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Sunday, March 19, 2023

चीन का सबसे सीक्रेट प्‍लान


 

 

चीन ने अपनी नई बिसात पर पहला मोहरा तो इस सितंबर में ही चल दिया था, उज्‍बेकिस्‍तान के समरकंद में शंघाई कोआपरेशन ऑर्गनाइजेशन की बैठक की छाया में चीन, ईरान और रुस ने अपनी मुद्राओं में कारोबार का एक अनोखा त्र‍िपक्षीय समझौता किया.  यह  अमेरिकी  डॉलर के वर्चस्‍व को  चुनौती देने के लिए यह पहली सामूहिक शुरुआत थी. इस पेशबंदी की धुरी है  चीन की मुद्रा यानी युआन.

नवंबर में जब पाकिस्‍तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ के बीज‍िंग में थे चीन और पाकिस्‍तान के केंद्रीय बैंकों ने युआन में कारोबार और क्‍ल‍ियर‍िंग के लिए संध‍ि पर दस्‍तखत किये. पाकिस्‍तान को चीन का युआन  कर्ज और निवेश के तौर पर मिल रहा है. पाक सरकार इसके इस्‍तेमाल से  रुस से तेल इंपोर्ट करेगी.

द‍िसंबर के दूसरे सप्‍ताह में शी जिनप‍िंग सऊदी अरब की यात्रा पर थे. चीन, सऊदी का अरब का सबसे बडा ग्राहक भी है सप्‍लायर भी. दोनों देश युआन में तेल की खरीद‍ बिक्री पर राजी हो गए. इसके तत्‍काल बाद जिनपिंग न गल्‍फ कोआपरेशन काउंस‍िल की बैठक में शामिल हुए  जहां उन्‍होंने शंघाई पेट्रोलियम और गैस एक्‍सचेंज में युआन में तेल कारोबार खोलने का एलान कर दिया.

डॉलर के मुकाबिल कौन

डॉलर को चुनौती देने के लिए युआन की तैयार‍ियां सात आठ सालह पहले शुरु हुई थीं केंद्रीय बैंक के तहत  युआन इंटरनेशनाइलेजेशन का एक विभाग है. जिसने 2025 चीनी हार्ब‍िन बैंक और रुस के साबेर बैंक से वित्‍तीय सहयोग समझौते के साथ युआन के इंटरनेशनलाइजेशन की मुहिम शुरु की थी. इस समझौते के बाद दुनिया की दो बड़ी अर्थव्‍यवस्थाओं यानी रुस और चीन के बीच रुबल-युआन कारोबार शुरु हो गया. इस ट्रेड के लिए हांगकांग में युआन का एक क्‍ल‍ियर‍िंग सेंटर बनाया गया था.

2016 आईएमएफ ने युआन को इस सबसे विदेशी मुद्राओं प्रीम‍ियम क्‍लब एसडीआर में शामिल कर ल‍िया.  अमेरिकी डॉलर, यूरो, येन और पाउंड इसमें पहले से शामिल हैं. आईएमएफ के सदस्‍य एसडीआर का इस्‍तेमाल करेंसी के तौर पर करते हैं.

चीन की करेंसी व्‍यवस्‍था की साख पर गहरे सवाल रहे हैं  लेक‍िन कारोबारी ताकत के बल पर एसडीआर  टोकरी में चीन का हिस्‍सा, 2022 तक छह साल में करीब 11 फीसदी बढ़कर 12.28  फीसदी हो गया.

कोविड के दौरान जनवरी 2021 में चीन के केंद्रीय बैंक ने ग्‍लोबल इंटरबैंक मैसेजिंग प्‍लेटफार्म स्‍व‍िफ्ट से करार किया. बेल्‍ज‍ियम का यह संगठन दुनिया के बैंकों के बीच सूचनाओं का तंत्र संचालित करता है  इसके बाद चीन में स्‍व‍िफ्ट का डाटा सेंटर बनाया गया.

चीन ने  बैंक ऑफ इंटरनेशनल सेटलमेंट के लिक्‍व‍िड‍िटी कार्यक्रम के तहत इंडोन‍िश‍िया, मलेश‍िया, हांगकांग , सिंगापुर और चिली के साथ मिलकर 75 अरब युआन का फंड भी बनाया है जिसका इस्‍तेमाल कर्ज परेशान देशों की मदद के लिए  के लिए होगा.

ड‍ि‍ज‍िटल युआन का ग्‍लोबल प्‍लान

इस साल जुलाई में चीन शंघाई, गुएनडांग, शांक्‍सी, बीजिंग, झेजियांग, शेनजेन, क्‍व‍िंगादो और निंग्‍बो सेंट्रल बैंक डि‍ज‍िटल युआन पर केंद्र‍ित एक पेमेंट सिस्‍टम की परीक्षण भी शुरु कर दिया. यह सभी शहर चीन उद्योग और व्‍यापार‍ के केंद्र हैं. इस प्रणाली से विदेशी कंपनियां को युआन में भुगतान और निवेश की सुपिवधा देंगी. यह अपनी तरह की पहला ड‍ि‍ज‍िटल करेंसी क्‍ल‍ियरिंग सिस्‍टम है हाल में ही बीजिंग ने ने हांगकांग, थाईलैंड और अमीरात के साथ  डिजिटल करेंसी में लेन देन के परीक्षण शुरु कर दिये हैं.

पुतिन भी चाहते थे मगर ...

2014 में यूक्रेन पर शुरुआती हमले के बाद जब अमेरिका ने प्रतिबंध  लगाये थे तब रुस ने डॉलर से अलग रुबल में कारोबार बढाने के प्रयास शुरु किये थे. और 2020 तक अपने विदेशी मुद्रा भंडार में अमेरिकी डॉलर का हिस्‍सा आधा घटा दिया. जुलाई 2021 में रुस के वित्‍त मंत्री ने एलान किया कि डॉलर आधार‍ित विदेशी कर्ज को पूरी तरह खत्‍म किया जाएगा. उस वक्‍त तक यह कर्ज करीब 185 अरब डॉलर था.

रुस ने 2015 में अपना क्‍लियरिंग सिस्‍टम मीर बनाया.  यूरोप के स्‍व‍िफ्ट के जवाब मे रुस ने System for Transfer of Financial Messages (SPFS) बनाया है जिसे दुनि‍या के 23 बैंक जुड़े हैं.

अलबत्‍ता युद्ध और कड़े प्रतिबंधों से रुबल की आर्थि‍क ताकत खत्‍म हो गई. रुस अब युआन की जकड़ में है. ताजा आंकडे बताते हैं कि रुस के विदेशी मुद्रा भंडार में युआन का हिस्‍सा करीब 17 फीसदी है. चीन फ‍िलहाल रुस का सबसे बड़ा तेल गैस ग्राहक और संकटमोचक है.

यूरोप की कंपनियों की वि‍दाई के बाद चीन की कंपनियां रुस में सस्‍ती दर पर खन‍िज संपत्‍त‍ियां खरीद रही हैं.रुस का युआनाइेजशन शुरु हो चुका है.

भारत तीसरी अर्थव्‍यवस्‍था है जिसने अपनी मुद्रा यानी रुपये में कारोबार भूम‍िका बना रहा है. रुस पर प्रतिबंधों के कारण  भारतीय बैंक दुव‍िधा में हैं. भारत सबसे बड़े आयातक (तेल गैस कोयला इलेक्‍ट्रानिक्‍स) जिन देशों से होते हैं वहां भुगतान अमेरिकी डॉलर में ही होता है.

 

युआन की ताकत

 युआन ग्‍लोबल करेंसी बनने की शर्ते पूरी नहीं करता. लेक‍िन यह  चीन की मुद्रा कई देशों के लिए वैकल्पि‍क भुगतान का माध्‍यम बन रही है. चीन के पास दो बडी ताकते हैं. एक सबसे बडा आयात और निर्यात और दूसरा गरीब देशों को देने के लिए कर्ज. इन्‍ही के जरिये युआन का दबदबा बढा है. 

चीन के केंद्रीय बैंक का आंकड़ा बताता है कि युआन में व्‍यापार भुगतानों में सालाना 15 फीसदी की बढ़ोत्‍तरी हो रही है. 2021 में युआन में गैर वित्‍तीय लेन देन करीब 3.91 ट्र‍िल‍ियन डॉलर पर पहुंचा गए हैं. 2017 से युआन के बांड ग्‍लोबल बांड इंडेक्‍स का हिस्‍सा हैं. प्रतिभूत‍ियों में निवेश में युआन का हिस्‍सा 2017 के मुकाबले दोगुना हो कर 20021 में 60 फीसदी हो गया है.

दूसरे विश्‍व युद्ध के बाद से अमेर‍िकी डॉलर व्‍यापार और निवेश दोनों की केंद्रीय करेंसी रही है. अब चीन दुन‍िया का सबसे बड़ा व्‍यापारी है इसलिए बीते दो बरस में चीन के केंद्रीय बैंक ने यूरोपीय सेंट्रल बैंक, बैंक ऑफ इंग्‍लैंड, सिंगापुर मॉनेटरी अथॉरिटी, जापान, इंडोनेश‍िया, कनाडा, लाओस, कजाकस्‍तान आद‍ि देशों के साथ युआन में क्‍ल‍िर‍िंग और स्‍वैप के करार किये हैं.दुनिया के केंद्रीय बैकों के रिजर्व में युआन का हिस्‍सा बढ़ रहा है.

इस सभी तैयार‍ियों के बावजूद चीन की करेंसी व्‍यवस्‍था तो निरी अपारदर्शी है फिर भी क्‍या दुनिया चीन की मुद्रा प्रणाली पर भरोसे को तैयार है? करेंसी की बिसात युआन चालें दिलचस्‍प होने वाली हैं

Friday, June 10, 2022

असली ताकत तो इधर है




अमेरिकी राष्‍ट्रपतियों के इतिहास में, जो बाइडेन को क्‍या जगह मिलेगी, यह वक्‍त पर छोड़‍िये फिलहाल तो ब्‍लादीम‍िर पुतिन  की युद्ध लोलुपता से अमेरिका को वह एक ध्रुवीय दुनिया गढ़ने का मौका मिल गया है जिसकी कोश‍िश में बीते 75 बरस में. अमेरिका के 13 राष्‍ट्रपति इतिहास बन गए.

आप यह मान सकते हैं क‍ि युद्ध के मैदान में रुस का खेल अभी खत्‍म नहीं हुआ है लेक‍िन युद्ध के करण बढी महंगाई के बाद ग्‍लोबल मुद्रा बाजार में अमेरिकी डॉलर अब अद्व‍ितीय है. मुद्रा बाजार में अन्‍य करेंसी के मुकाबले अमेरिकी डॉलर की ताकत बताने वाला डॉलर इंडेक्‍स 20 साल के सर्वोच्‍च स्‍तर पर है.

अमेरिका ने फ‍िएट करेंसी (व्‍यापार की आधारभूत मुद्रा) की ताकत के दम पर रुस के विदेशी मुद्रा भंडार को (630 अरब अमेर‍िकी डॉलर) को बेकार कर दिया है. पुतिन का मुल्‍क ग्‍लोबल व‍ित्‍तीय तंत्र से बाहर है. इसके बाद तो चीन भी लड़खड़ा गया है.

विश्‍व बाजार में अमेरिकी डॉलर की यह ताकत निर्मम है और चिंताजनक है.

एसे आई ताकत

अमेर‍िकी डॉलर का प्रभुत्‍व जिस इतिहास की देन है अब फिर वह नई करवट ले रहा है.

दूसरे विश्‍व युद्ध में पर्ल हार्बर पर जापानी हमले ने दुनिया की मौद्रिक व्‍यवस्‍था की बाजी पलट दी थी. इससे पहले तक अमेरिका दूसरी बड़ी जंग में  सीधी दखल से दूर था. जापान की बमबारी के बाद, ब्रिटेन के प्रधानमंत्री विंस्‍टन चर्चिल जंगी जहाज लेकर अमेरिका पहुंच गए और तीन हफ्ते के भीतर अमेरिका को युद्ध में दाख‍िल हो गया. यह न होता तो हिटलर शायद ब्रिटेन को भी निगल चुका होता.

जुलाई 1944 में ब्रेटन वुड्स समझौता हुआ. गोल्‍ड स्‍टैंडर्ड के साथ (अमेरिकी डॉलर और सोने की विन‍िमय दर) आया. दुनिया के देशों ने अमेरिकी डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडान बनाना शुरु कर दिया. 1945 में हिटलर की मौत और दूसरे विश्‍व युद्ध की समाप्‍त‍ि से पहले ही अमेरिकी डॉलर का डंका बजने लगा था.

अमेरिकी में आर्थि‍क चुनौतियों और फ्रांस के राष्‍ट्रपत‍ि चार्ल्‍स ड‍ि गॉल के कूटनीतिक वार के बाद अमेरिकी राष्‍ट्रपत‍ि रिचर्ड निक्‍सन ने 1971 में गोल्‍ड स्‍टैंडर्ड तो खत्‍म कर दिया लेक‍िन तब तक अमेरिकी डॉलर दुनिया की जरुरत बन चुका था. 

डॉलर कितना ताकतवर

अमेरिकी डॉलर की ताकत है कितनी? बकौल फेड रिजर्व ग्‍लोबल जीडीपी में अमेरिका का हिस्‍सा 20 फीसदी है मगर मुद्रा की ताकत देख‍िये क‍ि दुनिया में विदेशी मुद्रा भंडारों में अमेरिकी डॉलर का हिस्‍सा (2021) करीब 60 फीसदी था.

डॉलर, अमेरिका की दोहरी ताकत है. व्‍यापार व निवेश के जरिये विदेशी मुद्रा भंडारों में पहुंचे अमेरिकी डॉलरों का का निवेश अमेरिकी बांड में होता है. अमेरिकी फेडरल रिजर्व की तरफ से जारी कुल बांड में विदेशी निवेशकों का हिस्‍सा 33 फीसदी है. यूरो, ब्रिटिश पौंड और जापानी येन के बांड में निवेश से कहीं ज्‍यादा.  मौद्रिक साख और ताकत का यह मजबूत चक्र टूटना  मुश्‍क‍िल है.

 नकदी के तौर पर भी डॉलर खूब इस्‍तेमाल होता है 2021 की पहली ति‍माही में करीब 950 अरब अमेरिकी डॉलर के बैंकनोट दुनिया विदेश में थे यह बाजार में उपलब्‍ध कुल नकद अमेरिकी डॉलर का लगभग आधा है.

विश्‍व के लगभग 80% निर्यात इनवॉयस, 60% विदेशी मुद्रा बांड और ग्‍लोबल बैंकिंग की करीब 60% देनदारियां भी अमेरिकी डॉलर में हैं.

विकल्‍प क्‍या 

दुनिया के देश एक दूसरे अपनी मुद्राओं में विनिमय क्‍यों नहीं करते ? क्‍यों क‍ि दुनिया की कोई अमेरिकी डॉलर नहीं हो सकती.

पहली शर्त है मुद्रा की साख-  करेंसी के की पीछे मजबूत राजकोषीय व्‍यवस्‍था ही करेंसी स्‍टोर वैल्‍यू बनाती है . एक दशक पहले तक यूरो को अमेरिकी डॉलर का प्रतिद्वंद्वी माना गया था लेकि‍न यूरो के पीछे कई छोटे देशों की अर्थव्‍यवस्‍थायें हैं. किसी भी एक देश में उथल पुथल से यूरो लड़खड़ा जाता है.

विदेशी मुद्रा भंडारों में यूरो का हिस्‍सा केवल 21 फीसदी है.  ब्रिटिश पाउंड, जापानी येन, युआन का हिस्‍सा और भी कम है. 

मुद्रा का मुक्‍त रुप से ट्रेडेबल या व्‍यापार योग्‍य दूसरी शर्त है इसी से  करेंसी की करेंसी यानी गति तय होती है. चीन का युआन दावेदार नहीं बन पाता.  दुनिया का सबसे बडा निर्यातक अपनी करेंसी को कमजोर रखता है, मुद्रा संचालन साफ सुथरे नहीं हैं. इसलिए युआन को विदेश्‍ी मुद्रा भंडारों में दो फीसदी जगह भी नहीं मिली है.

मुद्रा की स्‍थ‍िरता सबसे जरुरी शर्त है. 2008 के वित्‍तीय संकट के बाद मुद्रा स्‍थ‍िरता सूचकांक में अमेरिकी डॉलर करीब 70 फीसदी स्‍थिर रहा है, यूरो 20 फीसदी पर है. येन और युआन काफी नीचे हैं. स्‍थ‍िरता अमेरिकी डॉलर बडी ताकत है.

क्रिप्‍टोकरेंसी के साथ डॉलर के विकल्‍प की कुछ बहसें शुरु हुईं थीं. अलबत्‍ता कोविड के बाद  क्रिप्‍टोकरेंसी बुलबुला फूट गया और रुस पर प्रतिबंधों से डॉलर की क्रूर रणनीतिक ताकत भी सामने आ गई.

इतिहास की वापसी 

अमेरिकी डॉलर का प्रभुत्‍व दूसरे विश्‍व के बाद पूरी तरह स्‍थाप‍ित हो गया था.  डॉलर की ताकत के दम पर यूरोप की मदद के लिए 1948 में अमेरिका ने 13 अरब डॉलर का मार्शल प्‍लान (वि‍देश मंत्री जॉर्ज सी मार्शल)   लागू किया था. युद्ध से तबाह यूरोप के करीब 18 देशों को इसका बड़ा लाभ मिला. हालांक‍ि यही प्‍लान शीत युद्ध की शुरुआत भी था. यूरोप में रुस व अमेरिकी खेमों में नाटो (1948-49) और वारसा संधि (1955) में बंट गया.

अब फिर महामारी और युद्ध का मारा यूरोप अमेरिका ऊर्जा व रक्षा जरुरतों के लिए अमेरिका पर निर्भर हो रहा है डॉलर की इस नई ताकत के सहारे अमेरिकी राष्‍ट्रपति जो बाइडेन एक तरफ यूरोप को रुस के हिटलरनुमा खतरे बचने की गारंटी दे रहे है तो दूसरी तरफ एश‍िया में चीन डरे देशों नई छतरी के नीचे जुटा रहे हैं.  अमेरिकी डॉलर की बादशाहत इन्‍हीं हालात से निकली थी.  महंगा होता अमेरिकी कर्ज डॉलर को नई मौद्रिक ताकत दे रहा है. इसलिए यूरो, युआन,रुपया सबकी हालत पतली है.

विदेशी मुद्रा बाजार वाले कहते हैं डॉलर अमेरिका का सबसे मजबूत सैन‍िक है. यह कभी नहीं हारता. दूसरी करेंसी को बंधक बनाकर वापस अमेरिका के पास लौट आता है


Saturday, October 6, 2018

रुपए के राहु-केतु



कोई कला नहीं चली सरकार की!

रुपया इस बार गिरा तो गिरता चला गया,

डॉलर के मुकाबले रुपया74 के करीब है. 75 रुपए वाले डॉलर की मंजिल दूर नहीं दिखती.

कमजोरी शायद भीतरी है! 

कमजोरी!

सात फीसदी की विकास दररिकॉर्ड विदेशी निवेश (दावों के मुताबिक)शेयर बाजार में भरपूर विदेशी पूंजीमूडीज की बेहतर रेटिंगमजबूत सरकार के बाद भी
कहां गए सारे विटामिन?

रुपया जनवरी से अब तक 14 फीसदी टूट चुका है. ताजा दशकों मेंएक साल में ऐसी गिरावट केवल दो बार नजर आई. पहला—1998 के पूर्वी एशिया मुद्रा संकट के दौरान रुपया एक साल में 13.63 फीसदी टूटा था. दूसरा—2012 में तेल के 100 डॉलर प्रति बैरल पर पहुंचने पर रुपया 14.51 फीसदी गिरा था.

अमेरिका और चीन के बीच व्यापार युद्ध एक चुनौती है लेकिन माहौल 1998 के मुद्रा संकट या 2008 के बैंकिंग संकट जैसा हरगिज नहीं है.

तो फिर?

डॉलर मजबूत हुआ है!

लेकिन डॉलर तो 2012 में अमेरिकी फेड रिजर्व की ब्याज दरें बढ़ाने के संकेत के बाद से मजबूत हो रहा है! 

दरअसलरुपए की जड़ और तना कमजोर हो गया है. पिछले चार वर्षों के 'अच्छे दिनों' के दौरान चालू खाते का घाटा (विदेश से संसाधनों की आमद और निकासी के बीच अंतर) बढ़ता गया है. चालू खाते (करंट अकाउंट) के घाटे में रुपए की जान बसती है.

जून की तिमाही में यह घाटा जीडीपी के अनुपात में 2.4 फीसदी पर पहुंच गया जो कि 15.8 अरब डॉलर (पिछले साल इसी दौरान 15 अरब डॉलर) है. घाटे की यह आगतेल की कीमतों में तेजी से पहले ही लग चुकी थी.
घाटा बढऩे की वजहें हरगिज बाहरी नही हैं.

पहली वजहः मेक इन इंडिया के झंडाबरदारों को खबर हो कि भारत का उत्पादन प्रतिस्पर्धा की होड़ में पिछड़ रहा है. बिजलीईंधनजमीनकर्ज की महंगाई और श्रमिकों की उत्पादकता में गिरावट के कारण अर्थव्यवस्था ठीक उस समय पिछड़ रही है जब नई तकनीकों (ऑटोमेशन) के कारण प्रतिस्पर्धात्मकता के मायने बदल रहे हैं. भारत में मैन्युफैक्चरिंग का जीडीपी में हिस्सा 16-17 फीसदी पर अटका है. चीनकोरिया या थाईलैंड की तरह 25-29 फीसदी करने के लिए जबरदस्त प्रतिस्पार्धात्मक होना होगा.

रुपया डॉलर के मुकाबले हर साल तीन से चार फीसदी टूटता है ताकि भारतीय उत्पाद बाजार में टिक सकें. जिस साल ऐसा नहीं हुआउस वर्ष भारतीय निर्यात औंधे मुंह गिरा है.

दूसरी वजहः मोदी सरकार के कूटनीतिक अभियान चाहे जितने आक्रामक रहे हों लेकिन भारत के निर्यात को सांप (या ड्रैगन) सूंघ गया है. 2013 से पहले दो वर्षों में 40 और 22 फीसदी की रफ्तार से बढऩे वाला निर्यात बाद के पांच वर्षों में नकारात्मक से लेकर पांच फीसदी ग्रोथ के बीच झूलता रहा. 
पिछले दो वर्षों में दुनिया की आर्थिक और व्यापार वृद्धि दर तेज रही है. 

लगभग एक दशक बाद विश्व व्यापार तीन फीसदी की औसत विकास दर को पार कर (2016 में 2.4 फीसदी) 2017 में 4.7 फीसदी पर पहुंच गया लेकिन भारत विश्व व्यापार में तेजी का कोई लाभ नहीं ले सका. निर्यात की निरंतर गिरावट ने इस घाटे की आग में पेट्रोल डाल दिया है.

तीसरी वजहः चालू खाते का घाटाबुनियादी तौर पर देश में निवेश योग्य संसाधनों की कमी यानी विदेशी संसाधनों पर निर्भरता बढऩे का पैमाना भी है. भारत में इस समय जीडीपी के अनुपात में जमा बचत का अंतर 4.2 फीसदी के स्तर पर है जो 2013 के बाद सबसे ऊंचा है. रिजर्व बैंक के मुताबिक2018 में भारत में आम लोगों की बचत के अनुपात में उनकी वित्तीय देनदारियों में बढ़ोतरी 2012 के बाद रिकॉर्ड ऊंचाई पर है. सरकारों की बचत शून्य है और घाटे नया रिकॉर्ड बना रहे हैं.

रुपया अब दुष्चक्र में फंसा दीखता है. अमेरिका में मंदी खत्म होने के ऐलान के साथ डॉलर की मजबूती बढ़ती जानी है. कच्चा तेल 100 डॉलर के ऊपर निकलने के लिए बेताब है. रुपए को थामने के लिए सरकार ने आयात को महंगा कर महंगाई की आग में एक तरह से बारूद डाल दी. अब ब्याज दरें बढ़ेंगी और निवेशक बिदकेंगे.



कमजोर रुपया, महंगा तेल, महंगाई और घाटे... भारतीय अर्थव्यवस्था की सभी बुनियादों में अचानक दरारें उभर आई हैं. प्रचार के अलावा, इन क्षेत्रों में पिछले चार साल में कोई बड़े ढांचागत सुधार नहीं हुए. चुनाव तो आते-जाते रहेंगे, लेकिन अगली छमाही देश की अर्थव्यवस्था के लिए बेहद संवेदनशील होने वाली है.

Sunday, July 15, 2018

रुपये के संस्कार


रुपए की गिरावट पर भाजपा नेताओं के कंटीले चुनावी भाषण राजनेताओं के लिए नसीहत हैं कि अर्थव्‍यवस्‍था की कथा में राजनीति के ढोर-डंगर नहीं हांकने चाहिए. रुपये की लुढ़कन पर सरकारी बयान वीर बगलें झांक रहे हैं क्‍योंकि उनकी वैचारिक जन्‍मघुट्टी में रुपये की कमजोरी का अपराध बोध घुला हुआ है.

बाजार से पूछ कर देखिएवहां एक नौसिखुआ भी कह देगा कि रुपये की कमजोरी पर स्‍यापा फिजूल है. इसके वजन में कमी से नुक्सान नहीं है.

जानना चाहिए कि पिछले ढाई दशक में रुपया आखिर कितना कमजोर हुआ है और इस कमजोरी से क्‍या कोई "तबाही'' बरपा हुई है? 

पिछले 18 साल (2000-2018) में अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपया करीब 2.2 फीसदी सालाना की दर हल्‍का हुआ है. यह गिरावट 1990 से लेकर 2000 की ढलान के मुकाबले कम है जब रुपया औसत सात फीसदी की दर से गिरा था. 2008 से 2018 के बीच रुपया 4.9 फीसदी सालाना की दर से कमजोर हुआ. पिछले चार साल में अन्‍य मुद्राओं के मुकाबले रुपया स्थिर और ठोस रहा है.

पिछले ढाई दशक में प्रत्‍येक दो या तीन साल बाद रुपये और डॉलर के रिश्‍तों में उतार-चढ़ाव का चक्र आता हैजिसमें  रुपया कमजोर होता है. यह गिरावट किसी भी तरह से न तो आकस्मिक है और न चिंताजनक. भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था जैसे-जैसे विश्‍व के साथ एकीकृत होती गईरुपया खुद को अन्‍य मुद्राओं के मुकाबले संतुलित करता गया है.

रुपये की मांसपेशियां फुलाये रखने के स्‍वदेशी हिमायती किस तरह की विदेशी मुद्रा नीति चाहते हैंयह उन्‍होंने कभी नहीं बताया अलबत्‍ता रुपये के गिरने से कोई तबाही बरपा होने के समाचार अभी तक नहीं मिले हैं. 1990 के विदेशी मुद्रा संकट और 1991 में पहले सोचे-विचारे अवमूल्‍यन के बाद अब तक भारत का निर्यात 21 गुना बढ़ा है. विदेशी मुद्रा भंडार जरूरत के हिसाब से बढ़ता रहा. विदेशी निवेश ने आना शुरू किया तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा और भारतीय कंपनियों ने विदेश में खूब झंडे गाड़े.

रुपये की ताजा गिरावट चक्रीय भी हैमौसमी भी. अगर कमजोरी को कोसना ही है तो तेल की कीमतों पर नजला गिराया जा सकता है. आने वाले महीनों में डॉलर मजबूत रहेगा इसलिए रुपये की सेहत भी चुस्‍त रहेगी. रुपया एकमुश्‍त नहीं क्रमशः अपना वजन गंवाएगा.

तो सरकार करे क्‍यादरअसलरुपया गिरते ही सरकार को मौका लपक लेना चाहिए था.

भारत का निर्यातप्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ताबड़ तोड़ विदेश यात्राओं से कतई नहीं रीझा. यह पिछले चार साल से एड़ि‍यां रगड़ रहा हैजबकि माहौल व्‍यापार के माफिक रहा है. रुपये की मजबूती निर्यात के लिए मुसीबत रही है. अब गिरावट है तो निर्यात को बढ़ाया जा सकता है. यह अमेरिका और चीन के व्‍यापार की जंग में भारत के लिए नए बाजार हासिल करने का अवसर है.

अभी-अभी सरकार छोड़कर रुखसत हुए अर्थशास्‍त्री अरविंद सुब्रह्मण्यम ने बजा फरमाया है कि अगर भारत निर्यात में 15 फीसदी की सालाना विकास दर हासिल नहीं करता तो भूल जाइए कि 8-9 फीसदी ग्रोथ कभी मिल पाएगी.

यकीनन यह सबको मालूम है कि ग्रोथ की मंजिल थुलथुल नहीं बल्कि चुस्‍त रुपये से मिल सकती है. गुजरात जो कि भारत के विदेश व्‍यापार का अगुआ हैवहां से आने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बेहतर यह कौन जानता होगा कि संतुलित विनिमय दर निर्यात के लिए कितनी जरुरी है लेकिन पिछले चार साल में रुपया मोटाता गया और निर्यात दुबला होता गया.

रुपये की कमजोरी पर रुदाली की परंपरा आई कहां से?

इस मामले में दक्षिणवाम और मध्यसब एक जैसी हीन ग्रंथि के शिकार हैं. 1991 में रुपये का अवमूल्‍यन करते हुए तत्‍कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव की "व्यथा'' का किस्‍सा इतिहास में दर्ज है.
रुपये की मजबूती का खोखला दंभ अंग्रेज सिखाकर गए थे. भारत उनके माल का (आयात) बाजार था. वह भारत को प्राथमिक उत्पादों का निर्यातक बनाकर रखना चाहते थेऔद्योगिक उत्पादों का नहीं. इसलिए आश्‍चर्य रुपये के गिरने पर नहीं बल्कि "स्वदेशियों'' पर होना चाहिए जो दशकों से ब्रिटिश औपनिवेशिक आर्थिक नीति का मुर्दा ढो रहे हैं.

दिलचस्‍प है कि 2013-14 में जिनकी उम्र से रुपये की गिरावट को नापा गया था उन्‍हीं डॉ. मनमोहन सिंह ने 1991 में पहली बार संसद को यह समझाया था कि थुलथले रुपये में कोई राष्‍ट्रवाद नहीं छिपा है. रुपये के अवमूल्यन में पाप या अपमान जैसा कुछ नहीं है. अगर बाजार में हैं तो आपको प्रतिस्पर्धी होना ही होगा.

जब जागेतब सवेरा!

Tuesday, September 15, 2015

साहस का संकट



चीन से शुरु हुआ ताजा संकट अपने पूर्वजों की तुलना में अलग है और गहरा असर छोडऩे वाला है.

भारत की दहलीज पर ग्लोबल संकट की एक और दस्तक को समझने के दो तरीके हो सकते हैं: एक कि हम रेत में सिर घुसा कर यह कामना करें कि यह दुनियावी मुसीबत है और हम किसी तरह बच ही जाएंगे. दूसरा यह कि इस संकट में अवसरों की तलाश शुरू करें. मोदी सरकार ने दूसरा रास्ता चुना है लेकिन जरा ठहरिए, इससे पहले कि आप सरकार की सकारात्मकता पर रीझ जाएं, हमें इस सरकार को मिले अवसरों के इस्तेमाल का रिकॉर्ड और जोखिम लेने की कुव्वत परख लेनी चाहिए, क्योंकि यह संकट अपने पूर्वजों की तुलना में अलग है और गहरा असर छोडऩे वाला है.
सिर्फ शेयर बाजार ही तो थे जो भारत में उम्मीदों की अगुआई कर रहे थे. चीन में मुसीबत के बाद, उभरती अर्थव्यवस्थाओं से निवेशकों की वापसी के साथ भारत को लेकर फील गुड का यह  शिखर भी दरक गया है, जो सस्ती विदेशी पूंजी पर खड़ा था. पिछले दो साल में भारतीय अर्थव्यवस्था में बुनियादी तौर पर बहुत कुछ नहीं बदला. चुनाव की तैयारियों के साथ उम्मीदों की सीढिय़ों पर चढ़कर शेयर बाजारों ने ऊंचाई के शिखर बना दिए. भारत के आर्थिक संकेतक नरम-गरम ही हैं, मंदी है, ब्याज दरें ऊंची हैं, जरूरी चीजों की महंगाई मौजूद है, मांग नदारद है, मुनाफा और आय नहीं बढ़ रही जबकि मौसम की बेरुखी बढ़ गई है. लेकिन विदेशी मुद्रा भंडार बेहतर है, कच्चा तेल सस्ता है और राजनैतिक स्थिरता है. दुनिया में संकट की हवाएं पहले से थीं. अपने विशाल प्रॉपर्टी निवेश, मंदी व अजीबोगरीब बैंकिंग के साथ, चीन 2013 से ही इस संकट की तरफ खिसक रहा था.
भारत के आर्थिक उदारीकरण के बाद यह तीसरा संकट है. 1997 में पूर्वी एशिया के करेंसी संकट से भारत पर दूरगामी असर नहीं पड़ा. 2008 में अमेरिका व यूरोप में बैंकिंग व कर्ज संकट से भी भारत कमोबेश महफूज रहा. अब चीन की मुसीबत सिर पर टंगी है. भारत इस पर मुतमइन हो सकता है कि ग्लोबल उथल-पुथल से हम पर आफत नहीं फट पड़ेगी लेकिन यही संकट भारत की ग्रोथ की रफ्तार का भविष्य निर्णायक रूप से तय कर देगा.
पिछले दो संकटों ने भारत को फायदे-नुक्सानों का मिला जुला असर सौंपा. 1997 में जब पूर्वी एशिया के प्रमुख देशों की मुद्राएं पिघलीं तो भारत की पर शुरुआती असर हुआ लेकिन उसके बाद अगले सात वर्ष तक भारतीय अर्थव्यवस्था ने ग्रोथ के सहारे अपना चोला बदल दिया. यह उन बड़े सुधारों का नतीजा था जो नब्बे के दशक के मध्य में हुए और जिनका फायदा हमें वास्तविक अर्थव्यवस्था में प्रत्यक्ष निवेश व ग्रोथ के तौर पर मिला. तब तक भारत के शेयर बाजारों में सक्रियता सीमित थी.
2008 के संकट के बाद अमेरिका में ब्याज दरें घटने से सस्ती पूंजी बह चली. पिछले छह साल के सुधारों के कारण उभरती अर्थव्यवस्थाओं में उम्मीदें जग गई थीं. यही वह दौर था जब ब्रिक्स अर्थव्यवस्थाएं चमकीं और भारतीय शेयर बाजार निवेशकों का तीर्थ बन गया. भारतीय अर्थव्यवस्था में स्पष्ट मंदी के बावजूद यह निवेश हाल तक जारी रहा जो चुनाव के बिगुल के साथ 2014 में शिखर पर पहुंच गया था. 
इन तथ्यों के संदर्भ में ताजा चुनौती व अवसर को समझना जरूरी है.
चुनौतीः भारत की मुसीबत चीन का ढहना है ही नहीं, न ही ग्लोबल मंदी से बहुत फर्क पड़ा है सिवा इसके कि निर्यात ढह गया है, जो पहले से ही कमजोर है. उलझन यह है कि अमेरिका में ब्याज दरें बढ़ते ही (इसी महीने मुमकिन) विदेशी निवेशक भारत सहित उभरते बाजारों से निकलेंगे जहां वे 2008 के बाद आए थे, क्योंकि निवेश पर होने वाले फायदे घट जाएंगे. वास्तविक अर्थव्यवस्था में ग्रोथ नहीं है इसलिए भारतीय कंपनियों का मुनाफा लंबे समय तक निवेश को आकर्षित नहीं कर सकता. यह पिछले पांच साल में पहला मौका है जब विशेषज्ञ भारत सहित उभरते बाजारों में लंबी गिरावट का संदेश दे रहे हैं. ध्यान रहे कि विदेशी निवेशक भारत के लिए डॉलरों का प्रमुख स्रोत रहे हैं इसलिए यह विदाई महंगी पड़ेगी. यह फील गुड की आखिरी रोशनी है जो अब टूटने लगी है. 
अवसरः यदि समय, अर्थव्यवस्था के आकार और ग्लोबल अर्थव्यवस्था से जुड़ाव को अलग कर दिया जाए तो भारत 1995 की स्थिति में है जब जीडीपी में ग्रोथ की उम्मीदें कमजोर थीं और शेयर बाजारों में निवेश नहीं था. अलबत्ता विदेशी व्यापार, निवेश के उदारीकरण से लेकर निजीकरण तक भारत के सभी बड़े ढांचागत सुधार 1995 से 2000 के बीच हुए, जिनका फायदा ग्लोबल संकटों के दौरान निवेशकों के भरोसे के तौर पर मिला. मोदी सरकार नब्बे की दशक जैसे बड़े ढांचागत सुधार कर भारतीय ग्रोथ को अगले एक दशक का ईंधन दे सकती है.
वित्त मंत्री ठीक कहते हैं कि असली दारोमदार वास्तविक अर्थव्यवस्था पर ही है. अब शेयर बाजार भी कंपनियों की ताकत और वास्तविक ग्रोथ पर गति करेंगे न कि सस्ती विदेशी पूंजी पर. इस संकट के बाद भारत के पास दो विकल्प हैं: पहला, सुधार रहित 6.5-7 फीसदी की औसत विकास दर जिसे आप 21वीं सदी की हिंदू ग्रोथ रेट कह सकते हैं. विशाल खपत और कुछ ग्लोबल मांग के सहारे (सूखा आदि संकटों को छोड़कर) ग्रोथ इससे नीचे नहीं जाएगी. दूसरा, नौ-दस फीसदी की ग्रोथ और रोजगारों, सुविधाओं, आय में बढ़ोत्तरी का है जो 1997 के बाद हुई थी. 

शेयर बाजारों पर ग्लोबल संकट की दस्तक के बाद 8 सितंबर को जब प्रधानमंत्री पूरे लाव-लश्कर के साथ उद्योगों को जोखिम लेने की नसीहत दे रहे थे तब उद्यमी जरूर यह कहना चाहते होंगे कि हिम्मत दिखाने की जरूरत तो सरकार आपको है! पिछले 15 माह में तो सुधारों का कोई साहस नहीं दिखा है. अमेरिका में ब्याज दरें बढऩे के बाद संकट के झटके तेज होंगे. अगला एक साल बता देगा कि हमें 21वीं सदी की हिंदू ग्रोथ रेट मिलने वाली है या फिर तरक्की की तेज उड़ान. 

Wednesday, September 9, 2015

रुपया और राष्‍ट्रवाद



रुपए के अवमूल्यन में पाप या अपमान जैसा कुछ नहीं है. अगर आप बाजार में हैं तो आपको प्रतिस्पर्धी होना ही चाहिए.
चीन की चरमराती अर्थव्यवस्था और ग्लोबल करेंसी व वित्तीय बाजारों में उठापटक का भारत तत्काल कोई बड़ा फायदा उठाए या न नहीं, लेकिन इस माहौल का एक बड़ा लाभ जरूर हो सकता है. इस वित्तीय बेचैनी के बीच हमारे नेता देश की करेंसी यानी रुपए को लेकर अपने दकियानूसी आग्रहों से निजात पा सकते हैं. भारत में, बीजेपी और वामदल हमेशा से इस ग्रंथि के शिकार रहे हैं कि राष्ट्रीय साख के लिए फड़कती मांसपेशियों वाली करेंसी जरूरी है. उन्होंने यह बात सफलता के साथ सड़क पर खड़े अंतिम व्यक्ति तक पहुंचाई है कि रुपए का कमजोर होना आर्थिक पाप है.
लेकिन सियासत व बाजारों में पिछले एक साल के फेरबदल के बाद ऐसा संयोग बना है जब करेंसी जैसे एक परिवर्तनशील वित्तीय उपकरण की कीमत में गिरावट को राष्ट्रीय शर्म बताकर चुनाव लडऩे वाली बीजेपी सत्ता में है और मजबूती देने वाले तमाम कारकों की मौजूदगी के बावजूद रुपया अवमूल्यन की नई तलहटी छू रहा है. यह अनोखी परिस्थिति मुद्रा यानी करेंसी को लेकर हमें अपनी रूढ़िवादी सोच से मुक्त होने और डॉ. मनमोहन सिंह के उस सूत्र को स्वीकार करने का निमंत्रण देती है जो उन्होंने 1991 में रुपए के बड़े अवमूल्यन के बाद दिया था कि ''विनिमय दर केवल एक मूल्य मात्र है जिसका प्रतिस्पर्धात्मक होना जरूरी है.''करेंसी अवमूल्यन को लेकर भारत की राजनीति गजब की रूढ़िवादी रही है. 1991 के उथल-पुथल भरे आर्थिक दौर पर कांग्रेस के नेता व पूर्व केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश की ताजा किताब भारतीय राजनीति की रुपया ग्रंथि के बारे में दिलचस्प तथ्य सामने लाती है. जयराम रमेश संकट और सुधार के उस दौर में प्रधानमंत्री के सलाहकारों में शामिल थे. रमेश के संस्मरण बताते हैं कि रुपए को लेकर प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव के आग्रह भले ही वामदलों या बीजेपी जैसे रूढ़िवादी न रहे हों लेकिन अवमूल्यन को लेकर वे बुरी तरह अहसज थे.
1991
के वित्तीय संकट के दौरान तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने रिजर्व बैंक के जरिए, 1 जुलाई और 3 जुलाई, 1991 को रुपए की कीमत क्रमशः 7 9 फीसदी घटाई. उस वक्त तक यह रुपए का सबसे बड़ा अवमूल्यन था और वह भी सिर्फ  72 घंटों में. उस दौर में रुपए की कीमत पूरी तरह सरकार तय करती थी, आज की तरह बाजार नहीं. रमेश लिखते हैं कि प्रधानमंत्री राव इस फैसले से इतने असहज थे कि 3 जुलाई को सुबह वित्त मंत्री मनमोहन सिंह को बुलाकर दूसरा अवमूल्यन रोकने का आदेश दे दिया. डॉ. सिंह ने समझाने की भरसक कोशिश की लेकिन प्रधानमंत्री सहज नहीं हुए. अंततः सुबह 9.30 बजे डॉ. सिंह ने रिजर्व बैंक के तत्कालीन गवर्नर डॉ. सी. रंगराजन से इसे रोकने को कहा लेकिन तब तक देर हो गई थी, रिजर्व बैंक सुबह नौ बजे रुपए के दूसरे और बड़े अवमूल्यन को अंजाम दे चुका था. डॉ. सिंह ने राहत की सांस ली और प्रधानमंत्री को उत्साह के साथ फैसला सूचित कर दिया. अलबत्ता, फैसला इतना सहज नहीं था. अवमूल्यन के बाद संसद में लंबे समय तक प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री को अपनी पार्टी व विपक्ष की लानतें झेलनी पड़ीं.

1991
से लेकर 2014 के लोकसभा चुनाव तक देश में काफी कुछ बदल गया लेकिन रुपए को लेकर नेताओं की हीन ग्रंथि में कोई तब्दीली नहीं आई. सत्ता में बैठने के बाद नरेंद्र मोदी और अरुण जेटली को इस बात का एहसास हो रहा होगा कि कि उन्होंने रुपए की गिरावट को जिस तरह देश की साख से जोड़ा था, वह हास्यास्पद था. बाजार के जानकार रुपए की उठापटक को टेक्निकल चार्ट पर पढ़ते हैं. इस चार्ट के मुताबिक, रुपए में ताजी गिरावट (3 सितंबर 66.24 रुपए प्रति डॉलर) 2013 का दौर जैसी दिख रही है, जब रुपया 68.80 तक टूट गया था.

2013
का जिक्र इसलिए जरूरी है क्योंकि कमजोर रुपए को देश की कमजोरी बताने के राजनैतिक अभियान उसी दौरान जन्मे थे. 2013 में कच्चे तेल की कीमतें 100 डॉलर प्रति बैरल से ऊपर थीं. भारत में विदेशी मुद्रा की आवक-निकासी के सभी संतुलन ध्वस्त थे. हालत इस कदर बुरी थी कि रिजर्व बैंक को रुपए पर संकट टालने के लिए उपायों का पूरा दस्ता मैदान में उतारना पड़ा तब जाकर कहीं हालत सुधरी. लेकिन आज जब कच्चे तेल की कीमतें 44 डॉलर पर हैंफॉरेक्स रिजर्व 355 अरब डॉलर के रिकॉर्ड स्तर पर है, महंगाई घट रही है, व्यापार घाटा गिर रहा है, विदेशी आवक-निकासी में अंतर कम हो रहा है तब भी रुपया ताकत की हुंकार लगाने की बजाए 2013 की तर्ज पर गोते खा रहा है. यह परिस्थित सिद्ध करती है कि करेंसी एक परिवर्तनशील वित्तीय उपकरण है, जिसे भावुक राष्ट्रीयता के संदर्भ में नहीं, बल्कि आर्थिक हालात की रोशनी में देखना ही समझदारी है.
 
वित्त मंत्री जेटली को रुपए की ताजा गिरावट का बचाव करना पड़े तो वे यही कहेंगे कि पिछले कुछ माह में फिलिपीन पेसो, थाई बाट और भारतीय रुपए के अलावा, उभरते बाजारों की सभी मुद्राएं गिरी थीं. इसलिए रुपए का 66-67 पहुंचना कोई बड़ी बात नहीं है. भारतीय मुद्रा निर्यात बाजार की अन्य प्रतिस्पर्धी मुद्राओं के मुकाबले कुछ ज्यादा ही मजबूत हो गई थी, इस अवमूल्यन से हमें निर्यात में बढ़त मिलेगी. यकीनन, उनके इस तर्क में आपको 1991 के डॉ. सिंह के ही शब्द सुनाई देंगे. जयराम रमेश की किताब में डॉ. सिंह का वह जवाब दर्ज है जो उन्होंने 1991 में रुपए के बड़े अवमूल्यन के बाद राज्यसभा में हुई बहस पर दिया था. उन्होंने कहा था कि अंग्रेज भारत को प्राथमिक उत्पादों का निर्यातक बनाकर रखना चाहते थे, औद्योगिक उत्पादों का निर्यातक नहीं. इसलिए घरेलू मुद्रा को हमेशा ताकतवर रखने के संस्कार भर दिए गए. रुपए का संतुलित अवमूल्यन हमें आधुनिक व प्रतिस्पर्धात्मक बनाता है तो वह राष्ट्र विरोधी कैसे हो जाएगा? आज डॉलर की कीमत 67 रुपए पर पहुंचते देख क्या मोदी-जेटली समेत पूरी बीजेपी यह स्वीकार करेगी कि हमेशा ताकतवर रुपए की वकालत ब्रिटिश औपनिवेशिक आर्थिक नीति की हिमायत नहीं थी? क्या बीजेपी अब यह स्वीकार करेगी कि रुपए के अवमूल्यन में पाप या अपमान जैसा कुछ नहीं है. अगर आप बाजार में हैं तो आपको प्रतिस्पर्धी होना ही चाहिए.