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Monday, June 17, 2013

रुपये की ढलान


डॉलर के 65-70 रुपये तक जाने के आकलन सुनकर कलेजा मुंह को आ सकता है लेकिन ऐसा होना संभव है। हमें कमजोर रुपये की यंत्रणा के साथ जीने की आदत डाल लेनी चाहिए

देश को यह कड़वा कंटीला अब सच निगल लेना चाहिए कि रुपया जोखिम के खतरनाक भंवर में उतर गया है और विदेशी मुद्रा की सुरक्षा उन सैलानी डॉलरों की मोहताज है जो मौसम बदलते ही वित्‍तीय बाजारों से उड़ जाते हैं। यह सच भी अब स्‍थापित है कि भारत संवेदनशील जरुरतों के लिए आयात पर निर्भर है इसलिए डॉलर के मुकाबले रुपये की कमजोरी रोजमर्रा का दर्द बन गई है। वर्तमान परिदृश्‍य की बुनियाद 1991 जैसी है और लक्षण 1997 के पूर्वी एशियाई संकट जैसे, जब पूरब के मुल्‍कों की मुद्रायें ताबड़तोड़ टूटीं थीं। ताजी छौंक यह है कि अमेरिका व जापान की अर्थव्‍यवस्‍थायें जितनी तेजी से मंदी से उबरेंगी और बाजारों में पूंजी का प्रवाह सीमित करेंगी, भारत के वित्‍तीय बाजारों में डॉलरों की कमी बढ़ती जाएगी। इसलिए सिर्फ कमजोर रुपये से ही नहीं, विनिमय दर अस्थिरता से भी जूझना होगा।
रुपये की ताजा रिकार्ड गिरावट को तातकालिक कहने वाले हमारे सर में रेत घुसाना चाहते हैं। दरअसल देशी मुद्रा की जड़ खोखली हो गई और हवा खिलाफ है। मंदी व महंगे कर्ज का दुष्‍चक्र महंगाई की जिस धुरी पर टिका है, रुपये की कमजोरी उसे ऊर्जा दे रही है। रुपया पिछले वर्षों में बला की तेजी से ढहा है। सितंबर 2008 में ग्‍लोबल संकट शुरु होते वक्‍त डॉलर

Monday, January 28, 2013

सोने का फंदा


चेन्नई एयरपोर्ट पर कस्टम के हाथ लगा वह गुमनाम कूरियर, कीमती ही नहीं था करामाती भी था। पैकेट के खुलते ही दिल्ली को अलर्ट जारी करना पड़ा। कूरियर से सोने की तस्करी प्रमाण मिलने के बाद कस्टम अधिकारी, अब देश भर में पार्सल पैकेट खंगाल रहे हैं। घटना कुछ सप्ताह पहले की है। उस पैकेट में 3.8 करोड़ का सोना मिला जो अपने तरह की सबसे बड़ी ताजी बरामदगी थी। सोना सरकार की ताजा मुसीबत है जो उदार बाजार व ऊंची आय वाले नए भारत में पेचीदा और बहुआयामी होकर लौटी है। वित्तीय असुरक्षा व आर्थिक कुप्रबंध से घिरा देश अपनी बचत को बचाने के लिए सोने पर पिल पड़ा है। सोने का आयात विदेशी मुद्रा के मोर्चे पर समस्‍या बनने लगा तो सरकार ने एक साल के भीतर सोने पर सीमा शुल्क छह गुना कर दिया। इसके बाद से सोने की दुनिया की उलटी घूम गई है। देश के आधुनिक हवाई अड्डे व बंदरगाह अचानक अस्सी का दशक जीने लगे हैं। अब आतंकियों से ज्यादा बडी फिक्र सोने के तस्करों की है। सोने की महंगाई, इसकी दीवानगी के आगे पानी भर रही है। सोने की ललक को संतुलित करने के लिए सरकार के पास फिलहाल कोई नई सूझ भी नहीं है।
सोने की मायावी मांग का मिजाज अस्सी के दशक जैसा ही है लेकिन असर व आयाम ज्यादा  व्यापक हैं। आठवें दशक में लोग निवेश के विकल्प न होने की वजह से सोने पर रीझते थे। तब सोने के आयात पर पाबंदी के कारण तस्करी की दंतकथायें

Monday, July 9, 2012

नई दरारें, गहरे जोखिम


क्‍या  हम हिंदुस्‍तानी अपनी आर्थिक मुश्किलों में जरा भी मॉडर्न नहीं हुए? यूरोप को देखो क्‍या हाई प्रोफाइल, फ्रेश मुसीबतों से दो चार है और हम बाबा के जमाने की समस्‍याओं पर मगज खर्च कर रहे हैं। यह फब्‍ती अर्थशास्‍त्र के एक मनचले छात्र की थी। वह भारत में घाटे, सब्सिडी जैसी पुरानी चर्चाओं से ऊब कर क्रेडिट डिफॉल्‍ट स्‍वैप (कर्ज में चूकने का बीमा),  हेयरकट (आंशिक कर्ज माफी) जैसी जटिल नई यूरोपीय उलझनों पर फिदा हुआ जा रहा था।.. गुरु जी ने टोका! ऐसा नहीं कहते बेटा! हमने भी बहुत तरक्‍की की है। पहले कभी सुना था कि भारत के बैंकों के पास पैसे की इतनी कमी पड़ जाएगी कि  उनका काम बीमा और म्‍युचुअल फंड कं‍पनियों से कर्ज लेकर चलेगा ? अथवा आधुनिक वित्‍तीय कंपनियां ही लोगों को सोने जैसे दकियानूसी निवेश का दीवाना बनाने लगेंगी जिससे पूरा वित्‍तीय नेटवर्क को खतरे में फंस जाएगा। रिजर्व बैंक की ताजी फाइनेंशियल स्‍टेबिलिटी रिपोर्ट सबूत है कि भारत का वित्‍तीय तंत्र अब नए किस्‍म के जोखिमों में तैर रहा है। यह दरारें ऊपर से नहीं दिखतीं, मगर भीतर से बड़ी गहरी हैं।
बैंकों पर कर्ज  
भारत के बैंक कभी वित्‍तीय बाजार को अपनी उंगली पर नचाते थे मगर आज यह रोजमर्रा की पूंजी के लिए बीमा व म्‍युचुअल फंड कंपनियों से कर्ज के मोहताज हैं। यह एक नए तरह की (लिक्विडिटी डे‍फशिट) समस्‍या है और एक ऐसा खतरा है जिसके असर सोचकर रिजर्व बैंक भी दुबला हुआ जा रहा है। बैंकों के इस नए सिनेमा की पटकथा जमाकर्ताओं ने लिखी है, जो जमा पर घटती ब्‍याज दर के कारण बैंकों में पैसा रखने में बहुत इच्‍छुक नहीं दिखते। भारत का बैंकिंग उद्योग जमाकर्ताओं के भरोसे की कथा सुनाते थकते नहीं था लेकिन 2011-12 में बैकों की जमा वृद्धि दर दस साल के सबसे निचले