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Monday, November 7, 2016

देसी मिसाइल, चीनी पटाखे

 छोटे कारखाने ही चीन की ताकत हैं जबकि हमारा भव्य मेक इन इंडिया छोटी इकाइयों को ताकत तो दूरकारोबारी इज्जत भी नहीं दे सका.

रेलू फर्नीचर, प्लास्टिक के डिब्बे, मुलायम खिलौने या छाते बनाने के लिए अरबों डालर के निवेश की जरूरत नहीं होती. दीवाली के रंगीन बल्ब, पंखे या घडिय़ां बनाने के लिए पेटेंट वाली तकनीक नहीं चाहिए. दुनिया के किसी देश में सैमसंग, माइक्रोसॉफ्ट, अंबानी, सिमेंस, टाटा, अडानी, सोनी या उनके समकक्ष पटाखे, क्रॉकरी, तौलिये, पेन, कैल्कुलेटर आदि नहीं बनाते. उस चीन में भी नहीं जिसे इस दीवाली हम जमकर बिसूरते रहे. दुनिया के प्रत्येक बड़े मुल्क की तरह चीन में भी इन चीजों का निर्माण छोटी इकाइयां ही करती हैं. यही छोटी ग्रोथ फैक्ट्रीज ही मेड इन चाइना की ग्लोबल ताकत हैं जबकि दूसरी तरफ हमारा भव्य मेक इन इंडिया है जो छोटी इकाइयों को ताकत तो दूर, कारोबारी इज्जत भी नहीं बख्श सका.

बीते सप्ताह भारत में पटाखा क्रांतिकारी जिस समय सोशल नेटवर्कों पर बता रहे थे कि किस तरह भारत में मेड इन चाइना लट्टू-पटाखों के बहिष्कार से चीन कांप उठा है! ठीक उसी दौरान वर्ल्ड बैंक ने दुनिया में कारोबार करने के लिए आसान (ईज ऑफ डूइंग बिजनेस) देशों की रैंकिंग जारी की. सरकार ने पिछले दो साल में सारे कुलाबे मिला दिए लेकिन कारोबार की सहजता में भारत की रैंकिंग बमुश्किल एक अंक ऊपर (131 से 130) जा सकी. भारत की इस घटिया रैंकिंग का चीन से सस्ते आयात से बहुत गहरा रिश्ता है. इसे समझने के लिए बहिष्कारों की नाटकबाजी के बजाए बाजार की हकीकत से आंख मिलाना जरूरी है.

भारत में औसत मासिक खपत में अब लगभग 70 फीसदी उत्पाद मैन्युफैक्चरिंग के हैं. फल, दूध, सब्जी जैसे कच्चे सामान भी मैन्युफैक्चरिंग (पैकेजिंग, परिवहन, प्रोसेसिंग) की मदद के बिना हम तक नहीं पहुंचते. कारें, फ्रिज, टीवी, मोबाइल रोज की खरीद नहीं हैं अलबत्ता हमारे उपभोग खर्च का सबसे बड़ा हिस्सा जिन उत्पादों (कॉस्मेटिक्स, सस्ते इलेक्ट्रॉनिक्स, गारमेंट्स) में जाता है, वे सामान्य तकनीक से बनते हैं. कीमतों का प्रतिस्पर्धात्मक होना ही इनकी सफलता का आधार है जो बाजारों के करीब इकाइयां लगाकर और प्रोसेस व पैकेजिंग इनोवेशन के जरिए हासिल किया जाता है. चीन से 61 अरब डॉलर के आयात में करीब एक-तिहाई ऐसे ही उत्पाद हैं जिन्हें छोटी इकाइयां, भारत से 50 फीसदी तक कम कीमत पर बना लेती हैं.

सामान्य तकनीक और मामूली इनोवेशन वाले इन उत्पादों को हम क्यों नहीं बना सकते? इसका जवाब हमें विश्व बैंक की उस रैंकिंग में मिलेगा सरकार जिसे निगलने में हांफ रही है. 189 देशों के बीच रैंकिंग में भारत का 130वां दर्जा भारत में कारोबारी कठिनता का अधूरा सच है. पूरे सच के लिए उन दस पैमानों को देखना होगा जिन पर यह रैंकिंग बनती है. कारोबार शुरू करने की सुविधा में भारत की रैंकिंग 155वीं है, जो पाकिस्तान से भी खराब है. भारत के बाद इस रैंकिंग में गाजा, वेस्ट बैंक, लीबिया आदि आते हैं. इसी तरह भवन निर्माण की  मंजूरी में भारत की रैंकिंग 185वीं और टैक्स में 172वीं है.

हमें सवाल पूछना चाहिए कारोबार शुरू करने में मुसीबत कौन झेलता है? इंस्पेक्टर राज, टैक्स, बिजली कनेक्शन, कर्ज लेना किसके लिए मुश्किल है? ईज ऑफ डूइंग बिजनेस किसे चाहिए, छोटी इकाइयों के लिए जिनसे सस्ते आयात का विकल्प निकलना है या फिर मेक इन इंडिया के झंडे लेकर खड़ी सौ-दो सौ कंपनियों के लिए जिनके लिए हर राज्य में लाल कालीन बिछे हैं? यह जानते हुए भी बड़ी कंपनियां सभी राज्यों में निवेश नहीं करेंगी, मुख्यमंत्री झुककर दोहरे हुए जा रहे हैं. कोई मुख्यमंत्री छोटी कंपनियों के लिए कोई निवेश मेला लगाता नहीं दिखता.

पिछले दो दशकों के दौरान भारत में बड़ी कंपनियों का अधिकांश निवेश दो तरह के क्षेत्रों में आया है. एकजहां प्राकृतिक संसाधन का लाइसेंस मिलने की सुविधा है, जैसे कोयला, स्पेक्ट्रम, खनिज आदि. दोजहां प्रतिस्पर्धा बढऩे की संभावनाएं सीमित हैं और तकनीक या भारी उत्पादन क्षमता के जरिए बाजार का बड़ा हिस्सा लेने का मौका है, मसलन ऑटोमोबाइल, सॉफ्टवेयर, स्टील, सीमेंट आदि.

यकीनन, भारत को बड़े निवेश चाहिए और मिल भी रहे हैं लेकिन मुसीबत यह है कि बाल्टियां, पटाखे, गुब्बारे, खिलौने, बर्तन कौन बनाएगा और वह भी आयात से कम लागत पर. कोई अंबानी, अडानी, सैमसंग तो इन्हें बनाने से रहा. भारत के अलग हिस्सों में असंख्य उत्पादन क्षमताएं चाहिए जो बड़े पैमाने पर सामान्य तकनीक वाले उत्पाद बना सकें और देश के हर छोटे-बड़े बाजार तक पहुंचा सकें ताकि 125 करोड़ की आबादी अपनी सामान्य उत्पादों और उपभोग खपत के लिए आयात पर निर्भर न रहे. यह काम केवल छोटी इकाइयां कर सकती हैं क्योंकि उनके पास ही कम लागत पर उत्पादन का आर्थिक उत्पादन और मांग के मुताबिक तेजी से इनोवेशन की सुविधा है.

छोटी इकाइयां आत्मनिर्भरता और महंगाई पर नियंत्रण के लिए ही जरूरी नहीं हैं बल्कि बड़ी इकाइयों में बढ़ते ऑटोमेशन और रोबोटिक्स के बीच अधिकांश रोजगार भी यहीं से आने हैं. चीन के 80 फीसदी रोजगार छोटे उद्योगों में हैं यानी उन वस्तुओं के निर्माण से आते हैं जिनके बहिष्कार का नाटक हमने किया था.

हमें इस सच को स्वीकार करना होगा कि भारत में छोटे उद्योगों की बीमारी बहुत बड़ी हो चुकी है. छोटे कारोबारियों के लिए भारत दुनिया का सबसे कठिन देश है, यही वजह है कि ज्यादातर छोटे उद्यमी आयातित सामान के ट्रेडर या बड़ी कंपनियों के वितरक हो चले हैं. हमें मानना चाहिए कि मेक इन इंडिया हमें रोजगार और निवेश नहीं दे सका है और ईज ऑफ डूइंग बिजनेस का पाखंड केवल चुनिंदा बड़ी कंपनियों तक सीमित रह गया है.

यदि हमें चीन से सस्ते आयात का मुकाबला करना है तो मेक इन इंडिया का पूरा मजमून बदलना होगा. हमें चीन से चिढऩा नहीं बल्कि सीखना होगा जो अपनी छोटी कंपनियों को माइक्रोमल्टीनेशनल में बदल रहा है. उदारीकरण के 25 बरस बाद अब भारत को दस बड़े ग्लोबल ब्रांड के बजाए पांच सौ छोटे देसी ब्रांड चाहिए, नहीं तो हमें इस असंगति के साथ जीना पड़ेगा कि दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था मिसाइल तो बना सकती हैं लेकिन पटाखों के लिए हम चीन पर निर्भर हैं. 




Wednesday, February 24, 2016

तीस बनाम सत्तर




थ्री स्पीड इकोनॉमी एक अजीब तरह की विकलांगता है जिसे संभालने के लिए सूक्ष्म उपायों की जरूरत है.

स्सी के दशक वाली रीगनॉमिक्स के पुरोधा और ट्रिकल डाउन थ्योरी के प्रवर्तक आज के भारत में आ जाएं तो उन्हें शायद एक नई थ्योरी की ईजाद करनी होगी जिसे ट्रिकल अप थ्योरी कहेंगे. ट्रिकल डाउन थ्योरी वाले कहते थे कि समाज के ऊपरी तबके यानी उद्योग-कारोबार को रियायतें देकर मांग बढ़ाई जा सकती है जो निचले तबके तक रोजगार व कमाई पहुंचाएगी. लेकिन इस सिद्धांत के पुरोधाओं को आज के भारत में यह साबित करने में कतई दिक्कत नहीं होगी कि कभी-कभी किसी देश की इकोनॉमी में ग्रोथ ऊपर से नीचे नहीं बल्कि नीचे से ऊपर चल देती है, जहां एक विशाल अर्थव्यवस्था की ग्रोथ इसके सबसे बड़े हिस्सों को छोड़कर मुट्ठी भर धंधों में सिमट जाती है भारतीय अर्थव्यवस्था अब एक थ्री स्पीड इकोनॉमी है, जिसमें तेज ग्रोथ अर्थव्यवस्था के ऊपरी 30 फीसदी हिस्से में रह गई है, जहां ई- कॉमर्स, ट्रैवेल, स्टॉक मार्केट आदि है. उद्योगों वाला दूसरा 30 फीसदी हिस्सा इकाई की ग्रोथ में है और खेती, भवन निर्माण आदि का तीसरा हिस्सा तो पूरी तरह नकारात्मक ग्रोथ में है. यह परिदृश्य देश में पहली बार देखा गया है. जो एक जगह ग्रोथ बनाए रखने, दूसरी जगह बढ़ाने और तीसरी जगह ग्रोथ वापस लाने की बेहद पेचीदा चुनौती लेकर पेश हुआ है. इस चुनौती की रोशनी में 2016 का बजट बड़ा संवेदनशील हो जाता है.
तीन अलग-अलग रफ्तारों वाली अर्थव्यवस्था के इस माहौल को समझना जरूरी है क्योंकि इस परिदृश्य पर अगले एक-दो साल की ग्रोथ, निवेश और रोजगारों का बड़ा दारोमदार है. मुंबई की रिसर्च फर्म एम्बिट कैपिटल का ताजा अध्ययन थ्री स्पीड इकोनॉमी को गहराई से समझने में हमारी मदद करता है. यह अध्ययन जीडीपी में योगदान करने वाले विभिन्न हिस्सों के ग्रोथ के आंकड़ों पर आधारित है. अर्थव्यवस्था में सबसे तेज दौडऩे वाले तीन क्षेत्रों में तेज रफ्तार वाला पहला हिस्सा वह है जिसमें परिवहन (खास तौर पर एविऐशन), होटल, कॉमर्शियल प्रॉपर्टी, ई-कॉमर्स और कारोबारी सेवाएं आती हैं. दो अंकों की गति से दौड़ रहे इस क्षेत्र का जीडीपी में 30 फीसदी हिस्सा है. गौर तलब है कि भले ही भवन निर्माण उद्योग में मंदी हो लेकिन कॉमर्शियल प्रॉपर्टी बिक रही है. ठीक इसी तरह उपभोक्ता वस्तुओं के बाजार में मंदी के बावजूद ई-कॉमर्स में सक्रियता है. इस तेज दौडऩे वाली अर्थव्यवस्था में वेंचर कैपिटल और पीई फंड के जरिए निवेश आया है. इसके अलावा ऊंची आय वाले निवेशक भी इसमें सक्रिय हैं. इस हिस्से में जल्दी मंदी की उम्मीद भी नहीं है.
मझोली गति वाला दूसरा हिस्सा भी जीडीपी में 30 फीसदी का हिस्सेदार है. एम्बिट का अध्ययन बताता है कि इसमें वाणिज्यिक वाहन यानी ऑटोमोबाइल, मैन्युफैक्टरिंग, आवासीय भवन निर्माण और खनन क्षेत्र आते हैं. इस क्षेत्र में इकाई की गति से मरियल ग्रोथ दर्ज हो रही है. यहां कर्ज में दबी कंपनियां बैलेंसशीट रिसेसशन से जूझ रही हैं, जिसमें कर्ज के कारण नया कॉर्पोरेट निवेश नहीं हो पाता. इसलिए मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र के कुछ हिस्सों में मामूली ग्रोथ दिखती है. जैसे पिछली दो तिमाहियों में बंदरगाह परिवहन और रेलवे माल भाड़े की ढुलाई में स्थिरता है जबकि कोयला व बिजली में गिरावट दर्ज की गई है.
शून्य या नकारात्मक ग्रोथ वाला तीसरा हिस्सा खेती, समग्र भवन व इन्फ्रास्ट्रक्चर निर्माण, प्रशासनिक सेवाएं व बैंकिंग है. इन सबका जीडीपी में हिस्सा 40 फीसदी है. सरकारी खर्च, सीमेंट, स्टील आदि की मांग व उत्पादन और आय व रोजगारों में वृद्धि के आंकड़े साबित करते हैं कि इन चार क्षेत्रों में हालत सबसे बुरी है. तीन फसलों की बर्बादी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था में संकट के चलते ग्रामीण मजदूरी की वृद्धि दर 2013-15 के 13.7 फीसदी से घटकर अब -5.5 फीसदी पर आ गई है. बैंकों की हालत बुरी है, मुनाफे गोता खा रहे हैं और कर्ज की मांग पूरी तरह खत्म हो चुकी है. दूसरी तरफ सरकारी खर्च में कटौती के कारण बुनियादी ढांचा निवेश न बढऩे से सीमेंट स्टील की मांग नहीं बढ़ी है. गैर बिके मकानों की भीड़ और प्रॉपर्टी मूल्यों में तेज गिरावट बताती है कि रियल एस्टेट में निवेश का बुलबुला फूट गया है. 
थ्री स्पीड इकोनॉमी ने गवर्नेंस और नीतिगत स्तर पर दो तरह की असंगतियां पैदा की हैं. इसने सरकार को भ्रमित कर दिया है. पिछले दो बजट इसी असमंजस में बीत गए कि दौड़ते को और दौड़ाया जाए, फिर उसके सहारे मंदी दूर की जाए या फिर असली मंदी से सीधे मुठभेड़ की जाए. दूसरी असंगति यह है कि जीडीपी के 30 फीसदी हिस्से में चमक और 70 फीसदी में सुस्ती के कारण अर्थव्यवस्था की सूरते-हाल को बताने वाले आंकड़ों को लेकर गहरी ऊहापोह है.
थ्री स्पीड इकोनॉमी की सबसे व्यावहारिक मुश्किल यह है कि अर्थव्यवस्था के जिस 70 फीसदी हिस्से में सुस्ती या गहरी मंदी छाई है उसमें खेती, भवन निर्माण और मैन्युफैक्चरिंग आते हैं जो रोजगारों का सबसे बड़े स्रोत हैं. सिर्फ 30 फीसदी अर्थव्यवस्था की चमक 'सूट-बूट की सरकार' जैसी राजनैतिक बहसों को ताकत दे रही और आर्थिक गवर्नेंस को दकियानूसी सब्सिडीवाद की तरफ धकेल रही है जो और बड़ी समस्या है.
इस तीन रफ्तार वाली अर्थव्यवस्था के बाद हमें जीडीपी को खेती, उद्योग, सेवा क्षेत्रों में बांटकर देखना बंद करना चाहिए और उन मिलियन इकोनॉमीज को देखना होगा जो इन तीन बड़े हिस्सों में भीतर छिपी हैं और मंदी, ग्रोथ व रोजगार में नायक व प्रतिनायक की भूमिका निभा रही हैं.
थ्री स्पीड इकोनॉमी एक अजीब तरह की विकलांगता है जिसे संभालने के लिए सूक्ष्म उपायों की जरूरत है. यकीनन इस तरह की आर्थिक चुनौतियों के इलाज एकमुश्त बजटीय रामबाण में नहीं बल्कि छोटे-छोटे उपायों में छिपे हैं जो सरकार से मैक्रो मैनेजमेंट छोड़कर विशेषज्ञों की तरह क्षेत्र विशेष के इलाज की अपेक्षा रखते हैं. अरुण जेटली, हाल के इतिहास में पहले वित्त मंत्री होंगे जो इस तरह की पेचीदा ग्रोथ गणित से मुकाबिल हैं. इस समस्या के समाधान से पहले उन्हें 2016 के बजट में यह साबित करना होगा कि सरकार समस्या को समझ भी पा रही है या नहीं. चलिए, बजट का इंतजार करते हैं.


Monday, January 19, 2015

भूमिहीन मेक इन इंडिया

जमीन की सहज सप्लाई में वरीयता किसे मिलनी चाहिएनिरंतर रोजगार देने वाले मैन्युफैक्चरर को या फिर दिहाड़ी रोजगार देने वाले ‘‘बॉब द बिल्डर’’ को?
दि आप मामूली यूएसबी ड्राइव बनाने की फैक्ट्री लगाना चाहते हैं, जो चीन से इस कदर आयात होती हैं कि सरकार के मेक इन इंडिया का ब्योरा भी पत्रकारों को चीन में बनी पेन ड्राइव में दिया गया था, तो जमीन हासिल करने के लिए आपको कांग्रेसी राज के उसी कानून से जूझना होगा, जो वित्त मंत्री अरुण जेटली के मुताबिक इक्कीसवीं सदी की जरूरतों के माफिक नहीं है. अलबत्ता अगर आप सरकार के साथ मिलकर एक्सप्रेस-वे, इंडस्ट्रियल पार्क अथवा लग्जरी होटल-हॉस्पिटल बनाना चाहते हैं तो नए अध्यादेश के मुताबिक, आपको किसानों की सहमति या परियोजना के जीविका पर असर को आंकने की शर्तों से माफी मिल जाएगी. यह उस बहस की बानगी है जो वाइब्रेंट गुजरात और बंगाल के भव्य आयोजनों के हाशिए से उठी है और निवेश के काल्पनिक आंकड़ों में दबने को तैयार नहीं है. इसे मैन्युफैक्चरिंग बनाम इन्फ्रास्ट्रक्चर की बहस समझने की गलती मत कीजिए, क्योंकि भारत को दोनों ही चाहिए. सवाल यह है कि जमीन की सहज सप्लाई में वरीयता किसे मिलनी चाहिए, निरंतर रोजगार देने वाले मैन्युफैक्चरर को या फिर दिहाड़ी रोजगार देने वाले ‘‘बॉब द बिल्डर’’ को? मेक इन इंडिया के तहत तकनीक, इनोवेशन लाने वाली मैन्युफैक्चरिंग को या टोल रोड बनाते हुए, कॉलोनियां काट देने वाले डेवलपर को?
जमीनें जटिल संसाधन हैं. एक के लिए यह विशुद्ध जीविका है तो दूसरे के लिए परियोजना का कच्चा माल है जबकि किसी तीसरे के लिए जमीनें मुनाफे का बुनियादी फॉर्मूला बन जाती हैं. जमीन अधिग्रहण के नए कानून और उसमें ताबड़तोड़ बदलावों ने इन तीनों हितों का संतुलन बिगाड़ दिया है. पुराने कानून (1894) के तहत मनमाने अधिग्रहण होते थे जिनमें किसानों को पर्याप्त मुआवजा भी नहीं मिलता था. पिछली सरकार ने विपह्न की सहमति से नए कानून में 21वीं सदी का मुआवजा तो सुनिश्चित कर दिया लेकिन नया कानून किसानों की सियासत पर केंद्रित था इसलिए विकास के लिए जमीन की सप्लाई थम गई. बीजेपी ने अध्यादेशी बदलावों से कानून को जिस तरह उदार किया है उससे फायदे चुनिंदा निवेशकों की ओर मुखातिब हो रहे हैं, जिससे जटिलताओं की जमीन और कडिय़ल हो जाएगी. 
खेती के अलावा, जमीन के उत्पादक इस्तेमाल के दो मॉडल हैं. एक बुनियादी ढांचा परियोजनाएं है जहां जमीन ही कारोबार व मुनाफे का बुनियादी आधार है. दूसरा ग्राहक मैन्युफैक्चरिंग है जहां निवेशकों के लिए भूमि, परियोजना की लागत का हिस्सा है, क्योंकि फैक्ट्री का मुनाफा तकनीक और प्रतिस्पर्धा पर निर्भर है. सड़क, बिजली, आवास, एयरपोर्ट की बुनियादी भूमिका और जरूरत पर कोई विवाद नहीं हो सकता लेकिन स्वीकार करना होगा कि सरकारी नीतियां इन्फ्रास्ट्रक्चर ग्रंथि की शिकार भी हैं. आर्थिक विकास की अधिकांश बहसें बुनियादी ढांचे की कमी से शुरू होती हैं. रियायतों, कर्ज सुविधाओं और परियोजनाओं में सरकार की सीधी भागीदारी (पीपीपी-सरकारी गारंटी जैसा है) का दुलार भी महज एक दर्जन उद्योग या सेवाओं को मिलता है. सरकार की वरीयता बैंकों की भी वरीयता है इसलिए, इन्फ्रास्ट्रक्चर और पीपीपी परियोजनाओं में भारी कर्ज फंसा है.
संशोधित भूमि अधिग्रहण कानून से जमीन की सप्लाई में आसानी होगी लेकिन सिर्फ इन्फ्रास्ट्रक्चर उद्योगों के लिए. इन उद्योगों में चार गुना कीमत देकर खरीदी गई जमीन से भी मुनाफा कमाना संभव है क्योंकि मकान, एयरपोर्ट और एक्सप्रेस-वे इत्यादि बनाने में जमीन के कारोबारी इस्तेमाल की अनंत संभावनाएं हैं. अलबत्ता मैन्युफैक्चरिंग उद्योग के लिए सस्ती जमीन तो दूर, उन्हें वह सभी शर्तें माननी होंगी, जिनसे इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलपर को मुक्ति मिल गई है. इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए सुविधाएं और रियायतें पहले से हैं, मैन्युफैक्चरिंग को लेकर उत्साह, मोदी के मेक इन इंडिया अभियान के बाद बढ़ा है. मैन्युफैक्चरिंग स्थायी और प्रशिक्षित रोजगार लाती है जबकि कंस्ट्रक्शन उद्योग दैनिक और अकुशल श्रमिक खपाता है. निवेशक यह समझ रहे थे कि सरकार स्थायी नौकरियों को लेकर गंभीर है इसलिए मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा मिलेगा. ध्यान रखना जरूरी है कि मैन्युफैक्चरिंग के दायरे में सैकड़ों उद्योग आते हैं जबकि जिन उद्योगों के लिए कानून उदार हुआ है, वहां मुट्ठी भर बड़ी कंपनियां ही हैं. इसलिए बदलावों का फायदा चुनिंदा उद्योगों और कंपनियों के हक में जाने के आरोप बढ़ते जाएंगे.

बीजेपी की मुश्किल यह है कि पिछले भूमि अधिग्रहण कानून में कई बदलाव सुमित्रा महाजन, वर्तमान लोकसभा अध्यक्ष, के नेतृत्व वाली संसदीय समिति की सिफारिश से हुए थे. सर्वदलीय बैठकों से लेकर संसद तक बीजेपी ने बेहद सक्रियता के साथ जिस नए भूमि अधिग्रहण कानून की पैरवी की, नए संशोधन उसके विपरीत हैं. कांग्रेस सरकार ने नए कानून पर सर्वदलीय सहमति बनाई थी, बीजेपी ने तो इन संवेदनशील बदलावों से पहले सियासी तापमान परखने की जरूरत भी नहीं समझी. दरअसल, मोदी सरकार भूमि अधिग्रहण कानून को तर्कसंगत बनाने का मौका चूक गई है. मैन्युफैक्चरिंग सहित अन्य उद्योगों को इसमें शामिल कर कानून को व्यावहारिक बनाया जा सकता था ताकि रोजगारपरक निवेश को प्रोत्साहन मिलता. वैसे भी इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए जमीन का  व्यापक और एकमुश्त अधिग्रहण चाहिए जिनमें समय लगता है. मैन्युफैक्चरिंग के लिए जमीन की आपूर्ति बढ़ाकर रोजगार सृजन के सहारे विरोध के मौके कम किए जा सकते थे. कांग्रेस ने नया कानून बनाते हुए और बीजेपी ने इसे बदलते हुए इस तथ्य की अनदेखी की है कि जमीन का अधिकतम उत्पादक इस्तेमाल बेहद जरूरी है. कांग्रेस का भूमि अधिग्रहण कानून, विकास की जरूरतों के माफिक नहीं था लेकिन बीजेपी के बदलावों के बाद यह न तो मेक इन इंडिया के माफिक रहा है और न किसानों के. भूमि अधिग्रहण कानून 21वीं सदी का तो है मगर न किसान इसके साथ हैं और न बहुसंख्यक उद्योग. अब आने वाले महीनों में जमीनें विकास और रोजगार नहीं, सिर्फ राजनीति की फसल पैदा करेंगी.

Monday, December 24, 2012

मोदी का डर

गुजरात की वोटिंग मशीनें से जिस दिन चुनाव का नतीजा उगलने वालीं थीं ठीक उसके एक दिन पहले , मारुति सुजुकी ने गुजरात में 500 एकड़ जमीन का नया पट्टा मिला और मारुति ने हरियाणा में नए निवेश से तौबा कर ली। नवंबर के आखिरी सप्‍ताह में जब गुजरात चुनाव प्रचार की गरमी से तप रहा था तब तमिलनाडु के कपड़ा उद्यमी गुजरात में नया ठिकाना बनाने की तैयारी में जुटे थे। अगस्त में जब कांग्रेस व भाजपा चुनाव की बिसात बिछा रहे थे तब नोएडा के उद्यमी के गुजरात सरकार को पत्र लिखकर मेहसाणा में जगह मांग रहे थे और सितंबर में जब चुनावी प्रत्‍याशियों का गुणा भाग चल रहा था तब पंजाब का फास्‍टनर उद्योग गुजरात में 1000 करोड़ रुपये का क्‍लस्‍टर बिठाने की जुगाड़ में था। ..... नरेंद्र दामोदरदास मोदी की तीसरी जीत से डरना चाहिए, अल्‍पसंख्‍यकों को नहीं बल्कि भूपिंदर सिंह हुड्डा, जयललिता, अखिलेश यादवों और प्रकाश सिंह बादलों को। नए निवेशकों का पसंद तो अलग गुजरात, अगले पांच साल में पता नहीं देश के कितने सूबों में जमे जमाये  औ़द्योगिक इलाकों को वीरान कर देगा। यदि तरक्‍की, निवेश और रोजगार ही चुनावी सफलता का नया मंत्र हैं तो  नरेंद्र मोदी अब कई राज्‍यों के मुख्‍यमंत्रियों के सबसे बड़े सियासी दुशमन हैं।
किसकी जीत 
मोदी की तारीफों के तूफान से बाहर निकलना जरुरी है ताकि गुजरात पर आर्थिक राजनीति के नए संदर्भों की रोशनी डाली जा सके। आर्थिक विकास के समग्र राष्‍ट्रीय परिप्रेक्ष्‍य में गुजरात की सफलता दरअसल शेष भारत की गहरी विफलता है। आर्थिक उदारीकरण के दूसरे दशक में औद्योगिक निवेश का जो राष्‍ट्रीय बंटवारा हुआ उसमें गुजरात को बड़ा हिस्‍सा मिला है। विकास का यह असंतुलन अंतत: उन राजयों के सामाजिक, आर्थिक ढांचे पर पर भारी पड़ा जो तरक्‍की के मुकाबले गुजरात से खेत