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Saturday, April 20, 2019

चुनिए, सिर धुनिए


‘‘मतदाता को क्या मतलब कि राजनैतिक दल चंदा से कहां जुटाते हैंउनका मतलब केवल प्रत्याशी से है’’ —सुप्रीम कोर्ट को सरकार का जवाब (अप्रैल 2019)


अपराधियों को चुनाव से दूर रखने के लिए संसद को कानून बनाना चाहिए —सुप्रीम कोर्ट की सलाह (सितंबर 2018) पर सरकार ने कानों में रुई ठूंस ली

''आपराधिक रिकार्ड वाले प्रत्याशियों का ब्योरा प्रमुख अखबारों में छपना चाहिए.'' चुनाव आयोग को सुप्रीम कोर्ट के आदेश (सितंबर 2018) पर कोई कार्रवाई नहीं

उंगली पर स्याही लगाकर दीवाने हुए जाते आम लोग ही लोकशाही की जिम्मेदारी उठाने के लिए बने हैंचंदों की गंदगीअपराधी नेताओं और अनंत चुनावी झूठ से उनको कोई फर्क नहीं पड़ता जिनको चुनने के लिए हमें ‘पहले मतदान फिर जलपान’ का ज्ञान दिया जाता हैऔर उनका क्या जो राजनीति को अपराध मुक्त करने की कसम उठाकर सत्ता में आए थे!

यह 2014 का अप्रैल थावाराणसी से कांग्रेस के प्रत्याशी का नाम हथियारों के सौदे में आया थाहरदोई की रैली में नरेंद्र मोदी ने वादा किया कि ‘‘सत्ता में आने के बाद सरकार एक कमेटी बनाएगी जो चुनाव आयोग को मिले हलफनामों के आधार पर सांसदों के आपराधिक रिकार्ड की जांच कर सुप्रीम कोर्ट से मुकदमा चलाने के लिए कहेगीइन्हें जेल भेजा जाएगाचाहे इनमें भाजपा या एनडीए के सांसद ही क्यों न हों."

नरेंद्र मोदी जीत गए और राजनीति को अपराध मुक्त करने का वादा हरदोई के मैदान में ही पड़ा रह गयाअलबत्ता थे कुछ जिद्दी लोग जो सियासत और जरायम के गठजोड़ को खत्म करने की मुहिम लेकर सबसे बड़ी अदालत पहुंच गएसुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने पिछले साल सरकार से कहा कि अपराधी प्रत्याशी कैंसर हैंचुनाव जिताऊ प्रत्याशी के तर्क से लोकतंत्र का गला घोंटना बंद किया जाएयह संसद की जिम्मेदारी है कि वह कानून बनाकर अपराधियों को हमेशा के लिए चुनावों से दूर करेइस आदेश के बाद भी प्रधानमंत्री को हरदोई वाला वादा याद नहीं आया!

चुनाव आयोग और सरकार सुप्रीम कोर्ट के आदेश का इतना अमल भी सुनिश्चित नहीं करा सके कि कम से कम अपराधी प्रत्याशियों के बारे में कायदे से प्रचार किया जाए ताकि लोग यह जान सकें कि वे किसे अपना चौकीदार बनाने जा रहे हैंअब सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को अवमानना का नोटिस भेजा है.

सनद रहे कि इस लोकसभा चुनाव के पहले दो चरणों में 464 प्रत्याशी ‘अपराधी’ हैंइनमें 46 चौकीदारों (भाजपाऔर 58 न्यायकारों (कांग्रेसके हलफनामों में जरायम दर्ज हैअन्य प्रमुख दलों के करीब 61 अपराधी प्रत्याशी (एडीआर रिपोर्टहमें हमारी लोकतांत्रिक जिम्मेदारी सिखा रहे हैं.

गलत सोचते थे हम कि जब बहुमत की सरकार होगीताकतवर नेता होगादेश के अधिकांश हिस्से में एक दल का राज होगा तो हमें ऐसे सुधार मिलेंगे जिनकी छाया में हम अपने लोकतंत्र पर गर्व कर सकेंगेलेकिन अब तो

·       जरा-सी बात पर तुनक कर कार्रवाई करने वाला सुप्रीम कोर्टइलेक्टोरल बांड से चंदे का ब्योरा सार्वजनिक करने का आदेश दे सकता था लेकिन उसने सूचनाओं को फाइलों में दबाकर अगली तारीख लगा दी.

·       जजों की नियुक्ति पर सरकार से जूझने वाली सबसे बड़ी अदालत अपराधी नेताओं के लिए कानून बनाने पर सरकार को बाध्य कर सकती थी लेकिन उसने उपदेश देकर बात खत्म कर दी.

·       अपराधी प्रत्याशी के ब्योरे का पर्याप्त प्रचार न होने पर पर्चे खारिज करने का आदेश देने में क्या हर्ज था?

इस बार चुनाव में वोटरों की लाइनें नोटबंदी की कतारों जैसी लग रहीं हैंमतदाता धूप में तप कर अपनी लोकतांत्रिक जिम्मेदारी पर बिछे जा रहे हैंलेकिन जैसे नोटबंदी के दौरान सियासी दलकंपनियां और बैंक पिछले दरवाजे से लोगों के विश्वास का सौदा कर रहे थे ठीक उसी तरह संवैधानिक संस्थाएं वह सब धतकरम होने देना चाहती हैं जिनके बाद लोकतंत्र के इस संस्करण पर भरोसा मुश्किल से बचेगा.

दुनिया में कई जगह लोकतंत्र हैलोग वोट भी देते हैं लेकिन वहां पालतू संसद चुनी जाती हैसंविधानों को उमेठ दिया जाता हैआजादियों को न्यूनतम रखा जाता हैसत्ता के फायदों को अपने तरीके से बांटा जाता हैहम ऐसा लोकतंत्र हरगिज नहीं चाहते जिसमें वोटर अपनी जिम्मेदारी निभाएं लेकिन वोट लेने वाले पूरी बेशर्मी के साथ कुछ भी करते चले जाएं !

मतदाता और रैली में जुटी किराये की भीड़ में फर्क बनाए रखना होगामतदान हमेशा स्वीकार ही नहीं होताइसे सवाल या इनकार भी बनाया जा सकता हैवोट देना हमारी मजबूती हैमजबूरी नहीं.


Sunday, February 17, 2019

पारदर्शिता का वसंत



दुनिया अपनी लोकतांत्रिक आजादियों के लिए किस पर ज्यादा भरोसा कर सकती है?  

राजनीति पर या बाजार पर?

वक्त बदल रहा है. सियासत और सरकारें शायद अभिव्यक्ति की आजादी के लिए ज्यादा बड़ा खतरा हैं जबकि मुनाफे पर टिके होने के बावजूद, मुक्त बाजार अपनी साख की गरज से आजादियों व पारदर्शिता का नया सिपहसालार है.

दो ताजा घटनाक्रमों को देखने पर लगता है कि बाजार ने सियासत को ललकार दिया है. आने वाले चुनाव में झूठ की गर्मी कम होगी.

एकदंभ से भरी सियासत ने बीते सप्ताह भारतीय लोकतंत्र के शिखर यानी संसद की किरकिरी कराई. एक नामालूम से संगठन के उलाहने पर संसद की एक समिति ने ट्विटर के प्रबंधन को तलब कर लिया. शिकायत यह थी कि ट्विटर सरकार समर्थक दक्षिणपंथी संदेशों के साथ भेदभाव करता है. समिति को पता नहीं था कि वह अमेरिकी सोशल नेटवर्क के प्रबंधन को हाजिरी का आदेश नहीं दे सकती. ट्विटर ने मना कर दिया. आदेश की पालकी लौट गई.

दुनिया में बहुतों को महसूस हुआ कि सरकारें सब जगह एक जैसी हैं. स्वतंत्र अभिव्यक्ति की जद्दोजहद राजनैतिक भूगोल की सीमाओं से परे हो चली है.

दोदेश की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा ने अपने कार्यकर्ताओं को घर-घर झंडा स्टिकर लगाने के लिए उतार दिया है. मन की गति से चलने वाली संदेश तकनीकों के दौर में कस्बों और शहरों के चिचियाते ट्रैफिक के लिए यह अभियान क्यों? 

संसद को ट्विटर का इनकार और भाजपा का पुराने तरीके का प्रचार बेसबब नहीं है. तकनीक से लैस दुनिया में राजनैतिक संवादों के लिए मुश्किल दौर की शुरुआत हो रही है. यह बात दीगर है कि सियासत के लिए बुरी खबरें स्वाधीनताओं के लिए अच्छी होती हैं.

तकनीक की ताकत, आर्थिक आजादी और ग्लोबल आवाजाही के बीच सोशल नेटवर्क लोकतंत्र की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति हैं, जो दोतरफा संवाद की आजादी देते हैं और संदेशों की पावती को प्रमाणित भी करते हैं. लेकिन सियासत जिसे छू लेती है वह दागी हो जाता है. इसलिए...

1. भारत, नाइजीरिया, यूक्रेन और यूरोपीय समुदाय के लिए फेसबुक ने राजनैतिक विज्ञापनों के नए नियम बना दिए हैं. विदेश की जमीन से विज्ञापन नहीं किए जाएंगे. विज्ञापन के साथ इसके भुगतान का ब्योरा होगा. इनके साथ एक आर्काइव होगा जिसके जरिए लोग राजनैतिक विज्ञापनों के बारे में ज्यादा जानकारी पा सकेंगे. फेसबुक बताएगा कि राजनैतिक विज्ञापनों के पेज किस जगह से संचालित हो रहे हैं. भारत में 30 करोड़ लोग फेसबुक का इस्तेमाल करते हैं. नए नियम 21 फरवरी से लागू होंगे.

2. व्हाट्सऐप थोक में मैसेज फॉरवर्ड करने की प्रक्रिया बंद कर चुका है. उसने भारतीय राजनैतिक दलों को चेतावनी दी है कि अगर उन्होंने नियम तोड़े तो उनके एकाउंट बंद हो जाएंगे. कंपनी ने 120 करोड़ रु. खर्च कर झूठ का प्रसार रोकने का अभियान चलाया है.

3. ट्विटर अपने शेयर की कीमत में गिरावट का जोखिम उठाकर भी फर्जी एकाउंट बंद कर रहा है. उसने राजनैतिक विज्ञापनों के लिए एक डैशबोर्ड बनाया है जिससे पता चलेगा कि कौन इन पर कितना पैसा खर्च कर रहा है.

4. गूगल भी फेसबुक और ट्विटर जैसे नियमों को लागू करने के अलावा विज्ञापनदाता से चुनाव आयोग का प्रमाणपत्र भी मांगेगा और एक पारदर्शिता रिपोर्ट भी जारी करेगा.

गफलत में रहने की जरूरत नहीं. गूगल, फेसबुक, ट्विटर आदि मुनाफे के लिए काम करते हैं. राजनैतिक विज्ञापनों पर सख्ती से विज्ञापन की मद में कमी से उन्हें भारी कारोबारी नुक्सान होगा. फिर भी सख्ती?

क्योंकि अभिव्यक्ति के इस नवोदित बाजार की साख पर बन आई है. खतरे की शुरुआत किस्म-किस्म के झूठ से हुई थी जो इनके कंधों पर बैठ कर दिग-दिगंत में फैल रहा था. झूठ से लड़ाई करते हुए इन्हें पता चला कि इसकी सप्लाई चेन तो पूरी दुनिया में सियासत के पास है. ये बाजार अगर कुटिल सियासत और झूठ से बोलने की आजादी को नहीं बचा सके तो इनका धंधा तो बंद हुआ समझिए.

एक झटके में ही नेता सड़क पर आ गए हैं. जनसंचार की जगह जनसंपर्क की वापसी हो रही है. क्या चुनाव आयोग भी सोशल नेटवर्कों की पारदर्शिता से कुछ सीखना चाहेगा?

तकनीक मूलत: मूल्य निरपेक्ष है. इस्तेमाल से यह अच्छी या बुरी बनती है. रसायन-परमाणु के बाद सोशल नेटवर्किंग ऐसी तकनीक होगी जिसका बाजार अपने इस्तेमाल के नियम तय कर रहा है ताकि कोई सिरफिरा नेता लोकतंत्रों को गैसीय कत्लखाने में न बदल दे. 

स्वागत कीजिए, पारदर्शिता के इस सोशल वसंत का!

Sunday, October 28, 2018

ताकत देने के खतरे



''भी युद्ध अंततः खत्म हो जाते हैं, लेकिन सत्ता और सियासत जो ताकत हासिल कर लेती है वह हमेशा बनी रहती है.''    —फ्रैंक चोडोरोव

भारत की शीर्ष जांच एजेंसी (सीबीआइ) की छीछालेदर को देख रहा 71 साल का भारतीय लोकतंत्र अपने अस्तित्व की सबसे बड़ी दुविधा से मुकाबिल है. यह दुविधा पिछली सदी से हमारा पीछा कर रही है कि हमें ताकतवर लोकतांत्रिक संस्थाएं चाहिए या फिर ताकतवर सरकारें

दोनों एक साथ चल नहीं पा रही हैं. 

यदि हम ताकतवर यानी बहुमत से लैस सरकारें चुनते हैं तो वे लोकतंत्र की संस्थाओं की ताकत छीन लेती हैं.

भारतीय लोकतंत्र के 1991 से पहले के इतिहास में हमारे पास बहुमत से लैस ताकतवर सरकारों (इंदिरा-राजीव गांधी) की जो भी स्मृतियां हैं, उनमें लोकतांत्रिक संस्थाओं यानी अदालत, अभिव्यक्ति, जांच एजेंसियों, नियामकों के बुरे दिन शामिल हैं. 1991 के बाद बहुमत की पहली सरकार हमें मिली तो उसमें भी लोकतंत्र की संस्थाओं की स्‍वायत्तता और निरपेक्षता सूली पर टंगी है.

इस सरकार में भी लोकतंत्र का दम घोंटने का वही पुराना डिजाइन है. ताकतवर सरकार यह नहीं समझ पाती कि वह स्वयं भी लोकतंत्र की संस्था है और वह अन्य संस्थाओं की ताकत छीनकर कभी स्वीकार्य और सफल नहीं हो सकती.

क्या सीबीआइ ताकत दिखाने की इस आदत की अकेली शिकार है? 

- सरकार का कार्यकाल खत्म होने के करीब है लेकिन सुप्रीम कोर्ट की लताड़ के बावजूद लोकपाल नहीं बन पाया. पारदर्शिता तो बढ़ाने वाले व्हिसिलब्लोअर कानून ने संसद का मुंह नहीं देखा लेकिन सूचना के अधिकार को सीमित करने का प्रस्ताव संसद तक आ गया. 

- जजों की नियुक्ति को लेकर सुप्रीम कोर्ट को सरकार ने अपनी ताकत दिखाई और लोकतंत्र सहम गया. रिजर्व बैंक की स्वायत्तता में दखल हुआ तो पूरी दुनिया के वित्तीय बाजारों में थू-थू हुई.

- सूचना प्रसारण मंत्रालय ने गलत खबरों को रोकने के बहाने खबरों की आजादी पर पंजे गड़ा दिए. विरोध हुआ और प्रधानमंत्री ने भूल सुधार किया.

- याद रखना जरूरी है कि मिनिमम गवर्नमेंट का मंत्र जपने वाली एक सरकार ने पिछले चार साल में भारत में एक भी स्वतंत्र नियामक नहीं बनायाल उलटे यूजीसी, सीएजी (जीएसटीएन के ऑडिट पर रोक) जैसी संस्थाओं की आजादी सिकुड़ गई. चुनाव आयोग का राजनैतिक इस्तेमाल ताकतवर सरकार के खतरे की नई नुमाइश है.

- सुप्रीम कोर्ट को यह कहना पड़ा कि आखिर आधार का कानून पारित कराने के लिए लोकसभा में मनी बिल के इस्तेमाल की क्या जरूरत थी?

- ताकत के दंभ की बीमारी राज्यों तक फैली. राजस्थान सरकार चाहती थी कि अफसरों और न्यायाधीशों पर खबर लिखने से पहले उससे पूछा जाए. लोकतंत्र की बुनियाद बदलने की यह कोशिश अंततः खेत रही. मध्य प्रदेश सरकार ने विधानसभा में सवाल पूछने के अधिकार सीमित करने का प्रस्ताव रख दिया. माननीय बेफिक्र थे, पत्रकारों ने सवाल उठाए और पालकी को लौटना पड़ा.

यह कतई जरूरी नहीं है कि लोकतंत्र में सरकार का हर फैसला सही साबित हो. इतिहास सरकारी नीतियों की विफलता से भरा पड़ा है. लेकिन लोकतंत्र में फैसले लेने का तरीका सही होना चाहिए. ताकतवर सरकारों की ज्यादातर मुसीबतें उनके अलोकतांत्रिक तरीकों से उपजती हैं. नोटबंदी, राफेल, जीएसटी, आधार जैसे फैसले सरकार के गले में इसलिए फंसे हैं क्योंकि जिम्मेदार संस्थाओं की अनदेखी की गई. 

जब अदालतें सामूहिक आजादियों से आगे बढ़कर व्यक्तिगत स्वाधानताओं (निजता, संबंध, लिंग भेद) को संरक्षण दे रही हैं तब लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वयत्तता के दुर्दिन देखने लायक हैं.

क्या 1991 के बाद का समय भारत के लिए ज्यादा बेहतर था जब सरकारों ने खुद को सीमित किया और देश को नई नियामक संस्थाएं मिलीं?

क्या भारतीय लोकतंत्र अल्पमत सरकारों के हाथ में ज्यादा सुरक्षित है?

क्या कमजोर सरकारें बेहतर हैं जिनके तईं लोकतंत्र की संस्थाएं ताकतवर रह सकती हैं?

हम सिर्फ वोट दे सकते हैं. यह तय नहीं कर सकते कि सरकारें हमें कैसा लोकतंत्र देंगी इसलिए वोट देते हुए हमें लेखक एलन मूर की बात याद रखनी चाहिए कि सरकारों को जनता से डरना चाहिए, जनता को सरकारों से नहीं.