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Monday, February 7, 2022

क्‍या से क्‍या हो गया !

 




महंगाई का आंकड़ा चाहे जो कलाबाजी दिखाये लेकिन क्‍या आपने ध्‍यान दिया है कि बीते छह सात सालों से इलेक्‍ट्रानिक्‍स, बिजली के सामान,आटो पुर्जों और भी कई तरह जरुरी चीजें लगातार महंगी होती जा रही हैं.

यह महंगाई पूरी तरह  प्रायोज‍ित है और नीतिगत है. भारत की सरकार जिद के साथ महंगाई का आयात कर रही है यानी इंपोर्टेड महंगाई हमें बुरी तरह कुचल रही है. आने वाले बजट में एक बार फिर कई चीजों पर कस्‍टम ड्यूटी बढाये जाने के संकेत हैं. इनमें स्‍टील और इलेक्‍ट्रानिक्‍स यानी पूरी की पूरी सप्‍लाई चेन महंगी हो सकती है.

यह चाबुक हम पर क्‍यों चल रहा है ,बजट से पहले इसे समझना बहुत जरुरी है.

नई  पहचान

भारत की यह नई पहचान परेशान करने वाली है.  भारत को व्‍यापार‍िक दरवाजे बंद करने वाले, आयात शुल्‍क बढ़ाने वाले और संरंक्षणवादी देश के तौर पर संबोध‍ित कि‍या जा रहा है. देशी उद्योगों के संरंक्षण के नाम पर भारत की सरकार ने 2014 से कस्‍टम ड्यूटी बढ़ाने का अभि‍यान शुरु कर दिया था. इस कवायद से कितनी आत्‍मनिर्भरता आई इसका कोई हिसाब सरकार ने नहीं दिया अलबत्‍ता भारत सरकार की इस  कच्‍छप मुद्रा, छोटे  उद्येागों का कमर तोड़ दी और अब उपभोक्‍ताओं का जीना मुहाल कर रही है

2022 के बजट दस्‍तावेज के मुताबिक एनडीए सरकार ने बीते छह बरस में भारत के करीब एक तिहाई आयातों यानी टैरिफ लाइन्‍स पर बेसिक कस्‍टम ड्यूटी बढ़ाई . यानी करीब 4000 टैरिफ लाइंस पर सीमा शुल्‍क बढ़ा या उन्‍हें महंगा किया गया. टैरिफ लाइन का मतलब वह सीमा शुल्‍क दर जो किसी एक या अध‍िक सामानों पर लागू होती है.

इस बढ़ोत्‍तरी का नतीजा था कि उन देशों से आयात बढ़ने लगा जिनके साथ भारत का मुक्‍त व्‍यापार समझौता है या फिर व्‍यापार वरीयता की संध‍ियां है. सरकार ने और सख्‍ती की ताकि संध‍ि वाले इन देशों के रास्‍ते अन्‍य देशों का सामान  न आने लगे. करीब 80 सामानों पर कस्‍टम ड्यूटी रियायत खत्‍म की गई और 400 से अध‍िक अन्‍य सीमा शुल्‍क प्रोत्‍साहन रद कर दिये गए.

डब्लूटीओ की रिपोर्ट के अनुसार 2019 तक भारत में औसत सीमा शुल्‍क या कस्‍टम ड्यूटी दर 17.6 फीसदी हो गई थी जो कि 2014 में 13.5 फीसदी थी. जब ट्रेड वेटेड एवरेज सीमा शुल्‍क जो 2014 में केवल 7 फीसदी था वह 2018 में बढ़कर 10.3 फीसदी हो गया. ट्रेड वेटेड औसत सीमा शुल्‍क की गणना के ल‍िए क‍िसी देश के कुल सीमा शुल्‍क राजस्‍व से उसके कुल आयात से घटा दिया जाता है.

भारत के महंगा आयात अभ‍ियान का पूरा असर समझने के लिए कुछ और भीतरी उतरना होगा. डब्‍लूटीओ के तहत सीमा शुल्‍क दरों के दो बड़े वर्ग हैं एक है एमएफएन टैरिफ यानी वह रियायती दर जो डब्लूटीओ के सदस्‍य देश एक दूसरे से व्‍यापार पर लागू करते हैं. यही बुनियादी डब्‍लूटीओ समझौता था. दूसरी दर है बाउंड टैरिफ जिसमें किसी देश अपने आयातों को अध‍िकतम आयात शुल्‍क लगाने की छूट मिलती है, चाहे वह आयात कहीं से हो रहा है. भारत के बाउंड टैरिफ सीमा शुल्‍क दर बढ़ते बढ़ते 2018 में  48.5 फीसदी की ऊंचाई पर पहुंच गई  जबकि एमएफएन सीमा शुल्‍क दरें औसत 13.5 फीसदी हैं. इसके अलावा कृष‍ि उत्‍पादों आदि पर सीमा शुल्‍क तो 112 फीसदी से ज्‍यादा है.

यही वजह थी कि बीते बरसों में मोदी ट्रंप दोस्‍ती के दावों बाद बावजूद व्‍यापार को लेकर अमेरिका और भारत के रिश्‍तों में खटास बढ़ती गई जो अब तक बनी हुई है. इसी संरंक्षणवाद के कारण प्रधानमंत्री मोदी के तमाम ग्‍लोबल अभ‍ियानों के बावजूद भारत सात वर्षों में एक नई व्‍यापार संध‍ि नहीं कर सका.

किसका नुकसान

आयातों की कीमत बढ़ाने की यह पूरी परियोजना इस बोदे और दकियानूसी तर्क के साथ गढ़ी गई कि यद‍ि आयात महंगे तो होंगे  देश में माल बनेगा. पर दरअसल एसा हुआ नहीं क्‍यों कि एकीकृत दुनिया में. उत्‍पादन की चेन को पूरा करने के लिए भारत को इलेक्‍ट्रानिक्‍स, पुर्जे, स्‍टील, मशीनें, रसायन आदि कई जरुरी चीजें आयात ही करनी हैं.

उदाहरण के लिए इलेक्‍ट्रानिक्‍स को लें जहां सबसे ज्‍यादा आयात शुल्‍क बढ़ा. बीते तीन साल में इलेक्‍ट्रानिक पुर्जों जैसे पीसीबी आदि का एक तिहाई आयात तो अकेले चीन से हुआ 2019-20 ज‍िसकी कीमत करीब 1.15 लाख करोड़ रुपये थी. शेष जरुरत ताईवान फिलीपींस आद‍ि से पूरी हुई.

स्‍वदेशीवाद की इस नीति ने भारत छोटे उद्योागें के पैर काट दिये हैं जिनकी सबसे बड़ी निर्भरता आयात‍ित कच्‍चे माल पर है. इंपोर्टेड महंगाई इन्‍हें सबसे ज्‍यादा भारी पड़ रही है. स्‍टील तांबा अल्‍युम‍िन‍ियम जैसे उत्‍पादों और मशीनरी पर आयात शुल्‍क बढ़ने से भारत के बड़े मेटल उत्‍पादकों ने दाम बढ़ा दि‍ये. गाज गिरी छोटे उद्योगों पर, यह धातुएं जिनका कच्‍चा माल हैं. इधर  सीधे आयात होने वाले पुर्जें व अन्‍य सामान पर सीमा शुल्‍क बढ़ने से पूरी उत्‍पादन चेन को महंगी हो गई.

भारत में अध‍िकांश छोटे उद्योगों के 2017 से कच्‍चे माल की महंगाई से जूझना शुरु कर दिया था. अब तो इस महंगाई का विकराल रुप उन के सर पर नाच रहा है. कुछ छोटे उद्योग बढ़ी कीमत पर कम कारोबार को मजबूर हैं जब कई दुकाने बंद हो रही हैं

ताजा खबर यह है कि इंपोर्टेड महंगाई का अपशकुन सरकार की बहुप्रचार‍ित मैन्‍युफैक्‍चरिंग प्रोत्‍साहन योजना (पीएलआई) का दरवाजा घेर कर बैठ गया है. चीन वियमनाम थाईलैंड और मैक्‍सिकों के टैरिफ लाइन और भारत की तुलना पर आधार‍ित, आईसीईए और इकध्‍वज एडवाइजर्स की एक ताजा रिपोर्ट बताती है कि भारत इलेक्‍ट्रान‍िक्‍स पुर्जों के आयात के मामले में सबसे ज्‍यादा महंगा है. यानी भारत की तुलना में इन देशों दोगुने और तीन गुना उत्‍पादों पुर्जों का सस्‍ता आयात संभव है. इसलिए उत्‍पादन के ल‍िए नकद प्रोत्‍साहन के बावजूद कंपनियों की निर्यात प्रतिस्‍पर्धात्‍मकता टूट रही है.

निर्यात के लिए व्‍यापार संध‍ियां करने  और बाजारों का लेन देन करने की जरुरत होती है आयात महंगा करने से आत्‍मनिर्भरता तो खैर क्‍या ही बढ़ती महंगाई को नए दांत मिल गए. उदाहरण के लिए भारत के ज्‍यादातर उद्येाग जहां पीएलआई में निवेश का दावा किया गया वहां उत्‍पादों की कीमतें कम नहीं हुई बल्‍क‍ि बढ़ी हैं. मोबाइल फोन इसका सबसे बड़ा नमूना है जहां सेमीकंडक्‍टर की कमी से पहले ही महंगाई आ गई थी.

जो इतिहास से नहीं सीखते

बात 15 वीं सदी की है. क्रिस्टोफर कोलम्बस की अटलांटिक पार यात्रा में अभी 62 साल बाकी थेमहान चीनी कप्तान झेंग हे अपने विराट जहाजी बेडे के साथ अफ्रीका तक की छह ऐतिहासिक यात्राओं के बाद चीन वापस लौट रहा था.  झेंग हे का बेड़ा कोलम्बस के जहाजी कारवां यानी सांता मारिया से पांच गुना बड़ा था. झेंग हे की वापसी तक मिंग सम्राट योंगल का निधन हो चुका थाचीन के भीतर खासी उथल पुथल थी. इस योंगल के उत्‍तराध‍िकारों ने एक अनोखा काम क‍िया. उन्‍होंने समुद्री यात्राओं पर पाबंदी लगाते हुए दो मस्तूल से अधिक बड़े जहाज बनाने पर मौत की सजा का ऐलान कर दिया

इसके बाद चीन का विदेश व्यापार अंधेरे में गुम गया. उधर स्पेन, पुर्तगाल, ब्रिटेन, डच बंदरगाहों पर जहाजी  बेड़े सजने लगे जिन्‍होंने अगले 500 साल में दुनिया को मथ डाला और व्‍यापार का तारीख बदल दी.

चीन को यह बात समझने में पांच शताब्‍द‍ियां लग गईं क‍ि कि जहाज बंदरगाह पर खड़े होने के लिए नहीं बनाए जातेदूसरी तरफ अमेर‍िका अपनी स्‍थापना के वक्‍त पर ही यानी 18 वीं सदी की शुरुआत ग्‍लोबल व्‍यापार की अहम‍ियत समझ गया था तभी तो अमेरिका के संस्‍थापन पुरखे बेंजामिन फ्रैंकलिन ने कहा था कि व्यापार से दुनिया का कोई देश कभी बर्बाद नहीं हुआ है 

अलबत्‍ता चीन ने जब एक बार ग्लोबलाइजेशन का जहाज छोड़ा तो फ‍िर दुन‍िया को अपना कारोबारी उपन‍िवेश बना ल‍िया लेक‍िन बीते 2500 साल में मुक्त व्यापार के फायदों से बार बार अमीर होने वाले भारत ने बीते छह साल में उलटी ही राह पकड़ ली.

एक पुराने व्‍यापार कूटनीतिकार ने कभी मुझसे कहा था कि सरकारें कुछ भी करें लेक‍िन उन्‍हें महंगाई का आयात नहीं करना चाहिए. वे हमेशा इस पर झुंझलाये रहते थे कि कोई भी समझदार सरकार जानबूझकर अपना उत्‍पादन महंगा क्‍यों करेगी. लेकि‍न सरकारें कब सीखती हैं, नसीहतें तो जनता को मिलती है, इंपोर्टेड महंगाई हमारी सबसे ताजी नसीहत है.   

ये डर है क़ाफ़िले वालो कहीं गुम कर दे

मिरा ही अपना उठाया हुआ ग़ुबार मुझे 



 

Friday, December 4, 2020

आंगन सूखा, घर में पानी

 

गोल्ड रश फिल्म में चार्ली चैप्लिन भूख के कारण जूता उबाल कर खाते हैं. उसका एक दृश्य है जिसमें सोने की तलाश में निकले (खनिक) चैप्लिन को बर्फीले बियाबान में एक साइनबोर्ड दिखता है. रास्ता भूल चुके चैप्लिन दौड़ कर उसके पास पहुंचते हैं तो उन्हें पता चलता कि वह दरअसल एक व्यक्तिके कब्र की सूचना है जो बर्फीले तूफान फंस कर मर गया था.

चैप्लिन कहते थे कि जिंदगी करीब से देखने पर त्रासदी है और दूर से देखने पर कॉमेडी. कोविड के बाद भारत में विकास के ताजे आंकड़े भी ऐसे ही हैं. मंदी आधिकारिक (लगातार दो तिमाहियों में नकारात्मक विकास दर) तौर आ चुकी है लेकिन कंपनियों के मुनाफों में ग्रोथ देखते बनती है. गांव-शहर के बाजारों में मांग की अंतहीन अमावस है अलबत्ता शेयर बाजार में चिरंतन धनतेरस जारी है.

जुलाई-सितंबर के दौरान अर्थव्यवस्था में कुछ चेतना लौटती दिखी लेकिन ठीक उसी तिमाही में बेरोजगारी (तिमाही और मासिक) ज्यादा गहरा गई. उसी तिमाही में शेयर बाजार में सूचीबद्ध कंपनियों का मुनाफा (सालाना आधार पर) 129 फीसद बढ़ा जो मंदियों के पिछले भारतीय इतिहास में सबसे ज्यादा है.

मांग के बिना ग्रोथ, मुनाफों के बावजूद भयानक बेकारी! क्या है यह उलटबांसी?

लॉकडाउन ने बड़ी कंपनियों की खूब मदद की. खर्च कम हो गए, कर्ज का भुगतान टाल दिया गया, टैक्स में रियायतें पहले से मिल रही थीं. कंपनियों की बिक्री नहीं बढ़ी (टॉपलाइन) यानी मांग लौटी लेकिन लॉकडाउन में हुई बचत और सरकारी रियायत से मुनाफे फूल गए यानी बॉटमलाइन बेहतर हो गई. रिकॉर्ड बेरोजगारी ने साबित किया कि कॉर्पोरेट मुनाफों और रोजगार के बीच कोई रिश्ता नहीं है.

सीएमआइई के अध्ययन के मुताबिक, कोविड की मार के बावजूद 2020-21 के पहले छह माह में सभी (शेयर बाजार सहित) कंपनियों के मुनाफे करीब 24 फीसद बढ़े अलबत्ता वेतन में बढ़ोतरी नगण्य थी. मैन्युफैक्चरिंग कंपनियों ने सितंबर की तिमाही मुनाफे में करीब 18 फीसद बढ़त के बदले वेतन में कटौती की. बैंकिंग और सूचना तकनीक कंपनियों के अलावा सभी क्षेत्रों में जून और सितंबर की तिमाही में वेतन 9 और 6 फीसद गिरे.

नतीजतन अक्तूबर में 55 लाख नए बेरोजगार जुड़े. नवंबर में बेकारी दर नई ऊंचाई पर पहुंची. रोजगार मिलने की गति जून के बाद न्यूनतम हो गई. अक्तूबर में गांवों में अस्थायी रोजगार भी कम हुए (सीएमआइई). सनद रहे कि इसी दौरान दो करोड़ मध्य वर्गीय नौकरियां गईं.

भारत में श्रम लागत का हिस्सा है इसलिए कंपनियों ने नौकरियां-वेतन काटकर लागत में दोगुनी तक कमी दर्ज की है, जबकि अन्य देशों में सरकारों की सहायता से कंपनियों को रोजगार बचाए.

कर्मचारी अभागे थे निवेशक नहीं. हर तरह से मंदी के बावजूद इन कृत्रिम मुनाफों ने शेयर बाजारों को रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंचाया, अंतरिम लाभांश बांटे गए, कंपनियों ने अपने शेयर वापस (बाइ-बैक) किए और निवेशकों ने खूब मुनाफा कमाया.

खेती ने जीडीपी को पूरी तरह ध्वस्त होने से बचाया है. एग्री कंपनियों के मुनाफे और शेयर मूल्य नए कीर्तिमान बना रहे हैं. निवेशकों पर लक्ष्मी मेहरबान हैं और किसान सड़क पर हैं!

कंपनियां कमा रही हैं तो अगली तीन-चार तिमाहियों में जीडीपी उबरने की उम्मीद क्यों नहीं है? वजह देश के तिहाई रोजगार (11 करोड़) छाटे उद्योगों से आते हैं जो जीडीपी का 29 फीसद (फैक्ट्री उत्पादन में 45 और सर्विसेज में 25 फीसद) का हिस्सा रखते हैं.

आत्मनिर्भर पैकेज ने बताया कि सरकार की गारंटी के बावजूद छोटे उद्योग कर्ज लेने की हिम्मत नहीं जुटा सके. सनद रहे कि भारत में केवल 20 फीसद छोटे उद्योग की पहुंच बैंकों तक है.

तो आगे क्या होगा?

जीडीपी के सबसे बड़े आधार टूट गए हैं. छोटे उद्योगों के उत्पादन (रोजगार) और मध्य वर्ग के लिए संगठित क्षेत्र में नौकरियां में गिरावट के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था की रिकवरी बेहद धीमी होगी

बड़ी कंपनियां अकेले मांग को पटरी पर नहीं ला सकतीं इसलिए वे मुनाफे-बचत से अधिग्रहण के जरिए बाजार कब्जाएंगी

नुक्सान भरपाई लिए फैक्ट्री उत्पादों की कीमतें भी बढ़ने लगी हैं, यानी मरियल मांग और टूटती कमाई पर महंगाई का बोझ आ ही गया. इसलिए बाजार में खपत या मांग नहीं है.

चेकस्लोवाकिया के पूर्व राष्ट्रपति और लेखक वाक्लाव हॉवेल ने लिखा था कि यह हास्यबोध ही है जो हालात के बेतुके और विद्रूप आयामों को पढ़ने में हमारी मदद करता है. हम खुद पर और दूसरे पर हंस कर ही वक्त की पैरोडी और परिस्थितियों का व्यंग्य समझ सकते हैं.

अगले 9 से 12 महीनों तक विकास दर को पंख नहीं उगने वाले. अर्थव्यवस्था अपनी विसंगतियों, विद्रूपताओं और परस्पर विरोधी संकेतों से हमें चौकाएगी. गए हुए रोजगारों और वेतन कटौतियों की वापसी के बाद ही ग्रोथ की गिनती शुरू होगी. तभी मौसम में बदलाव महसूस होगा. तब सहना और हंसना हमारे वश में है.

Friday, December 20, 2019

बीच भंवर में


दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र और तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बहुप्रतीक्षि 2020 दहलीज पर बेचैन और अनिश्चि मध्य वर्ग के साथ कदम रखने जा रही है. वही मध्य वर्ग जो भारत की आधुनिक जीवनी शक्ति का आधार है और अरस्तू ने जिसे लोकतंत्र का सबसे मूल्यवान समुदाय कहा था, जो सत्ता को तर्कसंगत और संतुलित फैसलों पर विवश करता है.
भारतीय मध्य वर्ग सामाजिक-आर्थिक पैमानों तक सीमित नहीं है. बीते दो दशकों में भारत के हर क्षेत्र में एक मध्य वर्ग बना है, जो संकट और संक्रमण में है. 21वीं सदी के दूसरे दशकांत पर इस बदलाव को समझने के लिए जीडीपी या चुनावी आंकड़ों के पार जाना होगा.
·       पिछले दो दशक में हर मिनट करीब 44 लोग घोर गरीबी से बाहर निकले. ब्रुकिंग्स के मुताबिक, देश 2030 तक घोर गरीबी (1.9 डॉलर प्रति दिन यानी करीब 130 रुपएः विश्व बैंक) से निकल आएगा.
·       2011-2016 के बीच विभिन्न शहरों के बीच हर साल करीब 90 लाख लोगों ने प्रवास किया. यह भारत का सबसे बड़ा आंतरिक प्रवास है. ( आर्थि सर्वेक्षण 2017)
·       भारत के मध्य वर्ग में अब 60 से 70 करोड़ लोग शामिल हैं, जिनमें शहरों के छोटे हुनरमंद कामगार भी हैं. करीब 40 फीसद आबादी नगरीय हो चुकी है.
·       इस बदलाव ने करीब 83 ट्रिलियन रुपए की एक विशाल खपत अर्थव्यवस्था तैयार की है (बीसीजी). 2015 में उम्मीद की गई थी कि नया मध्य वर्ग अगले एक दशक में करीब 45 फीसद खपत संभालेगा और रोटी, कपड़ा और मकान के बाद शिक्षा मनोरंजन, तकनीक पर खर्च करेगा.
·       इस भव्य आर्थि-सामाजिक बदलाव की बुनियाद दो उभरते मध्य वर्गों ने बनाई है.
·       सेवा क्षेत्र (जीडीपी का 68%) ने भारत की मझोली कंपनियों को नया आकाश दिया. क्रिसिल के अनुसार, 2016 (जीएसटी से पहले) तक, मैन्युफैक्चरिंग की तुलना में सेवा क्षेत्र में छोटे-मझोले उपक्रमों की संख्या 20 फीसद की गति से बढ़ी. सेवाओं में पांच करोड़ छोटी-मझोली इकाइयां सक्रिय हैं. ताजा स्टार्ट अप क्रांति भी इसी वर्ग का हिस्सा है. मंदी ने यहां गहरी मार की है
·       खपत और मांग की मदद से घरेलू व्यापार तेजी से बढ़ा. जीएसटी के आंकड़े बताते हैं कि घरेलू व्यापार जीडीपी में 60 फीसद का हिस्सेदार है
·       डीलर, वितरक और छोटे-मझोले सेवा प्रदाताओं के नए तंत्र ने अर्थव्यवस्था की रीढ़ तैयार की है. जो एक तरफ टैक्स जुटाता है और दूसरी तरफ खपत और रोजगार बढ़ाता है. नया मध्य वर्ग इसी रीढ़ का सहारा लेकर खड़ा हुआ है
·       जनसंख्या, उद्योग और कारोबार का मध्य ही अब मंदी के बीच एक अभूतपूर्व संकट से मुखातिब है
·       औद्योगिक मध्य वर्ग की मुसीबतें 2013 से ही शुरू हो गई थीं. मंदी गहराने के साथ तालाबंदी बढ़ी और कारोबारी हिस्सा बड़ी कंपनियों के हाथ पहुंच गया. 2013 के बाद विभिन्न स्थानीय ब्रांडों की असमय मौत हुई. अब भारतीय अर्थव्यवस्था एकाधिकार रखने वाली बड़ी कंपनियों और असंख्य लघु प्रतिष्ठानों के बीच बंट रही है. नोटबंदी और जीएसटी ने इस मध्य वर्ग पर चोट की है जहां सबसे ज्यादा रोजगार थे और इन्हीं कंपनियों के बड़े होने की संभावना थी.
·       जीएसटी के घटिया क्रियान्वयन और बढ़ी लागत से स्थानीय और अंतरराज्यीय कारोबार के बिजनेस मॉडल टूट गए. डीलर और वितरक कस्बाई अर्थव्यवस्था में खपत, मांग निवेश का जरिया थे, जो अकुशल और अर्धकुशल श्रमिकों को पनाह देते थे. 45 साल की सबसे ऊंची बेकारी दर (2017-18) इसी संकट की देन है
यही संकट मध्य वर्गीय आबादी की जेब और खपत में दिख रहा है जिस पर अगले कई दशकों के विकास का दारोमदार है.
·       1990 से 2015 के बीच 50,000 रुपए से अधिक सालाना उपभोग आय वाले लोगों की संख्या 25 लाख से 50 लाख हो गई थी. 2015 के बाद आय बढ़ने की रफ्तार गिरी. स्टेट बैंक रिसर्च के अनुसार, 2019 में  ग्रामीण और कॉर्पोरेट आय बढ़ने की दर 1.2 फीसद के स्तर पर रही है जो 2011-15 के बीच 8 और 6 फीसद पर थी.
·       2011 के बाद भारत में निजी उपभोग खपत 7.2 से 6 फीसद की गति से बढ़ रही थी जो इस साल की शुरुआती तिमाही में 3 फीसद पर गई. जीडीपी ढहने की यही बड़ी वजह है क्योंकि यह खपत जीडीपी में 60 फीसद का हिस्सा रखती है.
·       आम लोगों की बचत भी जीडीपी के अनुपात में बीस साल के न्यूनतम स्तर पर गई है. दो दशकों में पहला मौका है जब मध्य वर्ग की खपत और बचत, दोनों एक साथ बुरी तरह गिरी हैं.
सनद रहे, अरस्तू ने कहा था कि बड़े और मजबूत मध्य वर्ग हों तो सरकारें या लोकलुभावन हो जाएंगी या फिर अति धनाढ् वर्ग के हाथ में पहुंच जाएंगी. ऐसी सरकारों के उत्पीड़क बन जाने का खतरा बढ़ जाता है. दुनिया के सबसे अच्छे संविधान हमेशा विराट और जीवंत मध्य वर्ग से नियंत्रित होने चाहिए.

भविष्य में निर्णायक छलांग के मौके पर भारत की सबसे बड़ी ताकत छीज रही है. मध्य वर्ग का सिकुड़ना राजनैतिक भविष्य के प्रति भी आशंकित करता है