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Sunday, March 19, 2023

इसी का तो खतरा था


 

 

कानपुर के दीपू घरेलू खपत की सामानों के डिस्‍ट्रीब्‍यूटर हैं. बीते पांच छह महीने में हर सप्‍ताह जब उनका मुनीम उन्‍हें हिसाब दिखाता है उलझन में पड़ जाते हैं. ज्‍यादातर सामानों की बिक्री बढ़ नहीं रही है. कुछ की बिक्री घट रही है और कई सामानों की मांग जिद्दी की तरह एक ही जगह अड़ गई है, बढ़ ही नहीं रही.

दीपू हर सप्‍ताह कंपनियों के एजेंट को यह हाल बताते हैं कंपनियां अगली खेप में कीमत बढ़ा देती हैं या पैकिंग में माल घटा देती हैं. दीपू के कमीशन में कमी नहीं हुई मगर मगर बिक्री टर्नओवर नहीं बढ़ रहा. ज्‍यादा बिक्री पर इंसेटिव लेने का मामला अब ठन ठन गोपाल है. कोविड के बाद बाजार खुलते ही दीपू ने तीन लडकों की  डिलीवरी टीम बनाई थी, अब दो को हटा दिया है. नए दुकानदार नहीं जुड़ रहे और नए आर्डर मिल रहे हैं.

दीपू की डिलीवरी टीम में एक लड़का बचा है जिसके साथ वह खुद माल पहुंचाते हैं. वसूली करते हैं. उधारी लंबी हो रही है.

 

दीपू जैसा हाल अगर आपने अपने आसपास सुना हो तो समझ‍िये कि आप अर्थशास्‍त्र की हकीकत के करीब पहुंच गए हैं. दीपू का रोजनामचा और बैलेंस शीट अर्थशास्‍त्र‍ियों के अध्‍ययन का विषय होनी चाहिए. आर्थ‍िक सिद्धांतों में जिस स्‍टैगफ्लेशन का जिक्र होता है, उसकी पूरी व्‍यंजन विध‍ि दीपू के हिसाबी पर्चे में है. स्‍टैगफ्लेशन की खिचड़ी महंगाई, मांग में कमी और बेरोजगारी से बनती है. स्‍टैगफ्लेशन के स्‍टैग का मतलब है विकास दर में स्‍थिरता. यह मंदी नहीं है मगर ग्रोथ भी नहीं. तरक्‍की बस पंचर कार की तरह ठहर जाती है. फ्लेशन यानी इन्‍फेलशन यानी महंगाई.

दुनिया की सबसे जिद्दी आर्थ‍िक बीमारी है यह. जिसमें कमाई नहीं बढती, लागत और कीमतें बढ़ती जाती हैं. दुनिया के बैंकर इतना मंदी से नहीं डरते. मंदी को सस्‍ते कर्ज की खुराक से दूर किया जा सकता है लेक‍िन स्‍टैगफ्लेशन का इलाज नहीं मिलता. सस्‍ता कर्ज महंगाई बढता और महंगा कर्ज मंदी.

मांग और महंगाई 

शायद आपको लगता होगा कि बाजार में माल तो बिक रहा है. जीएसटी बढने के आंकडे तो कहीं से महंगाई के असर नहीं बताते तो फिर यह स्‍टैगफ्लेशन कहां से आ रही है. महंगाई से मांग गिरने के असर को लेकर अक्‍सर तगड़ी बहस चलती है क्‍यों कि पैमाइश जरा मुश्‍क‍िल है. भारत में तो इस वक्‍त इतने परस्‍पर विरोधी तथ्‍य तैर रहे हैं कि तय करना मुश्‍क‍िल है कि महंगाई का असर है भी या नहीं.

इसके लिए आंकड़ो को कुछ दूसरे नजरिये से देखते हैं. अर्थव्‍यवस्‍था में हमेशा बड़ी तस्‍वीर ही पूरी तस्‍वीर होती है और अब हमारे पास महंगाई से मांग टूटने के कुछ ठोस तथ्‍य हैं. बजट की तरफ बढ़ते हुए इन्‍हें देखना जरुरी है

 महंगाई ने मांग खाई

खपत और उत्‍पादन का रिश्‍ता नापने के लिए सबसे व्‍यावहारिक बाजार उपभोक्‍ता उत्‍पादों का है. इस वर्ग में हर तरह के उपभोक्‍ता शामिल है, चाय मंजन , मसालों से लेकर सीमेंट और कारों तक. हर माह जारीहोने वाला औद्योगिक उत्‍पादन सूचकांक इनके उत्‍पादन में कमी या बढत की जानकारी देती है.

अप्रैल से अक्‍टूबर 2022 के दौरान कंज्‍यूमर ड्यूरेबल्‍स के उत्‍पादन में 6.6 फीसदी की गिरावट दर्ज हुई इसमें इलेक्‍ट्रानिक्‍स उत्‍पाद से लेकर कारें तक शामिल हैं 2021 में यहां करीब 30.4 फीसदी की बढ़त हुई थी. कंज्‍यूमर नॉन ड्यूरे‍बल्‍स यानी साबुल मंजन, बिस्‍क‍िट आदि के उत्‍पादन तो अप्रैल अक्‍टूबर 2022 में सिकुड़कर -4.2 फीसदी रह गई जो बीते साल इसी दौरान 7.2 फीसदी बढ़ी थी

यही तो बडे वर्ग हैं जहां महंगाई से मांग का सीधा रिश्‍ता दिखता है. बैंक ऑफ बडोदा के एक ताजा अध्‍ययन में महंगाई और मांग के रिश्‍ते को करीब से पढा गया है.

औद्योगिक उत्‍पादन सूचकांक और महंगाई के आंकडों को एक साथ देखने पर करीब 20 से अध‍िक उत्‍पाद एसे मिलते हैं महंगाई के कारण जिनकी मांग में कमी आई जिसके कारण उत्‍पादन में गिरावट दर्ज हुई

उर्वरकों का किस्‍सा दिलचस्‍प है सरकार की सब्‍स‍िडी के बावजूद इस साल महंगाई के कारण उर्वरक की मांग टूटी. गिरावट दर्ज हुई पोटाश और फास्‍फेट वर्ग के उर्वरक में, जहां सब्‍स‍िडी नही मिलती नतीजतन 2021 में कीमतों की बढ़त 3.2 फीसदी थी 2022 में 12.1 फीसदी हो गई. महंगाई के कारण खरीफ मौसम में बुवाई के बढ़ने के बावजूद उर्वर‍क की बिक्री अप्रैल से अक्‍टूबर 2022 में करीब 5.5 फीसदी कम रही.  

स्‍टील की कीमतों में 2022 में महंगाई का रफ्तार धीमी तो पड़ी लेक‍िन दहाई के अंक में थी इसलिए बिक्री में केवल 11.7 फीसदी बढ़ी जो 2021 में 28 फीसदी बढ़ी थी.

खाद्य सामानों में मक्‍खन, घी, केक, बिस्‍किट, चॉकलेट चाय, कॉफी, कपडे, फुटवियर में महंगाई ने 5 से 12.5 फीसदी तक की बढ़त दिखाई तो बिक्री ने तेज गोता लगाया.

मक्‍खन, केक, लिनेन फुटवियर की बिक्री तो नकारात्‍मक हो गई.

ठीक इसी तरह अप्रैल अक्‍टूबर 2022 में सीमेंट और ज्‍यूलरी की बिक्री में तेज गिरावट आई जिसकी वजह यहां 6 से सात फीसदी की महंगाई थी.

महंगाई के बावजूद

महंगाई से न प्रभावित होने वालों सामानों की सूची बहुत छोटी है. यानी एसे उत्‍पाद जिनकी बिक्री बढ़ी जबकि इनकी कीमतें भी बढ़ी थीं. इसमें सब्‍स‍िडी वाली उर्वरक यानी यूरि‍या और डीएपी है. इसके अलावा आइसक्रीम, डिटर्जेंट, टूथपेस्‍ट और मोबाइल फोन हैं. हालांकि त्‍योहारी मौसम खत्म होने यानी अक्‍टूबर के बाद मोबाइल की बिक्री घटने के संकेत भी मिलने लगे थे.

 

बैंक ऑफ बडोदा के इस अध्‍ययन में कुछ उत्‍पाद एसे भी मिले हैं जिनकी बिक्री का महंगाई से रिश्‍ता स्‍पष्‍ट नहीं होता. जैसे कि कारें, ट्रैक्‍टर, दोपहिया-तिपहिया वाहन और कंप्‍यूटर. इन सबकी कीमतें बढ़ी लेकिन दिसंबर तक कारों की बिक्री ने सारा पुराना घाटा पाट दिया. 2018 के बाद सबसे ज्‍यादा कारें बिकीं.

बजट की पृष्‍ठभूमि

2022-23 में कुल उत्‍पादन में कमी नजर आने की एक वजह 2021 में तेज बिक्री रही थी जिसे बेसइ इफेक्‍ट कहते हैं लेक‍िन आंकड़ो को करीब से देखने पर महंगाई और मांग का रिश्‍ता साफ दिख जाता है.

इससे यह भी जाहिर होता है कि सरकार का जीएसटी संग्रह महंगाई के कारण बढ़ रहा है, बिक्री बढ़ने के कारण नहीं. महंगाई के कारण जीएसटी संग्रह बढ़ने के सबूत पहले से मिल रहे हैं.

स्‍टैगफ्लेशन की रोशनी में बजट गणित पेचीदा हो गई है. अर्थव्‍यवस्‍था के चार प्रमुख भागीदार हैं. पहला है उत्‍पादक, दूसरा है उपभोक्‍ता  तीसरे हैं रोजगार और चौथी है सरकार  

महंगाई और लागत बढ़ने के साथ उत्‍पादकों ने अपनी गणित बदल ली. कानपुर के दीपू को महंगा माल मिल रहा है क्‍यों कि मांग में कमी के साथ कंपनियां क्रमश: कीमतें अपने न्‍यूनतम मार्जिन सुनश्‍च‍ित कर रही हैं. वितरकों के कमीशन सुरक्षति हैं लेक‍िन कारोबार में बढ़त नहीं है.


दूसरी तरफ उपभोक्‍ता है. इस माहौल ने उनकी खपत का नजरिया बदल दिया है. तभी तो जरुरी चीजों की मांग गिरी है. रिजर्व बैंक का ताजा कंज्‍यूमर कान्‍फीडेंस सर्वे बताता है कि ज्‍यादातर उभोक्‍ता अगले एक साल तक गैर जरुरी सामान पर खर्च नहीं करना चाहता है. जरुरी सामानों पर भी उनके खर्च में बड़ी बढ़त नहीं होगी. यही वजह है दीपू को नए दुकानदार नहीं मिल रहे और पुराने दुकानदार आर्डर बढ़ा नहीं रहे हैं.   

अप्रैल से दिसंबर के बीच भारत में बेरोजगारी दर 7 फीसदी से ऊपर रही है. दिसंबर में शहरी बेरोजगारी दस फीसदी से ऊपर निकल गई. गांवों में भी काम नहीं. स्‍टैगफ्लेशन का सबूत यही है. रोजगार इसलिए टूट रहे हैं क्‍यों कि कंपनियों ने नई क्षमताओं में निवेश रोक दिया और उत्‍पादन को घटाकर मांग से हिसाब से समायोजित क‍िया है. इस सूरत में नौकर‍ियां आना तो दूर खत्‍म होने की कतार लगी है. श्रम बाजार में काम के लिए लोग हैं मगर काम कहां है. दीपू ने भी बेकारी बढाने में अपनी योगदान किया है. अपने टीम के दो लड़के हटा दिये.

अगर इस वित्‍त वर्ष में भारत की जीडीपी दर 6.9 फीसदी भी रहती है तो भी बीते तीन साल में भारत की औसत विकास दर केवल 2.8 फीसदी रहेगी जो कि बीते तीन साल की औसत विकास दर यानी 5.7 फीसदी का आधी है

अर्थात भारत का सकल घरेलू उत्‍पादन या बीते 36 महीनों में तीन फीसदी की दर से भी नहीं बढ़ा है. इसी का सीधा असर हमें खपत पर दिख रहा है. वित्‍त वर्ष 2024 की विकास दर अगर छह फीसदी से नीचे रहती है तो फिर चार साल तक देश के लोगों की कमाई में कोई खास बढ़त नजर नहीं आएगी. यही वजह है कि अब माना जा रहा है कि यदि 2023 में महंगाई 6 फीसदी से नीचे आ भी गई तो भी लोगों के पास कमाई नहीं होगी जिससे मांग को तेज बढ़त मिल सके. मांग के बि‍ना कंपनियां नया निवेश नहीं करेंगी तो रोजगार कहां बनेंगे. विकास दर के गिरने के साथ सरकार के लिए जीएसटी संग्रह में तेजी बनाये रखना मुश्‍क‍िल होगा.

यही तो जिद्दी स्‍टैगफ्लेशन है जो दीपू की बैलेंस शीट पर दस्‍तखत कर चुकी है. सरकार को अब कुछ और ही करना होगा क्‍यों कि महंगाई कम होने मात्र से मांग के तुरंत लौटने की उम्‍मीद नहीं है.

कमाई बढेगी तभी शायद बात बनेगी

 

 

Friday, December 23, 2022

ये उन दिनों की बात है


 

शाम की बात है.. डा. वाटसन ने कमरे के अंदर कदम रखा ही था कि शरलक होम्‍स बोल उठे

आज पूरा दिन आपने क्‍लब में मस्‍ती की है

डा. वाटसन ने चौकते हुए कहा कि आपको कैसे पता

आज पूरा दिन लंदन में बार‍िश हुई

इसके बीच भी अगर कोई व्‍यक्‍ति‍ साफ सुथरे जूतों और चमकते हुए हैट के साथ आता है तो स्‍वाभाविक है क‍ि वह बाहर नहीं था

डा. वाटसन ने कहा यू आर राइट शरलक

यह स्‍वाभाविक है

होम्‍स ने कहा क‍ि हमारे आस-पास बहुत से घटनाक्रम स्‍वाभाविक ही हैं लेक‍िन हम उन्‍हें पढ़ नहीं पाते

यह किस्‍सा इसलिए मौजूं है क्‍यों कि दुनिया इस वक्‍त बड़ी बेज़ार है.  मंदियां बुरी होती हैं लेक‍िन इस वक्‍त भरपूर मंदी चाहती है लेक‍िन जिससे महंगाई से पीछा छूटे मगर मंदी है कि आती ही नहीं ...

क्‍या कहीं कुछ एसा तो नहीं जो स्‍वाभाविक है मगर दिख नहीं पा रहा है. इसलिए पुराने सिद्धांत ढह रहे हैं और कुछ और ही होने जा रहा है.  

महंगाई मंदी युद्ध महामारी सबका इतिहास है लेक‍िन वह बनता अलग तरह से है. बड़ी घटनायें एक जैसी होती हैं मगर उनके ताने बाने फर्क होते हैं. मंदी महंगाई की छाया में एक नया इतिहास बन रहा है.

एश‍िया के देश चाहते हैं कि अमेरिका में टूट कर मंदी आए क्‍यों कि जब महंगाई काट रही हो तो वह मंदी बुलाकर ही हटाई जा सकती है. यानी मांग तोड़ कर कीमतें कम कराई जा सकती हैं. अमेरिका में मंदी आने देरी की वजह ब्‍याज दरें बढ़ रही हैं. डॉलर मजबूत हो रहा है बहुत से देशों के विदेशी मुद्रा भंडार फुलझडी की तरह फुंके जा रहे हैं. सरकारों का प्राण हलक में आ गया है.  

विश्‍व बैंक की जून 2022 रिपोर्ट बताती है कि सभी विकसित देशों और उभरती अर्थव्‍यवस्‍थाओं की महंगाई उनके केंद्रीय बैंकों के लक्ष्‍य से काफी ऊपर हैं. एसा बीती सदी में कभी नहीं हुआ. ब्‍याज दरें बढ़ने एश‍िया वाले बुरी तरह संकट में हैं क्‍यों कि यहां महामारी ने बहुत तगड़े घाव किये हैं;    

अर्थशास्‍त्री कहते हैं कि ब्‍याज दरें बढ़ें तो मंदी आना तय. क्‍यों कि रोजगार कम होंगे, कंपन‍ियां खर्च कम करेंगी, बाजार में मांग टूटेगी फिर महंगाई कम होगी. पह‍िया वापसी दूसरी दिशा में घूम पड़ेगा. मंदी की मतलब है कि तीन माह लगातार नकारात्‍मक विकास दर.

अमेरिका फेडरल रिजर्व 2022 में अब तक ब्‍याज दर में तीन फीसदी यानी 300 प्रतिशतांक की बढ़ोत्‍तरी कर चुका है. दुनिया के प्रमुख केंद्रीय बैंक अब तक कुल 1570 बेसिस प्‍वाइंट यानी करीब 16 फीसदी की बढत कर चुके हैं.

 

 

इसके बाद महंगाई को धुआं धुआं हो जाना चाहिए था लेक‍िन

कुछ ताजा आंकड़े देख‍िये

-    अमेरिका में उपभोक्‍ताओं की खपत मांग सितंबर में 11 फीसदी बढ़ गई.

-    अमेरि‍का सितंबर में बेरोजगारी बढ़ने के बजाय 3.5 फीसदी कम हो गई

-    फ्रांस में मंदी नहीं आई है केवल आर्थि‍क विकास दर गिरी है.

-    जर्मनी में महंगाई 11 फीसदी पर है लेक‍िन सितंबर की तिमाही में मंदी की आशंक को हराते हुए विकास दर लौट आई

-    कनाडा में अभी मंदी के आसार नहीं है. 2023 में शायद कुछ आसार बनें

-    आस्‍ट्रेलिया में बेरोजगारी दर न्‍यूनतम है. कुछ ति‍माही में विकास दर कम हो सकती है लेक‍िन मंदी नहीं आ रही

-    जापान में विकास दर ि‍गरी है येन टूटा है मगर मंदी के आसार नहीं बन रहे

-    ब्राजील में महंगाई भरपूर है लेक‍िन जीडीपी बढ़ने की संभावना है

-    बडी अर्थव्‍यवस्‍थाओं में केवल ब्रिटेन ही स्‍पष्‍ट मंदी में है 

सो किस्‍सा कोताह कि महंगाई थम ही नहीं रही. अमेरिका में ब्‍याज दर बढ़ती जानी है तो अमेरिकी डॉलर के मजबूती दुन‍िया की सबसे बड़ी मुसीबत है जिसके कारण मुद्रा संकट का खतरा है

कुछ याद करें जो भूल गए

क्‍या है फर्क इस बार .; क्‍यों 1970 वाला फार्मूला उलटा पड़ रहा है जिसके मुताबि‍क महंगी पूंजी से मांग टूट जाती है.

शरलक होम्‍स वाली बात कि कुछ एसा हुआ जो हमें पता मगर दिख नहीं रहा है और वही पूरी गण‍ित उलट पलट कर रहा है

राष्‍ट्रपति बनने के बाद फेड रिजर्व गवर्नर जीरोम पॉवेल को खुल कर बुरा भला कह रहे थे कि उन्‍होंने 2018 में वक्‍त पर ब्‍याज दरें नहीं घटाईं. फेड और व्‍हाइट हाउस के रिश्‍तों को संभाल रहे थे तत्‍कालीन वित्‍त मंत्री स्‍टीवेन मंच‍ेन जो पूर्व इन्‍वेस्‍टमेंट बैंकर हैं

किस्‍सा शुरु होता है 28 फरवरी 2020 से. इससे पहले वाले सप्‍ताह में जीरोम पॉवेल रियाद में थे जहां प्रिंस सलमान दुनिया के 20 प्रमुख देशों के वित्‍त मंत्र‍ियों और केंद्रीय बैंकों का सम्‍मेलन किया था. वहां मिली सूचनाओं के आधार पर फेड ने समझ लिया था कि अमेरिकी सरकार संकट की अनदेखी कर रही है.

28 फरवरी को तब तक अमेरिका में कोविड के केवल 15 मरीज थे, दो मौतें थे. राष्‍ट्रपति डोनाल्‍ड ट्रंप इस वायरस को सामान्‍य फ्लू बता रहे थे. 28 फरवरी की सुबह जीरोम पॉवल ने वित्‍त मंत्री मंचेन के साथ अपनी नियमित मुलाकात की और उसके बाद रीजलन फेड प्रमुखों के साथ फोन कॉल का सिलस‍िला शुरु हो गया.

दोपहर 2.30 बजे जीरोम पॉवेल ने एक चार लाइन का बयान आया. जिसमें ब्‍याज दर घटाने का संकेत दिया गया था. कोविड का कहर शुरु नहीं हुआ था मगर फेड ने वक्‍त से पहले कदम उठाने की तैयारी कर ली थी. बाजार को शांति मिली.

 

इसके तुरंत बाद पॉवेल और मंचेन ने जी 7 देशों के वित्‍त मंत्र‍ियों की फोन बैठक बुला ली. यह लगभग आपातकाल की तैयारी जैसा था. तब तक अमेरिका में कोविड से केवल 14 मौतें हुईं थी लेक‍िन इस बैठक में ब्‍याज दरें घटाने का सबसे बड़ा साझा अभ‍ियान तय हो गया.

तीन मार्च और 15 मार्च के फेड ने दो बार ब्‍याज दर घटाकर अमेरिका में ब्‍याज दर शून्‍य से 0.25 पर पहुंचा दी. कोव‍िड से पहले ब्‍याज दर केवल 1.5 फीसदी था. 2008 के बाद पहली बार फेड ने अपनी नियम‍ित बैठक के बिना यह फैसले किये थे. सभी जी7 देशों में ब्‍याज दरों में रिकार्ड कमी हुई.

बात यहीं रुकी नहीं इसके बाद अगले कुछ महीनों तक फेड ने अमेरिका के इत‍िहास का सबसे बड़ा कर्ज मदद कार्यक्रम चलाया. करीब एक खरब डॉलर के मुद्रा प्रवाह से फेड ने बांड खरीद कर सरकार, बड़े छोटे उद्योग, म्‍युनिसपिलटी, स्‍टूडेंट, क्रेड‍िट कार्ड आटो लोन का सबका वित्‍त पोषण किया.

 

 

 

कोवि‍ड के दौरान अमेरिक‍ियों की जेब में पहले से ज्‍यादा पैसे थे और उद्योगों के पास पहले से ल‍िक्‍व‍िड‍िटी.

इस दौरान जब एक तरफ वायरस फैल रहा था और दूसरी तरफ सस्‍ती पूंजी.

कोविड से मौतें तो हुईं लेक‍िन अमेरिका और दुनिया की अर्थव्‍यवस्‍था वायरस से आर्थ‍िक तबाही से बच गईं. यही वजह थी कि कोविड की मौतों के आंकडे बढने के साथ शेयर बाजार बढ़ रहे थे. भारत के शेयर बाजारों इसी दौरान विदेशी निवेश केरिकार्ड बनाये

तो अब क्‍या हो रहा है

यह सब सिर्फ एक साल पहले की बात है और हम इस स्‍वाभाव‍िक घटनाक्रम के असर को नकार कर ब्‍याज दरें बढ़ने से महंगाई कम होने की उम्‍मीद कर रहे हैं. जबकि बाजार में कुछ और ही हो रहा है

अमेरिका में महंगाई दर के सात आंकडे सामने हैं. 1980 के बाद कभी एसा नहीं हुआ कि महंगाई सात महीनों तक सात फीसदी से ऊपर बनी रहे

 

 

मंदी को रोकने और महंगाई को ताकत देने वाले तीन कारक है सामने दिख रह हैं

जेबें भरी हैं ...

2020 में अमेर‍िका के परिवारों की नेट वर्थ यानी कुल संपत्‍त‍ि 110 खरब डॉलर थी साल 2021 में यह 142 ट्र‍िल‍ियन डॉलर के रिकार्ड पर पहुंच गई. 2022 की पहली ति‍माही में इसे 37 फीसदी की बढ़ोत्‍तरी दर्ज हुई. यह 1989 के बाद सबसे बड़ी बढ़त है. यही वह वर्ष था जब फेड ने नेटवर्थ के आंकड़े जुटाने शुरु किये थे.

संपत्‍त‍ि और समृद्ध‍ि में इस बढ़ोत्‍तरी का सबसे बड़ा फायदा शीर्ष दस फीसदी लोगों को  मिला.

 

लेक‍िन नीचे वाले भी बहुत नुकसान में नहीं रहे. आंकड़ो  के मुताबिक सबसे नीचे के 50 फीसदी लोगों की संपत्‍ति‍ जेा 2019 में 2 ट्रि‍लियन डॉलर थी अब करीब 4.4 ट्र‍िलियन डॉलर है यानी करीब दोगुनी बढ़त.

एसा शायद उन अमेरिका में रेाजगार बचाने के लिए कंपनियों दी गई मदद यानी पे चेक प्रोटेक्‍शन ओर बेरोजगारी भत्‍तों के कारण हुआ.

अमेर‍िका में बेरोजगारी का बाजार अनोखा हो गया. नौकर‍ियां खाली हैं काम करने वाले नहीं हैं.

इस आंकडे से यह भी पता चलता है कि अमेर‍िका के लोग महंगाई के लिए तैयार थे तभी गैसोलीन की कीमत बढ़ने के बावजूद उपभोक्‍ता खर्च में कमी नहीं आई है.

कंपनियों के पास ताकत है  

कोविड के दौरान पूरी दुनिया में कंपनियों के मुनाफे बढे थे. खर्च कम हुए और सस्‍ता कर्ज मिला. महंगाई के साथ उन्‍हें कीमतें बढ़ने का मौका भी मिल गया. अब कंपनियां कीमत बढाकर लागत को संभाल रही हैं निवेश में कमी नहीं कर रहीं. अमेरिका में कंपनियों के प्रॉफ‍िट मार्जिन का बढ़ने का प्रमाण इस चार्ट में दिखता है

भारत में भी कोविड के दौरान रिकार्ड कंपनियों ने रिकार्ड मुनाफे दर्ज किये थे. वित्‍त वर्ष 2020-21 में जब जीडीपीकोवडि वाली मंदी के अंधे कुएं में गिर गया तब शेयर बाजार में सूचीबद्ध भारतीय कंपन‍ियों के मुनाफे र‍िकार्ड 57.6 फीसदी बढ़ कर 5.31 लाख करोड़ रुपये पर पहुंच गए. जो जीडीपी के अनुपात में 2.63 फीसदी है यानी (नकारात्‍मक जीडीपी के बावजूद) दस साल में सर्वाध‍िक.

यूरोप और अमेरिका भारत से इस ल‍िए फर्क हैं कि वहां कंपनियां महंगे कर्ज के बावजूद रोजगार कम नहीं कर रही हैं. नई भर्त‍ियां जारी हैं. अमेरिका में ब्‍याज दरें बढ़ने के बाद सितंबर तक हर महीने गैर कृषि‍ रोजगार बढ़ रहे हैं यह बढ़त पांच लाख से 2.5 लाख नौकर‍ियां प्रति माह की है.

 

और कर्ज की मांग भी नहीं टूटी

सबसे अचरज का पहलू यह है कि ब्‍याज दरों में लगातार बढोत्‍तरी के बावजूद प्रमुख बाजारों में कर्ज की मांग कम नहीं हो रही है. कंपनियां शायद यह मान रही हैं कि मंदी नहीं आएगी इसलिए वे कर्ज में कमी नहीं कर रहीं. अमेरिका जापान और यूके में कर्ज की मांग 7 से 10 फीसदी की दर से बढ रही है. भारत में महंगे ब्‍याज के बावजूद कर्ज की मांग अक्‍टूबर के पहले सप्‍ताह में 18 फीसदी यानी दस साल के सबसे ऊंचे स्‍तर पर पहुंच गई है.

 

 

 

 

 

 

 

 

इसलिए एक तरफ जब दुनिया भर के केंद्रीय बैंक मंदी की अगवानी को तैयार बैठे हैं शेयर बाजारों में कोई बड़ी गिरावट नहीं है.

 

कमॉड‍िटी कीमतों में कोई तेज‍ गिरावट भी नहीं हो रही है. तेल और नेचुरल गैस तो खैर खौल ही ही रहे हैं लेकिन अन्‍य कमॉडिटी भी कोई बहुत कमजोर पड़ी हैं. ब्लूबमर्ग का कमॉडि‍टी सूचकांक सितंबर तक तीन माह में केवल चार फीसदी नीचे आ आया है.

 

 

 

 

 

तो अब संभावना क्‍या हैं

मौजूदा कारकों की रोशनी में अब मंदी को लेकर दो आसार हैं.

एक या तो मंदी बहुत सामान्‍य रहेगी

या फिर आने में लंबा वक्‍त लेगी

मंदी न आना अच्‍छी खबर है या चिंताजनक

मंदी का देर से आना यानी  महंगाई का ट‍िकाऊ होना है

तो फिर ब्‍याज दरों में बढ़त लंबी चलेगी

और डॉलर की मजबूती भी

जिसकी मार से दुनिया भर की मुद्रायें परेशान हैं

तो आगे क्‍या

दुनिया ने मंदी नहीं तो स्‍टैगफ्लेशन चुन ली है

यानी आर्थ‍िक विकास दर में गिरावट और महंगाई एक साथ

क्‍या स्‍टैगफ्लेशन मंदी से ज्‍यादा बुरी होती है ..

महंगाई क्‍यों मजबूत दिखती है 

Saturday, October 9, 2021

सबके बिन सब अधूरे

 


अमेरिका और यूरोप में उत्सवी सामान (थैंक्सगिविंग-क्रिसमस) की कमी पड़ने वाली है. चीन में कोयला कम है, बत्ती गुल है, कारखाने बंद हैं. यूरोप में गैस की कीमतें उबल रही हैं. ब्रिटेन में कामगारों की किल्लत है. रूस में मीट नहीं मिल रहा. यूरोप की कार इलेक्ट्रॉनिक्स कंपनियों के पास पुर्जे नहीं हैं.

दुनिया में तो मंदी है, मांग का कोई विस्फोट नहीं हुआ है फिर यह क्या माजरा है?

कहते हैं, अगर अमेरिकी राज्य न्यू मेक्सिको में कोई तितली अपने पंख फड़फड़ाए तो चीन में तूफान सकता है. यानी दुनिया इतनी पेचीदा है कि छोटी-सी घटना से बड़ी उथल-पुथल (बटरफ्लाइ इफेक्ट या केऑस थ्योरी) हो सकती है.

हवा पानी के बाद अगर कोई चीज हमें चला रही है तो वह सप्लाइ चेन है जो करीबी दुकान से लेकर भीतरी चीन, या दक्षिण अमेरिका के सुदूर इलाकों तक फैली हो सकती है. सामान, सेवाओं, श्रमिकों, ईंधन, खनिज आदि की ग्लोबल आपूर्ति का यह पर्तदार और जटिल तंत्र इस कदर बहुदेशीय और बहुआयामी है कि वर्ल्ड इज फ्लैट वाले थॉमस फ्रीडमैन कहते रहे हैं कि अब दुनिया में युद्ध नहीं होंगे क्योंकि एक ही सप्लाइ चेन में शामिल दो देश एक-दूसरे से जंग नहीं कर सकते. इसे डेल (कंप्यूटर) थ्योरी ऑफ कन्फलिक्ट प्रिवेंशन कहते हैं.

दुनिया में लगभग सभी जरूरी चीजों की उत्पादन क्षमताएं पर्याप्त हैं फिर भी कारोबारी धमनियों में उतनी सप्लाइ नहीं है लंबी बाजार बंदी के बाद जितनी जरूरत थी.

विश्व की पांच बड़ी अर्थव्यवस्थाएंअमेरिका, चीन, जर्मनी, यूके, रूस और ऑस्ट्रेलिया लड़खड़ा गई हैं. यही पांच देश दुनिया की सप्लाइ चेन में बड़े ग्राहक भी हैं और आपूर्तिकर्ता भी. इनके संकट पूरी तरह न्यू मेक्सिको की तितली जैसे हैं यानी स्थानीय. लेकिन सामूहिक असर पूरी दुनिया की मुसीबत बन गया है. किल्लत अब लाखों सामान की है लेकिन वह चार बड़ी आपूर्तियां टूटने का नतीजा है, जो ग्लोबल सप्लाइ चेन की बुनियाद हैं.

ऊर्जा या ईंधन में चौतरफा आग लगी है. कोविड से पहले 2020 और ’21 की भीषण सर्दियों में यूरोप ने अपने ऊर्जा भंडारों का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल कर लिया. उत्पादन बढ़ता इससे पहले कोविड गया. एक साल में यूरोप में नेचुरल गैस 300 फीसद महंगी (स्पॉट प्राइस) हो गई. बिजली करीब 250 फीसद महंगी हुई हालांकि उपभोक्ता बिल नहीं बढ़े. भंडार क्षमताएं बीते बरस से 19 फीसद कम हैं.

चीन दुनिया में सबसे ज्यादा कोयला इस्तेमाल करता है. सरकार ने ऑस्ट्रेलिया से आयात रोक दिया था. चीन में कोयला महंगा है लेकिन सरकार बिजली सस्ती रखती है. नुक्सान बढ़ने से कोयले का खनन कम हुआ. बिजली की कटौती से कारखाने रुके तो अमेरिका-यूरोप भारत में जरूरी आपूर्ति टूटने लगी.

इधर, पेट्रोलियम निर्यातक देशों का संगठन, ओपेक कच्चे तेल का उत्पादन बढ़ाने के लिए इंतजार करना चाहता है इसलिए पूरा ऊर्जा बाजार ही महंगाई से तपने लगा है.

महामारी वाली मंदी से उबर रहे विश्व को यह अंदाज नहीं था कि अब तक की सबसे जटिल शिपिंग किल्लत उनका इंतजार कर रही है. बीते एक साल में कई बंदरगाहों पर जहाज फंस गए. इस बीच कंटेनर बनाने वाली कंपनियों (तीनों चीन की) ने उत्पादन घटा दिया. अब मांग है तो कंटेनर और जहाज नहीं. नतीजतन, किराए चार साल की ऊंचाई पर हैं. यह संकट दूर होते एक साल बीत जाएगा. लेकिन तब अमेरिका में क्रिसमस गिफ्ट, रूस में खाने का सामान, ऑस्ट्रेलिया को स्टील की कमी रहेगी. भारतीय निर्यातक महंगे भाड़े से सांसत में हैं.

मध्य और पूर्वी यूरोप के मुल्कों में कामगारों की कमी हो गई है. अमेरिका और यूरोप में बेरोजगारी सहायता स्कीमें बंद होने वाली हैं. कई जगह लोग वर्क फ्रॉम होम से वापस नहीं आना चाहते. कमी है तो मजदूरी महंगी हो रही है जो कंपनियों की लागत बढ़ा रही है. ब्रिटेन में पेट्रोल, खाद्य और दूसरी जरूरी सेवाओं के लिए कामगारों की कमी हो गई है. ब्रेग्जिट के बाद प्रवासियों को आने से रोकना अब महंगा पड़ रहा है.

कहते हैं कि अगर ट्रंप की अगुआई में चीन-अमेरिका व्यापार युद्ध के दौरान सेमीकंडक्टर या चिप ग्राहकों ने दोगुनी खरीद के ऑर्डर दिए होते तो आज यह नौबत नहीं आती. चिप नया क्रूड आयल है. कोविड के कारण कारों का उत्पादन प्रभावित हुआ तो चीन ताइवान की कंपनियों ने स्मार्ट फोन, कंप्यूटर वाले चिप का उत्पादन बढ़ा दिया. ऑटोमोबाइल की मांग लौटी तो उत्पादन क्रम में फिर बदलाव हुआ. अब सभी के लिए चिप की किल्लत है.

ईंधन, परिवहन, चिप और श्रमिक के बिना आधुनिक मैन्युफैक्चरिंग मुश्किल है. इनकी कमी स्टैगफ्लेशन को न्योता दे रही है. यानी महंगाई और आर्थिक सुस्ती एक साथ. दुनिया के देशों को सबसे पहले सप्लाइ चेन यानी आपूर्ति की धमनियों को दुरुस्त करना होगा. सस्ता कर्ज मंदी से उबरने का शर्तिया इलाज रहा है लेकिन महंगाई के सामने यह दवा बेकार है. कर्ज महंगे होने लगे हैं. 

नेपोलियन बज़ा फरमाते थे: नौसिखुए कमांडर जंग में टैक्टिक्स (रणनीति) की बात करते हैं जबकि पेशेवर लड़ाके लॉजिस्टिक्स (साधनों) की. सनद रहे कि जंग अब महामारी और मंदी के साथ महंगाई से भी है.