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Sunday, June 19, 2022

हम थे जिनके सहारे



 

राज्‍यों के अगले चुनाव दिल्‍ली के लिए अगला रोमांच हैं. लेक‍िन मुंबई गहरी मुश्‍क‍िल में है या यानी  कैच 22 में . मुंबई से मतलब है शेयर बाजार, सेबी, रिजर्व बैंक कंपनियों के न‍िवेश की दुनिया. जो दिल्‍ली जैसा कुछ नहीं देख पा रही है.

युद्धों की चर्चा ज़बानों की नोक पर है तो सनद रहे कैच 22 यानी गहरे अंतरविरोध का परिचय देने वाला मुहावरा दरअसल जंग की कथा से न‍िकला था. अमेरिकी उपन्‍यासकार जोसेफ हेलर ने दूसरे विश्‍व युद्ध की पृष्‍ठभूमि में जंग और नौकरशाही पर 1961 में कैच 22 नाम एक व्‍यंग्‍यात्‍मक उपन्‍यास लिखा था

यह कहानी योसेर‍ियन नाम एक लड़ाकू पायलट की थी जो जंग में तैनाती से बचने के लिए खुद को पागल घोष‍ित कर देता है. डॉक्‍टर उसकी जांच करते हैं और रिपोर्ट देते हैं कि युद्ध नहीं करना चाहता तो वह पागल है ही नहीं क्‍यों कि युद्ध के लिए पागलपन पहली शर्त है. यानी कि योसेर‍ियन को अगर खुद को पागल साबित करना है तो उसे जहाज से बम बरसाने थेलेकिन अगर यही करना है तो खुद को    पागल कहलाने से क्‍या फायदा ?

 

क्‍या है कैच 22 मुंबई का

मुंबई यानी व‍ित्‍तीय बाजारों और नियामकों का कैच 22 क्‍या है ?

भारत की ताजा मुसीबतों की जड़ शेयर बाजार है

जिनकी उम्‍मीदें थीं कि कोविड तो गया. अब भारत  तूफान से बाहर निकल आया है उन्‍हें अब यह बाजार एक एसे दुष्‍चक्र का प्रस्‍थान बिंदु लग रहा है  जहां कृपा अटक गई है

आप कहेंगे कुछ ज्‍यादा नहीं हो गया यह आकलन. इतनी विराट  अर्थव्‍यवस्‍था और छोटा सा शेयर बाजार ? भारत के लोगों की कुल बचतों में शेयरों का हिस्‍सा तो केवल 4.8 फीसदी है, एसा जेफ्रीज की एक ताजा रिपोर्ट ने कहा है

यही तो है वह रोमांचक बटरफ्लाई इफेक्‍ट यानी केऑस थ्‍योरी जिसमें एक छोटी सी घटना या बदलाव बड़े तूफान उठा देती है.  एक दूसरे में गहराई से गुंथी बुनी वित्‍तीय दुनिया इस इफेक्‍ट का शानदार नमूना है. शेयर बाजार के छोटे से आकार पर गफलत में रहना ठीक नहीं है बात तित‍िलयों की है तो यहां से कुछ ति‍त‍िलयां पतंगों की उड़ान ने कुछ एसा तूफान उठा दिया है कि दूर जालंधर में मोबाइल रिपेयर वाले परमजीत पुर्जे महंगे होने के कारण दुकान बंद करनी पड़ रही है  

आपका आश्‍चर्य बनता हैं सांसत में तो वित्‍त मंत्री निर्मला सीतारमन भी रहीं हैं, आरबीआई गवर्नर तो बेबाक चौंक रहे हैं

बटरफ्लाई इफेक्‍ट

बटरफ्लाई एफेक्‍ट को समझने के लिए इसकी सूक्ष्‍म शुरुआत को नहीं बल्‍क‍ि बल्‍क‍ि महासागरीय आकार के प्रभाव को देखना चाहिए. जड़ शेयर बाजार में तेज गिरावट, मंदी वाले बाजार की आहट और विदेशी निवेशकों के प्रवास से है लेक‍िन हम रुख करते है भारत की सबसे खतरनाक दरार की ओर. वह है डॉलर के मुकाबले कमजोर होता रुपया जो 78 के करीब है, 80 की मंज‍िल दूर नहीं है. और भारत का टूटता विदेशी मुद्रा भंडार जो अब केवल एक साल के आयात के लिए पर्याप्‍त है.

भारत में विदेशी मुद्रा के प्रमुख स्रोत सामान सेवाओ निर्यात, शेयर बाजार में निवेश और विदेशी पूंजी निवेश (पीई स्‍टार्ट अप) हैं. एक छोटा सा हिससा विदेशी व्‍यक्‍त‍िगत धन प्रेषण आदि का है.   

स्‍टैंडर्ड चार्टर्ड ने अपनी एक ताजा रिपोर्ट में कहा है कि विदेशी मुद्रा भंडार नौ माह के आयात की जरुरत के स्‍तर तक घट सकता है. गिरावट में 45 फीसदी हिस्‍सा डॉलर के मुकाबले रुपये की कमजोरी का है, 30 फीसदी गिरावट रुपये को बचाने में रिजर्व बैंक तरफ झोंके गए डॉलर के कारण आई है जबकि 25 फीसदी कमी आयात की लागत बढने से आई है

चार्ट .. भारत का विदेशी मुद्रा भंडा गिरावट

भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 27 मई 2022 को समाप्‍त सप्‍ताह में करीब 597 अरब डॉलर था. वित्‍त वर्ष 2022  भारत का कुल आयात करीब 610 अरब डॉलर रहा और निर्यात करीब 418 अरब डॉलर. यही वजह है कि भारत ने 2022 के वित्‍त वर्ष की समाप्‍ति‍ रिकार्ड 192 अरब डॉलर व्‍यापार घाटे (आयात और निर्यात का अंतर) से की. आयात के बिल की रोशनी में विदेशी मुद्रा भंडार साल भर के आयात से कम है. बाजार से निकलने वाली विदेशी पूंजी और विदेशी कर्ज के भुगतान की जरुरतें अलग से

विदेशी मुद्रा भंडार के हिसाब को एक और बड़ी तस्‍वीर में फिट किया जाता है. ताकि समग्र अर्थव्‍यवस्‍था की ताकत कमजोरी मापी जा सके. यह करेंट अकाउंट डेफश‍िट या सरप्‍लस है. यह किसी देश में विदेशी मुद्रा की आवक निकासी का सबसे बड़ा हिसाब होता है और देश बाहरी मोर्चे पर ताकत कमजोरी का पैमाना. इस घाटे की गणना में सामानों के निर्यात आयात के अलावा, सेवाओं का निर्यात, शेयर बाजार में विदेशी निवेश, विदेशी पूंजी न‍िवेश, विदेश से भेजे गए धन आद‍ि शामिल होते हैं .

कोविड के वर्षों में तो भारत ने इस घाटे को खत्‍म कर दिया था क्‍यों कि आयात बंद थे लेक‍िन अब यह नौ साल की ऊंचाई पर है. यानी करीब 23 अरब डॉलर. दस साल का सबसे ऊंचा स्‍तर दूर नही है.

आयात की तुलना में निर्यात तो कम हैं हीं इसके साथ ही विदेशी निवेश (प्रत्‍यक्ष, स्टार्ट अप, पीई व शेयर बाजार) में जोरदार गिरावट आई. रिजर्व बैंक के आंकड़े के अनुसार अप्रैल फरवरी 2021-22 में यह केवल 24.6 अरब डॉलर रहा हो जो बीते साल इसी अवध‍ि में 80.1 अरब डॉलर था.

ध्‍यान रखना जरुरी है कि विदेशी मुद्रा भंडार की पर्याप्‍तता यानी एक साल के आयात के बराबर होने तक रुपये का गिरना निर्यात को प्रतिस्‍पर्धी बनाता है लेक‍िन यदि भंडार घटने लगे तो रुपये की गिरावट मुसीबत बन जाती है.

रुपये की ताकत का सीधा रिश्‍ता विदेशी मुद्रा भंडार से है. व्‍यापार घाटा और करेंट अकाउंट डेफश‍िट ज‍ितना बढ़ेगा यह भंडार उतना ही घटेगा और रुपये की ताकत छीजती जाएगी. बीते एक करीब छह माह से यही हो रहा है

अब कमजोर रुपये ने कच्‍चे तेल कोयले सहित धातुओं में महंगाई का तूफान ला दिया है. रिजर्व बैंक डॉलर की मांग पूरा करने के लिए विदेशी मुद्रा झोंक रहा है, विदेशी मुद्रा भंडार गिरे रहा है और रुपये पर दबाव बढ़ रहा है. यही है कैच 22 का पहला हिस्‍सा जिसे देखकर मुंबई को ड‍िप्रशन हो रहा है

अब दूसरा हिस्‍सा

 

शुरु से शुरु करें

लौटते हैं शेयर बाजार की तरफ यानी त‍ितल‍ियों की तरफ जो शेयर बाजार से जुड़ी हैं. नोटबंदी से लेकर कोविड की बंदी और मंदी तक

भारत के शेयर बाजार में विदेशी निवेशक रीझ रीझ कर उतरते रहे. उनका निवेश बढ़ता गया और शेयर बाजार चढ़ता गया. क्‍या ही हैरत थी जब कोविड में भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था गहरी मंदी में थी, मौतें हो रही थीं तब विदेश‍ियों का भरोसा बढ़ता गया.

यकीनन शेयर बाजार से बहुतेरे लोगों को बहुत फर्क नहीं पड़ता, पड़े भी क्‍यों लेक‍िन भारत के विदेशी मुद्रा भंडार को इससे बड़ा फर्क पड़ा. अर्थव्‍यवस्‍था में तरह तरह की उठापटक के बीच शेयर बाजार में विदेशी निवेश और विदेशी मुद्रा में बढ़ोत्‍तरी में एक सीधा रि‍श्‍ता दिखता है.

बीते अक्‍टूबर से जब भारत में हालात सुधरने शुरु हुए तब से इन निवेशकों ने बाजार में बेचना शुरु कर दिया. इनकी निकासी के बाद रुपये में गिरावट शुरु हो गई. विदेशी मुद्रा भंडार छीजने लगा. बची हुई कसर महंगे तेल और रिकार्ड व्‍यापार घाटे ने पूरी कर दी.

त‍ितल‍ियो की बेरुखी

विदेशी निवेशक केवल डॉलर नहीं लाते. वे लाते हैं अरबो डॉलर का भरोसा. इसलिए क्‍यों कि वे भारत की आर्थि‍क भव‍िष्‍य पर दांव लगा रहे थे. महमारी की घोर मंदी में भी उनका निवेश सूखा नहीं क्‍यों कि वापसी की उम्‍मीद थी.

तो अब क्‍या हो रहा है?

भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था को लेकर पैमाना बदल रहा है. पूंजी की लागत बढ रही है जबकि भारत की विकास दर के आकलन गिर रहे हैं. यदि अगले कुछ साल में भारत की महंगाई रहित शुद्ध विकास दर  5-6 फीसदी रहती है तो इक्‍व‍िटी पर 10-11 फीसदी से ज्‍शदा रिटर्न मुश्‍क‍िल है. शेयर बाजार में कुछ अच्‍छी कंपनियां रहेंगी अलबत्‍ता लेक‍िन वह महंगी भी होंगी. अर्थव्‍यवस्‍था जब तक 13-14 फीसदी की महंगाई सहित दर विकास दर दर्ज नहीं करती भारत की एक तिहाई आबादी की कमाई और मांग नहीं बढ़ेगी और न ही उत्‍पादों का बाजार और कंपनियों के मुनाफे

रुपया विदेशी मुद्रा भंडार और महंगाई के साझा समाधान के लिए अगर सरकार को कोई एक दुआ मांगनी हो तो  वह यही होनी चाहिए कि क‍िसी तरह शेयर बाजार दौड़ने लगे.  विदेशी निवेशक वापस कर लें. उनकी पूंजी आई तो रुपये की ढलान रुकेगी. आयाति‍त मंहगाई कम होगी. अर्थव्‍यवस्‍था में भरोसा आएगा. घरेलू निवेशकों के छोटे निवेश बाजार को ढहने नहीं देंगी लेक‍िन बाजार को दौड़ाने की दम इस निवेश में नहीं है. लेक‍िन इसके भारत की सरकार को सब कुछ छोड़ कर अर्थव्‍यवस्‍था को ढलान रोकने का अनुष्‍ठान करना होगा जो जैसा कि 1991 में या 2008 के लीमैन संकट के वक्‍त हुआ था. विदेशी ताकत के मोर्च पर भारत या श्रीलंका पाकिस्‍तान में सबसे बड़ा फर्क यह है कि गैर इमर्जिंग अर्थव्‍यवस्‍थाओं में विकास दर भले ही तेज हो लेक‍िन यहा कैपिटल मार्केट नहीं है, निर्यात के अलावा गैर कर्ज वाली विदेशी पूंजी के स्रोत नहीं है इसलिए यह हमेशा खतरे में होंती हैं और आईएमएफ की मोहताज हैं

भारत इ‍मर्ज‍िंग इकोनॉमी इसलिए है क्‍यों क‍ि यहां डॉलरों की एक और पाइपलाइन खुलती है जो शेयर बाजार में आती है और हमें सुरक्षि‍त करती है. यह पूंजी भविष्‍य पर ग्‍लोबल भरोसे का प्रमाण है.

शेयर बाजार में बेयर ट्रैप या मंदी की भविष्‍यवाण‍ियां तैर रही हैं. अर्थव्‍यवस्‍था विदेशी निवेशकों की वापसी बर्दाश्‍त नहीं कर सकता. क्‍यों कि  आयात निर्यात वाले मुद्रा भंडार के मामले में दुन‍िया से बहुत फर्क नहीं है

 

 


Monday, June 18, 2018

दुनिया न माने



संकेतोंअन्यर्थों और वाक्पटुताओं से सजी-संवरी विदेश नीति की कामयाबी को बताने किन आंकड़ों या तथ्यों का इस्‍तेमाल होना चाहिए 

यह चिरंतन सवाल ट्रंप और कोरियाई तानाशाह किम की गलबहियों के बाद वापस लौट आया है और भारत के हालिया भव्य कूटनीतिक अभियानों की दहलीज घेर कर बैठ गया है.

विदेश नीति की सफलता की शास्त्रीय मान्यताओं की तलाश हमें अमेरिका के तीसरे राष्ट्रपति थॉमस जेफरसन (1743-1826) तक ले जाएगीजिन्होंने अमेरिका की (ब्रिटेन से) स्वतंत्रता का घोषणापत्र तैयार किया. वे शांतिमित्रता और व्यापार को विदेश नीति का आधार मानते थे. 

तब से दुनिया बदली है लेकिन विदेश नीति का आधार नहीं बदला है. चूंकि किसी देश के लिए किम-ट्रंप शिखर बैठक जैसे मौके या अंतरराष्ट्रीय मंचों पर नेतृत्व के मौके बेहद दुर्लभ हैंइसलिए कूटनीतिक कामयाबी की ठोस पैमाइश अंतरराष्ट्रीय कारोबार से ही होती है.

विदेश नीति की अधिकांश कवायद बाजारों के लेन-देन यानी निर्यात की है जिससे आयात के वास्ते विदेशी मुद्रा आती है. भारत के जीडीपी में निर्यात का हिस्सा 19 फीसदी तक रहा है. निर्यात में भी 40 फीसदी हिस्सा‍ छोटे उद्योगों का है यानी कि निर्यात बढ़े तो रोजगार बढ़े. 

यकीनन मोदी सरकार के कूटनीतिक अभियान लीक से हटकर "आक्रामक'' थे लेकिन पहली यह है कि विदेश व्यापार को कौन-सा ड्रैगन सूंघ गया?

- पिछले चार वर्षों में भारत का (मर्चेंडाइज) निर्यात बुरी तरह पिटा. 2013 से पहले दो वर्षों में 40 और 22 फीसदी की रफ्तार से बढऩे वाला निर्यात बाद के पांच वर्षों में नकारात्मक से लेकर पांच फीसदी ग्रोथ के बीच झूलता रहा. पिछले वित्त वर्ष में बमुश्किल दस फीसदी की विकास दर पिछले तीन साल में एशियाई प्रतिस्पर्धी देशों (थाइलैंडमलेशियाइंडोनेशियाकोरियाकी निर्यात वृद्धि से काफी कम है.

- पिछले दो वर्षों (2016-3.2%: 2017-3.7%) में दुनिया की विकास दर में तेजी नजर आई. मुद्रा कोष (आइएमएफ) का आकलन है कि 2018 में यह 3.9 फीसदी रहेगी.

- विश्व व्यापार भी बढ़ा. डब्ल्यूटीओ ने बताया कि लगभग एक दशक बाद विश्व व्यापार तीन फीसदी की औसत विकास दर को पार कर  (2016 में 2.4%2017 में 4.7% की गति से बढ़ा. 

लेकिन भारत विश्व व्यापार में तेजी का कोई लाभ नहीं ले सका.

- पिछले पांच वर्षों में चीन ने सस्ता सामान मसलन कपड़ेजूतेखिलौने आदि का उत्पादन सीमित करते हुए मझोली व उच्च‍ तकनीक के उत्पादों पर ध्यान केंद्रित किया. यह बाजार विएतनामबांग्लादेश जैसे छोटे देशों के पास जा रहा है. 

- भारत निर्यात के उन क्षेत्रों में पिछड़ रहा है जहां पारंपरिक तौर पर बढ़त उसके पास थी. क्रिसिल की ताजा रिपोर्ट बताती हैकच्चे माल में बढ़त होने के बावजूद परिधान और फुटवियर निर्यात में विएतनाम और बांग्लादेश ज्यादा प्रतिस्पर्धी हैं और बड़ा बाजार ले रहे हैं. टो पुर्जे और इंजीनियरिंग निर्यात में भी बढ़ोतरी पिछले वर्षों से काफी कम रही है.





- भारत में जिस समय निर्यात को नई ताकत की जरूरत थी ठीक उस समय नोटबंदी और जीएसटी थोप दिए गएनतीजतन जीडीपी में निर्यात का हिस्सा 2017-18 में 15 साल के सबसे निचले स्तर पर आ गया. सबसे ज्यादा गिरावट आई कपड़ाचमड़ाआभूषण जैसे क्षेत्रों मेंजहां सबसे ज्यादा रोजगार हैं.

- ध्यान रखना जरूरी है कि यह सब उस वक्त हुआ जब भारत में मेक इन इंडिया की मुहिम चल रही थी. शुक्र है कि भारतीय शेयर बाजार में विदेशी निवेश आ रहा था और तेल की कीमतें कम थींनहीं तो निर्यात के भरोसे तो विदेशी मुद्रा के मोर्चे पर पसीना बहने लगता.

- अंकटाड की ताजा रिपोर्ट ने भारत में विदेशी निवेश घटने की चेतावनी दी है जबकि विदेशी निवेश के उदारीकरण में मोदी सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी.

विदेश व्यापार की उलटी गति को देखकर पिछले चार साल की विदेश नीति एक पहेली बन जाती है. दुनिया से जुडऩे की प्रधानमंत्री मोदी की ताबड़तोड़ कोशिशों के बावजूद भारत को नए बाजार क्यों नहीं मिले जबकि विश्व बाजार हमारी मदद को तैयार था?

हालात तेजी से बदलते रहते हैं. जब तक हम समझ पाते तब तक अमेरिका ने भारत से आयात पर बाधाएं लगानी शुरू कर दीं. आइएमएफ बता रहा है कि आने वाले वर्षों में अमेरिका और यूरोपीय समुदाय में आयात घटेगा. 

लगता है कि जिस तरह हमने सस्ते तेल के फायदे गंवा दिए ठीक उसी तरह निर्यात बढ़ाने व नए बाजार हासिल करने का अवसर भी खो दिया है.



क्या यही वजह है कि चार साल के स्वमूल्यांकन में सरकार ने विदेश नीति की सफलताओं पर बहुत रोशनी नहीं डाली है?

Monday, April 12, 2010

सुरक्षित होने के खतरे

अच्छा होना हमेशा अच्छा ही नहीं होता। कम से कम इस निष्ठुर आर्थिक दुनिया का तो यही नियम है। यहां संतुलित और कुछ बेहतर होने की भी अपनी एक कीमत होती है। भारत सहित उभरती हुई अन्य अर्थव्यवस्थाएं संकटग्रस्त दुनिया के बीच (तुलनात्मक रूप से) निरापद होने की एक बड़ी कीमत चुकाने वाली हैं। भारत से लेकर कोरिया तक और ब्राजील से लेकर रूस तक विभिन्न अर्थव्यवस्थाएं मंदी से उबरने का कितना उत्सव मना पाएंगी यह तो पता नहीं, लेकिन उनकी चिंता का नया चक्र शुरू हो रहा है। चिंता बड़ी दिलचस्प है... यूरोजोन के निवेश सरोवर सूखने और डालरजोन (अमेरिका) में अनदेखे जोखिम के कारण दुनिया भर के प्रवासी निवेशक भारत जैसे मुल्कों में झुंड बांध कर उतरने लगे हैं। केवल मार्च में ही छह अरब डालर का विदेशी निवेश अकेले भारत के वित्तीय बाजारों में जज्ब हो चुका है। भारत का रुपया, रूस का रूबल, ब्राजील का रिएल, दक्षिण अफ्रीका का रैंड, मेक्सिको का पेसो, मलेशिया का रिंगिट आदि उभरते बाजारों की मुद्राएं, इस विदेशी खुराक से पहलवान हुई जा रही हैं। वित्तीय बाजारों में विदेशी निवेश की भरमार और बेवजह ताकत दिखाती घरेलू मुद्राओं के अपने खतरे हैं। ऊपर से डर यह है कि अगर ग्रीस डूबा तो फिर डालरों व यूरो का एक ज्वार इन बाजारों से आकर टकराएगा, जिसे संभालना बड़ा मुश्किल होगा।
ग्रीक ट्रेजडी, डालर कामेडी
डालर की कामेडी बड़ी मजेदार है। डालर खुद खोखला है, लेकिन प्रतिस्पर्धी मुद्रा इतनी मरियल है कि डालर में ताकत दिख रही है। संकट शुरू हुआ था डालर की दुनिया से, लेकिन बन आई यूरो पर। डालर के आसपास भी जोखिमों का घेरा है लेकिन उसकी तुलना में यूरो की स्याही ज्यादा गाढ़ी है, इसलिए बुनियादी रूप से कमजोर होते हुए भी डालर यूरो के मुकाबले मजबूत है। पिछले दो तीन माह में डालर ने अर्से से मजबूत यूरो को पछाड़ दिया है। यूरोजोन में ग्रीक ट्रेजडी किसी भी वक्त घट सकती है। यूरोप के बड़े मुल्क मदद को तैयार नहीं हैं अर्थात भारी कर्ज में दबे पिग्स देशों (पुर्तगाल, आयरलैंड, ग्रीस व स्पेन) में पहला हादसा होने को है। बाजार ने इसे कायदे से सूंघ लिया है। यूरो की सेहत बिगड़ रही है। ग्रीस का डिफाल्टर होना दक्षिण यूरोप के अन्य परेशान हाल देशों की किस्मत भी लिख देगा। पिछले एक सप्ताह में यूरोजोन के बाजार लगातार टूटे हैं। लेकिन इसके ठीक विपरीत उभरते बाजारों में तेजी का त्यौहार है। भारी विदेशी निवेश के सहारे पिछले एक पखवाड़े में उभरते बाजारों की कई मुद्राओं ने अपने एक साल के सर्वोच्च स्तर छू लिये हैं। दुनिया के निवेशकों को यूरो से तो उम्मीद है ही नहीं और डालर पर भी उनका भरोसा सीमित ही है, क्योंकि अमेरिका भी जीडीपी के अनुपात में 10.6 फीसदी के राजकोषीय घाटे (1.56 खरब डालर) पर बैठा है। जापान और ब्रिटेन भी भारी सरकारी कर्ज से हलाकान हैं। इसलिए डालर, येन या पौंड पर ज्यादा लंबे दांव लगाने वाले वाले लोग कम हैं। नतीजतन सबकी उम्मीदें उभरते बाजारों में उभर रहीं है, जहां मंदी का अंधेरा भी छंटने लगा है।
निवेशकों के काफिले
खरबों डालर को समेटे दुनिया की वित्तीय पाइपलाइनें इन नए सितारों की तरफ मुड़ गई हैं। इक्विटी निवेशक, हेज फंड, पेंशन फंड के काफिले भारत समेत पूर्वी एशियाई और लैटिन अमेरिकी देशों में पड़ाव डालने लगे हैं। भारत की स्थिति तो बड़ी दिलचस्प है। मार्च में विदेशी निवेशक इक्विटी में करीब 4 अरब डालर और ऋण बाजार में 2.2 अरब डालर लगा चुके हैं। इससे पहले दिसंबर तक पिछले कैलेंडर साल में 17.64 अरब डालर काविदेशी निवेश आ चुका है। विदेश से सस्ता पैसा लाकर भारत में ब्याज कमाने (आरबिट्रेज) का पूरा कारोबार भी काफी गुलजार है। संकट से उबरने और मंदी दूर करने के लिए दुनिया भर के बैंकों ने ब्याज दरें घटाकर बाजार में धन की नदियां बहा दीं। विश्व के बाजारों में कम ब्याज दर पर भारी पैसा उपलब्ध है, लेकिन निवेश के विकल्प कम हैं। दरअसल दुनिया के निवेशकों को यह अंदाज नहीं था कि अमेरिका का वित्तीय संकट यूरोजोन को तोड़ देगा। वह तो यूरोजोन को निवेश की नई उम्मीद के तौर पर देख रहे थे, लेकिन अमेरिका के साथ यूरोपीय उम्मीद भी बिखर गई। इसलिए पैसे की गठरी उठाए निवेशक भारत जैसे उभरते बाजारों में मंडरा रहे हैं। भारत में मंदी का असर अभी बाकी है, महंगाई है, ऊंचा राजकोषीय घाटा है, फिर भी विदेशी निवेशकों के लिए यह बाजार हर हाल में यूरोजोन से अच्छा है।
अनोखी आफत
उभरती अर्थव्यवस्थाओं के पास इस नए आकर्षण पर इतराने का वक्त नहीं है, क्योंकि चुनौतियां बिल्कुल फर्क हैं। भारत में इस अनोखी आफत ने पैमाने ही बदल दिए हैं। 1990-91 के संकट के बाद भारत में पहली बार चालू खाते का घाटा जीडीपी के अनुपात में तीन फीसदी पर आया है। कोई दूसरा वक्त होता तो इस चिंताजनक घाटे के कारण रुपया जमीन सूंघ रहा होता, लेकिन 280 अरब डालर के जबर्दस्त विदेशी मुद्रा भंडार के कारण उलझनों की गणित तब्दील हो गई है। अब समस्या इन डालरों को संभालने, लगाने और इनकी भरमार के असर से निबटने की है। प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति भी विदेशी निवेश की इस चमक पर अपनी आशंका जाहिर कर चुकी है। रिजर्व बैंक के लिए इन डालरों को खरीद कर विदेश में निवेश करना घाटे का सौदा है, क्योंकि दुनिया में ब्याज दरें कम हैं। इधर देश में डालर लाने वाले निवेशकों को ऊंचा ब्याज मिलता है। दूसरी तरफ बाजार से डालर खरीदने के बदले छोड़ा जाने वाला रुपया महंगाई की आग भड़का देता है, लेकिन अगर रिजर्व बैंक डालर न खरीदे तो रुपये की ताकत निर्यातकों को निचोड़ देगी। देशी बाजार में इन डालरों को खपाने का विकल्प नहीं है, क्योंकि परियोजनाएं उपलब्ध नहीं हैं। रिजर्व बैंक ने पिछले साल दिसंबर में विदेशी मुद्रा बाजार से किनारा कर लिया था, लेकिन अब चर्चा है कि 45 रुपये पर पहुंचा डालर उसे बाजार में उतरने और डालर खरीदने पर बाध्य कर रहा है।
छप्पर फाड़कर मिलना अच्छा है, मगर उस मिले हुए को सहेजने के लिए दूसरे ठिकाने तो होने ही चाहिए। निवेश के नए स्वर्गो की यही दिक्कत है कि उनके पास इस भेंट को सहेजने के रास्ते जरा कम हैं। नतीजतन विदेशी निवेश की यह अनोखी आमद इनके यहां मुद्रास्फीति से लेकर, अचल संपत्ति की कीमतों में कृत्रिम तेजी और बाजारों में सट्टेबाजी जैसी बुराइयां ला सकती है। ऊपर से यह निवेश डरे हुए व परेशान निवेशकों का है, इसलिए इसके टिकाऊ होने की गारंटी भी जरा कम है। लेकिन इस निवेश पर रोक लगाना और बड़ी चुनौती है। उभरती अर्थव्यवस्थाएं यकीनन शेष दुनिया से बेहतर, सुरक्षित और अच्छी हैं। भविष्य बताएगा कि इन्हें इस बेहतरी का क्या ईनाम मिला, फिलहाल वर्तमान तो यह बता रहा है कि इन्हें निवेश की शरणार्थी समस्या के निबटने के लिए तैयार हो जाना चाहिए। ..शाख से तोड़े गए फूल ने हंस करके कहा, अच्छा होना भी बुरी बात है इस दुनिया में।
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अन्‍यर्थ के लिए
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