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Tuesday, April 26, 2016

पानी की खेती


भारत पानी के ग्‍लोबल ट्रेड में खेल में पिटा हुआ प्यादा है. वर्चुअल वॉटर के मामले में कई भारतीय राज्यों की हालत और भी खराब है.


गेहूं, गन्ना, कपास और सोयाबीन उगाने के लिए एशिया  अफ्रीका में सबसे उपयुक्त देश चुने जाएं तो इतिहास व भूगोल दोनों ही पैमानों पर उस सूची में मिस्र व चीन सबसे ऊपर होंगे. मिस्र के पास दुनिया की सबसे बड़ी नील नदी है जो अफ्रीका के विभिन्न देशों से उपजाऊ मिट्टी बटोर कर हर साल अपने विशाल डेल्टा में बिछा जाती है. दूसरी तरफ दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी नदी, यांग्जी के मेजबान चीन के पास पानी, मिट्टी ही नहीं बल्कि दुनिया का सबसे बड़ा थ्री गॉर्जेज बांध भी है. इन विशेषताओं के आधार पर चीन और मिस्र को दुनिया का सबसे बड़ा खाद्य निर्यातक होना चाहिए, लेकिन वस्तुस्थिति अपेक्षा से बिल्कुल विपरीत है. मिस्र दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा गेहूं आयातक है और चीन भले ही अन्य निर्यातों में चैंपियन हो लेकिन सन् 2000 के बाद से खाद्य उत्पादों का बड़ा आयातक बन गया है. 
दुनिया में सबसे ज्यादा उपजाऊ जमीन वाले देश अगर अनाज, तिलहन, चीनी आदि के आयातक बन जाएं तो बात कुछ अजीबोगरीब लगती है. यह सब पानी का खेल है जिसने खाद्य व्यापार का संतुलन बदल दिया है. पानी की सबसे ज्यादा खपत कृषि में है इसलिए बेहतर उपज क्षमता रखने वाले मुल्क भी ऐसी फसलें खरीद रहे हैं जो ज्यादा पानी की खपत करती हैं. इसे वर्चुअल वॉटर ट्रेड कहते हैं जिसके तहत कोई देश किसी कृषि उपज का आयात करता है तो उसे उगाने में लगने वाला पानी भी, परोक्ष रूप से, आयात कर रहा होता है, क्योंकि इतनी उपज के लिए अपना पानी लगाना होता. एंबेडेड वॉटर और वॉटर फुटप्रिंट जैसे शब्द ग्लोबल ट्रेड चर्चाओं का हिस्सा हैं जिन पर अमेरिका, चीन एवं भारत में बेंगलूरू के सीएसआइआर तक अध्ययनों की कतार लगी है.
एक टन गेहूं को उगाने में करीब 1,500 घन मीटर पानी लगता है या एक कप कॉफी के लिए 140 लीटर पानी की जरूरत होती है. जो देश अनाज या कॉफी का आयात कर रहे हैं, वे अपनी अन्य जरूरतों के लिए पानी बचा रहे होते हैं. यह वर्चुअल वॉटर इंपोर्ट उन देशों से होता है जहां इन फसलों के लिए भरपूर पानी उपलब्ध है. मिस्र इस नए ट्रेड का पुराना और चीन नया खिलाड़ी है जबकि भारत इस खेल में पिटा हुआ प्यादा है. वर्चुअल वॉटर के मामले में कई भारतीय राज्यों की हालत और भी खराब है.
भारत से पहले एक नजर मिस्र पर जिसकी कहानी रोचक है. हेरोडोटस (5वीं सदी ईस्वी पूर्व) लिखता है कि नील नदी के डेल्टा में बीज बिखेर देने भर से इतनी फसल होती थी कि मिस्र रोमन साम्राज्य का सबसे बड़ा अनाज सप्लायर था. लेकिन 1970 के बाद उसने खाद्य नीति बदली और पानी बचाने के लिए अनाज की खेती को सीमित किया. आज मिस्र के बंदरगाहों पर कनाडा-ऑस्ट्रेलिया के गेहूं से लदे जहाज पहुंचते हैं जो उसके लिए, दरअसल, वर्चुअल वॉटर लेकर आते हैं.
चीन ने यह काम 2001 से शुरू किया. यूरोपीय जिओसाइंस यूनियन के अध्ययन के मुताबिक, चीन ने पानी की ज्यादा खपत वाले अनाज, सोयाबीन, पाम ऑयल, पोल्ट्री आदि का आयात शुरू किया. यह आयात ब्राजील और अर्जेंटीना से होता है. 1996 तक चीन सोयाबीन का सबसे बड़ा निर्यातक था, लेकिन अब सोयाबीन उसके वर्चुअल वॉटर आयात का सबसे बड़ा हिस्सा है. चीन इसकी बजाए कम पानी की खपत वाले फलों, सब्जियों, प्रसंस्कृत खाद्य उत्पादों का निर्यात करता है और पानी के स्रोतों की बचत करता है.
भारत में पानी की कमी केवल खराब मॉनसून का नतीजा नहीं है. पानी अब नीतिगत चुनौती है. दुनिया के कई देश पानी की मांग और आपूर्ति व्यापार, कृषि व उद्योग नीतियों के संदर्भ में तय करने लगे हैं. भारत और चीन दुनिया के दो सबसे बड़े देश हैं और दोनों की पानी नीतियां ग्लोबल अध्ययनों का विषय हैं. स्टॉकहोम वॉटर इंस्टीट्यूट और इंटरनेशनल वॉटर इंस्टीट्यूट के अध्ययन (इंटरनेट पर उपलब्ध) बताते हैं कि चीन अपने जल संसाधनों का ज्यादा बेहतर प्रबंधन कर रहा है. भारत में होने वाली सालाना बारिश चीन से 50 फीसदी ज्यादा है लेकिन भारत के जल भंडार चीन के मुकाबले केवल 67 फीसदी हैं और पानी की प्रति व्यक्ति उपलब्धता चीन के मुकाबले ज्यादा तेजी से घट रही है. सीएसआइआर बेंगलूरू के फोर्थ पैराडाइम इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट (नेचर में प्रकाशित) कहती है कि वर्तमान स्तर को देखते हुए भारत में 300 साल में पानी के स्रोत खतरनाक स्तर तक गिर जाएंगे.
भूजल, नदी जल और अन्य स्रोतों के दोहन की स्थिति को देखते हुए भारत में पानी को समग्र नीतिगत बदलाव चाहिए. क्योंकि एक वर्चुअल वॉटर एक्सपोर्ट देश के भीतर भी हो रहा है जिसमें उत्तर-पश्चिम के कम वर्षा वाले राज्य कपास, गन्ना, धान जैसी फसलें उगाकर पूर्वी राज्यों में भेज रहे हैं जो दरअसल पानी के निर्यात जैसा है.
2016 का सूखा कुछ बड़े बुनियादी नीतिगत बदलावों का संदेश लेकर आया है. अब भारत में फसलों की वॉटर मैपिंग की जरूरत है ताकि हर फसल का वॉटर फुटप्रिंट या विभिन्न फसलों में पानी की खपत का स्तर तय हो सके. खेती अब परंपरागत इलाकों के आधार पर नहीं बल्कि वॉटर फुटप्रिंट के आधार पर होगी. और तब सोयाबीन मध्य प्रदेश में नहीं बल्कि असम में और गन्ना महाराष्ट्र या पश्चिम उत्तर प्रदेश में नहीं बल्कि बिहार और बंगाल में उगेगा.
भारत को अपनी खाद्य आयात-निर्यात नीति भी बदलनी है. हम दाल आयात करते हैं और चीनी निर्यात जबकि हमें इसका बिल्कुल उलटा करना चाहिए. भारत की विशालता और पानी की क्षेत्रीय उपलब्धता को देखते हुए पश्चिमी और पूर्वी तट के राज्यों के लिए अलग-अलग खाद्य आयात नीति की जरूरत है. इसके तहत पश्चिमी भारत को आयातित खाद्य पर निर्भरता बढ़ानी पड़ सकती है ताकि वर्चुअल वॉटर का अंतरराज्यीय व्यापार संतुलित हो सके.
पानी को लेकर गंभीरता और संचय भारत (मरुस्थल को छोड़कर) के संस्कार में नहीं है. अब गुजरात, राजस्थान, बुंदेलखंड ही नहीं बल्कि दोआब, डेल्टा और तराई के क्षेत्र भी पानी की कमी से जूझ रहे हैं. इससे पहले कि हमारी जिंदगी से पानी उतर जाए, हमें खेती और पानी के रिश्ते को नए सिरे से तय करना होगा क्योंकि प्रकृति हमें अधिकतम जितना पानी दे सकती थी, वह इस समय उपलब्ध है. इसके बढऩे की कोई गुंजाइश नहीं है. 



Monday, July 8, 2013

निजीकरण के चोरदरवाजे


बाजार खोलने वाले हाथ यदि गंदे हैं तो उदार बाजार, स्‍वस्‍थ प्रतिस्पर्धा, सबको समान अवसर और पारदर्शिता की गारंटी नहीं होता।

हैदराबाद की जीएमआर दिल्‍ली में एयरपोर्ट बनाकर यात्रियों से फीस वसूलती है लेकिन सरकार उसे 1.63 लाख करोड़ रुपये की जमीन लगभग मुफ्त में दे देती है, भारत में निजी निवेश के तरीके को सावर्जनिक निजी भागीदारी यानी पीपीपी कहते हैं। कोयला उद्योग सरकारी नियंत्रण में है लेकिन नवीन जिंदल जैसों को पिछले दरवाजे से खदानें मिल जाती हैं यह निजीकरण का नया इंडियन मॉडल है। भारत से ढेर सारी उड़ानों की सरकारी गारंटी के बाद अबूधाबी की सरकारी विमान कंपनी इत्तिहाद, जेट एयरवेज में हिस्‍सेदारी खरीदती है और भारत के उभरते अंतरराष्‍ट्रीय एयर ट्रैफिक बाजार में शेखों की कंपनी को निर्णायक बढ़त मिल जाती है। यह विदेशी निवेश की आधुनिक हिंदुस्‍तानी पद्धति है, जो प्रतिस्‍पर्धा को खत्‍म कर देती है। भारत अब मैक्सिको व इजिप्‍ट जैसे निजीकरण की राह पर बढ़ चला है जहां खुले बाजार के फायदे सत्‍ता की चहेती देशी विदेशी कंपनियों ने बांट लिये और अधिकांश मुल्‍क गरीब का गरीब रहा।
कोयला खदान आवंटन व 2 जी लाइसेंसों की तरह ही जेट इत्तिहाद की सौदे की पूरी दाल ही काली है, क्‍यों कि दागी निजीकरण की संस्‍कृति अब विदेश निवेश तक आ गई है। दो मुल्‍कों के बीच एयर सर्विस एग्रीमेंट ग्‍लोबल विमानन बाजार की बुनियाद हैं इनके तहत दो देशों की विमान कंपनियां परस्‍पर उड़ानें शुरु करती हैं और विमानन बाजार में कारोबारी हितों की अदला बदली करती हैं। अलबत्‍ता जब किसी देश की कंपनी दूसरे मुल्‍क की कंपनी में निवेश करती हैं तो यह निजी कारोबारी फैसला होता है जिस पर बाजार व निवेश के नियम लागू होते हैं। जेट इत्तिहाद अनुबंध एक अनोखी मिसाल है जिसमें

Monday, April 8, 2013

अवसरों का अपहरण





लोकतंत्र का एक नया संस्‍करण देश को हताश कर रहा है जहां आर्थिक आजादी कुछ सैकड़ा कंपनियों पास बंधक है और राजनीतिक अवसर कुछ सौ परिवारों के पास

मुख्‍यमंत्री ग्रोथ के मॉडल बेच रहे हैं और देश की ग्रोथ का गर्त में है! रोटी, शिक्षा से लेकर सूचना तक, अधिकार बांटने की झड़ी लगी है लेकिन लोग राजपथ घेर लेते हैं! नरेंद्र मोदी के दिलचस्‍प दंभ और राहुल गांधी की दयनीय दार्शनिकता के बीच खड़ा देश अब एक ऐतिहासिक असमंजस में है। दरअसल, भारतीय लोकतंत्र का एक नया संस्‍करण देश को हताश कर रहा है जहां आर्थिक आजादी कुछ सैकड़ा कंपनियों पास बंधक है और राजनीतिक अवसर कुछ सैकडा परिवारों के पास। इस नायाब तंत्र के ताने बाने, सभी राजनीतिक दलों को आपस में जोडते हैं अर्थात इस हमाम के आइनों में, सबको सब कुछ दिखता है इसलिए राजनीतिक बहसें खोखली और प्रतीकात्‍मक होती जा रही हैं जबकि लोगों के क्षोभ ठोस होने लगे हैं।
यदि ग्रोथ की संख्‍यायें ही सफलता का मॉडल हैं तो गुजरात ही क्‍यों उडीसा, मध्‍य प्रदेश, छत्‍तीसगढ़, त्रिपुरा, उत्‍तराखंड, सिक्किम भी कामयाब हैं अलबत्‍ता राज्‍यों के आर्थिक आंकड़ों पर हमेशा से शक रहा है। राष्‍ट्रीय ग्रोथ की समग्र तस्‍वीर का राज्‍यों के विपरीत होना आंकड़ों में  संदेह को पुख्‍ता करता है। दरअसल हर राज्‍य में उद्यमिता कुंठित है, निवेश सीमित है, तरक्‍की के अवसर घटे हैं, रोजगार नदारद है और लोग निराश हैं। ग्रोथ के आंकड़े अगर ठीक भी हों तो भी यह सच सामने नहीं आता कि भारत का आर्थिक लोकतंत्र लगभग विकलांग हो गया है। 
उदारीकरण से सबको समान अवसर मिलने थे लेकिन पिछले एक दशक की प्रगति चार-पांच सौ कंपनियों की ग्रोथ में

Monday, June 13, 2011

सरकारें हैं कि मानती नहीं

स ट्यूनीशियाई ने जुलूस में फूटा अपना सर चीनी को दिखाया तो चीन वाले के चेहरे पर जमीन छिनने का दर्द उभर आया। इजिप्टयन ने कराहते हुए अपनी व्यथा सुनाई तो यमन वाले को भी पुलिस की मार याद आई। चुटहिल ग्रीक, हैरान आयरिश, नाराज सीरियाई, खफा स्पेनिश और गुस्सा भारतीय सभी एक साथ बड़बड़ाये कि सरकारें अगर गलत हों तो सही होना बहुत खतरनाक है। (वाल्तेयर)..... यह सरकारों के विरोध का अंतरराष्ट्रीय मौसम है। एक चौथाई दुनिया सरकार विरोधी आंदोलनों से तप रही है। रुढि़वादी अरब समाज ने छह माह में दुनिया को दो तख्ता पलट ( इजिप्ट और ट्यूनीशिया) दिखा दिये। चीन में विरोध अब पाबंदियों से नहीं डरता। अमीर यूरोप में जनता सड़क पर हैं तो पिछड़े अफ्रीका में लोग सामंती राज से भिड़े हुए हैं। लगभग हर महाद्वीप के कई प्रमुख देशों में आम लोगों की बददुआओं पर अब केवल सरकारों का हक है। सरकारों के यह भूमंडलीय दुर्दिन हैं और देशों व संस्कृंतियों से परे सभी आंदोलन महंगाई और भ्रष्टांचार जैसी पुरानी समस्या ओं के खिलाफ शुरु हुए हैं जो बाद में किसी भी सीमा तक चले गए। लेकिन सरकारें कभी वक्त पर नसीहत नहीं लेतीं क्यों कि उन्हें इतिहास बनवाने का शौक है।
चीन का भट्टा पारसौल
जमीनों में विरोध कई जगह उग रहा है। चीन फेसबुक या ट्विटर छाव विरोध (जास्मिन क्रांति) से नहीं बल्कि हिंसक आंदोलनों से मुकाबिल है। जमीन बचाने के लिए चीन के किसान कुछ भी करने को तैयार हैं। जिआंग्शी प्रांत के फुझोउ शहर में जानलेवा धमाकों के बाद चीन में अचल संपत्ति पर कब्जे की होड़ का भयानक चेहरा सामने आ गया। फुझोउ से सटे ग्रामीण इलाकों जमीन बचाने के लिए आत्मेहत्याओं से शुरु हुइ बात सरकार पर जानलेवा हमलों तक जा पहुंची है। चीन का विकास हर साल करीब 30 लाख किसानों से जमीन छीन रहा है। विरोध से हिले बीजिंग ने जमीन अधिग्रहण के लिए नया कानून बना लिया मगर लागू नहीं हुआ अलबत्ता चीन में नेल हाउसहोल्ड नाम एक ऑनलाइन गेम