Showing posts with label india trade deficit. Show all posts
Showing posts with label india trade deficit. Show all posts

Sunday, July 15, 2018

रुपये के संस्कार


रुपए की गिरावट पर भाजपा नेताओं के कंटीले चुनावी भाषण राजनेताओं के लिए नसीहत हैं कि अर्थव्‍यवस्‍था की कथा में राजनीति के ढोर-डंगर नहीं हांकने चाहिए. रुपये की लुढ़कन पर सरकारी बयान वीर बगलें झांक रहे हैं क्‍योंकि उनकी वैचारिक जन्‍मघुट्टी में रुपये की कमजोरी का अपराध बोध घुला हुआ है.

बाजार से पूछ कर देखिएवहां एक नौसिखुआ भी कह देगा कि रुपये की कमजोरी पर स्‍यापा फिजूल है. इसके वजन में कमी से नुक्सान नहीं है.

जानना चाहिए कि पिछले ढाई दशक में रुपया आखिर कितना कमजोर हुआ है और इस कमजोरी से क्‍या कोई "तबाही'' बरपा हुई है? 

पिछले 18 साल (2000-2018) में अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपया करीब 2.2 फीसदी सालाना की दर हल्‍का हुआ है. यह गिरावट 1990 से लेकर 2000 की ढलान के मुकाबले कम है जब रुपया औसत सात फीसदी की दर से गिरा था. 2008 से 2018 के बीच रुपया 4.9 फीसदी सालाना की दर से कमजोर हुआ. पिछले चार साल में अन्‍य मुद्राओं के मुकाबले रुपया स्थिर और ठोस रहा है.

पिछले ढाई दशक में प्रत्‍येक दो या तीन साल बाद रुपये और डॉलर के रिश्‍तों में उतार-चढ़ाव का चक्र आता हैजिसमें  रुपया कमजोर होता है. यह गिरावट किसी भी तरह से न तो आकस्मिक है और न चिंताजनक. भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था जैसे-जैसे विश्‍व के साथ एकीकृत होती गईरुपया खुद को अन्‍य मुद्राओं के मुकाबले संतुलित करता गया है.

रुपये की मांसपेशियां फुलाये रखने के स्‍वदेशी हिमायती किस तरह की विदेशी मुद्रा नीति चाहते हैंयह उन्‍होंने कभी नहीं बताया अलबत्‍ता रुपये के गिरने से कोई तबाही बरपा होने के समाचार अभी तक नहीं मिले हैं. 1990 के विदेशी मुद्रा संकट और 1991 में पहले सोचे-विचारे अवमूल्‍यन के बाद अब तक भारत का निर्यात 21 गुना बढ़ा है. विदेशी मुद्रा भंडार जरूरत के हिसाब से बढ़ता रहा. विदेशी निवेश ने आना शुरू किया तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा और भारतीय कंपनियों ने विदेश में खूब झंडे गाड़े.

रुपये की ताजा गिरावट चक्रीय भी हैमौसमी भी. अगर कमजोरी को कोसना ही है तो तेल की कीमतों पर नजला गिराया जा सकता है. आने वाले महीनों में डॉलर मजबूत रहेगा इसलिए रुपये की सेहत भी चुस्‍त रहेगी. रुपया एकमुश्‍त नहीं क्रमशः अपना वजन गंवाएगा.

तो सरकार करे क्‍यादरअसलरुपया गिरते ही सरकार को मौका लपक लेना चाहिए था.

भारत का निर्यातप्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ताबड़ तोड़ विदेश यात्राओं से कतई नहीं रीझा. यह पिछले चार साल से एड़ि‍यां रगड़ रहा हैजबकि माहौल व्‍यापार के माफिक रहा है. रुपये की मजबूती निर्यात के लिए मुसीबत रही है. अब गिरावट है तो निर्यात को बढ़ाया जा सकता है. यह अमेरिका और चीन के व्‍यापार की जंग में भारत के लिए नए बाजार हासिल करने का अवसर है.

अभी-अभी सरकार छोड़कर रुखसत हुए अर्थशास्‍त्री अरविंद सुब्रह्मण्यम ने बजा फरमाया है कि अगर भारत निर्यात में 15 फीसदी की सालाना विकास दर हासिल नहीं करता तो भूल जाइए कि 8-9 फीसदी ग्रोथ कभी मिल पाएगी.

यकीनन यह सबको मालूम है कि ग्रोथ की मंजिल थुलथुल नहीं बल्कि चुस्‍त रुपये से मिल सकती है. गुजरात जो कि भारत के विदेश व्‍यापार का अगुआ हैवहां से आने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बेहतर यह कौन जानता होगा कि संतुलित विनिमय दर निर्यात के लिए कितनी जरुरी है लेकिन पिछले चार साल में रुपया मोटाता गया और निर्यात दुबला होता गया.

रुपये की कमजोरी पर रुदाली की परंपरा आई कहां से?

इस मामले में दक्षिणवाम और मध्यसब एक जैसी हीन ग्रंथि के शिकार हैं. 1991 में रुपये का अवमूल्‍यन करते हुए तत्‍कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव की "व्यथा'' का किस्‍सा इतिहास में दर्ज है.
रुपये की मजबूती का खोखला दंभ अंग्रेज सिखाकर गए थे. भारत उनके माल का (आयात) बाजार था. वह भारत को प्राथमिक उत्पादों का निर्यातक बनाकर रखना चाहते थेऔद्योगिक उत्पादों का नहीं. इसलिए आश्‍चर्य रुपये के गिरने पर नहीं बल्कि "स्वदेशियों'' पर होना चाहिए जो दशकों से ब्रिटिश औपनिवेशिक आर्थिक नीति का मुर्दा ढो रहे हैं.

दिलचस्‍प है कि 2013-14 में जिनकी उम्र से रुपये की गिरावट को नापा गया था उन्‍हीं डॉ. मनमोहन सिंह ने 1991 में पहली बार संसद को यह समझाया था कि थुलथले रुपये में कोई राष्‍ट्रवाद नहीं छिपा है. रुपये के अवमूल्यन में पाप या अपमान जैसा कुछ नहीं है. अगर बाजार में हैं तो आपको प्रतिस्पर्धी होना ही होगा.

जब जागेतब सवेरा!

Monday, April 1, 2013

सर पर टंगा टाइम बम




विदेशी मुद्रा सुरक्षा ही हमारी सबसे कमजोर नस है जो बुरी तरह घायल है। इक्‍यानवे में हम इसी घाट डूबे थे।

भारत अगर डॉलर छाप सकता या आयात का भुगतान रुपये में हो जाता तो सियासत आर्थिक चुनौतियों को किसी भाव नहीं गिनती। शुक्र है कि हम गंजों को ऐसे नाखून नहीं मिले। लेकिन अब तो राजनीति नशा उतरना चाहिए क्‍यों कि भारत विदेशी मुद्रा संकट से बस कुछ कदम दूर है और इस आफत को रुपये छापकर या आंकडों के खेल से रोका नहीं जा सकता। देश के पास महज साढे छह महीने के आयात के लायक विदेशी मुद्रा बची है। विदेशी मुद्रा की आवक व निकासी का फर्क बताने वाले चालू खाते का घाटा फट पड़ने को है। डॉलर के मुकाबले रुपया तीखी ढलान पर टिका है, जहां नीचे गिरावट की गर्त है। दरअसल, भारत अब विदेशी मुद्रा संकट के टाइम बम पर बैठ गया है और उत्‍तर कोरिया में चमकती मिसाइलों से लेकर दरकते यूरोजोन और खाड़ी की चुनौतियों जैसे तमाम पलीते आसपास ही जल रहे हैं।

Monday, January 28, 2013

सोने का फंदा


चेन्नई एयरपोर्ट पर कस्टम के हाथ लगा वह गुमनाम कूरियर, कीमती ही नहीं था करामाती भी था। पैकेट के खुलते ही दिल्ली को अलर्ट जारी करना पड़ा। कूरियर से सोने की तस्करी प्रमाण मिलने के बाद कस्टम अधिकारी, अब देश भर में पार्सल पैकेट खंगाल रहे हैं। घटना कुछ सप्ताह पहले की है। उस पैकेट में 3.8 करोड़ का सोना मिला जो अपने तरह की सबसे बड़ी ताजी बरामदगी थी। सोना सरकार की ताजा मुसीबत है जो उदार बाजार व ऊंची आय वाले नए भारत में पेचीदा और बहुआयामी होकर लौटी है। वित्तीय असुरक्षा व आर्थिक कुप्रबंध से घिरा देश अपनी बचत को बचाने के लिए सोने पर पिल पड़ा है। सोने का आयात विदेशी मुद्रा के मोर्चे पर समस्‍या बनने लगा तो सरकार ने एक साल के भीतर सोने पर सीमा शुल्क छह गुना कर दिया। इसके बाद से सोने की दुनिया की उलटी घूम गई है। देश के आधुनिक हवाई अड्डे व बंदरगाह अचानक अस्सी का दशक जीने लगे हैं। अब आतंकियों से ज्यादा बडी फिक्र सोने के तस्करों की है। सोने की महंगाई, इसकी दीवानगी के आगे पानी भर रही है। सोने की ललक को संतुलित करने के लिए सरकार के पास फिलहाल कोई नई सूझ भी नहीं है।
सोने की मायावी मांग का मिजाज अस्सी के दशक जैसा ही है लेकिन असर व आयाम ज्यादा  व्यापक हैं। आठवें दशक में लोग निवेश के विकल्प न होने की वजह से सोने पर रीझते थे। तब सोने के आयात पर पाबंदी के कारण तस्करी की दंतकथायें

Monday, June 25, 2012

मुसीबतों का पॉवर हाउस



नियति के देवता ने अमेरिका व यूरोप की किस्मत में शायद जब अमीरी के साथ कर्ज लिखा था या अफ्रीका को खनिजों के खजाने के साथ अराजकता की विपत्ति भी बख्शी थी तो ठीक उसी समय भारत की किस्मत में भी उद्यमिता के साथ ऊर्जा संकट दर्ज हो गया था। अचरज है कि पिछले दो दशक भारत के सभी प्रमुख आर्थिक भूकंपों का केंद्र ईंधन और बिजली की कमी में मिलता है।  मसलन , महंगाई की जड़ में  महंगी (पेट्रो उत्पाद व बिजली)  ऊर्जा!, रुपये की तबाही की पीछे भारी ऊर्जा (पेट्रो कोयलाआयात ! बजटों की मुसीबत की वजह बिजली बोर्डों के घाटे!, बैंकों के संकट का कारण बिजली कंपनियों की देनदारी ! पर्यावरण के मरण की जिम्मेदार डीजली बिजली और अंततऊर्जा की किल्लत की वजह से ग्रोथ की कुर्बानी!....  ऊर्जा संकट का बड़ा  खतरनाक भंवर अर्थव्यवस्था की सभी ताकतों को एक एक कर निगल रहा है। और कारणों की छोडि़ये, हम तो अब तो  लक्षणों का इलाज भी नहीं कर पा रहे हैं।
कितने शिकार
2016 में कच्चा तेल ही नहीं बल्कि कोयले की दुनियावी कीमत बढ़ने पर भी हमारा दिल बैठने लगेगा। बारहवी पंचवर्षीय योजना का मसौदा व ताजा आर्थिक सर्वेक्षण कहता है कि चार साल बाद भारत (246 अरब टन के घरेलू भंडार के बावजूदअपनी जरुरत का एक चौथाई (करीब 23 फीसद) कोयला आयात करेगा। तब तक 80 फीसद तेल और 28 फीसद गैस की जरुरत के लिए विदेश पर निर्भर हो चुके होंगे। इस कदर आयात के बाद रुपये के मजबूत होने का मुगालता पालना बेकार है। महंगाई का ताजा जिद्दी दौर भी बिजली कमी की पीठ

Monday, May 28, 2012

रुपये के मुजरिम

स्ताद जी, रुपया ही क्यों खेत रहा ? भोले निवेशक ने चतुर ब्रोकर से पूछा। दलाल बोला चुप रहो जी, हमारी पुरानी पोल फिर खुल गई। और बहुत सतर्क रहो क्यों। कि इस बार मामला कुछ ज्याजदा ही संगीन है। बाजार की नब्ज थामे वह ब्रोकर बिल्कुल ठीक समझ रहा है। रुपये का मामला यकीनन संगीन है। विकलांग सरकार की संकट न्योता नीति रुपये को ही ले डूबी क्यों। कि रुपया भारत आर्थिक शरीर की सबसे कमजोर नस है। विदेशी मुद्रा प्रबंधन में इतना लोचा है कि 1991 के संकट लेकर आज तक, हम ज्यादा वित्ती्य मुसीबतें इसी दरवाजे से आई हैं और रुपये ने ही तबाही की कहानी बनाई है। शेयर बाजार में विदेशी निवेश कमी को मत कोसिये, विदेशी मुद्रा बाजार और भंडार के प्रबंधन की दरारें तो पिछले कई वर्षों से संकट का स्वागत करने को आतुर हैं। आत्म निर्भरता की कमी, महंगाई, प्राकृतिक संसाधनों का घरेलू उत्पादन, विदेशी मुद्रा की आवक निकासी के असंतुलन, रुपये की बदहाली के लिए जिम्मेदारों की फेहरिस्त छोटी नहीं है। विदेशी मुद्रा का मोर्चा सबसे संवेदनशील होता है, इसे तो सबसे ज्यादा मजबूत होना चाहिए था मगर यही भारत का सर्वाधिक कमजोर और असुरिक्षत मोर्चा साबित हुआ है। रुपया ही सबसे गिरा और बेसहारा है।
कुप्रबंध का विनिमय
रुपये की तोहमत बेचारे ग्रीस के सर क्यों ? यह त्रासदी यूरोजोन ने नहीं हमने खुद लिखी है। ऐतिहासिक गलतियों से लेकर, किस्म किस्म के घाटे और सरकार की नीतिगत निष्क्रियता तक सबने रुपये को तोड़ने में बखूबी काम किया है। रिजर्व बैंक से लेकर वित्ता मंत्रालय सबको यह खबर थी कि रुपये पर हमला होना तय है क्यों कि भारतीय अर्थव्यवस्‍था  दोहरे घाटे (राजकोषीय और चालू खाता) के दुष्च‍क्र में फंस गई है। भुगतान संतुलन (विदेशी देनदारियों और विदेशी पंजी की आवक के बीच का अंतर) के तीन साल में पहली बार घाटे में आने की खबर बाजार को पिछले साल ही मिल गई थी और इसलिए अक्टूबर नवंबर से रुपये की बुरी गत बननी शुरु हो गई थी। इसके बाद से बाजार को विदेशी मुद्रा प्रबंधन के मोर्चे पर कुछ भी अच्छा नहीं

Monday, April 23, 2012

इक्‍यानवे का प्रेत

शवंत सिन्‍हा देश को बता रहे हैं कि भारत का विदेशी मुद्रा भंडार खाली है। सोना गिरवी रखा जाएगा। विदेशी मुद्रा कोष (आईएमएफ) से कर्ज लिया जा रहा है। रुपया बुरी तरह गिरा है। ... वह युवा निवेशक पसीने लथपथ होकर जाग गया ! कितना बुरा सपना था ! 1991 वाला। अचानक उसे याद आया कि उसने कल ही तो रिजर्व बैंक के ताजे आंकडे पलटे थे और यह भी पढ़ा था कि गवर्नर सुब्‍बाराव 1991 के दुर्दिन की याद कर रहे हैं। विदेशी मुद्रा भंडार का तेजी से गिरना, व्‍यापार घाटे (आयात निर्यात का अंतर) में अभूतपूर्व उछाल, रुपये पर दबाव, छोटी अवधि के विदेशी कर्जों का विस्‍फोटक स्‍तर और साथ में ऊंचा राजकोषीय घाटा यानी कि जुड़वा घाटों की विपत्ति। तकरीबन ऐसा ही तो था 1991। बस अंतर सिर्फ यह है कि तब भारत ग्‍यारह लाख करोड़ की (जीडीपी) अर्थव्‍यवस्‍था था और जो आज 50 लाख करोड़ की है। अर्थव्‍यवस्‍था बड़ी होने से संकट छोटा नहीं हो जाता इसलिए विदेशी मुद्रा बाजार से लेकर बैंकों के गलियारों तक खौफ की ठंडी लहरें दौड़ रही हैं। मगर दिल्‍ली के राजनीतिक कानों पर रेंगने लिए शायद हाथी जैसी जूं चाहिए, इसलिए दिल्‍ली बेफिक्र ऊंघ रही है।
विस्‍फोटक आंकड़े
याददाश्‍त इतनी भी कमजोर नहीं होनी चाहिए कि संकट ही याद न रहे। अभी 21 साल पहले की ही बात है जब जून 1991 में विदेशी मुद्रा भंडार एक अरब डॉलर से भी कम रह गया यानी बस केवल तीन हफ्ते के आयात का जुगाड़ बचा था। रिजर्व बैंक ने विदेशी मुद्रा देना बंद कर दिया। निर्यातों को प्रतिस्‍पर्धात्‍मक बनाने के लिए तीन दिन में रुपये का 24 फीसदी अवमूल्‍यन हुआ। आईएमएफ से 2.2 अरब डॉलर का कर्ज लिया गया और 67 टन सोना बैंक ऑफ इंग्‍लैंड व यूनियन बैंक ऑफ सिवटजरलैंड के पास गिरवी रखकर 600 मिलियन डॉलर उठाये गए, तब आफत टली। ... यह खौफनाक अतीत जिस परिस्थिति से निकला था आज के आंकड़े उससे जयादा खराब