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Monday, June 4, 2018

सरकार बेशुमार



देश के हर बूथ पर हमारा कार्यकर्ता झंडा लेकर खड़ा रहेगा! हमारे कार्यकर्ता घर-घर तक पहुंचने चाहिए! पानी में आग लगा देने वाली इन राजनैतिक तैयारियों पर न्योछावर होने से पहले सुमेरपुर के ‘प्रधान जी’ से मिलना जरूरी है.


प्रधान जी सिखाते हैं कि जब कोई समाज अपने प्रगति के लक्ष्य बदलता है तो उसे अपनी च‌िंताओं के आयाम बदल लेने चाहिए अन्यथा बेगानगी अच्छे-खासे समाजों का तिया पांचा कर देती है.

प्रधान जी का काफिला प्रधानमंत्री से कुछ ही छोटा है. उनका पारिवारिक प्रताप पंचायत प्रमुखों से लेकर पन्ना प्रमुखों तक फैला है. मनरेगा से लेकर उज्ज्वला तक हर स्कीम के आंकड़े उनकी ड्योढ़ी का पानी पीकर अंगड़ाई लेते हैं. भाईभतीजेनातीबहुएंसब कहीं न कहीं किसी न किसी सरकार का हिस्सा हैं. त्योहारों और मुंडन-कनछेदन पर उनका घर सर्वदलीय बैठक जैसा हो जाता है.

प्रधान जी पार्टी का विस्तार हैं. 

वे सरकार के जन संपर्क मिशन का शुभंकर हैं. 

वे सरकार की सरकार हैं. 

प्रधान जी ‘मैक्सिमम गवर्नमेंट’ हैं.

प्रधान जीदरअसल‘वड़ा प्रधान’ की चार साला उम्मीदों का सजीव स्मारक हैं.

2014 में मई में उत्साह से लबरेज नरेंद्र मोदी ने एक ऐसा वादा किया थाजो उनसे पहले की कोई सरकार इतने खम ठोक तरीके से नहीं कर पाई थी. मोदी ने कहा था कि वह सरकार छोटी करेंगे यानी मिनिमम गवर्नमेंट. उनका यह वादा रिझाने लायक थाक्योंकि इसमें उन मुसीबतों का इलाज भी छिपा थाजो 1991 के बाद सुधारों की खुराक से भी दूर नहीं हुईं.

सरकार को सिकोड़कर प्रधानमंत्री मोदी हजार तरह की बर्बादीसैकड़ों तरीके के भ्रष्टाचार और असंख्य नापाक नेता-अफसर गठजोड़ों को खत्म करने जा रहे थे. वे राजनैतिक भ्रष्टाचार का मर्सिया लिखने की तरफ बढ़ चले थे. लेकिन फिर वक्त ने गिरगिट होना कबूल किया और मोदी सरकार पिछली किसी सरकार से ज्यादा स्कीमें पचाकर बड़ी होती गई. लंबे उदर वाली सरकारें विकास पर बैठ जाती हैंइसलिए अब विकास महसूस कराने के लिए स्कीमों का प्रचार और ‘प्रधान जी’ का ही एक सहारा हैं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार को फिटनेस का मंत्र दे पातेइससे पहले भाजपा ने दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बनने का बीड़ा उठा लिया और फिर वही हुआ जो पिछले 60 साल से होता आया था. पार्टी को बड़ा करने के लिए सरकार को बड़ा करना जरूरी था.

चीन की कम्युनिस्ट पार्टी कितने सारे कारोबारों में दखल रखती है. साम्यवादियों का यह वीभत्स पूंजीवाद (क्रोनी कैपिटलिज्म) अब पार्टी के नेताओं और कारोबारियों में फर्क खत्म कर चुका है.

पता नहींहम भारतीय कब इस वायरस के शिकार हुए कि ज्यादा से ज्यादा लोगों को राजनीति में आना चाहिए. लेकिन इस बीमारी का राजनैतिक दलों को लाभ हुआ. उनका संसार बड़ा होता चला गया. 

अलबत्तागांव से लेकर शहरों तक मेहनती और मेधावी सैकड़ों लोग अपने सबसे उत्पादक वर्षों (25 से 60) को मुट्ठी भर ‘कुर्सी चिपको’ नेताओं की खातिर यूं ही नहीं गंवाने वाले थेखासतौर जब उन्‍हें  यह मालूम  है कि सियासत में ऊपर जाने वाली हर सीढ़ी पर झुंड के झुंड लोग जमा हैं. उन्हें अपने श्रम का वाजिब मूल्य यानी अपने लिए थोड़ी-सी सरकार चाहिए. इसलिए राजनैतिक दलों का सांगठनिक विस्तारथुलथुली सरकारों का सहोदर हो जाता है.

भारतीय राजनीति एक वीभत्स बिजनेस मॉडल पर आधारित हैप्रधान जी जिसके ब्रांड एंबेसडर हैं. उनके लिए राजनीति ही उनका कारोबार है या फिर राजनीति है इसलिए कारोबार है. जो दल सत्ता में होते हैंवे संगठन बढ़ाने के लिए सरकार बढ़ाते हैं और फिर सत्ता में बने रहने को लिए संगठन व सरकार को बढ़ाते रहना होता है.

राजनीति में जितने अधिक लोग आएंगेसरकारें उतनी ही बड़ी होती जाएंगी और भ्रष्टाचार उतना ही जरूरी होगा. भाजपा को पूरे देश में फैलाते हुए प्रधानमंत्री मोदी छोटी सरकार का आदर्श संभाल नहीं सकते थेइसलिए उनकी सरकार बड़ी होती गई. आज निचले और मझोले स्‍तरों पर राजनैतिक भ्रष्टाचार पहले से ज्यादा बजबजा रहा है.

चार साल में सबसे बड़ी पार्टी सबसे बेशुमार सरकार में तब्दील हो गई है.

सब्सिडी और स्कीमों की भीड़ पहले से ज्यादा बढ़ गई है. कार्यर्ताओं की कमाई के लिए यह जरूरी है.

सियासी चंदे पारदर्शी नहीं हुए. बहुराष्ट्रीय कंपनी जैसी पार्टी को चलाने और चुनाव जीतने के लिए अकूत संसाधन चाहिए जो लाभ के अवसर बांटकर ही मिलेगा.

मैदां की हार-जीत तो किस्मत की बात है
टूटी है किसके हाथ में तलवार देखना 




Monday, August 14, 2017

आजादी के बाद आजादी



आजादी के बाद क्या होता है?
देश के लोग अपनी सरकार बनाते हैं.
आजादी के बादआजादी को सबसे बड़ा खतरा किससे होता है?
सरकार से!

राजनीतिशास्त्र के एक प्रोफेसर ठहाके के साथ यह संवाद अक्सर दोहराते थे और सवालों का गुबार छोड़ जाते थे.

विदेशी ताकत की गुलामी से मुक्त होते हीकिसी भी देश के लिए आजादी के मतलब पूरी तरह बदल जाते हैं. गुलामी से निजात के बाद ''अपनीसरकारों को अपने लोगों की आजादी में लगातार बढ़ोतरी करनी होती है. लोगों की अपनी सरकारें उनकी आजादियों के जिस तरह सजाती संवारती है उसी अनुपात में नागरिकों का दायित्‍व बोध निखरता चला जाता है  

भारत के पास सामाजिकवैचारिक और आर्थिक स्वाधीनताओं की अनोखी परंपरा रही है उपनिवेशवाद ने जिसे सीमित किया था ताकि इस गतिमान देश पर शासन किया जा सके. अब जबकि हर प्रमुख राजनैतिक दल या विचारधारा की सत्ता में आवाजाही हो चुकी है तब आजादी के सत्तर साल के मौके पर यह देखना जरूरी है कि हमारे हाकिमों ने भारतीय समाज की ऐतिहासिक स्वाधीनताओं से क्या सीखा और उसे कितना बढ़ाया या संवारा है?

- भारत एक था मगर एकरूप नहीं. ब्रितानीअपने राज के लिए इस जटिल देश को पीट-पाटकर एकरूप करने की कोशिश में लगे रहे. आजादी के बाद भी सरकारों ने एकरूपता (एकता नहीं) की जिद नहीं छोड़ी. किसी को यह विविधताएं विकास में बाधक लगीं तो किसी को राष्ट्रवाद में. क्षेत्रीय व स्थानीय अपेक्षाओं से कटी और ऊपर से थोपी गई नीतियों के कारण भारत गवर्नेंस की गफलतों का अजायबघर है.

-1950 से 2010 के बीच करीब 250 से अधिक से  सरकारी कंपनियां बनीं. आधी तो उदारीकरण के दौरान प्रकट हुईं. मुगल और ब्रिटिश राज के बीच भी अपनी स्वतंत्र उद्यमिता को बचाकर रखने वाला देश कभी यह नहीं समझ सका कि सरकारें आखिर कारोबार की पूरी आजादी क्यों नहीं देतीं. वह क्यों कारोबार करते रहना चाहती है या फिर कुछ खास अपनों को कारोबारी सफलता के अवसर देने में भरोसा रखती हैं. 

- सरकार को बड़ा करते जाने की सूझ लंदन वालों की विरासत थी. उन्हें शासन में मददगार लोग चाहिए थे. पिछले कुछ दशकों में ब्रिटेन में नौकरशाही छोटी होती गई लेकिन भारत में सरकारें मोटी होती गईं. इतिहास बताता है कि अधिकांश भारत ने (संकटों को छोड़कर) जीविका के लिए कभी राजा या सत्ता की तरफ नहीं देखा था. लेकिन फैलती सरकारें अपनी मुट्ठी भर नौकरियां लेकर आरक्षण की सियासत में उतर गईं.

-ब्रिटेन के लिए भारत कमाई का स्रोत था इसलिए उत्पादन और खपत पर टैक्स लगाने का सिलसिला 19वीं सदी के अंत में नमक और कपड़े पर टैक्स से शुरू हुआ. बीसवीं सदी के अंत में सभी उत्पादनों पर एक्साइज ड्यूटी लग गई. अगले दशकों में जब यूरोप मांगखपतउत्पादन और रोजगार बढ़ाने के लिए टैक्स घटा रहा था तब भारत सेवाओं पर भी टैक्स लगा रहा था. बढ़ती सरकार को पालने के लिए लोगों की जिंदगी महंगा करना जरूरी हो गया. जीएसटी ने इस परंपरा को पूरी पवित्रता के साथ जारी रखा है. जितना टैक्स हम चुकाते हैं यदि उतनी ही बड़ी सरकार हमें मिलने लगे तो पता नहीं तो क्या हाल होगा.

- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब पुराने कानूनों को खत्म कर रहे थे तो उनकी नजर उन बर्तानवी कानूनों पर भी गई होगी जो अभिव्यक्ति की आजादी पर रोक के लिए बने थे. अपनी’ सरकारों ने इन्हें सत्तर सालों मे सहेजा और बढ़ाया है. सरकार अपने नागरिकों की निजता के अधिकार पर बुरी तरह असहज है. सवाल पूछते लोग हुक्मरानों को डराने लगे तो सूचना का अधिकार टिकाऊ साबित नहीं हुआ.

- ब्रिटिश शासकों को मालूम था कि भारत ऐतिहासिक तौर पर ताकतवर समाज वाला देश हैइस समाज के सभी पुराने आख्यान राजाओं की ताकत सीमित करने के संदेश देते हैं. ताकतवर और स्वतंत्र समाज से मुकाबले के लिएबर्तानवी शासकों ने सत्ता को अकूत शक्तियों से लैस किया था. आजादी के बाद आई सरकारों ने सत्ता की ताकत बढ़ाने का मौका नहीं चूका. सरकारें फैलती चली गईं और संवैधानिक संस्थाओं के बीच टकराव भारत का स्थायी भाव बन गया.

आजादी को सिर्फ बचाना ही नहींबढ़ाना भी होता है. अमेरिका ने गुलामी से मुक्ति के बाद आजादियां बढ़ाने के नए प्रयेाग किए जो दुनिया के लिए आदर्श बने. भारत के हुक्मरान अगर अमेरिका नहीं तो कम से कम अपने भव्य अतीत से तो सबक ले ही सकते हैं .  

रोनाल्ड रीगन कहते थे सरकारें भौतिकी के क्रिया-प्रतिक्रिया नियम की तरह होती हैं. सरकार जितनी बड़ी होती जाती है आजादी उतनी ही छोटी होती जाती है.
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