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Monday, August 13, 2012

ब्रिटेन की अगली मेजबानी



जाने भी दीजिये ब्रांड लंदन !!! हमें तो यह देखना है ब्रिटेन की मेजबानी में ओलंपिक के बाद क्‍या होने वाला है …!  एक ग्‍लोबल कंपनी के मुहफट मुखिया ने यह बात ठीक उस समय कही जब प्रधानमंत्री डेविड कैमरुन ओलंपिक को ब्रिटेन की आर्थिक तरक्‍की का मुकुट बता रहे थे। कैमरुन सरकार  ओलंपिक मेडल्‍स में ब्रिटेन की खेल ताकत दिखा रही थी तो निवेशक लंदन की वित्‍तीय साख पर दागों की लिस्‍ट बना रहे थे और ओलंपिक के भव्‍य उद्घाटन से निगाहें हटाकर ब्रिटेन की भयानक मंदी की आंकड़े पढ़ रहे थे। शताब्दियों से पूरी दुनिया के बैंकर रहे लंदन के बैंक घोटालों की नई नई किस्‍मे ईजाद कर रहे हैं और ब्रिटेन की अर्थव्‍यवस्‍था की यूरोजोन से जयादा बुरी हालत में है। ब्रिटेन विश्‍व की वित्‍तीय नब्‍ज संभालता है इसलिए बाजारो में डर की नई सनसनी है। यूरोप की चुनौतियां यूरोजोन से बाहर निकल कर ब्रिटेन के रास्‍ते ग्‍लोबल बैकिंग में फैल रहीं हैं। ओलंपिक के बाद यूरोपीय संकट की जो पदक तालिका बनेगी उसमें ब्रिटेन सबसे ऊपर होगा।
तालियों का टोटा
अमेरिका व चीन के बाद ओलंपिक की तीसरी ताकत होते हुए भी ब्रिटेन दरअसल तालियों को तरस गया। क्‍यों कि ऐन ओलंपिक के मौके पर लंदन दुनिया को तरह तरह के घोटाले और अपनी साख ढहने की खबरें बांट रहा था। 241 ग्‍लोबल बैंकों का गढ़ लंदन विश्‍व का वित्‍तीय पावर हाउस है। यहां हर रोज करीब 1.4 ट्रिलियन डॉलर के विदेशी मुद्रा और ब्‍याज दर सौदे होते हैं, जो इस तरह के विश्‍व कारोबार का का 46 फीसदी है। बैंकरों, बीमा कंपनियों, हेज फंड, ब्रोकरों, रिसर्च फर्म से लंद फंदे लंदन के वित्‍तीय कारोबारी जोन (फाइनेंशियल डिस्टि्क्‍ट) में सेकेंडों में अरब डॉलर इधर से उधर होते है। बीते सप्‍ताह जब ओलंपिक का झंडा चढ़ रहा था तब ब्रिटेन वित्‍तीय पारदर्शिता का परचम उतरने

Monday, July 23, 2012

लाइबोर के चोर


रे उन्‍होंने लाइबोर चुरा लिया!! लाइबोर क्‍या ?? लाइबोर यानी दुनिया के वित्‍तीय सिस्‍टम की सांस लाइबोर यानी कि ग्‍लोबल बैंकिंग का सबसे कीमती आंकड़ा!  दुनिया भर में बैंक कर्ज पर ब्‍याज दर तय करने का दैनिक पैमाना। लाइबोर जिसे देखकर टोकियो से न्‍यूयार्क तक और वेलिंगटन से सैंटियागो तक बैंक रोज अपनी दुकानें खोलते हैं। लाइबोर, (लंदन इंटरबैंक ऑफर्ड रेट-ब्‍याज दर) जो रोज यह तय करता है कि दुनिया भर की कंप‍नियां, उपभोक्‍ता, सरकारों को करीब 10 मुद्राओं में अलग अलग तरह के कर्ज किस ब्‍याज दर पर दिये जाएंगे। दुनिया में करीब 800 ट्रिलियन डॉलर का वित्‍तीय कारोबार जिस सबसे अहम पैमाने बंधा है, उस लाइबोर को, एक दर्जन छंटे हुए बैंक उड़े। उनके फायदे के लिए लाइबोर दो साल तक झूठे आंकडो के आधार पर मनमाने ढंग से तय हुआ और और पूरी दुनिया निरी बेवकूफ बनती रही। पूरा वित्‍तीय जगत सन्‍न है। लाइबोर की चोरी वित्‍तीय दुनिया के इतिहास का सबसे बड़ा संगठित संगठित वित्‍तीय अपराध साबित हो रहा है, पहले से ही बदनाम ग्‍लोबल बैंकिंग की पूरी संस्‍कृति ही अब दागी हो गई है। एक पुरानी अमेरिकी कहावत को सच लग रही है कि बैंकों में लुटेरों को नौकरी देने की जरुरत नहीं है, यह काम तो बैंकर खुद कर सकते हैं।
बैंक की नोक पर
वित्‍तीय बाजारों में कहावत है कि आप लाइबोर में कोई दिलचस्‍पी न रखते हों लेकिन लाइबोर आपमें पूरी रुचि रखता है। लंदन की घडि़यों में रोज सुबह 11 बजे 11.10 तक का वक्‍त पूरी दुनिया की बैंकिंग उद्योग के लिए सबसे कीमती होता है। इस दस मिनट के भीतर यह तय हो जाता है कि उस सरकारों लेकर  उपभोक्‍ताओं तक के बैंक कर्ज से लेकर जटिल वित्‍तीय निवेशों (डेरीवेटिव) पर क्‍या ब्‍याज दर लगेगी। लाइबोर को देखकर विश्‍व के बैंक अलग अलग तरह के कर्जों पर अपनी ब्‍याज दरें तय करते हैं। लाइबोर का दैनिक उतार चढा़व बैंकों की वित्‍तीय सेहत का प्रमाण होता है। ऊंची लाइबोर (ब्‍याज) दर बैंकों की खराब सेहत और निचली दर बैंकों की खुशहाली का सबूत है। लाइबोर जटिल हो सकता है लेकिन इसका घोटाला बड़ी आसानी

Monday, October 10, 2011

बैंक बलिदान पर्व

ग्रीस डूबने को तैयार है.. इसे यूं भी लिखा जा सकता है कि यूरोप के तमाम के बैंक डूबने को तैयार हैं। किसी देश का ,दीवालिया होने उसे खत्‍म नहीं कर देता है मगर ग्रीस के कर्ज चुकाने में चूकते ही कई बैंकों के दुनिया के नक्‍शे मिटने की नौबत आ जाएगी। दुनिया ग्रीस को बचाने के लिए बेचैन है ही नहीं, जद्दोजहद तो पूरी दुनिया के बैंकों, खासतौर पर यूरोप के बैंकों को महासंकट से बचाने की है। लीमैन और अमेरिका के कई बैंकों के डूबने के तीन साल के भीतर दुनिया में दूसरी बैंकिंग त्रासदी का मंच तैयार है। यूरोप में बैंकों के बलिदान का मौसम शुरु हो चुका है। डरे हुए वित्‍तीय नियामक बैंको को यानी आग के दरिया से गुजारने की योजना तैयार कर रहे हैं, ताकि जो बच सके बचा लिया जाए। बैंकों पर सख्‍ती की ताजी लहर भारत (स्‍टेट बैंक रेटिंग में कटौती) तक आ पहुंची है। यूरोप के संकट से बैंकों की दुनिया और दुनिया के बैंकों की सूरत व सीरत बदलना तय है।
बैंकों की बदहाली
370 बिलियन डॉलर के कर्ज से दबे ग्रीस के दीवालिया होते ही यूरोप के बैंकों में बर्बादी का बडा दौर शुरु होने वाला है। यह कर्ज तो बैंकों ने ही दिया है। बैंकों को यदि ग्रीस पर बकाया कर्ज का 40 फीसदी हिस्‍सा भी माफ करना पड़ा तो उनके बहुत बड़ी पूंजी डूब जाएगी। अपनी सरकार के कर्ज में सबसे बडे हिस्‍सेदार ग्रीस के बैंक तो उड़ ही जाएंगे। यूरोप के बैंक व सरकारें मिलकर ग्रीस के कर्ज में 60 फीसदी की हिस्‍सेदार हैं। इनमें भी फ्रांस, जर्मनी, इटली के बैंकों का हिस्‍सा काफी बड़ा है। इसलिए फ्रांस के दो प्रमुख बैंक बीएनपी पारिबा और क्रेडिट एग्रीकोल अपनी रेटिंग खो चुके हैं। पुर्तगाल, आयरलैंड व इटली भी कर्ज संकट में है और इन्‍हें कर्ज देने वाले बैंक ब्रिटेन, जर्मनी व स्‍पेन के हैं। यानी पूरे यूरोप के बैंक खतरे

Monday, January 24, 2011

टाइम बम पर बैठे हम

अर्थार्थ
र्थव्यथवस्था के डब्लूटीसी या ताज (होटल) को ढहाने के लिए किसी अल कायदा या लश्क र-ए-तैयबा की जरुरत नहीं हैं, आर्थिक ध्वंस हमेशा देशी बमों से होता है जिन्हें कुछ ताकतवर, लालची, भ्रष्टं या गलतियों के आदी लोगों एक छोटा का समूह बड़े जतन के साथ बनाता है और पूरे देश को उस बम पर बिठाकर घड़ी चला देता है। बड़ी उम्मीदों के साथ नए दशक में पहुंच रही भारतीय अर्थव्यवस्था भी कुछ बेहद भयानक और विध्वंसक टाइम बमों पर बैठी है। हम अचल संपत्ति यानी जमीन जायदाद के क्षेत्र में घोटालों की बारुदी सुरंगों पर कदम ताल कर रहे हैं। बैंक अपने अंधेरे कोनों में कई अनजाने संकट पाल रहे हैं और एक भीमकाय आबादी वाले देश में स्थांयी खाद्य संकट किसी बड़ी आपदा की शर्तिया गारंटी है। खाद्य आपूर्ति, अचल संपत्ति और बैंकिग अब फटे कि तब वाले स्थिति में है। तरह तरह के शोर में इन बमों की टिक टिक भले ही खो जाए लेकिन ग्रोथ की सोन चिडि़या को सबसे बड़ा खतरा इन्ही धमाकों से है।
जमीन में बारुद
वित्तीय तबाहियों का अंतरराष्ट्रीय इतिहास गवाह है कि अचल संपत्ति में बेसिर पैर के निवेश उद्यमिता और वित्तीय तंत्र की कब्रें बनाते हैं। भारत में येदुरप्पाओं, रामलिंग राजुओं से लेकर सेना सियासत, अभिनेता, अपराधी, व्यायपारी, विदेशी निवेशक तक पूरे समर्पण के साथ अर्थव्ययवस्था में यह बारुदी सुरंगे बिछा रहे हैं। मार्क ट्वेन का मजाक (जमीन खरीदो क्यों कि यह दोबारा नहीं बन सकती) भारत में समृद्ध होने का पहला प्रमाण है। भ्रष्ट राजनेता, रिश्वतखोर अफसर, नौदौलतिये कारोबारी, निर्यातक आयातक और माफिया ने पिछले एक दशक में जायदाद का

Monday, December 20, 2010

हमको भी ले डूबे !

अर्थार्थ
“तुम नर्क में जलो !! सत्यानाश हो तुम्हारा !! .दुनिया याद रखे कि तुमने कुछ भी अच्छा नहीं किया !!”....डबलिन में एंग्लो आयरिश बैंक के सामने चीखती एक बूढ़ी महिला के पोस्टर पर यह बददुआ लिखी है। ...बैंकों से नाराज लोगों का गुस्सा एक बड़ा सच बोल रहा है। बैंकों ने दुनिया का कितना भला किया यह तो पता नहीं मगर मुश्किलों की महागाथायें लिखने में इन्हे महारथ हासिल है। आधुनिक वित्तीय तंत्र का यह जोखिमपसंद, मनमाना और बिगड़ैल सदस्य दुनिया की हर वित्तीय त्रासदी का सूत्रधार या अभिनेता रहा है। बैंक हमेशा डूबे हैं और हमको यानी हमारे जैसे लाखों को भी ले डूबे हैं। इनके पाप बाद में सरकारों ने अपने बजट से बटोरे हैं। अमेरिका सिर्फ अपने बैंकों के कारण औंधे मुंह बैठ गया है। इन्हीं की मेहरबानी से यूरोप के कई देश दीवालिया होने की कगार पर हैं। इसलिए तमाम नियामक बैंकों को रासते पर लाने में जुट गए हैं। डरा हुआ यूरोप छह माह में दूसरी बार बैंकों को स्ट्रेस टेस्ट (जोखिम परीक्षण) से गुजारने जा रहा है। बैंकिंग उद्योग के लिए नए बेहद सख्त कानूनों से लेकर अंतरराष्ट्री य नियमों (बेसिल-तीन) की नई पीढ़ी भी तैयार है। मगर बैंक हैं कि मानते ही नहीं। अब तो भारत के बैंक भी प्रॉपर्टी बाजार (ताजा बैंक-बिल्डर घोटाला) में हाथ जलाने लगे हैं।
डूबने की फितरत
गिनती किसी भी तरफ से शुरु हो सकती है। चाहें आप पिछले दो साल में डूबे 315 अमेरिकी बैंकों और यूरोप में सरकारी दया पर घिसट रहे बैंकों को गिनें या फिर 19 वीं शताब्दी का विक्टोरियन बैंकिंग संकट खंगालें। हर कहानी में बैंक नाम एक चरित्र जरुर मौजूद है, खुद डूबना व सबको डुबाना जिसकी फितरत है। 1970 से लेकर 2007 तक दुनिया में 124 बैंकिंग संकट आए हैं और कई देशों में तो यह तबाही एक से ज्या दा बार

Monday, August 30, 2010

जागते रहो!

अर्थार्थ
नजर उतारिए सरकार की, बड़ी हिम्मत दिखाई हुजूर ने, वरना तो लोकतंत्र में सरकारें बुनियादी रूप से दब्बू ही होती हैं। बात अगर बड़ी निजी कंपनियों की हो तो फैसले नहीं, समझौते होते हैं। वेदांत के मामले जैसी तुर्शी और तेजी तो बिरले ही दिखती है। नाना प्रकार के दबावों को नकारते हुए सरकार ने जिस तेजी से वेदांत को कानूनी वेदांत पढ़ाया, वह कम से कम भारत के लिए तो नया और अनोखा ही है और इस हिम्मत पर सरकार को विकास और विदेशी निवेश के वकीलों से जो तारीफ मिली, वह और भी महत्वपूर्ण है। इसे भारत में ऐसे सुधारों की शुरुआत मानिए, जिसका वक्त अब आ गया था। जरा खुद से पूछिए कि अब से एक दशक पहले क्या आप भारत में सरकारों से इस तरह की जांबाजी की उम्मीद कर सकते थे। तब तो सरकारें विदेशी निवेश की चिंता में सांस भी आहिस्ता से लेती थीं। वेदांत को सबक सरकारी तंत्र के भीतर सोच बदलने का सुबूत है और यह बदलाव सिर्फ वक्त के साथ नहीं हुआ है, बल्कि इसके पीछे जन अधिकारों के नए पहरुए भी हैं और, माफ कीजिए, दंतेवाड़ा व पलामू भी।
वेदांत से शुरुआत
यूनियन कार्बाइड से लेकर वेदांत तक कंपनियों के कानून से बड़ा होने की ढेरों नजीरें हमारे इर्दगिर्द बिखरी हैं। इसलिए वेदांत पर सख्ती भारत के कानूनी मिजाज से कुछ फर्क नजर आती है। उड़ीसा सरकार तो आज भी मानने को तैयार नहीं है कि नियामगिरी में बॉक्साइट खोद रही वेदांत ने वन अधिकार, वन संरक्षण, पर्यावरण संरक्षण और आदिवासी अधिकारों के कानूनों को अपनी खदान में दफन कर दिया। अलुमिना रिफाइनरी की क्षमता (एक मिलियन टन से छह मिलियन टन) हवा में नहीं बढ़ जाती, जैसा कि लांजीगढ़ में वेदांत ने बगैर किसी मंजूरी के कर लिया। यह कैसे हो सकता है कि सरकारों को 26 हेक्टेयर वन भूमि पर अवैध कब्जा, पर्यावरण की बर्बादी या आदिवासियों के हकों पर हमला न दिखे। खनन कंपनियां तो वैसे भी अपनी मनमानी के लिए पूरी दुनिया

Monday, July 26, 2010

इंस्‍पेक्‍टर राज इंटरनेशनल !

अर्थार्थ
मौसम अचानक बिल्कुल बदल गया है। वित्तीय कारोबार पर कड़े नियमों की धुआंधार बारिश होने वाली है। पूंजी बाजारों में बेलौस और बेपरवाह वानर लीला कर रहे वित्तीय कारोबारियों पर कठोर पहरे की तैयारी हो गई है। बैंक, इन्वेस्टमेंट बैंक, हेज फंड, बांड फंड, म्यूचुअल फंड व इस जाति के सभी प्रतिनिधियों को सख्त पहरे में सांस लेनी होगी। अमेरिका में ताजा पीढ़ी के सबसे कठोर वित्तीय नियमन कानून को राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने दस्तखत से नवाज दिया है। वित्तीय कारोबार पर एक समग्र यूरोपीय सख्ती के लिए यूरोप की सरकारें भी बीते सप्ताह ब्रुसेल्स में सहमत हो चुकी हैं। यूरोप के नामी 91 बैंकों को एक अभूतपूर्व परीक्षा, स्ट्रेस टेस्ट से गुजार कर उनकी कुव्वत परख ली गई है। भारत में नियामकों का नियामक यानी सुपर रेगुलेटर (बजट में घोषित आर्थिक स्थायित्व व विकास परिषद) आने को तैयार है। आपस में झगड़ते भारत के वित्तीय नियामक इसकी राह आसान कर रहे हैं। हर तरफ एक नया इंस्पेक्टर राज तैयार हो रहा है। नौकरशाह नियामकों की फौज हर जगह वित्तीय बाजार व इसके खिलाडि़यों की आठों पहर निगरानी करेगी।
..और फ्यूनरल प्लान भी
आपके अंतिम संस्कार का प्लान क्या है? सवाल बेहूदा हो सकता है, लेकिन ताजा कानून के तहत अमेरिका के वित्तीय कारोबारियों को इसका जवाब देना होगा। बैंकों व वित्तीय कंपनियों से पूछा जाएगा कि यदि संकट में फंस कर बर्बाद हुए तो वे अपनी दुकान किस तरह बंद करना चाहेंगे? 1930 के बाद अमेरिका में वित्तीय कानूनों में सबसे बड़ा बदलाव हो गया है। वॉलस्ट्रीट पर शिकंजा कसने वाला डॉड-फ्रैंक बिल तमाम दहलीजें पार करते हुए बीते सप्ताह लागू हो गया। 2300 पेज का यह भीमकाय कानून अपनी सख्ती और पाबंदियों के लिए दुनिया में नजीर बनेगा। अमेरिका के लोग एफएसओसी, फिनरेग और वोल्कर रूल जैसे नए शब्द सीख रहे हैं। एफएसओसी बोले तो.. फाइनेंशियल स्टेबिलिटी ओवरसाइट काउंसिल। एक सुपर रेगुलेटर यानी सबसे बड़ा नियामक। यह काउंसिल वित्तीय तंत्र के लिए जोखिम बनने वाली कंपनियों की लगातार पहचान करेगी। मतलब यह कि एफसीओसी ने जिसे घूरा उसका काम पूरा। बेफिक्र और मस्तमौला हेज फंड हों या निवेश बैंक सबके लिए कानून में कड़ी शर्ते हैं। बैंकों को जमा के बीमा पर ज्यादा रकम लगानी होगी ताकि अगर बैंक डूबें तो जमाकर्ता भी न डूब जाएं। वोल्कर रूल तय करेगा कि बैंक कौन से कारोबार और कहां निवेश न करें। 615 ट्रिलियन डॉलर के डेरिवेटिव्स कारोबार को पहली बार लगाम का स्वाद मिलेगा। क्रेडिट रेटिंग, बीमा, ब्रोकर, मॉरगेज, निवेशक आदि सब इस कानून के दायरे में हैं। सबसे अहम यह है कि अमेरिका की सरकार डूबने वाले एआईजी (बीमा कंपनी जिसे अमेरिकी सरकार ने उबारा था) जैसों का पाप अपने सर नहीं लेगी। हर कंपनी अपने अंतिम संस्कार की योजना पहले घोषित करेगी ताकि अगर वह बर्बाद हो तो उसे शांति से विदा किया जा सके। इस कानून पर हस्ताक्षर करते हुए तालियों की गूंज के बीच ओबामा ने कहा अब अमेरिका की जनता वॉलस्ट्रीट की गलतियों का बिल नहीं चुकाएगी। उदारता से पूरी दुनिया को ईर्ष्‍या से भर देने वाला अमेरिकी बाजार अब सख्ती का आदर्श बनेगा।
बैंकों की अग्निपरीक्षा

27 देश, 91 बैंक और एक परीक्षा!! बेचैनी, रोमांच, असमंजस! इस 23 जुलाई को पूरी दुनिया के वित्तीय बाजारों में समय मानो ठहर सा गया था। यूरोप के बैंक स्ट्रेस टेस्ट से गुजर रहे थे, यह साबित करने के लिए अगर संकट आया तो कौन सा बैंक बचेगा और कौन निबट जाएगा? पैमाना गोपनीय था अलबत्ता परीक्षा मोटे तौर पर कर्ज का बोझ, जोखिम भरे निवेश का हिसाब-किताब और पूंजी की स्थिति आदि के आधार पर ही हुई। शुक्रवार की रात भारत में जब लोग सोने की तैयारी कर रहे, तब इस परीक्षा का रिजल्ट आया। यूरोप के सात बैंक फेल हो गए। पांच स्पेन के और एक-एक जर्मनी व ग्रीस का। इन्हें अब अपनी सेहत सुधारने के लिए 3.5 बिलियन यूरो जुटाने होंगे, जो आसान नहीं है। फेल का रिपोर्ट कार्ड लेकर निकलने वाले इन बैंकों के साथ वित्तीय बाजार नरमी नहीं बरतेगा। मगर जो बैंक इस आग के दरिया से निकल आए हैं, उनके स्वागत के लिए एक नया सख्त समग्र यूरोपीय नियामक तैयार है। यूरोपीय समुदाय नया वित्तीय दो स्तरीय नियामक ढांचा बना रहा है। वित्तीय बाजार पर दैनिक नियंत्रण देशों के पास होगा, लेकिन व्यापक नियंत्रण एक बड़े यूरोपीय नियामक के हाथ में रहेगा। बैंकों के लिए अभी कई और स्ट्रेस टेस्ट तैयार हो रहे हैं।
नियामकों का नियामक

अमेरिका की फाइनेंशियल स्टेबिलिटी ओवरसाइट काउंसिल, यूरोप की पैन यूरोपियन अथॉरिटी या फिर भारत की प्रस्तावित आर्थिक स्थायित्व व विकास परिषद आदि सब उसी सुपर रेगुलेटर के अलग-अलग नाम रूप हैं, जो अब आ ही पहुंचा है। दरअसल वित्तीय दुनिया में कई नियामक हैं, सो खूब गफलत भी है। अमेरिका में डेरिवेटिव और हेज फंड को लेकर नियामक ठीक उसी तरह उलझते रहे हैं, जैसे कि यूलिप को लेकर भारत में इरडा और सेबी लड़ रहे हैं। घोटालेबाज इस भ्रम पर खेलते हैं। भारत संकट से बाल-बाल बच गया, लेकिन नसीहत के तौर पर सुपर रेगुलेटर न होने की गलती जल्द ही दूर की जा रही है। दरअसल तीसरी दुनिया के लिए सिर्फ नियम कानून चाक चौबंद करने की ही झंझट नहीं है, उन्हें एक और झटके से निबटना होगा। फिलहाल यह कहना मुश्किल है कि वित्तीय निवेशक इस नए कानूनी माहौल के बाद कैसा व्यवहार करेंगे, लेकिन जब निवेश की आजादी पर दर्जनों पहरे होंगे तो निवेश की आदत में कुछ फर्क तो आएगा ही। ..उभरते बाजारों को इस असर से निबटने की तैयारी भी करनी होगी।
भारत जैसी अधखुली अर्थव्यवस्थाएं तो बचे-खुचे इंस्पेक्टर राज के विदा होने की मन्नत मांग रहीं थीं, मगर यहां तो इंस्पेक्टर राज ताजा अंतरराष्ट्रीय अवतार में वापस लौट आया है। अमेरिका, यूरोप व एशिया के वित्तीय बाजारों की लगाम नए किस्म की ब्यूरोक्रेसी के हाथ आने जा रही है। बाजार के खिलाडि़यों को वित्तीय नौकरशाह या नियामक नौकरशाहों की एक नई पीढ़ी के नाज-नखरे उठाने होंगे। वित्तीय बाजार आजादी पाकर बौरा गया था अब उसे पाबंदियों की पांत में चलना होगा। ..बस एक चूक और पुर्नमूषकोभव !!

Monday, July 5, 2010

सियासत के सलीब

अर्थार्थ
दोषियों से दोस्ती भी और पीडि़तों की अगुआई भी। दोनों काम एक साथ। चिढ़ते रहिए आप, मगर यह विशेषाधिकार सिर्फ सियासत और सत्ता को मिला है। माहौल बदलते ही सियासत गलती करने वालों से गलबहियां छोड़कर, मुंसिफ बन जाती है। दुनिया भर की सरकारें आजकल इसी भूमिका में हैं। अमेरिका में व्हाइट हाउस से लेकर लंदन में टेन डाउनिंग स्ट्रीट और ऑस्ट्रेलिया तक सलीबों की सप्लाई अचानक बढ़ गई है। ब्रिटेन के नए प्रधानमंत्री डेविड कैमरून ने बैंकों को अरबों पौंड के नए टैक्स की सूली पर टांग दिया है। अमेरिका, जर्मनी व फ्रांस भी बैंकों के लिए यही सजा मुकर्रर करने वाले हैं। व्हाइट हाउस ने पेट्रोल कंपनी बीपी को आर्थिक जुर्माने की सलीब पर चढ़ा दिया है। टोयोटा पहले से कठघरे में खड़ी है। दरअसल यह सूलियां सजाने का मौसम है, जिसमें बाजार के बादशाहों के खजाने निशाने पर हैं। मगर अपना मुल्क इस मामले में कुछ अलग है। घोटालों में झुलसे लोगों का दर्द गवाह है कि हम कायदे से सजा भी नहीं दे पाते। 26 साल पुराने भोपाल हादसे का दाग भी अपने ही बजट से धोने जा रहे हैं यानी कि करदाता सूली पर चढ़ेंगे। शर्मिदगी से बचने के लिए हम बस, खुद को सजा दे लेते हैं।
बुरे फंसे बैंक
सरकारें इस समय ताजा वित्तीय संकट के मुजरिम तय करने में जुटी हैं। कोशिश जल्द से जल्द सजा देने की है ताकि अपना दामन बचा रहे। बैंक व वित्तीय संस्थाएं पुराने पापी हैं। सरकारों की निगाह में इनका एडवेंचर दुनिया को महंगा पड़ा है। बैंकों को डूबने से बचाने पर सरकारें नौ ट्रिलियन (सोलह शून्य वाली संख्या) डॉलर तक खर्च चुकी हैं। इसलिए सजा भी माकूल होनी चाहिए। ब्रिटेन की नई सरकार के चांसलर जॉर्ज ऑसबोर्न ने ताजा बजट में बैंकों से दो बिलियन पौंड वसूलने का इंतजाम कर दिया है। जर्मनी व फ्रांस के शिकंजे भी बन चुके हैं। अमेरिका में कानून तैयार है, हालांकि लामबंदी जारी है, मगर टैक्स लगना तय है क्योंकि बैंक व वित्तीय संस्थाएं लामबंदी व रसूख में चाहे जितने मजबूत हों, सियासत में राजनेताओं को नहीं पछाड़ सकते। नेताओं ने बहुत सफाई के साथ टैक्स लगा भी दिया और टैक्स लगाने की सामूहिक (जी 20 की बैठक) तोहमत भी नहीं ली। अंतरराष्ट्रीय मंच से कर लगने का ऐलान शेयर बाजारों को तोड़ कर बैंकों की चीख पुकार को ऊंचा कर देता। इसलिए जी 20 ने बैंक टैक्स पर खुलकर बात ही नहीं की और देशों को टैक्स लगाने के लिए आजाद कर दिया। वैसे भी अमेरिका व यूरोप के प्रमुख देशों में इसकी शुरुआत पहले ही हो चुकी थी। इसके बदले बैंकों पर दूसरा सामूहिक शिकंजा कसा जा रहा है। बैंकिंग के कामकाज को सख्त पाबंदियों में बांधने वाले बेसिल नियमों की तीसरी पीढ़ी तैयार है। टैक्स के बाद बचा हुआ काम ये नियम कर देंगे। इसके बाद बैंक व वित्तीय संस्थाओं के लिए जोखिम लेकर मुनाफा कमाने के रास्ते बहुत संकरे हो जाएंगे।
माफी का मौका नहीं
अमेरिका नामक सबसे उदार बाजार ने पिछले कुछ महीनों में प्रमुख कार कंपनी टोयोटा के अध्यक्ष अकीयो टोयोदा को वस्तुत: आठ आठ आंसू रुला दिए। शेयरधारकों ने बाकायदा बैठक में झिड़का कि टोयोदा महोदय आप सुबकते हुए अच्छे नहीं लगते। टोयोटा की कारों के एक्सीलरेटर पैडल खराब थे। कारें अचानक तेज दौड़ पड़ती थीं। अमेरिका में हादसे हुए तो मामला गरमाया और टोयोदा को अपराधियों की तरह अमेरिकी संसद की समिति के सामने पेश होना पड़ा। पूरी दुनिया में एक करोड़ कारें वापस ली गई। कंपनी मुकदमे लड़ रही है और हर्जाना दे रही है। कमाई को दो बिलियन डॉलर की चपत लग चुकी है। टोयोटा के कर्मचारियों का वेतन दस फीसदी घटाया गया है। मैक्सिको की खाड़ी में बहते तेल में डूब रही बीपी का किस्सा सबको मालूम है। ओबामा ने कंपनी की गर्दन पकड़कर 20 बिलियन डॉलर का चेक ले लिया। बीपी अब लंबी मुकदमेबाजी के लिए तैयार हो रही है। सजा देने का यह मानसून ऑस्ट्रेलिया तक पहुंच चुका है। प्रधानमंत्री केविन रड ने मंदी को देखते हुए देश के सबसे ताकतवर खनन उद्योग पर 40 फीसदी टैक्स लगाया तो कुर्सी खिसक गई। नई प्रधानमंत्री जूलिया गिलार्ड ने कुछ रियायत दी है, मगर टैक्स कायम है। बाजार को याद है कि जब मौका आया तो अमेरिका ने 246 बिलियन डॉलर का हर्जाना वसूल लिया और सिगरेट कंपनियां मिमियाती रह गई।
सजा की सियासत
सिगरेट कंपनियों से वसूली गई मोटी रकम में कितनी लोगों की सेहत सुधारने पर खर्च हुई या बीपी से मिले 20 बिलियन डॉलर कहां जाएंगे, इस पर अमेरिका में भी दर्जनों सवाल हैं। आप बेशक कह सकते हैं कि अमेरिकी सरकार ने पिछले साल एआईजी, फेनी मे और फ्रेडी मैकजैसी कंपनयिों को बचा लिया था। जबकि आज गोल्डमैन सैक्श, बीपी आदि को सजाएं सुनाई जा रही है। जी हां, यही तो सियासत है। वक्त बदला तो दुनिया का सबसे उदार बाजार कंपनियों के लिए सबसे क्रूर हो गया। मगर भारत को तो सजा देते हुए दिखना भी नहीं आता। सबसे ताकतवर राजनीतिक परिवार को लपेट में आता देख हमारी सरकार ने अचकचाकर भोपाल का हर्जाना 26 साल बाद अपने ही गले बांध लिया। कार्बाइड तो गई, अब गलती का बिल (1500 करोड़ रुपये का पैकेज) बजट यानी करदाता चुकाएंगे। उदारीकरण के बाद भारत में एक दर्जन से ज्यादा बड़े घोटालों में हजारों लोगों ने अपने हाथ जलाए हैं, लेकिन हर्जाना दिलाने का यहां कोई रिवाज नहीं है। दूसरी तरफ जमीन मकान के बाजार में फर्जीवाड़ा खुलने और जनता के गुस्साने के बाद ओबामा का प्रशासन सब प्राइम प्रॉपर्टी बाजार में धोखाधड़ी करने वालों के खिलाफ ऑपरेशन स्टोलेन ड्रीम चला रहा है। 191 मामले दर्ज हो चुके हैं और 147 मिलियन डॉलर की रिकवरी हो चुकी है। मतलब यह कि बात जब राजनीति के दामन तक पहुंचे किसी को भी टांगा जा सकता है।
दुनिया में कोई यह कभी नहीं जान पाएगा कि लीमन ब्रदर्स सहित दर्जनों बैंक अपनी गलती से डूबे या सरकारों अर्थात नियामकों की लापरवाही से। बीपी के कुएं से तेल का बहना कंपनी की चूक थी या सरकारी देखभाल की। जनता चाहे कहीं की भी हो, अपनी कमजोर याददाश्त की वजह से सिर्फ हादसे या घोटाले और उनके नतीजे या उपचार याद रख पाती है। यही वजह है कि पश्चिम की सियासत का इंसाफ बीपी, टोयोटा पर जुर्माने या बैंक टैक्स के तौर पर दुनिया को दिख जाता है। जबकि हमारे यहां दोषी नहीं, बल्कि पीडि़त ही सजा पाता है। दरअसल हम जरा कच्चे हैं। भारत की व्यवस्था न तो हादसे या घोटाले रोक पाती है और न ही इंसाफ देती नजर आती है। हमारी सियासत बस पूरे मामले में अपने हाथ काले कर लेती है और बाद में उन्हीं हाथों के पीछे मुंह भी छिपा लेती है। ..हमें कुछ सीखना चाहिए।
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Monday, May 3, 2010

ऊंटों के सर पर पहाड़

यूरोपीय बैंकरों के सपने में आज कल राबिन हुड आता है, घोड़े पर सवार, टैक्स का चाबुक फटकारता हुआ!! हेज फंड मैनेजरों को पिछले कुछ महीनों से बार-बार टोबिन टैक्स वाले जेम्स टोबिन (विदेश मुद्रा कारोबार पर टैक्स) की आवाजें सुनाई पड़ने लगी हैं!! नया कर लगाकर ओबामा अमेरिकी बैंकों के लिए उद्धारक की जगह अब मारक हो गए हैं! भारतीय रिजर्व बैंक भी विदेशी निवेशकों को टोबिन टैक्स का खौफ दिखाता है!! और पूरी दुनिया की वित्तीय संस्थाओं के प्रमुख तो अब आईएमएफ का नाम सुनकर सोते से जाग पड़ते हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष विश्व के महाकाय वित्तीय कारोबार पर टैक्स की कटार चलाने को तैयार है। ..यह बदलाव हैरतअंगेज है। उदार पूंजी के आजाद परिंदों के लिए पूरी दुनिया मिलकर तरह-तरह के जाल बुनने लगी है। हर कोई मानो वित्तीय संस्थाओं से उनकी गलतियों और संकटों की कीमत वसूलने जा रहा है। वित्तीय बाजार के सम्राट कठघरे में हैं और खुद को भारी जुर्माने व असंख्य पाबंदियों के लिए तैयार कर रहे हैं। यकीनन, एक संकट ने बहुत कुछ बदल दिया है।
और बिल कौन चुकाएगा?
वित्तीय बाजार के ऊंट अब पहाड़ के नीचे हैं। दुनिया के दिग्गज बैंकों व वित्तीय संस्थाओं की पारदर्शिता कसौटी पर है। इनके ढहते समय राजनीतिक नुकसान देखकर सरकारों ने इन्हें जो संजीवनी दी थी, अब उसका बिल वसूलने की बारी है। ताजा हिसाब बताता है कि दुनिया के भर के बैंकों व वित्तीय संस्थाओं ने डेरीवेटिव्स के खेल में करीब 1.5 ट्रिलियन डालर गंवाए हैं। जबकि बैलेंस शीट से बाहर जटिल वित्तीय सौदों का नुकसान दस ट्रिलियन डालर तक आंका जा रहा है। एक आकलन के मुताबिक संकट से पहले तक दुनिया भर बैंकों की शेयर पूंजी दो ट्रिलियन डालर के करीब थी। यानी कि बैंकों के पास घाटा है पूंजी नहीं। वित्तीय विश्लेषक मान रहे हैं कि बैंकों को उबारने पर दुनिया की सरकारें 9 ट्रिलियन डालर तक खर्च कर चुकी हैं। इस रकम को उंगलियों पर गिनना (डालरों के हिसाब में ट्रिलियन बारह शून्य वाली रकम है। रुपये में बदलने के बाद यह और बड़ी हो जाती है) बहुत मुश्किल है। बेचैनी इसलिए है कि बैंकों के साथ देश भी दीवालिया होने लगे हैं। आइसलैंड ढह गया है, संप्रभु कर्जो में डिफाल्टर बर्बाद ग्रीस को यूरोपीय समुदाय और आईएमएफ ने रो झींक कर 60 बिलियन डालर की दवा दी है। सरकारों को यह पता नहीं आगे कितनी और कीमत उन्हें चुकानी होगी। इसलिए वित्तीय खिलाडि़यों या संकट के नायकों पर नजला गिरने वाला है। दिलचस्प है कि जिस अमेरिका ने पिछले साल नवंबर में जी 20 देशों की बैठक में इस टैक्स को खारिज कर दिया था, उसी ने बैंकों पर नया कर थोप कर करीब 90 बिलियन डालर निकाल लिये है। ..अमेरिका को देखकर अब पूरी दुनिया वित्तीय कारोबार पर तरह-तरह के करों का गणित लगाने लगी है।
हमको राबिन हुड मांगता!
यूरोप के लोग वित्तीय संस्थाओं के लिए राबिन हुड छाप इलाज चाहते हैं। अमीरों से छीनकर गरीबों को बांटने वाला इलाज। आक्सफैम जैसे यूरोप के ताकतवर स्वयंसेवी संगठनों ने वित्तीय संस्थाओं पर राबिन हुड टैक्स लगाने की मुहिम चला रखी है। मांग है कि बैंकों व वित्तीय संस्थाओं के आपसी सौदों पर 0.05 फीसदी की दर से कर लगाकर हर साल करीब 400 बिलियन डालर जुटाए जाने चाहिए। पूरे प्रसंग में राबिन हुड का संदर्भ प्रतीकात्मक मगर बेहद अर्थपूर्ण है। दरअसल आंकड़ों वाली वित्तीय दुनिया भी नैतिकता के सवालों में घिरी है। अमेरिकन एक्सप्रेस, सिटीग्रुप, एआईजी, गोल्डमैन, मोरगन, बैंक आफ अमेरिका, वेल्स फार्गो से लेकर यूरोप के आरबीएस, लायड्स और बर्बादी के नए प्रतीक ग्रीस के एप्सिस बैंक तक, पूरी दुनिया का लगभग हर बड़ा बैंक दागदार है और कर्जदार है अपने देश की आम जनता का, जिसके टैक्स की रकम से इन्हें उबारा गया है। मुनाफे तो इनके अपने थे, लेकिन इनकी बर्बादी सार्वजनिक हो गई है। जाहिर है, कोई सरकार आखिर कब तक इनकी गलतियों का बोझ ढोएगी? इसलिए यह सवाल अब बडे़ होने लगे हैं कि बैंक दुनिया में सबसे ज्यादा मुनाफा कमाते हैं। यहां अन्य उद्योगों की तुलना में प्रति कर्मचारी मुनाफा 26 गुना ज्यादा है। तो फिर इन्हें अपनी बर्बादी से बचाने का बिल चुकाना चाहिए। राबिन हुड टैक्स का आंदोलन चलाने वाले कहते हैं कि यह संकट एक अवसर है। इनके अकूत मुनाफे से कुछ हिस्सा निकलेगा तो भूखे-गरीबों और बिगड़ते पर्यावरण के काम आएगा। ..यह वित्तीय सूरमाओं से प्रायश्चित कराने की कोशिश है।
गलती करने का. तो टैक्स भरने का
वित्तीय अस्थिरता का इलाज निकालने के लिए अधिकृत आईएमएफ ने ताजी रिपोर्ट में अपना फंडा साफ कर दिया है। मतलब यह कि जोगलती करें, वे टैक्स भरें। क्योंकि सरकारों के पास खैरात नहीं है। मुद्राकोष दो तरह के टैक्स लगाने की राय दे रहा है। पहला कर इस मकसद से कि आगे अगर कोई बैंक डूबे तो उसे उबारने के लिए पहले से इंतजाम हो। यह कर बैंकों की कुल देनदारियों पर लगेगा। बकौल आईएमएफ इससे हर देश को अपने जीडीपी आकारके कम से कम दो फीसदी के बराबर की राशि जुटानी होगी। अमेरिका में इससे 300 अरब डालर मिलने का आकलन है। जबकि दूसरा कर वित्तीय कामकाज कर कहा जा रहा है। यह बैंकों के अंधाधुंध मुनाफों और अधिकारियों दिए जाने वाले मोटे बोनस पर लगेगा। इसके अलावा विभिन्न देशों में वित्तीय कारोबार पर कर से लेकर विदेशी मुद्रा वापस ले जाने पर टोबिन टैक्स जैसी कई तरह की चर्चाएं हैं। अंतरराष्ट्रीय वित्तीय कारोबार का आकार (बैंक आफ इंटरनेशनल सेटलमेंट के आंकड़े के अनुसार सालाना 60 ट्रिलियन डालर का शेयर, 900 ट्रिलियन डालर का विदेशी मुद्रा, 2200 ट्रिलियन डालर का डेरीवेटिव्स, 950 ट्रिलियन डालर का ओटीसी डेरीवेटिव्स और स्वैप कारोबार) इतना बड़ा है कि छोटा सा टैक्स भी बहुत बड़ा हो जाता है। हिसाब किताब लगाने वाले कहते हैं कि विश्व का सालाना वित्तीय कारोबार पूरी दुनिया के जीडीपी से 11 गुना ज्यादा है !!! .. एक तो इतना बड़ा कारोबार, ऊपर से खतरे हजार और डूबने पर सरकार से मदद की गुहार... ओबामा लेकर गार्डन ब्राउन और एंजेला मर्केल तक सब कह रहे हैं ..बहुत नाइंसाफी है।
वित्तीय बाजार में ग्रीस की साख जंक यानी कचरा हो गई है। दीवालियेपन की दंतकथाएं बना चुका मशहूर स्पेन फिर आंच महसूस कर रहा है। इसलिए वित्तीय संस्थाएं भले ही कुनमुनाएं लेकिन माहौल उनके हक में नहीं है, क्योंकि देशों का दीवालिया होना बहुत बड़ी आपदा है। मुमकिन है कि एक माह बाद जून में कनाडा में होने वाली बैठक में जी 20 देशों के अगुआ मिलकर वित्तीय जगत के सम्राटों के लिए टैक्स की सजा मुकर्रर कर दें। कोई नहीं जानता कि बैंकों को मिलने वाली सजा बाजारों को उबारेगी या डुबाएगी? पता नहीं बैंक इन करों का कितना बोझ खुद उठायेंगे और कितना उपभोक्ताओं के सर डाल कर बच जाएंगे? ..दो साल पहले तक वित्तीय सौदों पर टैक्स व सख्ती की बात करने गंवार और पिछड़े कहाते थे, मगर आज हर तरफ पाबंदियों की पेशबंदी है। पता नहीं तब का खुलापन सही था या आज की पाबंदी। असमंजस में फंसी दुनिया अपने नाखून चबा रही है। ..बाजार की जबान में सब कुछ बहुत 'वोलेटाइल' है। ..''देखे हैं हमने दौर कई अब खबर नहीं, पैरों तले जमीन है या आसमान है।''
अन्‍यर्थ .... http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच)