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Saturday, April 9, 2022

कंपन‍ियां डुबाने की आदत

 


 

स्‍पाइस जेट के विमान में ताजा ट्रेंड पर इंस्‍टारील बना रही एयरहोस्‍टेस को पता ही नहीं होगा कि उसकी कंपनी के वित्‍तीय खातों में धांधली के सवाल क्‍यों उठ रहे हैं. क्‍यों ब्‍लैकरॉक , जो दुनिया की सबसे बडी एसेट मैनेजर ने कंपनी है उसने स्‍पाइस जेट में वित्‍तीय अपारदर्शिता के सवाल उठाये हैं. सवाल ही नहीं उसने तो कंपनी की ऑडिट कमेटी में चेयरमैन के खास प्रत‍िन‍िध‍ि नियुक्‍त करने के प्रस्‍ताव पर भी वीटो ठोंक दिया है  

पता तो जेट एयरवेज के 20,000 से अधिक कर्मचारियों को भी नहीं चला था कि उनकी कंपनी के मालिक या बोर्ड ने ऐसा क्या कर दिया जिससे कंपनी के साथ उनकी जिंदगी का सब कुछ डूब गया.

भारत में अब दो तरह की कंपन‍ियां हैं एक जिनके फ्रॉड और तमाम धतकरम हमें पता हैं दूसरी वह कंपन‍ियां जिनके भीतर घोटाले तो हैं लेक‍िन हमे जानकारी नहीं है.

देश का सबसे ख्‍यात आधुन‍िक स्‍टॉक एक्‍सचेंज भी तो एक कंपनी ही है जिसने खास ब्रोकरों को आम निवेशकों से पहले बाजार में कारोबार करने की तकनीकी सुव‍िधा देकर देश की साख मिट्टी में मिला थी. पारदर्श‍िता जिस एक्‍सचेंज की बुनियादी जरुरत है उसे कोई रहस्‍यमय गुरु चला रहा था !

 

यह सूरते हाल उतनी ही निराश करती है जितनी क‍ि हताश करती है भारत की राजनीति! यानी क‍ि सत्‍यम के घोटाले यानी 2009 के बाद भारत में कुछ भी नहीं बदला.

सत्‍यम ही क्‍यों ? क्‍यों कि इसे भारत का एनरॉन मूमेंट कहा गया था.

एबीजी श‍ि‍पयार्ड जैसों की खबरें पढ़ने के बाद किसी को कागज़ी कंपन‍ियां, खातों में हेराफेरी, कर्ज को छ‍िपाने जैसे धतकरम सामान्‍य नज़र आएंगे. एनरॉन ने भी यही किया था लेक‍िन  वाल स्‍ट्रीट की डार्ल‍िंग एनरॉन के सन 2000 अमेरिका के इतिहास के सबसे बड़े फर्जीवाड़े में पकडे जाने के बाद सरकार थरथरा गई. अमेरिका ने  एनरॉन जैसा घोटाला नहीं देखा था नियामक शार्मिंदा हुए. राष्‍ट्रपति जॉर्ज बुश की बड़ी किरक‍िरी हुई.

अमेरिका में कंपनियों के लिए बेहद सख्‍त सरबेंस ऑक्‍सले एक्‍ट आया. पारदर्श‍िता के कठोर नियम तय क‍िये गए. अकाउंट‍िंग की प्रणाली बदली गई. इसके बाद कारपोरेट दुनिया में बहुत कुछ बदल गया. ठीक इसी तरह लेहमैन ब्रदर्स डूबा  तो डॉड फ्रैंक कानून लाया गया था.

पूरी दुनिया में कंपनी फ्रॉड, भ्रष्‍टाचार, फर्जीवाड़े को लेकर सक्रियता बढी, कानून बदले और सख्‍ती बढ़ी. इसके बाद से कम से कम यह अर्थात लिखे जाने तक तो अमेरिका में एनरॉन या लेहमैन नहीं दोहराया गया ..

भारत में भी सत्‍यम घोटाले के बाद बहुत कुछ बदला था.  तत्‍कालीन कैबिनेट सच‍िव नरेश चंद्रा की अध्‍यक्षता में एक सम‍ित‍ि की सिफार‍िश पर कारपोरेट गवर्नेंस की नई व्‍यवस्‍था आई थी. नैसकॉम  की समिति ने ऑड‍िट, शेयरधारकों के अध‍िकार घोटाले की सूचना देने वाले (व्‍हि‍सल ब्‍लोअर) के संरंक्षण के नियम सुझाये गए.

सेबी की अकाउंट‍िंग व डिस्‍क्‍लोजर कमेटी ने शेयरों को बाजार में सूचीबद्ध कराने के लिए नियमों (आर्ट‍िक‍िल 49) बदलाव किये.

कंपनी कानून में बदलाव कर कारपोरेट फ्रॉड को आपराधिक मामलों में शाम‍िल किया गया. धोखाधड़ी रोकने के लिए निदेशकों नई जिम्‍मेदारी तय की गई. चार्टर्ड अकाउंटेंट इंस्‍टीट्यूट ने फ्रॉड की रिपोर्ट‍िंग के नया न‍ियम बनाये और यहां तक क‍ि और वित्‍तीय मामलों की जांच का सीबीआई यानी सीरियस फ्रॉड ऑफ‍िस बनाया गया ...

सबसे बड़ा बदलाव ऑडिट को लेकर हुआ था. कहते हैं अगर आंकड़ों से पूछताछ की जाए तो वह सच उगल देते हैं. इसलिए भारत में फोरेंस‍िक ऑडिट की शुरुआत हुई.  पंजाब नेशनल बैंक के साथ नीरव मोदी का फ्रॉड हो या आईएलएफस के खातों में हेरफेर या क‍ि एबीजी शिपयार्ड की फर्जी कंपनियां यह सब पता चला जब ऑडिटर्स और रेटिंग एजेंसियों की चोरी व धोखाधड़ी पकड़ने के लिए फोरेंस‍िक ऑड‍िट शुरु हुए.  यहां तक कि नेशनल स्‍टॉक एक्‍सचेंज का वह रहस्‍यमय गुरु भी इसी ऑड‍िट के सहारे दस्‍तावेजों की गुफा से बाहर निकला है.

 

ऑडिट की यह किस्‍म खातों में आपराध‍िक हेरफेर, पैसे के अवैध लेन देन और फ्रॉड के प्रमाणों को अदालत तक ले जाने पर आधार‍ित है. रिजर्व बैंक 2016 तक इस ऑडिट के नियम दुरुस्‍त कर दिये थे. फंसे हुए कर्ज के बड़े मामलों की फोरेंस‍िक जांच जरुरी बना दी गई. सेबी ने लगातार न‍ियमों को चुस्‍त किया. 2020 के सबसे ताजे आदेश में कंपन‍ियों पर फ्रॉड रोकने के नए नियम बनाने और अकाउंट‍िंग में बदलाव की शर्तें लगाईं गईं.

 

यहां तक आते आते आपको बेचैनी महसूस होने लगी होगी क्‍यों क‍ि अगर नसीहतें ली गईं थी, कानून बदले गए थे. यद‍ि कॉर्पोरेट गवर्नेंस यानी कंपनी को चलाने के नियम इतने चुस्‍त  हैं तो फिर कंपन‍ियां डुबाने हेाड़  क्‍यों लगी है ?

जेट एयरवेज, एडीएजी (अनिल अंबानी समूह),  वीडियोकॉनसहारामोदीलुफ्तरोटोमैकजेपी समूहनीरव मोदीगीतांजलि जेम्सजेट एयरवेजकिंगफिशर,  यूनीटेकआम्रपालीआइएलऐंडएफएस, स्टर्लिंग बायोटेकभूषण स्टील, कैफे कॉफी डे, एबीजी शिपयार्ड  ..... एसा लगता हैं क‍ि  भारत के निजी प्रवर्तक तो आत्मघाती हो गए हैं. 

 

घोटाले के केवल सुर्खि‍यों में ही नहीं आंकड़ों में भी दिखते हैं. रिजर्व बैंक के दस्‍तावेज बताते हैं कि कुल बैंक फ्रॉड में सबसे बड़ा हिस्‍सा कर्ज से जुड़े मामलों का था और 2017-18 से 2018-19 के बीच तीन गुना बढ़ गए. यानी 2.52 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 6.45 लाख करोड़.

आख‍िर वजह क्‍या है कि इतने सब कानूनी उपायों के बावजूद प्रत्‍येक उद्योग में घोटालों की झड़ी लगी है. सत्‍यम से लेकर एबीजी श‍िपयार्ड और नेशनल स्‍टॉक एक्‍सचेंज तक अगर सभी घोटालों को करीब से देखा जाए तो सबमें एक ही जैसे तरीके,कारगुजारी और फर्जीवाड़ा दिखता है

1. बैंकों से कर्ज लेकर फर्जी कंपनियों में घुमा देना और कुछ का कुछ कारोबार करना

2. कर्ज को छ‍िपा कर नया कर्ज लेते रहना

3. कभी कमाई तो कभी खर्च को बढाचढ़ाकर दिखाना

4. कंपनी के खातों में तरह तरह से हेरफेर

5. नियामकों को सही सूचना देने बचना

6. ऑडिटर्स बेइमानी जो कि दरसअल सच बताने के लिए लगाये जाते हैं

 

ऊपर के छह ब‍िंदुओं में एक भी एसा नहीं जिसके लिए नियमों में लोचा हो. अगर कंपनी के मालिक प्रबंधक चाहें तो यह सब रुक सकता है लेक‍िन फर्जीवाड़ा कंपनियों के प्रवर्तक खुद कर रहे हैं. राजनीतिक रसूख, नियामकों से लेनदेन और बैंकरों की मिलीभगत इसमें सबसे ज्‍यादा लूट बैंकों के पैसे की होती है, प्रवर्तक तो अपनी पूंजी जोख‍िम में डालता ही नहीं.

इंडिगो या फोर्टिस में विवाद के बाद कंपनियों में कॉर्पोरेट गवर्नेंस की कलई खुली. वीडियोकॉन को गलत ढंग से कर्ज देने के बाद भी चंदा कोचर आइसीआइसीआइ में बनी रहींयेस बैंक के एमडी सीईओ राणा कपूर को हटाना पड़ा या कि आइएलऐंडएफएस ने कई सब्सिडियरी के जरिए पैसा घुमाया और बैंक का बोर्ड सोता रहा

भारतीय कंपनियों के प्रमोटरपैसे और बैंक कर्ज के गलत इस्तेमाल के लिए कुख्यात हो रहे हैंआम्रपाली के फोरेंसिक ऑडिट से ही यह पता चला कि मालिकों ने चपरासी और निचले कर्मचारियों के नाम से 27 से ज्यादा कंपनियां बनाईजिनका इस्तेमाल हेराफेरी के लिए होता था

ताकतवर प्रमोटरबैंकरेटिंग एजेंसियों और ऑडिट के साथ मिलकर एक कार्टेल बनाते हैं प्रवर्तकों के कब्जे के कारण स्वतंत्र निदेशक नाकारा हो जाते हैंनियामक ऊंघते रहते हैंकिसी की जवाबदेही नहीं तय हो पाती और अचानक एक दिन कंपनी इतिहास बन जाती है.

 

इसल‍िए बीते एक दशक में भारत में खराब कॉर्पोरेट गवर्नेंस से जितनी बड़ी कंपनियां डूबी हैंया समृद्धि का विनाश (वेल्थ डिस्ट्रक्शनहुआ है वह मंदी से होने वाले नुक्सान की तुलना में कमतर नहीं है.

दरअसलयह तिहरा विनाश है.

एकशेयर निवेशक अपनी पूंजी गंवाते हैंजैसेकई  दिग्गज  कंपनियों के शेयर अब पेनी स्‍टॉक बन गए हैं

दोइनमें बैंकों की पूंजी डूबती है जो दरअसल आम लोगों की बचत है और

तीसराअचानक फटने वाली बेकारी जैसे जेट एयरवेज, .

कंपनियों में खराब गवर्नेंस पर सरकारें फिक्रमंद नहीं होतीं. उन्हें तो इनसे मिलने वाले टैक्स या चुनावी चंदे से मतलब हैप्रवर्तकों का कुछ भी दांव पर होता ही नहींडूबते तो हैं रोजगार और बैंकों का कर्जमरती है बाजार में प्रतिस्पर्धाजाहिर है कि इससे किसी नेता की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता.

सनद रहे कि कंपनियों का बुरा प्रबंधनखराब सरकार से ज्‍यादा सरकार को तो फिर भी बदला जा सकता है लेकिन कंपनियों का खराब प्रबंधन उन्‍हें डुबा ही देता है.

भारत पूंजीवाद की साख बुरी तरह दागी हो रही है, अगर कंपन‍ियों ने कामकाज को पारदर्शी नहीं क‍िया तो सुधारों और मुक्‍त बाजार से लोगों की चिढ़ और बढ़ती जाएगी.

 

Saturday, March 14, 2020

गठरी में लागा चोर


अगर आप यस बैंक के उन अभागे जमाकर्ताओं में हैं जिनकी करीब 2.09 लाख करोड़ रुपए की बचत, भारत के चौथे सबसे बड़े निजी बैंक की बदहाली में फंस गई है तो वजह यह है कि हम सो रहे थे, सरकार नहीं. वह तो इस घोटाले की हिफाजत कर रफ्तार दे रही थी.

यस बैंक पर बीते साल रिजर्व बैंक ने दो बार पेनाल्टी लगाई, बाजार ने बैंक को पूंजी देने से मना कर दिया, फिर भी यह बैंक डिपॉजिट कैसे लेता रहा?

बीते साल मई में रिजर्व बैंक ने अपने एक पूर्व डिप्टी गवर्नर आर. गांधी को यस बैंक के निदेशक मंडल में तैनात किया था. उन्हें बैंक में राणा कपूर के वे धतकरम क्यों नजर नहीं आए जिन्हें आज प्रवर्तन निदेशालय की बहादुरी बताकर गाया-बजाया जा रहा है ?

बैंक निदेशकों पर इनसाइडर ट्रेडिंग का आरोप था, रेटिंग एजेंसियां साख गिरा चुकी थीं. फिर भी सेबी की नाक के नीचे म्युचुअल फंड, इसके शेयर या बॉन्ड में निवेश क्यों करते रहे?

पिछले चार साल में कर्ज और खराब कॉर्पोरेट गवर्नेंस के कारण डूबी हर बड़ी कंपनी (जेट एयरवेज, अनिल अंबानी, देवान हाउसिंग, आइएलऐंडएफएस, सीजी पावर, कॉक्स ऐंड किंग) से रिश्तों के बावजूद यस बैंक को सरकार के यूपीआइ (डिजिटल पेमेंट सिस्टम) के बाजार में सबसे बड़ा हिस्सा कैसे मिल गया?

रिजर्व बैंक ने यस बैंक के एटी-1 बॉन्ड्स को कचरा घोषि कर दिया है और इनमें निवेशकों के करीब 10,800 करोड़ रुपए फंस गए हैं. सबसे तगड़ी चोट म्युचुअल फंड को लगेगी यानी छोटे निवेशकों को. मगर यस बैंक तो बीते साल तक खुदरा निवेशकों को भी यही बॉन्ड बेच रहा था, जिस पर बाजार से  महंगा ब्याज दिया जा रहा था!

स्टेट बैंक करीब 1.68 लाख करोड़ रुपए के फंसे हुए कर्ज (31 दिसंबर को खत्म तिमाही) में दबा है, यस बैंक में 20,000 करोड़ रुपए डालने के बाद उसकी क्या हालत होगी? स्टेट बैंक को 2019 के वित्त वर्ष में रिजर्व बैंक ने करीब 11,000 करोड़ रुपए के बकाया कर्ज को छिपाने के मामले में पकड़ा और बैंक को 6,968 करोड़ रुपए का घाटा हुआ.

एलआइसी के 21,624 करोड़ रुपए पचा कर भी आइडीबीआइ बैंक नहीं उबरा. स्टेट बैंक एलआइसी की कृपा जब तक असर करेगी तब तक यस बैंक के जमाकर्ता भाग चुके होंगे और तब इस मुर्दा बैंक का बोझ उद्धारक बैंकों के जमाकर्ता उठाएंगे या करदाताओं का पैसा सरकारी बैंकों की पूंजी में डाला जाएगा.

अगर आपको यह सब पता होता तो क्या यस बैंक में पैसा रखते? मुसीबत यही है कि बैंक हमारे बारे में जितना जानते हैं हम अपने बैंक के बारे में उसका दस फीसद भी नहीं जानते. बैंक यानी भरोसे पर, हमने कुछ इतना अंधा भरोसा कर लिया है कि हम ठगे जाने को ही देशभक्ति समझ बैठे हैं.
भारतीय बैंकिंग अस्तित्व के संकट में है. बैंकों का कारोबारी मॉडल दरक गया है. नियामक, चोरों के साथ गलबहियां डालते हैं,  हर नई सरकार क्रोनी बैंकिंग का नया मॉडल ईजाद करती है या कर्ज माफिया बांटती है और फिर करदाता के पैसे को डूबते बैंकों में झोंक कर सुधारों की टेर लगाती है.

यह संकट कर्ज लेने वाली कंपनियों पर नहीं, बल्कि अबोध जमाकर्ताओं पर है, यह खेल जिनकी बचत पर हो रहा है. भुगतते हैं वे छोटे निवेशक भी जिनकी बचत म्युचुअल फंड के जरिये इन बैंकों के शेयरों या बॉन्ड में लगाई जाती है. इसलिए...

शक करिए अगर कोई बैंक आपको बाजार से ऊंची ब्याज दर पर बचत या निवेश का लालच देता है. जैसा कि (एटी-1 बॉन्ड) में यस बैंक ने किया. ऐसी किसी भी पेशकश की उम्र लंबी नहीं होती.

बैंकों के लुभावने विज्ञापनों को पढ़ने से ज्यादा संकट की आहट पर कान रखना जरूरी है. आपके लिए यह जानना आवश्यक है कि बैंक ने कर्ज किसे दे रखा है और बकाया कर्ज का उसके कमाई या मुनाफों से क्या रिश्ता है.

भारतीय बैंकिंग जमाकर्ताओं के दम पर चलती है. सरकारें सस्ते कर्ज की बरसात चाहती हैं जो एक सीमा से अधि होने पर बचतों को डुबा देती है.  

आपका म्चयुचुल फंड किस बैंक में पैसा लगा रहा है, इसका पता जरूर रखिए.

याद रखिए, वित्तीय जानकारियों से लैस नागरिक, सरकारों को कभी नहीं भाते क्योंकि वे आंख मूंद कर भरोसा नहीं करते. जितना वक्त हम सियासत को समझने में लगाते हैं, उसका आधा वक्त भी अगर वित्तीय समझ में लगा दें तो यस बैंक जैसी नौबत नहीं आएगी

बैंक के बारे में हर छोटी-बड़ी बात जानना जमाकर्ताओं और निवेशकों का हक है. हम बैंक के बंधुआ नहीं हैं. बैंकों को हमारी जरूरत है. बैंकिंग पारदर्शिता के मौजूदा ढांचे में व्यापक बदलाव तभी आएंगे जब हम सरकारों को सवालों के खौलते पानी में बार-बार डुबाएंगे.

आपकी गाढ़ी कमाई संकट में है. जागिए नहीं तो डूब जाएंगे.