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Sunday, October 11, 2015

बदलते संवादों का जोखिम


मोदी समझना होगा कि अगर विमर्श बदलें तो लोगों की राय और सियासत बदलने में वक्त नहीं लगता.
यूपीए सरकार की बड़ी विफलता शायद यह नहीं थी कि उसने फैसले नहीं किए. फैसले तो हुए ही थे तभी तो मोदी सरकार यूपीए मॉडल से आगे नहीं बढ़ पा रही है. मनमोहन सिंह की सबसे बड़ी नाकामी यह थी कि वे नकारात्मक संवादों की सुनामी को थाम नहीं सके, जिसने अंततः सरकार को चकनाचूर कर दिया. नरेंद्र मोदी सरकार भी इसी घाट पर फिसल रही है. मोदी को सबसे ज्यादा चिंता इस बात की करनी चाहिए कि उनकी सरकार अपनी भोर में ही उन विभाजक और सांप्रदायिक संवादों पर चर्चा से घिर गई है, जिनसे वाजपेयी सरकार अपनी प्रौढ़ावस्था में रू-ब-रू हुई थी और अंततः लोकप्रियता गंवा बैठी.
भारत में नई सरकार से जुड़ी विमर्श बदलने की आहट न्यूयॉर्क, सैनफ्रांसिस्को और बोस्टन के फाइनेंशियल डिस्ट्रिक्ट तक सुनी जा सकती है, जहां भारत में सुधार की संभावनाओं पर करोड़ों डॉलर लगा चुके निवेशक बैठते हैं. कठोर सुधारों की अनुपस्थिति से खीझे इन निवेशकों को उन्माद भरे आयोजन और ज्यादा डरा रहे हैं. कोलंबिया यूनिवर्सिटी में भाषण के लिए न्यूयॉर्क पहुंचे (6 अक्तूबर, 2015) वित्त मंत्री अरुण जेटली दादरी की घटना पर यूं ही परेशान नहीं दिखे, उन्हें निवेशकों की इस झुंझलाहट का बाकायदा एहसास हुआ है.
सरकार को लेकर दो-दो नकारात्मक संवाद एक साथ जड़ पकडऩे लगे हैं. उग्र हिंदुत्व का वेताल बीजेपी की पीठ पर हमेशा से सवार रहा है जो सुशासन के निर्गुण, निराकार आह्वानों को पीछे धकेल कर आगे आने लगा है, जबकि दूसरी तरफ सरकार में कुछ ठोस न हो पाने या जमीन पर बदलाव नजर न आने के आकलन मुखर हो रहे हैं जो सुधार शून्यता के एहसास को गाढ़ा करते हैं.
सरकार के संवादों को सकारात्मक बनाए रखने में विफलता का क्षोभ मोदी के भाषणों में झलकता है. अमेरिका जाने से पहले अपनी जनसभाओं में मोदी विकास के थमने के लिए कांग्रेस को कोस रहे थे जबकि अमेरिका में उनके भाषण, 16 माह की गवर्नेंस की बजाए भावनात्मक व राष्ट्रवादी मुद्दों पर केंद्रित रहे जो उत्साह बनाए रखने की कोशिशों का हिस्सा थे. मोदी के इन प्रयासों के बावजूद सरकार का विराट प्रचार तंत्र उम्मीद भरी बहसों को थाम पाने में चूक रहा है. प्रतिबंधों की दीवानी राज्य सरकारें, विकास और सुधार की चर्चा को ध्वस्त कर रही हैं जबकि काम में सुस्ती को लेकर नौकरशाही पर ठीकरा फोड़ते केंद्रीय मंत्री (नितिन गडकरी) सरकार की विवशता की नजीर बन रहे हैं.
संवादों का मिजाज बदलने की दो वजहें साफ दिखती हैं. पहली यह कि मोदी का चुनाव अभियान शानदार तैयारियों की मिसाल भले ही रहा लेकिन बीजेपी गवर्नेंस के लिए तैयार नहीं थी. भूमि अधिग्रहण, जीएसटी, वन रैंक, वन पेंशन और विदेश में काले धन जैसे मुद्दों पर फजीहत साबित करती है कि चुनावों से पहले कोई तैयारी नहीं की गई और सत्ता में आने के बाद भी जटिल फैसलों पर संवाद या क्रमशः प्रगति साबित करने का कोई तंत्र विकसित नहीं हुआ. 
दूसरी वजह शायद यह है कि मोदी अपनी गवर्नेंस को बताने के लिए प्रभावी प्रतीक चुनने में चूक गए हैं. पिछले 16 माह में सरकार ने कम से कम दो दर्जन नई पहल (मिशन, स्कीम, आदि) की हैं लेकिन इनमें से कोई भी प्रयोग महसूस करने लायक बदलाव नहीं दे सका. सरकार की सभी पहल प्रतीकात्मक और राज्यस्तरीय हैं जिनके पीछे ठोस कार्यान्वयन का ढांचा नहीं है और राज्यों से समन्वय नदारद है.
वाजपेयी का कार्यकाल कई मामलों में मोदी के लिए नसीहत और नजीर बन सकता है. वाजपेयी भी तीन अल्पजीवी सरकारों के बाद उम्मीदों के उफान पर बैठ कर सत्ता में आए थे और उग्र हिंदुत्व का खतरा उनकी सरकार को भी था. वाजपेयी ने विमर्श को विकास पर केंद्रित रखने और उग्र हिंदुत्व से दूरी बनाने के लिए गवर्नेंस के लक्ष्यों का रोड मैप पहले ही तय कर दिया था जिनके सहारे, 2001 में शिला पूजन और राम मंदिर आंदोलन का बिगुल बजने तक सरकार कई सुधारात्मक कदम उठा चुकी थी. मोदी की मुसीबत यह है कि वे न तो सुधारों और गवर्नेंस की ठोस मंजिलें तय कर पाए हैं जिनके आसपास दूरगामी उम्मीद की चर्चाएं हो सकें और न ही उन्होंने वाजपेयी की तरह बड़ी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं और निर्माणों को चुना जो गवर्नेंस के जोरदार आगाज का परचम उठा सकें. मोदी ने अपेक्षाओं को पंख लगा दिए हैं, एक-तरफा संवादों की नीति चुनी है और स्कीमों के कछुओं पर सवारी की है, इसलिए कुछ न बदलने का शोर तेज होने लगा है.
24 दिसंबर, 2014 को इसी स्तंभ में हमने लिखा था कि मोदी को उग्र हिंदुत्व की लपट से बचने के लिए अपनी गवर्नेंस के व्यावहारिक लक्ष्य तय करने होंगे, नहीं तो उनके परिवार के योगी, साक्षी और साध्वी उन्हें अगले कुछ महीनों में ही 2002 का वाजपेयी बना देंगे. मोदी का ताजा असमंजस 2001 के वाजपेयी जैसा है, तमाम सुधारों के बावजूद वाजपेयी उग्र हिंदुत्व के आग्रहों की चपेट से बच नहीं सके. 2001 में अयोध्या को लेकर सरकार व विहिप के बीच मोर्चा खुला था. 2002 की शुरुआत होने तक, शिला पूजन को लेकर टकराव, तनाव बढ़ा, गोधरा में ट्रेन जली, गुजरात के दंगे हुए और माहौल विषाक्त हो गया. वाजपेयी ने 2002 और '03 में आर्थिक सुधारों की भरसक कोशिश की. 2003 के अंत में तीन विधानसभाएं भी जीतीं लेकिन देश को सबसे अच्छी गवर्नेंस व सबसे तेज ग्रोथ देने वाली सरकार 2004 में वापस नहीं लौटी. 2002 के सांप्रदायिक तनाव से उभरा विमर्श वाजपेयी सरकार की बेजोड़ परफॉर्मेंस को निगल गया था.

यकीनन, लोकतंत्र में फैसलों में अपनी एक गति है, लेकिन सरकार से जुड़े संवादों में सकारात्मकता अनिवार्य है. ताजा नकारात्मक संवाद, मोहभंग की तरफ बढ़ें इससे पहले मोदी को उग्र हिंदुत्व को खारिज करना होगा और अपेक्षाओं को तर्कसंगत करते हुए उम्मीदों को जगाने वाली ठोस चर्चा की तरफ लौटना होगा. भारत में इस समय शायद ही कोई दूसरा नेता ऐसा होगा जो मोदी से बेहतर इस बात को समझ सकता हो कि अगर विमर्श बदलें तो लोगों की राय और सियासत बदलने में वक्त नहीं लगता.

Monday, September 30, 2013

नेताओं के कबीले


चुनाव की तरफ बढ़ते नेता अपराधियों की अगुआई और खून खच्‍चर वाली कबीलाई सियासत के हिंसक आग्रह से भर गए हैं जो बदलते समाज को न समझ पाने की कुंठा व हताशा से उपजा है।

भारत के नेताओं को समाज को बांटने पर नहीं बल्कि इस बात पर शर्म आनी चाहिए कि वे समाज के विघटन की नई तकनीकें ईजाद नहीं कर सके हैं। किसी भी देश की सियासत समाज को बांटे बिना नहीं सधती। एक समान राजनीतिक विचारधारा वाले समाज सिर्फ तानाशाहों के मातहत बंधते हैं इसलिए दुनिया के लोकतंत्रों की चतुर सियासत ने सत्‍ता पाने के लिए अपने आधुनिक होते समाजों में राजनीतिक प्रतिस्‍पर्धा की नई रचनात्‍मक तकनीकें गढ़ी हैं जो नस्‍लों, जातियों व वर्गों में पहचान, अधिकार व प्रगति के नए सपने रोपती हैं। लेकिन भारत की मौजूदा सियासत तो मजहबी बंटवारे की तरफ वापस लौट रही है, जो राजनीतिक विघटन का सबसे भोंडा तरीका है। इससे तो सत्‍तर अस्सी दशक वाले नेता अच्‍छे थे जो समाज के जातीय ताने बाने से संवाद की मेहनत करते थे और राजनीति को नुमाइंदगी व अधिकारों की उम्‍मीदों से जोड़ते थे। जडों से उखड़े नेताओं की मौजूदा पीढ़ी भारत के बदलते व आधुनिक समाज को समझने की जहमत नहीं उठाना चाहती। उसे तो अपराधियों की अगुआई और खून खच्‍चर वाली कबीलाई सियासत के जरिये चुनावों की कर्मनाशा तैरना आसान लगने लगा है। 
चुनावी लाभ के लिए सांप्रदायिक हिंसा दरअसल एक संस्‍थागत दंगा प्रणाली की देन हैं, जो उत्‍तर प्रदेश सहित कई राज्‍यों में सक्रिय हो चुकी है। भारत की सांप्रदायिक हिंसा के सबसे नामचीन अध्‍येता प्रो. पॉल आर ब्रास  ने मेरठ  में 1961 व 1982 के दंगों में पहली बार संगठित सियासी मंतव्‍य पहचाने थे और इसे इंस्‍टीट्यूशनल रॉयट सिस्‍टम कहा था। क्‍यों कि उन दंगो के बाद हुए विधानसभा व नगर निकायों के चुनाव के