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Friday, August 21, 2020

जिया पढ़ने को चाहे

  

 मरीजों ने महंगे और घटिया खाने पर अस्पताल प्रबंधन को घेरा तो चालाक निदेशक ने बहस शुरू करा दी. मांसाहार बनाम शाकाहार, काली दाल बनाम पीली दाल, चना बनाम गेहूं को लेकर मोर्चे बंध गए. इतिहास खोदा जाने लगा. इस बीच अस्पताल का निजाम नई कंपनी को मिल गया, जिसने अच्छे भोजन की महंगी दर तय कर दी. कुछ लोग उसे खरीद पाए, बचे लोग सड़े दाल-चावल पर लौट गए.

नई शिक्षा नीति पर भाषाई उबाल में ताल ठोंक रहे हैं तो इस कहानी में अस्पताल की जगह स्कूल, भोजन की जगह शिक्षा और नए निजाम की जगह नई शिक्षा नीति को रख लीजिए, हो सकता है आप सच देख पाएं. असली सवाल तो शिक्षा की लागत, टैक्स और कीमत के हैं जिन पर उसकी गुणवत्ता टिकी है. भाषाई बहसें तो इन्हें भुलाने का चतुर सरकारी आयोजन का हिस्सा हैं.

भारत में टैक्स भरपूर हैं लेकिन बड़े देशों की पांत में हम अकेले होंगे, जहां शिक्षा के नाम पर अलग से टैक्स (सेस) वसूला जाता है जो इनकम और खपत पर लगने टैक्स के ऊपर लगता है यानी टैक्स पर टैक्स.

2004 से 2019-20 के बीच शिक्षा पर सेस 4.25 लाख करोड़ रुपए का सेस वसूला गया. शुरुआत हुई प्राथमिक शिक्षा के लिए 2 फीसद सेस से. सवाल उठे तो 2006 में प्रारंभिक शिक्षा कोश बना दिया गया. यही नहीं, 2007-08 में माध्यमिक और उच्च शिक्षा के लिए 1 फीसद का नया सेस आ गया. इस बारे में सीएजी पूछता रह गया लेकिन इसका हिसाब सरकार ने नहीं दिया. इसके बाद एक फीसद नए सेस के साथ इसे 4 फीसद एजुकेशन और हेल्थ सेस में बदल दिया गया. यह टैक्स शिक्षा के अन्य हिस्सों (पठन सामग्री, सेवाओं) पर टैक्स के अलावा था.

नई शिक्षा नीति कहती है कि पढ़ाई पर खर्च को, जल्द से जल्द, जीडीपी के अनुपात में (आज तीन फीसद) 6 फीसद और सरकारी खर्च के अनुपात में (आज 10 फीसद) 20 फीसद किया जाएगा लेकिन 2014 से 2019-20 के बीच सरकार के कुल खर्च में शिक्षा का हिस्सा 4.14 फीसद से घटकर 3.40 फीसद रह गया. महंगाई के पैमाने पर तो स्कूली शिक्षा पर वास्तविक खर्च बढ़ने की बजाए घट गया.

प्रायोजित और विभाजक बहसों से निकल कर ही हम यह समझ पाएंगे कि शिक्षा के मूलभूत सवाल आर्थिक हैं. भारत में, निजी और सरकारी, दोनों स्तरों पर शिक्षा का आर्थिक ढांचा ध्वस्त हो गया है. सरकार में भारी टैक्स के बावजूद गुणवत्ता नहीं है और निजी स्कूलों में भारी और अपारदर्शी फीस है लेकिन बेहतरी की गारंटी नहीं है. वहां की पढ़ाई के बाद भी रोजगार किसी कोटा या कानपुर में पढ़कर ही मिलते हैं. निजी कॉलेज चलाने वाले ट्रस्ट शिक्षा को बेहतर करने का कोई फंड नहीं बना पाते क्योंकि उनकी टैक्स रियायत चली जाएगी. वे सिर्फ बढ़ते खर्च के लिए फीस महंगी करते जाते हैं.

सरकारी शिक्षा पर अधिकांश खर्च राज्यों के जिम्मे है जो कॉन्ट्रैक्टर राज की मदद के लिए स्कूल बनाना चाहते हैं, शिक्षकों की भर्ती करना नहीं चाहते.

गुणवत्ता सुधारने के लिए चाहिए शिक्षक. उनके वेतन पर खर्च सबसे ज्यादा बजट मांगता है. कंगाल सरकारें दैनिक वेतन वाले शिक्षक भी भर्ती नहीं कर पातीं, नियमित शिक्षक तो दूर की कौड़ी है. नई नौकरशाही सुझाने वाली नई शिक्षा नीति अगर शिक्षकों के वेतन के लिए राष्ट्रीय कोष बनाती तो शायद कुछ उम्मीद बंधती.

शिक्षा का तंत्र दोहरा शोषण करता है. पढ़ाई बेहतर करने के लिए सरकार को टैक्स देते हैं और बच्चों को महंगी फीस पर निजी स्कूल में पढ़ाते हैं. सनद रहे कि शिक्षा पर खर्च में 50 फीसद हिस्सा फीस और 20 फीसद किताबों, ड्रेस (एनएसएस सर्वे 2017-18) आदि का है.

नई नीति से संस्कृति रक्षा की भविष्यवाणी करने वालों को पता चले कि इसी जून में सरकार ने विश्व बैंक के 50 करोड़ डॉलर के एक शिक्षा कर्ज कार्यक्रम पर दस्तखत किए हैं जिसके तहत छह प्रमुख राज्यों में शिक्षण-ज्ञान की सामग्री और स्कूल व्यवस्थाओं के कार्यक्रम सीधे विश्व बैंक के निगरानी में बनेंगे.

भारी टैक्स के बावजूद विश्व बैंक की मदद से पाठ्यक्रमों की तैयारी बताती है कि शिक्षा की जिम्मेदारी सरकार के गले में फंस गई है. क्या हैरत कि नई नीति, शिक्षा को सरकारी सिस्टम के मातहत निजी व्यवस्था बनाने के हक में है, जहां नौकरशाही और निजी क्षेत्र मिलकर गुल खिलाएंगे.

शिक्षा किसी भी भाषा में हो सकती है लेकिन पहले यह तो तय हो पाए कि अधिकांश आबादी के लिए शिक्षा होगी भी या नहीं और वह भी किस कीमत पर. जो खर्च कर सकते हैं सरकार उन्हें निजी स्कूलों की तरफ धकेल रही है और जो सक्षम नहीं हैं उन्हें पढ़ाने की लागत उठाने को कोई तैयार नहीं है, उनका कोई शैक्षिक भविष्य भी नहीं है.

अगुनी भी यहां ज्ञान बघारे

पोथी बांचे मन्तर उचारे

उनसे पिण्ड छुड़ा दो महाराज

पाठशाला खुला दो महाराज

मोर जिया पढ़ने को चाहे!
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना


Tuesday, July 21, 2015

इतना तो हो सकता है!


शिक्षा में बड़े सुधारों में समय लगना लाजिमी है लेकिन चुनिंदा सरकारी परीक्षाओं और भर्तियों का ढांचा ठीक करने के लिए सरकार को राज्य सभा में किस बहुमत की दरकार है?

स बार ऑल इंडिया प्री मेडिकल रीटेस्ट के परीक्षार्थी जूते और पूरी बाजू की शर्ट पहनकर परीक्षा देने नहीं जा सकेंगे. उन्हें अंगूठी, चूड़ी, ब्रेसलेट, हेयर बैंड, हेयर क्लिप, ईयरिंग, स्कार्फ, धूप का चश्मा पहनने या पर्स, यहां तक कि पानी की बोतल ले जाने की छूट नहीं होगी. देश की सबसे प्रतिष्ठित मेडिकल परीक्षा में नकल रोकने के लिए सीबीएसई के इस बेतुके इंतजाम पर आपको हैरत दिखाने का पूरा हक है लेकिन अचरज इस पर भी होना चाहिए कि व्यापम घोटाले की विरासत के साथ सत्ता में पहुंची बीजेपी ने पिछले एक साल में प्रमुख परीक्षाओं की दशा सुधारने पर गंभीर होना भी मुनासिब नहीं समझा. शिक्षा में सुधार में समय लग सकता है लेकिन परीक्षाओं का ढांचा ठीक करने के लिए पता नहीं सरकार को राज्यसभा में किस बहुमत की दरकार है
देश में नौकरियां हैं ही कितनी? उनमें भी सरकारी नौकरियां तो और भी कम हैं. पिछले चार साल में अकेले उत्तर भारत के राज्यों में करीब 20 परीक्षाएं और भर्तियां घोटालों की वजह से दागी होकर रद्द हो चुकी हैं या अदालतों में फंसी हैं. सरकारी परीक्षाओं और भर्ती में फर्जीवाड़ा न सिर्फ रोजगार रोकता है बल्कि जरूरी सेवाओं में कर्मचारियों की कमी बनाकर रखता है जो भ्रष्टाचार की एक और बड़ी वजह है. विशाल नौकरशाही और तमाम तकनीकों के बावजूद अगर केंद्र और राज्य सरकारें भी अपनी चुनिंदा परीक्षाएं व भर्तियां साफ-सुथरी नहीं कर सकतीं तो फिर हमें शिक्षा की गुलाबी बहसों पर जरा नए सिरे से गौर करना चाहिए, क्योंकि सरकारी नौकरियां और उनकी परीक्षाएं शिक्षा के विशाल परिदृश्य का एक फीसदी हिस्सा भी नहीं हैं.
सरकारी नौकरियों के लिए परीक्षाएं और भर्ती भारत का सबसे पुराना संगठित घोटाला है. इसका सबसे अनोखा पहलू यह है कि इसे सुधारने के लिए किसी बड़े नीतिगत आयोजन की जरूरत नहीं है. क्षमताएं बढ़ाकर, तकनीक लाकर और पारदर्शिता के सख्त नियम बनाकर इस लूट व शर्मिंदगी को आसानी से रोका जा सकता है. मसलन, मेडिकल परीक्षा को ही लें. 50,000 सीटों के लिए लाखों परीक्षार्थी संघर्ष करते हैं और सफलता का अनुपात 0.5 फीसदी से भी कम है. अगले पांच साल में देश में पर्याप्त मेडिकल सीटें  बनाने का मिशन आखिर कितना महंगा हो सकता है? खास तौर पर जब मोदी सरकार अरबों की लागत वाले मिशन हर महीने शुरू कर रही है.
हमें उम्मीद थी कि सरकार क्रिकेट में घोटाले पर भले ही ठिठक जाए लेकिन कम से कम भर्तियों में घोटाले, मेडिकल कॉलेजों का फर्जीवाड़ा, डोनेशन के खेल, फर्जी यूनिवर्सिटी की जांच के मामलों में तो नहीं हिचकेगी क्योंकि बीजेपी के बौद्धिकों को इस मर्ज की वजह मालूम है. सवाल पूछना जरूरी है कि सरकार ने पिछले एक साल में मेडिकल, टेक्निकल शिक्षा और निजी भागीदारी के मॉडल को चुस्त करने के लिए क्या किया जो कि हर तरह की लूट-खसोट से भरा है. भारत दुनिया में सबसे ज्यादा मेडिकल कॉलेजों वाला देश है लेकिन यहां न पर्याप्त सीटें हैं और न पर्याप्त डॉक्टर, क्योंकि मेडिकल कॉलेजों में औसत 100 से 150 सीटें होती हैं. बड़े कॉलेज बनाकर न केवल मेडिकल सीटों का खुदरा बाजार बंद हो सकता है बल्कि मेडिकल शिक्षा में फर्जीवाड़ा भी रुक सकता है. इसी तरह एमबीए और इंजीनियरिंग में कम नौकरियां और ज्यादा प्रशिक्षितों का असंतुलन है.
यह अपेक्षा करना गलत नहीं था कि सूचना तकनीक की संभावनाओं पर हमेशा रीझने वाली सरकार देश में सभी सरकारी परीक्षाओं को ऑनलाइन कराने का मिशन शुरू करेगी. डिग्रियों को जारी करने की प्रणाली को बायोमीट्रिक से जोड़ा जाएगा ताकि फर्जी डिग्रियों का पूरा तंत्र बंद हो सके. या नौकरियों, प्रशिक्षण की क्षमताओं, कॉलेजों और इंस्टीट्यूट को आपस में जोड़कर एक विशाल डाटाबेस बनेगा जो एक क्लिक पर शिक्षा से लेकर नौकरियों तक की तस्वीर बता सकेगा. दरअसल, यही तो वह डिजिटल इंडिया है जो हमें चाहिए. लेकिन देश को डिजिटल बनाने के नाम पर सरकारी प्रचार दिखाने वाले मोबाइल ऐप्लिकेशन थमा दिए गए हैं. मेडिकल, इंजीनियरिंग से लेकर प्रशासनिक और बैंकिंग तक सभी परीक्षाओं को ऑनलाइन कराना या सभी तरह की डिग्रियों को आधुनिक डिजिटल सिक्योरिटी से जोडऩा, अंतरिक्ष में प्लूटो की तलाश नहीं है. सिर्फ एक बड़े तकनीकी मिशन से पेपर लीक, सॉल्वर, नकल, फर्जी प्रमाणपत्रों का पूरा तंत्र खत्म हो सकता है.
शिक्षा के कारोबारियों के बीच एक चुटकुला प्रचलित है कि अगर किसी ने पिछले दो दशकों के दौरान कोई डिग्री ली है तो मुमकिन है कि वह उन पचास फीसदी लोगों में शामिल हो जिनकी डिग्रियां फर्जी हैं या उन्होंने जुगाड़ से परीक्षा पास की है. यदि ऐसा नहीं है तो वह डोनेशन देकर भर्ती हुआ होगा या उसकी परीक्षा का पर्चा लीक हुआ होगा. अगर यह भी नहीं है तो वह कम से कम किसी ऐसे कॉलेज में जरूर पढ़ा होगा जो किसी रसूखदार का है. या उसे सरकारी स्कूल में किसी ऐसे टीचर ने पढ़ाया होगा जो रिश्वत देकर नौकरी में आया. कुल मिलाकर यह कि शिक्षा में घोटाले क्रिकेट की तरह मसालेदार नहीं हैं, क्योंकि यह हमारी रोज की जिंदगी का हिस्सा बन चुके हैं. सरकारी भर्तियों और परीक्षाओं में हर तरह की धांधली से भलीभांति वाकिफ बीजेपी भी अगर इन्हें सुधारने के लिए कुछ नहीं कर पा रही है तो मोदी सरकार के खिलाफ कांग्रेस जैसी षड्यंत्र कथाएं बनना लाजिमी है.

भारत को विश्व गुरु बनाने के सपनों के बीच अगर यहां मेडिकल की साफ-सुथरी परीक्षा के लिए छात्रों को कपड़े तक उतारने पड़ सकते हैं तो फिर हमें उम्मीदों की उड़ान को लगाम देनी होगी. शिक्षा और रोजगार की बड़ी बहसों के लिए हमारे पास वक्त है, पहले हम उन लाखों युवाओं की फिक्र कर लें जो नौकरियां तो छोड़िए, साफ-सुथरी परीक्षाओं के भी मोहताज हो चुके हैं. भारत को दुनिया में सबसे अच्छे मानव संसाधन का केंद्र बनाने के, प्रधानमंत्री के, सपने को सैकड़ों सलाम! लेकिन फिलहाल तो सरकारी परीक्षाएं भी अगर साफ सुथरी हो सकें तो यह उन युवाओं पर प्रधानमंत्री का बड़ा अहसान होगा जो जूझ घिसट कर किसी तरह पढ़ लिख गए हैं और अपनी काबिलियत के बूते, ईमानदारी से जिंदगी में कुछ हासिल करना चाहते हैं.