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Monday, March 7, 2011

बजट तो कच्चा है जी !

अथार्थ
गरबत्ती का बांस, क्रूड पाम स्टीरियन, लैक्टोज, टैनिंग एंजाइन, सैनेटरी नैपकिन, रॉ सिल्क पर टैक्स ......! वित्त मंत्री मानो पिछली सदी के आठवें दशक का बजट पेश कर रहे थे। ऐसे ही तो होते हैं आपके जमाने में बाप के जमाने के बजट। हकीकत से दूर, अस्त व्यस्त और उबाऊ। राजनीति, आर्थिक संतुलन और सुधार तीनों ही मोर्चों पर बिखरा 2011-12 का बजट सरकार की बदहवासी का आंकड़ाशुदा निबंध है। महंगाई की आग में 11300 करोड़ रुपये के नए अप्रत्यक्ष करों का पेट्रोल झोंकने वाले इस बजट और क्‍या उम्मीद की जा सकती है। इससे तो कांग्रेस की राजनीति नहीं सधेगी क्यों कि इसने सजीली आम आदमी स्कीमों पर खर्च का गला बुरी तरह घोंट कर सोनिया सरकार (एनएसी) के राजनीतिक आर्थिक दर्शन को सर के बल खड़ा कर दिया है। सब्सिडी व खर्च की हकीकत से दूर घाटे में कमी के हवाई किले बनाने वाले इस बजट का आर्थिक हिसाब किताब भी बहुत कच्चा है। और रही बात सुधारों की तो उनकी चर्चा से भी परहेज है। प्रणव दा ने अपना पूरा तजुर्बा उद्योगों के बजट पूर्व ज्ञापनों पर लगाया और कारपोरेट कर में रियायत देकर शेयर बाजार से 600 अंकों में उछाल की सलामी ले ली। ... लगता है कि जैसे बजट का यही शॉर्ट कट मकसद था।
महंगाई : बढऩा तय
इस बजट ने महंगाई और सरकार में दोस्ती और गाढ़ी कर दी है। अगले वर्ष के लिए 11300 करोड़ रुपये और पिछले बजट में 45000 करोड़ रुपये नए अप्रत्यक्ष करों के बाद महंगाई अगर फाड़ खाये तो क्या अचरज है। चतुर वित्त मंत्री ने महंगाई के नाखूनों को पैना करने का इंतजाम छिपकर किया है। जिन 130 नए उत्पादों को एक्साइज ड्यूटी के दायरे में लाया गया है उससे पेंसिल से लेकर मोमबत्ती तक दैनिक खपत वाली

Monday, February 21, 2011

एक बजट बने न्यारा

अर्थार्थ
गर आर्थिक सुधारों के लिए संकट जरुरी है तो भारत सौ फीसदी यह शर्त पूरी करता है। यदि संकट टालने के लिए सुधार जरुरी हैं तो हम यह शर्त भी पूरी करते हैं। और यदि संतुलित ढंग से विकसित होते रहने के लिए सुधार जरुरी हैं तो भारत इस शर्त पर भी पूरी तरह खरा है। यानी कि आर्थिक सुधारों की नई हवा अब अनिवार्य है। लेकिन कौन से सुधार ?? प्रधानमंत्री (ताजी प्रेस वार्ता) की राजनीतिक निगाहों में खाद्य सुरक्षा, ग्रामीण स्वास्‍थ्‍य मिशन नए सुधार हैं लेकिन उद्योग कहता है उहं, यह क्या् बात हुई ? सुधारों का मतलब तो विदेशी निवेश का उदारीकरण, वित्तीसय बाजार में नए बदलाव, बुनियादी ढांचे में भारी निवेश आदि आदि है।... दरअसल जरुरत कुछ हाइब्रिड किस्म के सुधारों की है यानी सामाजिक व आर्थिक दोनों जरुरतों को पूरा करने वाले सुधार। हम जिन सुधारों की बात आगे करेंगे वह किसी बौद्धिक आर्थिक विमर्श से नहीं निकले बल्कि संकटों के कारण जरुरी हो गए हैं। यदि यह बजट इन्हें या इनकी तर्ज (नाम कोई भी हो) पर कुछ कर सके तो तय मानिये कि यह असली ड्रीम बजट होगा क्यों कि यह उन उम्मीदों और सपनों को सहारा देगा जो पिछले कुछ महीनों दौरान टूटने लगे हैं।
स्पेशल एग्रीकल्चर जोन
हम बडे नामों वाली स्कीमों के आदी हैं इसलिए इस सुधार को एसएजेड कह सकते हैं। मकसद या अपेक्षा खेती में सुधार की है। केवल कृषि उत्पादों की मार्केटिंग के सुधार की नहीं (जैसा कि प्रधानमंत्री सोचते हैं और खेती का जिम्मा राज्यों के खाते में छोड़ते हैं।) बल्कि खेती के कच्चे माल (जमीन, बीज, खाद पानी) से लेकर उत्पादन तक हर पहलू की। अब देश में फसलों के आधार पर विशेष् जोन

Monday, November 1, 2010

मुद्रास्फीति की महादशा

अर्थार्थ
ड़क पर से बैंकनोट बटोरे जा रहे हैं। (हंगरी 1946) .. लाख व करोड़ मूल्य वाले के नोट लेकर लोग जगह जगह भटक रहे हैं। (जर्मनी 1923) .. बाजार में कीमतें घंटो की रफ्तार से बढ़ रही हैं। (जिम्बावे 2007)। ... अमेरिका के लोगों के सपनों में यह दृश्य आजकल बार-बार आ रहे हैं। अंकल सैम का वतन, दरअसल, भविष्य के क्षितिज पर हाइपरइन्फे्लेशन का तूफान घुमड़ता देख रहा है। एक ऐसी विपत्ति जो पिछले सौ सालों में करीब तीन दर्जन से देशों में मुद्रा, वित्तीय प्रणाली और उपभोक्ता बाजार को बर्बाद कर चुकी है। आशंकायें मजबूत है क्यों कि ढहती अमेरिकी अर्थव्यवस्था को राष्ट्रपति बराकर ओबामा और बेन बर्नांकी (फेडरल रिजर्व के मुखिया) मुद्रा प्रसार की अधिकतम खुराक (क्यूई-क्वांटीटिव ईजिंग) देने पर आमादा हैं। फेड रिजर्व की डॉलर छपाई मशीन ओवर टाइम में चल रही है और डरा हुआ डॉलर लुढ़कता जा रहा है। बर्नाकी इस घातक दवा (क्यूई) के दूसरे और तीसरे डोज बना रहे है। जिनका नतीजा अमेरिका को महा-मुद्रास्फीति में ढकेल सकता है और अगर दुनिया में अमेरिका के नकलची समूह ने भी यही दवा अपना ली तो यह आपदा अंतरदेशीय हो सकती।

क्यूई उर्फ डॉलरों का छापाखाना
मांग, उत्पादन, निर्यात और रोजगार में बदहाल अमेरिका डिफ्लेशन (अपस्फीति) के साथ मंदी के मुहाने पर खड़ा है। ब्याज दरें शून्य पर हैं यानी कि अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए ब्याज दरें घटाने जैसी दवायें फेल हो चुके हैं। अब क्वांटीटिव ईजिंग की बारी है। अर्थात ज्यादा डॉलर छाप कर बाजार में मुद्रा की क्वांटिटी यानी मात्रा बढ़ाना। नोट वस्तुत: भले ही न छपें लेकिन व्यावहारिक मतलब यही है कि फेड रिजर्व के पास मौजूद बैंको के रिजर्व खातों में (मसलन भारत में सीआरआर) ज्यादा धन आ जाएगा। इसके बदले बैंक बांड व प्रतिभूतियां फेड रिजर्व को दे देंगे। क्यूई की दूसरी खुराक इस साल दिसंबर तक आएगी। तीसरी की बात भी