2018

लुटाने निचोड़ने का लोकतंत्र


वंबर 2015 में सरकार के एक बड़े मंत्री पूरे देश में घूम-घूमकर बता रहे थे कि कैसे उनकी सरकार पिछली सरकारों के पाप ढो रही है. सरकारों ने सस्ती और मुफ्त बिजली बांटकर बिजली वितरण कंपनियों को लुटा दिया. उन पर 3.96 लाख करोड़ रु. का कर्ज (जीडीपी का 2.6 फीसदी) है. केंद्र को इन्हें उबारना (उदय स्कीम) पड़ रहा है.

उदय स्कीम के लिए सरकार ने बजटों की अकाउंटिंग बदली थी. बिजली कंपनियों के कर्ज व घाटे राज्य सरकारों के बजट का हिस्सा बन गए. केंद्र सरकार ने राज्यों के घाटे की गणना से इस कर्ज को अलग रखा था. बिजली कंपनियों के कर्ज बॉन्ड में बदल दिए गए थे. इस कवायद के बावजूद पूरे बिजली क्षेत्र की हालत जितनी सुधरी उससे कहीं ज्यादा बदहाली राज्यों के खजाने में बढ़ गई.

7 अक्तूबर 2018 को विधानसभा चुनाव की घोषणा के ठीक पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदगी में राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने किसानों को मुफ्त बिजली की रिश्वत देने का ऐलान करते हुए केंद्र सरकार की 'उदय' को श्रद्धांजलि दे दी. 2014 में राजस्थान की बिजली कंपनी बुरी हालत में थी. उदय से मिली कर्ज राहत के बाद इसके सुधार को केंद्र सरकार ने सफलता की कहानी बनाकर पेश किया था.

इसी तरह मध्य प्रदेश की सरकार ने भी बिजली के बकायेदारों को रियायत की चुनावी रिश्वत देने का ऐलान किया है. अचरज नहीं कि मुफ्त बिजली की यह चुनावी रिश्वत जल्द ही अन्य राज्यों में फैल जाए. 

हर आने वाली नई सरकार को खजाना कैसे खाली मिलता है?

या सरकार के खजाने कैसे लुटते हैं?

सबसे ताजा जवाब मध्य प्रदेशराजस्थानछत्तीसगढ़तेलंगाना के पास हैंजहां चुनाव की घोषणा से पहले करीब तीन हजार करोड़ रुपए के मोबाइलसाड़ीजूते-चप्पल आदि मुफ्त में बांट दिए गए हैं या इसकी घोषणा कर दी गई है. तमिलनाडु में 2006 से 2010 के बीच द्रमुक ने मुफ्त टीवी बांटने पर 3,340 करोड़ रुपए खर्च किए. छत्तीसगढ़ ने जमीन के पट्टे बांटे और उत्तर प्रदेश में (2012-15) के बीच 15 लाख लैपटॉप बांटे गए.

हमारे पास इसका कोई प्रमाण नहीं है कि रिश्वत से चुनाव जीते जा सकते हैं. कर्ज माफी के बावजूद और कई तरह की रिश्वतें बांटने के बावजूद सत्तारूढ़ दल चुनाव हार जाते हैं लेकिन हमें यह पता है कि इस सामूहिक रिश्वतखोरी ने किस तरह से भारतीय अर्थव्यवस्थाबजट और समग्र लोकतंत्र को सिरे से बर्बाद और भ्रष्ट कर दिया है.

भारत की राजनीति देश के वित्तीय प्रबंधन का सबसे बड़ा अभिशाप है. हर चुनाव के बाद आने वाली सरकार खजाना खाली बताकर चार साल तक अंधाधुंध टैक्स लगाती है और फिर आखिरी छह माह में करदाताओं के धन या बैंक कर्ज से बने बजट को संगठित रिश्वतखोरी में बदल देती है. पिछले पांच बजटों में अरुण जेटली ने 1,33,203 करोड़ रु. के नए टैक्स लगाएऔसतन करीब 26,000 करोड़ रु. प्रति वर्ष. आखिरी बजट में करीब 90,000 करोड़ रु. के नए टैक्स थे. अब बारी लुटाने की है. छह माह बाद टैक्स फिर लौट आएंगे.

हमें पता है कि चुनावी रिश्वतें स्थायी नहीं होतीं. आने वाली नई सरकार पिछली सरकार की स्कीमों को खजाने की लूट कहकर बंद कर देती है या अपने ही चुनावी तोहफों पर पैसा बहाने के बाद सरकार में लौटते ही पीछे हट जाती है.

भारत की राजनीति अर्थव्यवस्था में दोहरी लूट मचा रही है. चुनावी चंदे निरे अपारदर्शी थेअब और गंदे हो गए हैं. राजनैतिक दलों के चंदे में हर तरह के धतकरम जायज हैं. कंपनियों को इन चंदों पर टैक्स बचाने से लेकर इन्हें छिपाने तक की सुविधा है.

क्या बदला पिछले चार साल मेंकहीं कोई सुधार नजर आए?

कुछ भी तो नहीं!

चुनाव की हल्दी बंटते ही हम बुद्धू उसी घाट लौट आए हैं जहां से चले थे. भारतीय लोकतंत्र पहले से ज्यादा गंदला और अर्थव्यवस्था के लिए जोखिम भरा हो गया. हम जल्दी ही उस स्थिति में पहुंचने वाले हैं जहां हमारी सियासत सबसे बड़ी आर्थिक मुसीबत बन जाएगी.

अगर सियासत बजटों से वोट खरीदने और चंदों के कीचड़ लिथडऩे से खुद को नहीं रोक सकती तो पूरे देश में एक साथ चुनावों से कुछ नहीं बदलने वाला. क्या हमारा चुनाव आयोग या सुप्रीम कोर्ट अमेरिका की तर्ज पर अपनी सरकारों को चुनाव से छह माह पहले बजटों के इस्तेमाल से रोक नहीं सकतेअगर इतना भी हो सका तो हम उस दुष्चक्र को सीमित कर सकते हैं जिनमें चुनाव से पहले रिश्वत बंटती है और बाद में टैक्स लगाए जाते हैं.

Monday, September 3, 2018

पर्दा अभी उठा नहीं है


वह 2016 नवंबर का दूसरा सप्ताह था. नोटबंदी को केवल दस दिन बीते थे और जनता के पास मौजूद बड़े नोटों का लगभग 40 फीसदी हिस्सा बैंकों में पहुंचा चुका था. बची हुई नकदी पेट्रोल पंपोंस्कूलोंअस्पतालों में पहुंच रही थी जहां उसे स्वीकार करने की इजाजत थी. इसी दौरान रिजर्व बैंक ने यह बताना बंद कर दिया कि बैंक खातों में जमा किस तरह बढ़ रहा है और इसके साथ ही यह तय हो गया कि शायद अधिकांश नकदी बैंकों में वापस हो रही है.

बंद किए गए 99 फीसदी नोटों की बैंकों में वापसी का संकेत तो पिछले साल जून में ही मिल गया था. अब इन खिसियाये स्पष्टीकरणों का कोई अर्थ नहीं है कि नोटबंदी के बाद आयकर रिटर्न या टैक्स भरने वाले बढ़े हैं. क्या नोटबंदी जैसे विराट और मारक जोखिम का मकसद आयकर रिटर्न भरने की आदत ठीक करना था?

और बाजार में नकदी तो इस कदर बढ़ चुकी है कि कैशलेस या लेसकैश अर्थव्यवस्था की बहस ही अब बेसबब हो गई.

दरअसलनोटबंदी के बड़े रहस्य अभी भी पोशीदा हैं. रिजर्व बैंक व सरकार अगर देश को कुछ सवालों के जवाब देंगे तो हमें पता चल सकेगा कि भारत के आर्थिक इतिहास की सबसे बड़ी उथल पुथल के दौरान क्या हुआ था और शायद इसी में हमें काले धन के कुछ सूत्र मिल जाएंजिन के लिए यह इतना जान-माललेवा जोखिम उठाया गया था.

- कौन थे वे "गरीब'' जिन्होंने लाखों की तादाद में जनधन खाते खोले और नोटबंदी के दौरान पुराने और नए खातों में करोड़ों रुपए जमा किएनोटबंदी के ठीक बाद 23.30 करोड़ नए जन धन खाते खोले गए. इनमें से 80 फीसदी सरकारी बैंकों में खुले. नोटबंदी के वक्त (9 नवंबर 2016) को इन खातों में कुल 456 अरब रुपए जमा थे जो 7 दिसंबर 2016 को 746 अरब रुपए पर पहुंच गए.

जनधन खातों के दुरुपयोग की खबरों के बीच सरकार ने 15 नवंबर 2016 को जनधन खातों में रकम जमा करने के लिए 50,000 रुपए की ऊपरी सीमा तय कर दी थी. वित्त मंत्री ने पिछले साल फरवरी में संसद को बताया था कि विभिन्न खाताधारकों (जनधन सहित) को आयकर विभाग ने 5,100 नोटिस भेजे हैंइसके बाद नोटबंदी में जनधन के इस्तेमाल की जांच कहीं गुम हो गई!

- क्या हमें कभी यह पता चल पाएगा कि नोटबंदी के दिनों में सरकारी (केंद्र और राज्य) खजानों और  बैंकों में सरकारी/पीएसयू खातों के जरिए कितनी रकम का लेनदेन हुआसनद रहे कि सरकारी विभागों और सेवाएं नोटबंदी या नकद लेनदेन की तात्कालिक सीमा से मुक्त थे. कई सरकारी सेवाओं को प्रतिबंधित नोटों में भुगतान लेने की इजाजत दी गई थी. सरकारी सेवाओं के विभागों के नेटवर्क जरिए कितनी पुरानी नकदी बदली गईक्या इसका आंकड़ा देश को नहीं मिलना चाहिए?

 नोटबंदी के दौरान बड़ी कंपनियों व कारोबारियों के चालू खातों और नकद लेनदेने के जरिए बैंकों में कितने पुराने नोट पहुंचेइसकी हमें कोई जानकारी नहीं है. बाद की पड़ताल में कई छद्म (शेल) कंपनियां मनी लॉन्ड्रिंग में शामिल पाई गईं. ऐसे में यह उम्मीद करना जायज है कि सरकार के पास कारोबारी नकद खातों के इस्तेमाल के बारे में काफी जानकारी होगी. नोटबंदी के दौरान बड़ी कंपनियों में नकदी की आवाजाही की पड़ताल की जानकारी उन लोगों को मिलनी चाहिए जो अपने कुछ सैकड़ा रुपए बदलवाने के लिए नोटबंदी की लाइनों में बिलख रहे थे. 

- क्या देश को यह जानने का हक नहीं है कि नोटबंदी के दौरान राजनैतिक पार्टियों के खातों में कितने लेनदेन हुए और उस वक्त जब लोगों के पास  अस्पतालों में दवा खरीदने के लिए नकदी नहीं थीतब सियासी धूम-धड़ाकों पर कहां और कैसे खर्च किया गयासनद रहे कि आम लोग जब नोटबंदी की अग्निपरीक्षा दे रहे थे तब सरकार ने सियासी पार्टियों को अपने खातों में 500 रुपए और 1,000 रुपए के पुराने नोट जमा करने की इजाजत दी थीजिसे हर तरह का जांच से बाहर रखा गया था.

- देश के लिए यह भी जानना जरूरी है कि नोटबंदी के दौरान बैंकों में जो भ्रष्टाचार हुआ उसकी जांच आखिर कहां रुकी हुई है.

रिजर्व बैंक ने अपनी बात कह दी है. अब सरकार को सवालों से आंख मिलाना ही होगा. ऐसा कहां लिखा है कि सरकारें गलत नहीं हो सकतीं. दुनिया के हर देश में सरकारें किस्म-किस्म की गलतियां करती हैं लेकिन वे उन्हें स्वीकार भी करती हैं. भारत के करोड़ों आम लोगों ने नोटबंदी में तपकर अपनी ईमानदारी साबित की है. अब अग्नि परीक्षा से गुजरने की बारी सरकार की है.



Sunday, November 19, 2017

यह है असली कामयाबी


रेंद्र मोदी सरकार के पिछले तीन साल की सबसे बड़ी सफलता क्या है
अगर आपको नहीं मालूम तो इस बात पर मत चौंकिए कि प्रचार-वीर सरकार ने अब तक बताया क्यों नहीं ? 
आश्‍चर्य  तो यह है कि इस कामयाबी को मजबूत बनाने के लिए अब तक कुछ भी नहीं किया गया.
तमाम मुसीबतों के बावजूद छोटे-छोटे शहरों के मध्य वर्ग की छोटी बचतों ने बेहद संजीदगी से भारतीय शेयर बाजार की सूरत बदल दी है. म्युचुअल फंड पर सवार होकर शेयर बाजार में पहुंच रही बचतएक अलहदा किस्म का वित्तीय समावेशन (फाइनेंशियल इनक्लूजन) गढ़ रही है और भारत की निवेश आदतों को साफ-सुथरा बनाने का रास्ता दिखा रही है.

भारतीय शेयर बाजार में कुछ ऐसा हो रहा है जो अब तक कभी नहीं हुआ. बाजारों के विदेशी निवेशकों की उंगलियों पर नाचने की कहानी पुरानी हो रही है. ताजा आंकड़े बताते हैं कि 2014 के बाद से घरेलू निवेशकों ने 28 अरब डॉलर मूल्य के शेयर खरीदे हैं. यह विदेशी निवेश के (30 अरब डॉलर) के तकरीबन बराबर ही है. इसने पिछले तीन साल में शेयर बाजार को बड़ा सहारा दिया है और विदेशी निवेश पर निर्भरता को कम किया है.

छोटे निवेशक अपनी मासिक बचत को कमोबेश सुरक्षित तरीके से (सिस्टेमिक इन्वेस्टमेंट प्लान यानी सिप) म्युचुअल फंड में लगा रहे हैं. म्युचुअल फंड उद्योग के मुताबिकपिछले तीन साल में उसे मिले निवेश ने सालाना 22-28 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की है. म्युचुअल फंड एसेट्समई 2014 में 10 लाख करोड़ रु. के मुकाबले 2017 की जुलाई में 19.97 लाख करोड़ रु. पर पहुंच गए. ज्यादातर निवेश छोटे-छोटे शहर और कस्बों से आ रहे हैंजहां फंड में निवेश में 40 फीसदी का इजाफा हुआ है.

मकान-जमीन और सोने की चमक बुझ रही है तो घरेलू निवेशकों की मदद की बदौलत शेयर बाजार (निफ्टी) ने पिछले तीन वर्ष के दौरान 11.97 फीसदी (किसी भी दूसरी बचत या निवेश से कहीं ज्यादा) का सालाना रिटर्न दिया है.

जोखिम का मोड़

इक्विटी कल्चर की कहानी रोमांचक हैलेकिन जोखिम से महफूज नहीं. शेयरों की कीमतें जितनी तेजी से बढ़ रहीं हैंबाजार की गहराई उसके मुताबिक कम है. बाजार में धन पहुंच रहा है तो इसलिए देश की आर्थिक हकीकत (ग्रोथ में गिरावटतेल की बढ़ती कीमतपटरी से उतरा जीएसटी आदि) की परवाह किए बगैर बाजार बुलंदियों के रिकॉर्ड गढ़ रहा है.

यही मौका है जब छोटी बचतों के रोमांच को जोखिम से बचाव चाहिए.

- कंपनियों के पब्लिक इश्यू बढऩे चाहिए. प्राइमरी शेयर बाजार विश्लेषक प्राइम डाटाबेस के मुताबिकपिछले तीन वर्ष में नए इश्यू की संख्या और आइपीओ के जरिए जुटाई गई पूंजी2009 और 2011 के मुकाबले कम है जो प्राइमरी मार्केट के लिए हाल के सबसे अच्छे साल थे. सरकारी कंपनियों के विनिवेश में तेजी की जरूरत है.

- शेयर बाजार की गहराई बढ़ाने के लिए नए शेयर इश्यू का आते रहना जरूरी है. औद्योगिक निवेश के संसाधन जुटाने में इक्विटी सबसे अच्छा रास्ता है.

- सेबी के नियमों के मुताबिकशेयर बाजार में सूचीबद्ध कंपनी के कम से कम 25 फीसदी शेयर जनता के पास होने चाहिए. अब भी 1,886 सूचीबद्ध कंपनियां इस नियम का पालन नहीं कर रही हैं. कैपिटलाइन के आंकड़ों के मुताबिकइनमें 1,795 कंपनियां निजी हैं.

- लोगों की लघु बचत दो दशक के सबसे निचले स्तर पर है. 2010 में परिवारों की बचत (हाउसहोल्ड  सेविंग्स)जीडीपी के अनुपात में 25.2 फीसदी ऊंचाई पर थी जो 2017 में 18.6 फीसदी पर आ गई. सरकारी बचत योजनाएं (एनएससीपीपीएफ) ब्याज दरों में कमी के कारण आकर्षण गंवा रही हैं.
बचत में गिरावट को रोकने के लिए वित्तीय बाजार में निवेश को प्रोत्साहन देने होंगे. आयकर नियम बदलने होंगे ताकि शेयरोंम्युचुअल फंडों और डिबेंचरों में निवेश को बढ़ावा मिले.

भारत में निवेश व संपत्ति का सृजन पूरी तरह सोना व जमीन पर केंद्रित है. क्रेडिट सुइस ग्लोबल वेल्थ रिपोर्ट 2017 के मुताबिकभारत में 86 फीसदी निजी संपत्ति सोने या जमीन के रूप में हैवित्तीय निवेशों का हिस्सा केवल 14 फीसदी हैजबकि ब्रिटेन में 51 फीसदीजापान में 53 फीसदी और अमेरिकी में 72 फीसदी संपत्ति वित्तीय निवेशों के रूप में है.



नोटबंदी से तो कुछ नहीं मिला. यदि छोटे निवेशकों के उत्साह को नीतियों का विटामिन मिल जाए तो संपत्ति जुटाने के ढंग को साफ-सुथरा बनाया जा सकता है. बताने की जरूरत नहीं है कि वित्तीय निवेश पारदर्शी होते हैं और सोना व जमीन काली कमाई के पसंदीदा ठिकाने हैं.

Sunday, November 5, 2017

नोटबंदी का तिलिस्मी खाता


चलिएकाला धन तलाशने में सरकार की मदद करते हैं. 

नोटबंदी को गुजरे एक साल गुजर गया. कोई बड़ी फतह हाथ नहीं लगी. ले-देकर गरीब कल्याण योजना में आए 5,000 करोड़ रुपए ही हैं जिन्हें अधिकृत तौर पर नोटबंदी का हासिल काला धन माना जा सकता है. शेष सब कुछ जांच युग में है या दावों पर सवार है.

तो कहां मिलेगा काला धन?

बगल में छोरागांव में ढिंढोरा.

काले धन के कुछ बड़े रहस्य सरकार की जन धन योजना के पास हो सकते हैं  गरीबों को बैंकिंग से जोडऩे के लिए जिसे शुरू किया गया था.

नोटबंदी के बाद सरकार जन धन पर सन्नाटा खींच गई है लेकिन आंकड़े तो उपलब्ध हैं. 

रिजर्व बैंक ने नोटबंदी के असर पर रिपोर्ट इसी मार्च में जारी की थी. वित्त मंत्री ने 3 फरवरी को संसद में एक सवाल के जवाब में कुछ जानकारी दी थीसरकारी आंकड़ों पर आधारित दूसरे अध्ययन भी उपलब्ध हैं.

इनके आधार पर देखिए कि नोटबंदी के दौरान जन धन क्या हुआ था?

·       नोटबंदी से पहले अप्रैल से जुलाई के बीच लगभग 73,000 खाते प्रति दिन खोले जा रहे थे लेकिन नोटबंदी के दौरान प्रति दिन दो लाख खाते खुले. नोट बदलने की सभी सीमाएं खत्म होने के बाद (मार्च से जुलाई से 2017) के बीच जन धन खाते खुलने का औसत दैनिक घटकर 92,000 पर आ गया.

·       नोटबंदी के ठीक बाद 23.30 करोड़ नए जन धन खाते खोले गए. इनमें से 80 फीसदी सरकारी बैंकों में खुले. लगभग 54 फीसदी शहरों में खुले और शेष गांवों की शाखाओं में. 

·      नोटबंदी के वक्त (9 नवंबर 2016) को इन खातों में कुल 456 अरब रुपए जमा थे जो 7 दिसंबर 2016 को 746 अरब रुपए पर पहुंच गए.

·       नोटबंदी के 53 दिनों में जन धन खातों में 42,187 करोड़ रुपए जमा हुए. इनमें से 18,616 करोड़ रुपए तो 9 नवंबर से 16 नवंबर के बीच शुरुआती आठ दिनों में ही इन खातों में जमा हो गए. ये आंकड़ा नोटबंदी से पहले के 53 दिनों के मुकाबले 1850 फीसदी ज्यादा है.

·      नोटबंदी के पहले जन धन खातों में औसतन 43 करोड़ रुपए का दैनिक जमा होता था. नोटबंदी शुरू हो होते ही पहले हक्रते में प्रति दिन 2,327 करोड़ रुपए जमा होने लगे. नोटबंदी खत्म होते ही एवरेज डेली ट्रांजैक्शन में 95 फीसदी की कमी दर्ज की गई.

·       नोटबंदी के दौरान जन धन की ताकत दिखाने वालों में गुजरात सबसे आगे रहा. 9 नवंबर 2016 से 25 जनवरी 2017 तक राज्य के जन धन खातों के डिपॉजिट में 94 फीसदी का इजाफा हुआ. इसी अवधि में कर्नाटक में जन धन डिपॉजिट 81 फीसदीमध्य प्रदेश व महाराष्ट्र में 60 फीसदीझारखंड और राजस्थान में 55 फीसदीबिहार में 54 फीसदीहरियाणा में 50 फीसदीउत्तर प्रदेश में 45 फीसदी और दिल्ली में 44 फीसदी बढ़े.

·      जन धन खातों में नोटबंदी के पहले हक्रते में डिपॉजिट में 40 फीसदी की ग्रोथ देखकर 15 नवंबर 2016 को वित्त मंत्रालय ने एक बार में 50 हजार रुपए से ज्यादा राशि जन धन में जमा करने पर रोक लगा दी.

·       नोटबंदी के दौरान जन धन खातों का औसत बैलेंस 180 फीसदी तक बढ़ गया थाजो मार्च में घटकर नोटबंदी के पहले वाले स्तर पर आ गया.

·       गरीबों के जीरो बैलेंस खातों का व्यवहार गहरे सवाल खड़े करता है. नोटबंदी के दौरान इन खातों की संख्या में अप्रत्याशित बढ़ोतरी का रहस्य क्या है?  

वित्त मंत्री ने फरवरी में संसद को बताया था कि विभिन्न खाताधारकों (जन धन सहित) को आयकर विभाग ने 5,100 नोटिस भेजे हैंइसके बाद नोटबंदी जन धन इस्तेमाल की जांच कहां खो गई?

नोटबंदी के दौरान अनियमितता को लेकर बैंकों की शुरू हुई जांच भी बीच में क्यों छूट गई?

हम इतनी जल्दी इस निष्कर्ष‍ पर नहीं पहुंचना चाहते कि जन धन खातों का इस्तेमाल मनी लॉन्ड्रिंग में हुआ लेकिन नोटबंदी के दौरान बैंकों के भीतर बहुत कुछ ऐसा हुआ है जो रहस्यमय है और नोटबंदी की विफलता की वजह हो सकता है.

आम लोगों को बैंकिंग से जोडऩे के सबसे बड़े अभियान की बदकिस्मती यह है कि वह सरकार के नीति रोमांच का शिकार हो कर दागी हो गया. बैंकिंग पर आम लोगों के भरोसे को गहरी चोट लगी है.

लोकतंत्र में जनता अजातशत्रु होती है. यह सरकारों की विफलताओं को भी पचा लेती है. नीतियों को पारदर्शी होना चाहिए. पहली बरसी पर क्या सरकारनोटबंदी के दौरान बैंकिंग संचालनों और जन धन की जांच के नतीजे देश से बांटना चाहेगी?


गलतियों से सीखने का नियम केवल मानवों के लिए ही आरक्षित नहीं हैसर्वशक्तिमान सरकारें भी नसीहत लें तो क्या हर्ज है?

Sunday, October 15, 2017

ज्यों ज्यों बूड़े श्याम रंग


नेता सिर्फ पांच साल में खरबपति कैसे हो जाते हैं?
पिछले माहजब इस सवाल के साथ सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से करीब 289 सांसदों-विधायकों की 'उद्यमिताका रहस्य पूछा था तो बहुत सी उम्‍मीदों ने अचानक आंखें खोली कि अब तो 2014 के चुनावी वादे याद आ ही जाएंगे जिन में मुट्ठियां लहराते हुए राजनीति को साफ करने का संकल्प किया गया था. 
प्रधानमंत्री नेपिछले साल नोटबंदी के दौरान सभी सांसदों-विधायकों से अपने बैंक खातों की जानकारी पार्टी को देने को कहा था. जानकारी जरूर आई होगी लेकिन घंटों लाइन में लगने वाली जनता को यह पता नहीं चला कि नोटबंदी के दौरान उनके माननीय नुमाइंदों के बैंक खातों में क्या हो रहा था
बताते चलें कि साल बीतने को है लेकिन बीते सप्ताह तक प्रधानमंत्री की वेबसाइट पर 92 में केवल 29 मंत्रियों की संपत्ति के ब्यौरे उपलब्ध थे.
भ्रष्टाचार और इलेक्ट्रॉनिक्स में एक अनोखी समानता है. दोनों जितने नैनो यानी सूक्ष्म होते जाते हैंउनकी ताकत उतनी ज्यादा बढ़ती जाती है और  राजनीति इसमें डूबकर और उजली (ज्यों ज्यों बूड़े श्याम रंगत्यों त्यों उज्वल होय) होती जाती है. भ्रष्टाचार की ताकत बढऩे और उसके उज्ज्वल होने का मतलब उसका संस्थागत होते जाना है.
भ्रष्टाचार की बढ़ती सूक्ष्मता पूरी दुनिया में सबसे बड़ी चुनौती हैलड़ाई इसलिए कठिन होती जा रही है कि जब तक लोग भ्रष्टाचार को समझकर और जागरूक होकरइसके विरुद्ध लामबंद हो पाते हैंतब तक यह संस्थागत हो जाता है.
संस्थागत होते ही भ्रष्टाचार अपराध की जगह सुविधाआदतमजबूरीपरंपरा और नियम तक बन जाता है. आर्थिक फैसलों में तो विभाजक रेखाएं इतनी धुंधली हैं कि प्रत्यक्ष तौर पर साफ-सुथरे दिखने वाले नीतिगत फैसलों में महीन व्यापक भ्रष्टाचार छिपा होता है.
भ्रष्टाचार के जटिल व संस्थागत होने को कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है:

1. राजनैतिक दलों को मिलने वाला चंदा लोकतंत्र में भ्रष्टाचार की सबसे बड़ी संस्था है. सभी दल इसे मजबूरी मानने लगेइसे बदलना तो दूर इसे पारदर्शी बनाने की कोशिशें भी हाशिए पर हैं. चंदे संस्थागत हो गए. चुनाव आयोग और अदालतें भी इसे ठीक करने में कुछ खास नहीं कर सकीं. हमें यह मालूम है कि चंदों के बदले सत्ता के फायदों में हिस्सेदारी होती है लेकिन यह भ्रष्टाचार सूक्ष्म और 'नीतिसंगतहै. हमें यह मान लेना पड़ता है कि सत्ता में आने वाली हर नई सरकार अपने पसंदीदा कारोबारियों को अवसरों से नवाजेगी. विकास की यह कीमत हमें भुगतनी पड़ेगी.

2. राजनेता या अधिकारी सरकार में पदों और रसूख का फायदा उठा सकते हैं. सांसद-विधायक संपत्ति की घोषणा तो करते हैं लेकिन अपने कारोबारी या वित्तीय संपर्कों की नहीं. 2015 में तंबाकू उत्पादों पर चेतावनी का फैसला करने वाली समिति में बीड़ी उद्योग से जुड़े दो सांसद थे. सांसदोंविधायकों और मंत्रियों को लेकर इस मामले में नियम इस कदर अधूरे हैं कि यह भ्रष्टाचार एक तरह से संस्थागत हो गया.
जब हमें अपने नुमाइंदों के बारे में ही जानकारी नहीं मिलती तो उनके परिवारों के बारे में कौन पूछेगाएसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स की याचिका पर देश की सर्वोच्च अदालत का अचरज सही था कि केवल पांच साल में कुछ सांसदों की संपत्ति 500 फीसदी कैसे बढ़ सकती है. 

3. बैंकों से कंपनियों को कर्जसरकारों से उद्योगों को जमीनखदानस्पेक्ट्रम आवंटन जाहिरा तौर पर साफ-सुथरे आर्थिक व्यवहार हैं लेकिन जरा यह उदाहरण देखिए कि कंपनियों ने सरकार से स्पेक्ट्रम खरीदाइसके लिए बैंको से कर्ज ले लिया गया लेकिन घाटा होने पर फीस की माफी और बैंक कर्ज को टालने का पैकेजलेकिन क्या यह सब कुछ साफ-सुथरा हैबैंकों के बकाया कर्ज की वजहें आर्थिक विफलताएं ही नहीं हैं. इस सूक्षम संस्थागत भ्रष्टाचार की पैमाइश व सफाई आसान नहीं है.

भ्रष्टाचार के मामले में हम अक्सर यह मान लेते हैं कि शीर्ष पर बैठे एक-दो साफ सुथरे लोग पूरी व्यवस्था में स्वच्छता का चमत्कार कर देंगे. लेकिन यह भ्रष्टाचार व्यक्तिगत है ही नहीं. उच्च राजनैतिक पदों पर भ्रष्टाचार अब अवसरों की पेचीदा बंदरबांट का हैअन्य फायदे तो अदृश्य हैं.

भ्रष्टाचार को लेकर व्यक्तिगत संघर्ष दूर तक नहीं जा पाते. कई बार साफ-सुथरे नेतृत्व भी अपने पीछे भयानक कालिख छोड़ जाते हैं. उच्च पदों पर संस्थागत भ्रष्टाचार के खिलाफ सफलताएं हमेशा संस्थाओं (कानूनअदालतऑडिटर) की मदद से ही मिली हैं. 

क्या पिछले तीन साल में भारत में भ्रष्टाचार से लडऩे वाली संस्थाएं मजबूत और विकसित हुई हैंनहीं तो फिर जब तक बंद है तब तक आनंद हैजब खुलेगा तब खिलेगा.



Sunday, October 8, 2017

सोचा न था...


सरकारें आक्रामक हों यह जरूरी नहीं है, लेकिन उन्हें सूझ-बूझ भरा जरूर होना चाहिए.
वे ताबड़तोड़ फैसले भले ही न करें, लेकिन उनके फैसले सधे हुए और सुविचारित जरूर होने चाहिए.
लोगों की जिंदगी में संकटों की कमी नहीं है, सुधार संकट दूर करने वाले होने चाहिए उन्हें बढ़ाने वाले नहीं.
राजनैतिक पेशबंदी चाहे जो हो लेकिन सरकार का तापमान यह बता रहा है कि उसे दो बड़े फैसलों के चूक जाने का एहसास हो चला है. नोटबंदी अपने सभी बड़े लक्ष्य हासिल करने में असफल रही है. जाहिर है कि इनकम टैक्स रिटर्न फाइल करने वालों की संख्या बढ़ाने के लिए तो इतना बड़ा जोखिम नहीं लिया गया था. 
और जीएसटी ! इसे तो एक जुलाई की आधी रात को संसद के केंद्रीय कक्ष में भारत का सबसे  क्रांतिकारी आर्थिक सुधार घोषित किया माना गया था, तब संसद में दीवाली  मनाई गई थी लेकिन तीन माह के भीतर ही यह संकटकारी और लाल फीता शाही बढ़ाने वाला लगने लगा। याद नहीं पड़ता कि हाल के वर्षों में कोई इतना बड़ा सुधार तीन माह बाद ही पूरी तरह सर के बल खड़ा हो गया हो।  
जीएसटी और नोटबंदी को एक साथ देखिए, उनकी विफलताओं में गहरी दोस्ती नजर आएगी.
दोनों ही गवर्नेंस के बुनियादी सिद्धांतों की कमजोरी का शिकार होकर सुधार की जगह खुद संकट बन गएः

1. गवर्नेंस अंधेरे में तीर चलाने का रोमांच नहीं है. प्रबंधन वाले पढ़ाते हैं जिसे आप माप नहीं सकते उसे संभाल नहीं सकते. सवाल पूछना जरूरी है कि क्या नोटबंदी से पहले सरकार ने देश में काली नकदी का कोई आंकड़ा भी जुटाया था? आखिरी सरकारी अध्ययन 1985 में हुआ और सबसे ताजा सरकारी दस्तावेज वह श्वेत पत्र था जो 2012 में संसद में रखा गया. दोनों ही नकद में बड़ी मात्रा में काला धन होने को लेकर बहुत आश्वस्त नहीं थे.

नकदी और बैंक खातों में जमा रकम को लिक्विड वेल्थ माना जाता है. वित्तीय शोध फर्म कैपिटलमाइंड ने हिसाब लगाया कि भारत में कुल लिक्विड वेल्थ में नकदी का हिस्सा केवल 14 फीसदी (1950 में 50 फीसदी) है, जिसका 99 फीसदी हिस्सा बैंकों से गुजरकर हाथों में वापस पहुंच रहा है. अगर सरकार काले धन के लिए सोना या जमीनों पर निगाह जमाती तो उत्साहजनक नतीजे मिल सकते थे. कम से कम अर्थव्यवस्था का दम घुटने से तो से बच जाता.

जीएसटी दस साल से बन रहा है लेकिन इसकी जरूरत, कारोबारी हालात और तैयारियों का एक अध्ययन या जमीनी शोध तक नहीं हुआ. छोटे उद्योग कितनी टैक्स चोरी करते हैं, यह बताने के लिए सरकार के पास कोई आंकड़ा नहीं है.किस कारोबार पर इसका क्‍या असर होगा? सरकार से लेकर कारोबार तक कौन कितना तैयार है? सरकार ने तो यह भी नहीं आंका कि जीएसटी से राजस्व का क्या नुक्सान या फायदा होगा. इसलिए जीएसटी तीन माह में बिखर गया. हम ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, मलेशिया के तजुर्बों से सीखकर पूरे सुधार को सहज व पारदर्शी बना सकते थे.

2. यदि संकट सिर पर न खड़ा हो तो कोई आर्थिक सुधार में नुक्सान-फायदों की सही गणना जरुरी होती है. नोटबंदी के समय सरकार ने शायद यह हिसाब भी नहीं लगाया कि एटीएम नए नोटों के साथ कैसे काम करेंगे? रिजर्व बैंक कितने नोट छाप सकता है ? करेंसी कहां और कैसे पहुंचेगी? नियम कैसे बदलने होंगे? जीडीपी में गिरावट, रिजर्व बैंक व बैंकों को नुक्सान, कंपनियों को घाटा, रोजगारों में कमी—नोटबंदी ने 12 लाख करोड़ रु. की चपत (एनआइपीएफपी का आकलन) लगाई है. 

जीएसटी के नुक्सानों का आंकड़ा आना है अलबत्‍ता सरकार ने इस जिस तरह वापस लिया है वह संकेत ददेता है कि जीएसटी ने भी राजस्व, जीडीपी और कंपनियों के मुनाफों में बड़े छेद किये हैं.

3. सुधार कैसे भी हों लेकिन उनसे सेवाओं सामानों की किल्‍लत पैदा नहीं हो चा‍हिए। मांग व आपूर्ति की कमी कुछ लोगों को हाथ में अकूत ताकत दे देती है, यही तो भ्रष्‍टाचार है. नोटबंदी और जीएसटी, दोनों ही भ्रष्टाचार के नए नमूनों के साथ सामने आए. नोटबंदी ने बैंक अफसरों को दो माह के लिए सुल्तान बना दिया. नोटों की अदला-बदली में बैंकिंग तंत्र भ्रष्ट और जन धन ध्व‍स्त हो गए. जीएसटी की किल्लतों के वजह से कच्चे बिल और नकद के कारोबार की साख और मजबूत हो गई. जीएसटी में ताजी तब्‍दीलियों के बाद अब वही पुराना दौर लौटने वाला है जिसमें टैक्‍स चोरी और भष्‍टाचार एक साथ चलता था. 

कमजोर तैयारियां, खराब डिजाइन और बदहाल क्रियान्वयन,  गवर्नेंस के स्थायी रोग हैं. लेकिन हमने दुनिया को दिखाया है कि अर्थव्यवस्था को उलट-पलट देने वाले निर्णय, अगर इन बीमारियों के साथ लागू हों तो दुनिया की सबसे तेज दौड़ती अर्थव्यवस्था को भी विकलांग बनाया जा सकता है.
सरकारों की मंशा पर शक नहीं होना चाहिए वह हमेशा अच्‍छी ही होती है मुसीबत यह है कि सरकारी फैसलों की परख उनकी मंशा से नहीं, नतीजों से होती है. नोटबंदी और जीएसटी सुधार होने का तमगा लुटा चुके हैं. अब तो कवायद इनके असर से बचने और उबरने की है.