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Tuesday, July 25, 2017

विपक्ष ने क्या सीखा ?

  
विपक्षी दल उन अपेक्षाओं को क्‍यों नहीं  संभाल पाए जो ताकतवर सरकार के सामने मौजूद प्रतिपक्ष के साथ अपने आप जुड़ जाती हैं

भाजपा हर कदम का विरोध क्यों करती हैआमतौर पर सवाल का पहला जवाब हमेशा ठहाके के साथ देने वाले अटल बिहारी वाजपेयी गंभीर हो गए...एक लंबा मौन...फिरः ''लोकतंत्र में प्रतिपक्ष केवल संवैधानिक मजबूरी नहीं हैवह तो लोकतंत्र के अस्तित्व की अनिवार्यता है.'' फिर ठहाका लगाते हुए बोले कि नकारात्मक होना आसान कहां हैएक तो चुनावी हार की नसीहतें और फिर सरकार को सवालों में घेरते हुए लोकतंत्र को जीवंत रखना! ...प्रतिपक्ष होने के लिए अभूतपूर्व साहस चाहिए.

लोकतंत्र में प्रतिपक्ष का तकाजा कठिन है. चुनावी हार और नकारात्मकता की तोहमत के बावजूद सरकार पर सवाल उठाते रहना उसका दायित्व है. जो सरकार जितनी ताकतवर है उससे जुड़ी उम्मीदें और उससे पूछे जाने वाले सवाल उतने ही बड़ेगहरे और ताकतवर होने चाहिए.

मोदी सरकार को तीन साल बीत चुके हैं. लगभग सभी संवैधानिक पदों और प्रमुख राज्यों में भाजपा सत्ता में है. अब विपक्ष से पूछा जाना चाहिए कि उसने क्या सीखाक्या वह उन अपेक्षाओं को संभाल पाया जो किसी ताकतवर सरकार के सामने मौजूद विपक्ष के साथ अपने आप जुड़ जाती हैं

नए विपक्ष का आविष्कार

2014 के जनादेश ने तय कर दिया कि देश में विपक्ष होने का मतलब अब बदल गया हैक्योंकि सत्ता पक्ष को चुनने के पैमाने बदल गए हैं. आजादी के बाद पहली बार ऐसा दिखा कि अध्यक्षीय लोकतंत्र की तर्ज पर पंचायत से लेकर पार्लियामेंट तक सभी जटिल क्षेत्रीय पहचानें और राजनैतिक अस्मिताएं किसी एक नेता में घनीभूत हो गईं.
नए सत्ता पक्ष के सामने नया विपक्ष भी तो जरूरी था! 2014 के बाद क्षेत्रीय दलों की ताकत घटती जा रही है. बहुदलीय ढपली और परिवारों की सियासत से ऊबे लोग ऐसा विपक्ष उभरता देखना चाहते हैं जो संसदीय लोकतंत्र के बदले हुए मॉडल में फिट होकर सत्ता के पक्ष के मुहावरों को चुनौती दे सके. तीन साल बीत गएविपक्ष ने नया विपक्ष बनने की कोशिश तक नहीं की.

सवाल उठाने की ताकत

जीवंत लोकतंत्र पिलपिले प्रतिपक्ष पर कैसे भरोसा करेनोटबंदी इतनी ही 
खराब थी तो विपक्ष को भाजपा बनकर खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश की तरह इसे रोक देना चाहिए था. जीएसटी विपक्ष की रीढ़विहीनता का थिएटर है. विपक्षी दलों की राज्य सरकारों ने इसे बनाया भी और अब विरोध भी हो रहा है.
प्रतिपक्ष की भूमिका इसलिए कठिन हैक्योंकि उसे विरोध करते दिखना नहीं होता बल्कि संकल्प के साथ विरोध करना होता है. विपक्ष को मोदी युग के पहले की भाजपा से सीखना था कि सरकारी नीतियों की खामियों के खिलाफ जनमत कैसे बनाया जाता है.
संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष ओखली के भीतर और चोट के बाहर नहीं रह सकता. लेकिन नरेंद्र मोदी को जो विपक्ष मिला हैवह रीढ़विहीन और लिजलिजा है.

स्वीकार और त्याग
विपक्ष ने भले ही सुनकर अनसुना किया हो लेकिन अधिकांश समझदार लोगों ने यह जान लिया था कि 2014 का जनादेश अल्पसंख्यकवाद की राजनीति को रोकने की नसीहत के साथ आया है. बहुसंख्यकवाद की राजनीति अच्छी है या बुरीइस पर फैसले के लिए अगले चुनाव का इंतजार करना पड़ेगा लेकिन 2014 और उसके बाद के अधिकांश जनादेश अल्पसंख्यकों (धार्मिक और जातीय) को केंद्र में रखने की राजनीति के प्रति इनकार से भरे थे.

क्या विपक्ष अल्पसंख्यकवाद की राजनीति को स्थगित नहीं कर सकताभाजपा नसीहत बन सकती थी जिसने सत्ता में आने के बाद अपने पारंपरिक जनाधार यानी अगड़े व शहरी वर्गों को वरीयता पर पीछे खिसका दिया. अलबत्ता हार पर हार के बावजूद विपक्ष अल्पसंख्यक और गठजोड़ वाली सियासत के अप्रासंगिक फॉर्मूले से चिपका है.

सक्रिय प्रतिपक्ष ही कुछ देशों को कुछ दूसरे देशों से अलग करता है. यही भारत को चीनरूससिंगापुर से अलग करता है. ब्रिटेनजहां विपक्ष की श्रद्धांजलि लिखी जा रही थी वहां ताजा चुनावों में लेबर पार्टी की वापसी ब्रेग्जिट के भावनात्मक उभार को हकीकत की जमीन पर उतार लाई है. वहां लोकतंत्र एक बार फिर जीवंत हो उठा है.

चुनाव एक दिन का महोत्सव हैंलोकतंत्र की परीक्षा रोज होती है. अच्छी सरकारें नियामत हैं पर ताकतवर विपक्ष हजार नियामत है. भाजपा जैसा प्रभावी, प्रखर और निर्णायक प्रतिपक्ष देश को कभी नहीं मिला. आज जब भाजपा सत्ता में है तो क्या मौजूदा दल भाजपा को उसके जैसा प्रतिपक्ष दे सकते हैंध्यान रखिएभारतीय लोकतंत्र के अगले कुछ वर्ष सरकार की सफलता से नहीं बल्कि विपक्ष की सफलता से आंके जाएंगे.
                                                                                  



Wednesday, July 20, 2016

ताकि नजर आए बदलाव

सरकार बदलने से जिंदगी में बदलाव महसूस कराने का लक्ष्य जटिल व महत्वाकांक्षी है

ह अनायास नहीं था कि मंत्रिपरिषद को फेंटने से ठीक पहले प्रधानमंत्री ने कुछ अखबारों को दिए अपने साक्षात्कार में बेबाकी के साथ कहा कि ''मेरे लिए सफलता का अर्थ यह है कि लोग बदलाव महसूस करें. यदि उपलब्धियों का दावा करना पड़े तो मैं इसे सफलता नहीं मानूंगा."
प्रधानमंत्री की इस टिप्पणी से ठीक एक सप्ताह पहले सरकार के दो साल पूरे होने का अभियान खत्म हुआ था जो देश बदलने के अभूतपूर्व दावों से भरपूर था. इसमें आंकड़ोंदावोंसूचनाओं की बाढ़-सी आ गई थी लेकिन प्रधानमंत्री ने उन मंत्रियों को ही बदल दिया जो पूरे जोशो-खरोश से यह स्थापित करने में लगे थे कि जो बदलाव 60 साल में नहीं हुएवे दो साल में हो गए हैं.
दरअसल यह फेरबदल बताता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब दिल्ली के लिए नए नहीं रहे. दो साल में उन्होंने सरकार और अपनी टीम के बारे में बहुत कुछ जान-समझ लिया है. उनका एक अपना स्वतंत्र सूचना तंत्र भी है जो उन्हें दावों और हकीकत का फर्क बता रहा है. यह हकीकत पांच घंटे की उस समीक्षा बैठक में भी सामने आई थी जो प्रधानमंत्री ने मंत्रिपरिषद में फेरबदल से ठीक पहले बुलाई थी.
मानव संसाधन विकास मंत्रालय के बदलाव ने भले ही सुर्खियां बटोरीं हों लेकिन ताजा फेरबदल का शिकार हुए प्रत्येक मंत्री के पिछले दो साल के कामकाज को करीब से देखिए तो पता चल जाएगावह क्यों बदला गयाग्रामीण विकास मंत्रालय में बदलाव प्रधानमंत्री स्वच्छता मिशन की असफलता से निकला. संसदीय समन्वय में कमी के चलते पूरी संसदीय टीम बदल गई. कॉल ड्रॉप रोकने में असफलता ने संचार मंत्री बदले बल्कि मंत्रालय भी दो-फाड़ हो गया. स्टील और खनन मंत्रालय भी इसी राह चला. कानून और खनन मंत्रालयों के मुखिया बदलने के पीछे भी पिछले दो साल का कामकाज ही है. जहां खराब प्रदर्शन के बावजूद मंत्री जमे रहे हैं तो वहां शायद राजनैतिक मजबूरियां गवर्नेंस के पैमानों पर भारी पड़ी हैं.
अलबत्ता मंत्रालयी विश्लेषणों से परे इस फेरबदल का व्यापक संदेश प्रधानमंत्री के इस साहसी स्वीकार से निकलता है कि बदलाव है तो महसूस होना चाहिए. आज दो साल बाद अगर प्रधानमंत्री उन उम्मीदों को कमजोर होता पा रहे हैं तो हमें यह भी मानना चाहिए कि वे मंत्रिमंडल फेरदबल तक सीमित नहीं रहना चाहेंगे बल्कि उन दूसरी कमजोर कडिय़ों को भी संभालने की कोशिश करेंगेजो बड़े बदलावों को जमीन पर उतरने से रोक रही हैं.
एक ताकतवर पीएमओ की छवि के विपरीत जाकर क्या प्रधानमंत्री अपने मंत्रियों को अब अधिकारों से लैस करना चाहेंगेकेंद्र सरकार को चलाने का ढंग राज्यों से अलग है. केंद्रीय गवर्नेंस का इतिहास गवाह है कि प्रधानमंत्री मंत्रियों को अधिकारों से लैस करते हैं और मंत्री अपने अधिकारियों को. मंत्रियों को मिली आजादी और अधिकार नीतियां बनाने और नीतियों को लागू करने की प्रक्रिया तय करने के लिए जरूरी है.
पिछले दो साल में सरकार ने कई नई पहल की हैं लेकिन ज्यादातर फैसले स्कीमों की घोषणा तक सीमित थे. सरकार के महत्वाकांक्षी मिशन वह असर पैदा करने में सफल नहीं हुए जिसकी उम्मीद खुद प्रधानमंत्री को थी. मोबाइल कॉल ड्रॉप डिजिटल इंडिया की चुगली खाते हैंकिसानों की आत्महत्याएं ग्रामोदय को ग्रस लेती हैं या शहरों में बदस्तूर गंदगी स्वच्छता मिशन को दागी कर देती है या नए निवेश की बेरुखी मेक इन इंडिया की चमक छीन लेती है. इस तरह के सभी मिशन पूरक नीतियांप्रक्रियाएं और लक्ष्य मांगते हैंइसलिए नीतियों और व्यवस्थाओं में बदलाव जरूरी है.  
प्रधानमंत्री ने पिछले दो साल में जिस तेवर-तुर्शी के बदलावों का सपना रोपाराज्य सरकारें उसके मुताबिक सक्रिय नहीं नजर आईं. राज्य सरकारें जो मोदी की विकास रणनीति की ताकत हो सकती थींफिलहाल कुछ बड़ा कर गुजरती नहीं दिखीं हैं. कांग्रेस अपने दस साल के ताजा शासन में राज्यों से जिस समन्वय के लिए तरसती रही थीवह बीजेपी को संयोग से अपने आप मिल गया. दशकों बाद पहली बार ऐसा हुआ,  जब 12 राज्यों  में उस गठबंधन या पार्टी की सरकार हैं जो केंद्र में बहुमत के साथ सरकार चला रहा है.
देश का लगभग 40 फीसदी जीडीपी संभालने वाले नौ बड़े राज्यों में बीजेपी या उसके सहयोगी दल राज्य कर रहे हैं जो केंद्र सरकार की स्कीमों के क्रियान्वयन के लिए सबसे बेहतर मौका है. लेकिन पिछले दो साल में राज्यों ने प्रधानमंत्री की किसी भी प्रमुख स्कीम के क्रियान्वयन में कोई बहुत बड़ी उपलब्धि हासिल नहीं की. मंडी कानून को खत्म करनेनिवेश और कारोबार को सहज करने या खदानों के ई-ऑक्शन जैसे कार्यक्रम बीजेपी शासित राज्यों में भी उस उत्साह के साथ आगे नहीं बढ़े जिसकी उम्मीद थी. 
शिक्षास्वास्थ्यग्रामीण विकासनगर विकास जैसी सामाजिक सेवाओं की प्रभावी जिम्मेदारी अब राज्यों के हाथ है. केंद्र सरकार इसके लिए संसाधनों के आवंटन कर रही है. पिछले दो साल में सबसे सीमित विकास इन सामाजिक सेवाओं में दिखा हैजो बीजेपी की राजनैतिक आकांक्षाओं के लिए नुक्सानदेह है. 
इस फेरबदल से आगे बढ़ते हुए अब प्रधानमंत्री को राज्यों के साथ समन्वय का सक्रिय व प्रभावी ढांचा विकसित करना होगा. नीति आयोग राज्यों से समन्वय और नीतियों की नई व्यवस्था में अभी तक कोई ठोस योगदान नहीं कर सका हैउसे सक्रिय करना जरूरी है. राज्य यदि बढ़-चढ़कर आगे नहीं आए तो केंद्रीय मंत्रालय कोई ठोस असर नहीं छोड़ सकेंगे. 

मंत्रिपरिषद में बदलाव से चुनाव नहीं जीते जाते. सरकार बदलने से जिंदगी में बदलाव महसूस कराने का लक्ष्य जटिल व महत्वाकांक्षी है. यह अच्छे दिन के संदेश व उम्मीदों से ही जुड़ता है जो नरेंद्र मोदी के प्रचार अभियान का आधार था. शुक्र है कि प्रधानमंत्री को बदलाव नजर न आने की हकीकत का एहसास है इसलिए हमें मानना चाहिए कि सरकार का पुनर्गठन अभी शुरू ही हुआ है. प्रधानमंत्री अपनी टीम के बाद स्कीमोंनीतियों और प्रक्रियाओं को भी बदलेंगे ताकि उपलब्धियां महसूस हो सकेउनका दावा न करना पड़े.

Tuesday, January 5, 2016

आकस्मिकता के विरुद्ध


अगर नए साल की शुरुआत संकल्पों से होती है तो सरकारों, अदालतों, एजेंसियों, राजनेताओं को आकस्मिकता के विरुद्ध और नीतियों में निरंतरता का संकल्प लेना चाहिए.

भारत में जान-माल यकीनन महफूज हैं लेकिन कारोबारी भविष्य सुरक्षित रहने की गारंटी नहीं है. पता नहीं कि सरकारें या अदालतें कल सुबह नीतियों के ऊंट को किस करवट तैरा देंगी इसलिए धंधे में नीतिगत जोखिमों का इंतजाम जरूरी रखिएगा, भले ही सेवा या उत्पाद कुछ महंगे हो जाएं. यह झुंझलाई हुई टिप्पणी एक बड़े निवेशक की थी जो हाल में भारत में नीतियों की अनिश्चितता को बिसूर रहा था. अगर नए साल की शुरुआत संकल्पों से होती है तो सरकारों, अदालतों, एजेंसियों, राजनेताओं को आकस्मिकता के विरुद्ध और नीतियों में निरंतरता का संकल्प लेना चाहिए. नीतियों की अनिश्चितता केवल उद्यमियों की मुसीबत नहीं है. युवाओं से लेकर अगले कदम उठाने तक को उत्सुक नौकरीपेशा और सामान्य उपभोक्ताओं से लेकर रिटायर्ड तक, किसी को नहीं मालूम है कि कौन-सी नीति कब रंग बदल देगी और उन्हें उसके असर से बचने का इंतजाम तलाशना होगा.
दिल्ली की सड़कों पर ऑड-इवेन का नियम तय करते समय क्या दिल्ली सरकार ने कंपनियों से पूछा था कि वे अपने कर्मचारियों की आवाजाही को कैसे समायोजित करेंगी? इससे उनके संचालन कारोबार और विदेशी ग्राहकों को होने वाली असुविधाओं का क्या होगा? बड़ी डीजल कारों को बंद करते हुए क्या सुप्रीम कोर्ट ने यह समझने की कोशिश की थी कि पिछले पांच साल में ऑटो कंपनियों ने डीजल तकनीक में कितना निवेश किया है. केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद बाजार में दीवाली मना रहे निवेशकों को इस बात का इलहाम ही नहीं था कि उन्हें टैक्स के नोटिस उस समय मिलेंगे जब वे नई व स्थायी टैक्स नीति की अपेक्षा कर रहे थे. ऐसे उदाहरणों की फेहरिस्त लंबी है जिन्होंने भारत को सरकारी खतरों से भरा ऐसा देश बना दिया है जहां नीतियों की करवटों का अंदाज मौसम के अनुमान से भी कठिन है.
लोकतंत्र बदलाव से भरपूर होते हैं लेकिन बड़े देशों में दूरदर्शी स्थिरता की दरकार भी होती है. भारत इस समय सरकारी नीतियों को लेकर सबसे जोखिम भरा देश हो चला है. यह असमंजस इसलिए ज्यादा खलता है क्योंकि जनता ने अपने जनादेश में कोई असमंजस नहीं छोड़ा था. पिछले दो वर्षों के लगभग सभी जनादेश दो-टूक तौर पर स्थायी सरकारों के पक्ष में रहे और जो परोक्ष रूप से सरकारों से स्थायी और दूरदर्शी नीतियों की अपेक्षा रखते थे. अलबत्ता स्वच्छ भारत जैसे नए टैक्स हों या सरकारों के यू-टर्न या फिर चलती नीतियों में अधकचरे परिवर्तन हों, पूरी गवर्नेंस एक खास किस्म के तदर्थवाद से भर गई है.
गवर्नेंस का यह तदर्थवाद चार स्तरों पर सक्रिय है और गहरे नुक्सान पैदा कर रहा है. पहला&आर्थिक नीतियों में संभाव्य निरंतरता सबसे स्पष्ट होनी चाहिए लेकिन आयकर, सेवाकर, औद्योगिक आयकर से जुड़ी नीतियों में परिवर्तन आए दिन होते हैं. जीएसटी को लेकर असमंजस स्थायी है. आयकर कानून में बदलाव की तैयार रिपोर्ट (शोम समिति) को रद्दी का टोकरा दिखाकर नई नीति की तैयारी शुरू हो गई है. कोयला, पेट्रोलियम, दूरसंचार, बैंकिंग जैसे कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जहां अगले सुधारों का पता नहीं है. इस तरह की अनिश्चितता निवेशकों को जोखिम लेने से रोकती है.
दूसरा क्षेत्र सामाजिक नीतियों व सेवाओं से जुड़ा है, जहां लोगों की जिंदगी प्रभावित हो रही है. मसलन, मोबाइल कॉल ड्राप को ही लें. मोबाइल नेटवर्क खराब होने पर कंपनियों पर जुर्माने का प्रावधान हुआ था लेकिन कंपनियां अदालत से स्टे ले आईं. अब सब कुछ ठहर गया है. सामाजिक क्षेत्रों में निर्माणाधीन नीतियों का अंत ही नहीं दिखता. आज अगर छात्र अपने भविष्य की योजना बनाना चाहें तो उन्हें यह पता नहीं है कि आने वाले पांच साल में शिक्षा का परिदृश्य क्या होगा या किस पढ़ाई से रोजगार मिलेगा.
नीतियों की अनिश्चितता के तीसरे हलके में वे अनोखे यू-टर्न हैं जो नई सरकारों ने लिए और फिर सफर को बीच में छोड़ में दिया. आधार कार्ड पर अदालती खिचखिच और कानून की कमी से लेकर ग्रामीण रोजगार जैसे क्षेत्रों में नीतियों का बड़ा शून्य इसलिए दिखता है, क्योंकि पिछली सरकार की नीतियां बंद हैं और नई बन नहीं पाईं. एक बड़ी अनिश्चितता योजना आयोग के जाने और नया विकल्प न बन पाने को लेकर आई है. जिसने मंत्रालयों व राज्यों के बीच खर्च के बंटवारे और नीतियों की मॉनिटरिंग को लेकर बड़ा खालीपन तैयार कर दिया है.
नीतिगत अनिश्चितता का चौथा पहलू अदालतें हैं, जो किसी समस्या के वर्तमान पर निर्णय सुनाती हैं लेकिन उसके गहरे असर भविष्य पर होते हैं. अगर सरकारें नीतियों के साथ तैयार हों तो शायद अदालतें कारों की बिक्री पर रोक, प्रदूषण कम करने, नदियां साफ करने, गरीबों को भोजन देने या पुलिस को सुधारने जैसे आदेश देकर कार्यपालिका की भूमिका में नहीं आएंगी बल्कि अधिकारों पर न्याय देंगी.
भारत में आर्थिक उदारीकरण और ग्लोबलाइजेशन का एक पूरा दौर बीतने के बाद गवर्नेंस की नसीहतों के साथ दीर्घकालीन नीतियों की जरूरत थी. लेकिन सरकार की सुस्त चाल, पिछली नीतियों पर यू-टर्न, छोटे-मोटे दबावों और राजनैतिक आग्रह एवं अदालतों की सक्रियता के कारण नीतिगत अनिर्णय उभर आया है. कांग्रेस की दस साल की सरकार एक खास किस्म की शिथिलता से भर गई थी लेकिन सुधारों की अगली पीढिय़ों का वादा करते हुए सत्ता में आई मोदी सरकार नीतियों का असमंजस और अस्थिरता और बढ़ा देगी, इसका अनुमान नहीं था.

चुनाव पश्चिम के लोकतंत्रों में भी होते हैं. वहां राजनैतिक दलों के वैर भी कमजोर नहीं होते लेकिन नीतियों का माहौल इतना अस्थिर नहीं होता. अगर नीतियां बदली भी जाती हैं तो उन पर प्रभावित पक्षों से लंबी चर्चा होती है, भारत की तरह अहम फैसले लागू नहीं किए जाते हैं. नीतिगत दूरदर्शिता, समस्याओं से सबसे बड़ा बचाव है. लेकिन जैसा कि मशहूर डैनिश दार्शनिक सोरेन कीर्केगार्द कहते थे कि मूर्ख बनने के दो तरीके हैं एक झूठ पर भरोसा किया जाए और दूसरा सच पर विश्वास न किया जाए. भारत की गवर्नेंस व नीतिगत पिलपिलेपन के कारण लोग इन दोनों तरीकों से मूर्ख बन रहे हैं. क्या नया साल हमें नीतिगत आकस्मिकता से निजात दिला पाएगा? संकल्प करने में क्या हर्ज है.