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Saturday, March 16, 2019

सत्ता की चाबी


क्या नरेंद्र मोदी को दोबारा जीत के करिश्मे के लिए 2014 से बड़ी लहर चाहिए? 

क्या लोग सरकार चुनते नहीं बल्कि बदलते हैं?

क्यों सत्ता विरोधी मत चुनावों का स्थायी भाव है?

चुनाव सर्वेक्षणों की गणिताई में इनके जवाब मिलना मुश्किल है. जातीय रुझानों या चेहरों की दीवानगी के आंकड़ों से परेतथ्यों की एक दूसरी दुनिया भी है जहां से हम वोटरों के मिजाज को आंक सकते हैं.

इसके लिए भारत के ताजा आर्थिक इतिहास की एक चुनावी यात्रा पर निकलना होगा. इस सफर के लिए जरूरी साजो-सामान कुछ इस प्रकार हैं:

-  गुजरातपंजाबकर्नाटकमध्य प्रदेशछत्तीसगढ़राजस्थानतेलंगाना के ताजा चुनाव नतीजे. गुजरात और कर्नाटक उद्योग-निर्यात-कृषि-खनिज-सेवा आधारित अर्थव्यस्थाएं हैं जबकि मध्य प्रदेशपंजाब और तेलंगाना की अर्थव्यवस्था में कृषि का बड़ा हिस्सा है. छत्तीसगढ़ कृषि व खनिज आधारित और राजस्थान सेवा व कृषि आधारित राज्य हैं. ये राज्य देश की अन्य अर्थव्यवस्थाओं का सैम्पल हैं. 

-     पिछले एक दशक मेंग्रामीण मजदूरीआर्थिक विकासकृषि विकास दर के आंकड़े और चुनाव नतीजे साथ रखने होंगे.
-     भारत में लोकसभा की करीब 380 सीटें पूरी तरह ग्रामीण हैं जिनमें 86 सीटें उन राज्यों में हैं जिनके सबसे ताजा नतीजे हमारे सामने हैं.

राज्यों के आर्थिक और कृषि विकास की रोशनी में विधानसभा नतीजों को देखने पर तीन निष्कर्ष हाथ लगते हैं.

1-   गुजरातकर्नाटकमध्य प्रदेशछत्तीसगढ़राजस्थान में चुनाव के साल आर्थिक विकास दर पिछले पांच साल के औसत से कम (क्रिसिल रिपोर्ट) थी. गुजरात में भाजपा मुश्किल से सत्ता में लौटी. अन्य राज्‍यों में बाजी पलट गई जबकि कुछ राज्यों में तो विपक्ष था ही नहीं या देर से जागा था. जहां मंदी का असर गहरा था जैसे छत्तीसगढ़वहां इनकार ज्यादा तीखा था. यानी लोगों के फैसले वादों पर नहींसरकारों के काम पर आधारित थे.

2-   2015-16 के बाद (चुनाव से एक या दो साल पहले) उपरोक्त सभी राज्यों में कृषि विकास दर में गिरावट आई. पूरे देश में ग्रामीण मजदूरी दर में कमी और सकल कृषि विकास दर में गिरावट के ताजा आंकड़े इसकी ताकीद करते हैं.

3- 2014 के बाद जिन राज्यों में सत्ता बदली है वहां चुनावी साल के आसपास राज्य की आर्थिक व कृषि विकास दर घटी है. तेलंगाना (बिहार और बंगाल भी) अपवाद हैं जहां विकास दर पांच साल के औसत से ज्यादा थी. यहां खेती की सूरत देश की तुलना में ठीकठाक थी इसलिए नतीजे सरकार के माफिक रहे.

इन आंकड़ों की रोशनी में लोकसभा चुनाव का परिदृश्य कैसा दिखता है.

  खेती महकमे के मुताबिकदेश के 11 राज्यों में खेती की हालत ठीक नहीं है. इनमें हरियाणापंजाबमध्य‍ प्रदेशगुजरात और उत्तर प्रदेश में पिछले तीन से पांच वर्षों में सामान्य से कम बारिश हुई है. बिहारआंध्र प्रदेश और बंगाल ऐसे बड़े राज्य हैं जहां खेती की मुसीबतें देश के अन्य हिस्सों से कुछ कम हैं.

-     ग्रामीण अर्थव्यवस्था में भारी संसाधन झोंक कर मंदी रोकी जा सकती है. यूपीए ने 2004 के बाद ग्रामीण अर्थव्यवस्था में भारी निवेश किया थावैसा ही कुछ तेलंगाना में सरकार ने किया.

मोदी सरकार के बजटों की पड़ताल बताती है कि 2015 से 2018 के बीच ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सरकार की मददइससे पहले के पांच वर्ष की तुलना में कम थी. ग्रामीण मंदी का सियासी असर देखकर 2017 के बाद राज्यों में कर्ज माफ हुए और केंद्र ने समर्थन मूल्य बढ़ाया. किसान नकद सहायता भी इसी का नतीजा है. लेकिन शायद देर हो चुकी है और कृषि संकट ज्यादा गहरा है. 

अपवादों को छोड़कर वोटरों का यही रुख 1995 के बाद हुए अधिकांश चुनावों में दिखा है. जिन राज्यों में आर्थिक या कृषि विकास दर ठीक थी वहां सरकारें लौट आईं. 2000 के बाद के एक दशक में राज्यों में सबसे ज्यादा सरकारें दोहराई गईं क्योंकि वह खेती और आर्थिक विकास का सबसे अच्छा दौर था. 2004 के चुनाव में वोटरों के फैसले पर सूखा और कृषि में मंदी का असर दिखाई दिया (राजग की पराजय). जबकि 2009 में महंगाई के बावजूद केंद्र में यूपीए को दोबारा चुना गया. 2014 में भ्रष्टाचार के अलावा खेती की बदहाली सरकार पलटने की एक बड़ी वजह थी.

आर्थिक आंकड़े सबूत हैं कि नेताओं की चालाकी के अनुपात में मतदाताओं की समझदारी भी बढ़ी है. लोग अपनी ज‌िंदगी की सूरत देखकर बटन दबाते हैं. ध्यान रहे कि कृ‍षि संकट वाले राज्यों में करीब 230 सीटें पूरी तरह ग्रामीण प्रभाव वाली हैं. सत्ता‍ की चाबी शायद इनके पास हैकिसी एक उत्तर या दक्षिण प्रदेश के पास नहीं. 

Tuesday, August 11, 2015

पटकथा बदलने का मौका


मोदी जब अगले सप्ताह लाल किले की प्राचीर से देश से मुखातिब होंगे तो देश उनसे नैतिक शिक्षा व स्‍कीम राज नहीं बल्कि दो टूक सुधार सुनना चाहेगा 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी क्या 15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से रेलवे, रिटेल और बैंकिंग जैसे बड़े आर्थिक सुधारों की घोषणा करने की हिम्मत जुटा सकते हैं? क्या मोदी ऐलान करेंगे कि संसद के शीत सत्र में एक विधेयक आएगा जो उच्च पदों पर हितों का टकराव रोकने का कानूनी इंतजाम करता हो? क्या यह घोषणा हो सकती है कि सरकार कानून बनाकर सभी खेल संघों में सियासी मौजूदगी खत्म करेगी? क्या प्रधानमंत्री इस ऐलान का साहस दिखा सकते हैं कि राजनैतिक दलों के चंदे की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने के लिए छह माह में कानून बन जाएगा?
प्रधानमंत्री ने देश से यह पूछा है न कि लोग स्वाधीनता दिवस पर उनसे सुनना क्या चाहते हैं, तो यह रही अपेक्षाओं सूची. यकीनन, देश अब उनसे नैतिक शिक्षा नहीं सुनना चाहेगा. नई स्कीमों की घोषणाएं तो हरगिज नहीं.
जब किसी दल के पास भव्य जनादेश हो, विपक्ष बुरी तरह टूट चुका हो, केंद्र के साथ देश के 11 राज्यों में उस दल या उसके दोस्तों की सरकार हो, उस दल की सरकार, दरअसल, पिछली सरकार की ही नीतियां लागू कर रही हो और पिछली सरकार चलाने वाली पार्टी अपना राजनैतिक मूलधन भी गवां चुकी हो तो फिर संसद न चल पाने की वजह सिर्फ मुट्ठी भर विपक्ष की उग्रता नहीं है. मोदी सरकार को यह सवाल अब खुद से पूछना होगा कि पिछले 15 अगस्त से इस 15 अगस्त के बीच उसने ऐसा क्या-क्या कर दिया है जिससे हताश विपक्ष को ऐसी एकजुटता और ऊर्जा मिल गई है.
एनडीए सरकार की उलझनों का मजमून मानूसन सत्र में संसदीय गतिरोध की धुंध के पार छिपा है. सरकार एक साल के भीतर ही विश्वसनीयता की दोहरी चुनौती से मुकाबिल है, जो यूपीए की दूसरी पारी से ज्यादा बड़ी है. पहली चुनौती यह है मोदी सरकार भारतीय लोकतंत्र के तीन अलिखित मूल्यों पर कमजोर दिख रही है, जो बहुमत से भरपूर सरकारों को भी अप्रासंगिक कर देते हैं. पहला नियम यह है कि किसी भी स्थिति में सरकार को अभिव्यक्ति की आजादी को रोकते हुए नजर नहीं आना चाहिए. दूसरा सिद्धांत है कि बहुमत हो या अल्पमत, विपक्ष को साथ लेकर चलने की क्षमता होनी चाहिए और तीसरा नियम जो हाल में ही जुड़ा है कि उच्च पदों पर पारदर्शिता को लेकर कोई भी समझौता साख पर बुरी तरह भारी पड़ सकता है.
इस साल में मार्च में अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश की दलील (सूचना तकनीक कानून की धारा 66 ए) खारिज होने के बाद सरकार को चेत जाना चाहिए था. लेकिन सुप्रीम कोर्ट में (आधार केस) निजता को मौलिक अधिकार न मानने की ताजा दलील, वेबसाइट पर प्रतिबंधों और उनकी वापसी, सूचना के अधिकार पर रोक और स्वयंसेवी संस्थाओं पर चाबुक चलाते हुए लगातार सरकार संकेत दे रही है कि वह कुछ मौलिक आजादियों को लेकर सहज नहीं है. संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष को साथ लेकर चलना 'रकार' होने के लिए अनिवार्य है. राजीव गांधी के 413 सदस्यों के बहुमत के सामने 15 सदस्यों का विपक्ष नगण्य था लेकिन उसे नकारने का नतीजा इतिहास में दर्ज है. बीजेपी को कांग्रेस से मिले सबक की रोशनी में ही उच्च पदों पर पारदर्शिता को लेकर क्रांतिकारी हदों तक सख्त होना चाहिए था. अलबत्ता लोकसभा में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज जब फरार ललित मोदी की मदद को उनकी बीमार पत्नी की मदद मानने की भावुक अपील कर रही थीं तो स्वराज और मोदी परिवार के कारोबारी रिश्तों का अतीत पीछे से झांक रहा था.
सबसे बड़ी असंगति यह है कि भारतीय लोकतंत्र के इन तीन मूल्यों को बीजेपी से बेहतर कोई नहीं समझता, जिसका पूरा राजनैतिक जीवन कांग्रेस के साथ इन्हीं को लेकर लड़ते और उत्पीडऩ झेलते बीता है. लेकिन बीजेपी ने एक साल के भीतर ही उस कांग्रेस को अभिव्यक्ति की आजादी, विपक्ष की अहमियत और पारदर्शिता का सबसे बड़ा पैरोकार बना दिया जो हमेशा इन मूल्यों पर अपने कमजोर अतीत को लेकर असहज रही है.
दूसरी चुनौती भी हलकी नहीं है. मोदी को यह नहीं भूलना होगा कि वे खुले बाजार की पैरोकारी, निजीकरण, सुधार और निजी उद्यमिता को बढ़ावा देने के मॉडल को बखानते हुए सत्ता में आए थे लेकिन पिछले एक साल में उनके नेतृत्व में जो गवर्नेंस निकली है उसमें रेलवे सुधार, बैंकिंग सुधार, सब्सिडी पुनर्गठन, प्रशासनिक सुधार जैसे साहसी फैसले नहीं दिखते. सरकार तो नए सार्वजनिक स्टील प्लांट (राज्यों के साथ) लगा रही है, कांग्रेस की तरह सार्वजनिक उपक्रमों की अक्षमता को ढंक रही है, सरकारी स्कीमों की कतार खड़ी कर रही है, नए मिशन और नौकरशाही गढ़ रही है और सब्सिडी बांटने के नए तरीके ईजाद कर रही है. सामाजिक स्कीमों पर आपत्ति नहीं है लेकिन गवर्नेंस में सुधार का साहस दिखाए बगैर पुराने सिस्टम पर नए मिशन और स्कीमें थोप दी गई हैं. इसलिए हर मिशन सांकेतिक सफलताओं से भी खाली है.
मोदी सरकार से अपेक्षा थी कि वह लोकतांत्रिक मूल्यों और उदारीकरण के नए प्रतिमान गढ़ेगी जो न केवल गवर्नेंस की कांग्रेसी रीति-नीति से अलग होंगे बल्कि विपक्ष के तौर पर बीजेपी की भूलों का प्रतिकार भी करेंगे. लेकिन मोदी सरकार पता नहीं क्यों यह साबित करना चाहती है कि बड़ी सफलताएं अपना विरोधी चरम (ऐंटी क्लाइमेक्स) साथ लेकर आती हैं?

यह कतई जरूरी नहीं है कि संक्रमण का क्षण आने में वर्षों का समय लगे, कभी-कभी एक संक्रमण के तत्काल बाद दूसरा आ सकता है. 2014 नरेंद्र मोदी के पक्ष में आए जनादेश को भारत के ताजा इतिहास का सबसे बड़ा संक्रमण मानने वाले शायद अब खुद को संशोधित करना चाहते होंगे, क्योंकि असली संक्रमण तो दरअसल अब आया है जब मोदी सत्ता में एक साल गुजार चुके हैं और उम्मीदों का उफान ऊब, झुंझलाहट और मोहभंग की नमी लेकर बैठने लगा है. मोदी जब अगले सप्ताह लाल किले की प्राचीर से देश से मुखातिब होंगे तो देश उनसे 'न की बात' नहीं बल्कि गवर्नेंस की दो टूक सुनना चाहेगा, क्योंकि देश के लोग इस बात को एक बार फिर पुख्ता करना चाहते हैं कि उन्होंने कमजोर कंधों पर अपनी उम्मीदों का बोझ नहीं रखा है.

Tuesday, February 10, 2015

अच्‍छे दिन 'दिखाने' की कला

पिछले दो-तीन वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था सचमुच गहरी मंदी का शिकार थी या हमारी पैमाइश ही गलत थीअथवा नई सरकार ने सत्ता में आने के बाद पैमाइश का तरीका बदल दिया ताकि तस्वीर को बेहतर दिखाया जा सके?
नीमत है कि भारत में आम लोग आंकड़ों को नहीं समझते. राजनीति में कुछ भी कह कर बच निकलना संभव है और झूठ व सच को आंकड़ों में कसना टीवी बहसों का हिस्सा नहीं बना है वरना, आर्थिक विकास दर (जीडीपी) की गणना के नए फॉर्मूले और उससे निकले आंकड़ों के बाद देश का राजनैतिक विमर्श ही बदल गया होता. प्रधानमंत्री अपनी रैलियों में यूपीए के दस साल को कोसते नहीं दिखते. सरकार, यह कहते ही सवालों में घिर जाती कि पंद्रह साल में कुछ नहीं बदला है. सरकार ने जीडीपी गणना के नए पैमाने से देश की इकोनॉमी का ताजा अतीत ही बदल दिया है. इन आंकड़ों के मुताबिक, भारत में पिछले दो साल मंदी व बेकारी के नहीं बल्कि शानदार ग्रोथ के थे. पिछले साल की विकास दर पांच फीसद से कम नहीं बल्कि सात फीसद के करीब थी. यानी कि मंदी और बेकारी के जिस माहौल ने लोकसभा चुनाव में बीजेपी की अभूतपूर्व जीत में केंद्रीय भूमिका निभाई थी वह, इन आंकड़ों के मुताबिक मौजूद ही नहीं था.
पिछले दो-तीन वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था सचमुच गहरी मंदी का शिकार थी या हमारी पैमाइश ही गलत थी? अथवा नई सरकार ने सत्ता में आने के बाद पैमाइश का तरीका बदल दिया ताकि तस्वीर को बेहतर दिखाया जा सके? दोनों ही सवाल दूरगामी हैं और आर्थिक व राजनैतिक रूप से दोहरे नुक्सान-फायदों से लैस हैं. आर्थिक हलकों में इन पर बहस शुरू हो चुकी है, जो दिल्ली चुनाव के बाद सियासत तक पहुंच जाएगी. जीडीपी की ग्रोथ किसी देश की तरक्की का बुनियादी पैमाना है जो निवेश के फैसले और सरकार की नीतियों की दिशा तय करता है. अगर जीडीपी के नए आकंड़े स्वीकृत होते हैं तो आने वाले बजट का परिप्रेक्ष्य ही बदल जाएगा.
भारत में सकल घरेलू उत्पादन (खेती, उद्योग, सेवा) की गणना फिलहाल बुनियादी लागत (बेसिक कॉस्ट) पर होती है यानी जो कीमत निर्माता या उत्पादक को मिलती है. नए फॉर्मूले में उत्पादन लागत का हिसाब लगाने में बेसिक कॉस्ट के साथ अप्रत्यक्ष कर भी शामिल होगा. सरकार ने यह आंकड़ा लागू करने के लिए 2011-12 की कीमतों को आधार बनाया और पांच लाख कंपनियों (पहले सिर्फ 2,500 कंपनियों का सैम्पल) से आंकड़े जुटाए, जिनके बाद 2013-14 में देश की इकोनॉमी 6.9 फीसदी की ऊंचाई पर चढ़ गई, जो पिछले आंकड़ों में 4.7 फीसद थी. वित्तीय वर्ष के बीचोबीच इस तरह के परिवर्तन ने गहरे राजनैतिक व आर्थिक असमंजस पैदा कर दिए हैं. 
भारत में पिछले तीन साल महंगाई, मंदी, बेकारी, ऊंची ब्याज दर, घटते उत्पादन और कंपनियों के खराब प्रदर्शन के थे. इन हालात में तेज ग्रोथ का कोई ताजा उदाहरण दुनिया में नहीं मिलता. नई सरकार का पहला पूर्ण बजट मंदी से जंग पर केंद्रित होने वाला था ताकि रोजगार बढ़ सकें. ब्याज दर घटाने की उम्मीदें भी इसी आकलन पर आधारित थीं. अलबत्ता जीडीपी के नए आंकड़ों के मुताबिक, ग्रोथ, रोजगार और कमाई पहले से बढ़ रही है इसलिए मोदी सरकार का पहला पूर्ण बजट सख्त वित्तीय अनुशासन और दस फीसदी ग्रोथ की तैयारी पर आधारित होना चाहिए न कि मंदी से उबरने के लिए उद्योगों को प्रोत्साहन और कमाई में कमी से परेशान आम लोगों को कर राहत देने पर. ऊहापोह इस कदर है कि रिजर्व बैंक ने इस नए पैमाने को ताजा मौद्रिक समीक्षा में शामिल नहीं किया. वित्त मंत्रालय के आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यम भी अचरज में हैं.   
बीजेपी की लोकसभा विजय में कांग्रेसी राज की मंदी और बेकारी से उपजी निराशा की अहम भूमिका थी. बीजेपी को यह बात अच्छी तरह से मालूम है कि इन आंकड़ों से यूपीए के दौर में आर्थिक प्रबंधन की बेहतर तस्वीर ही सामने नहीं आती है बल्कि यूपीए के पूरे शासनकाल में आर्थिक ग्रोथ का चेहरा खासा चमकदार हो जाता है, जिसे लेकर कांग्रेस खुद बेहद शर्मिंदा रही थी. इसके बावजूद पैमाने में बदलाव इसलिए स्वीकार किया गया है  क्योंकि ताजा आंकड़ों  में मोदी सरकार के नौ महीने भी शामिल हो जाते हैं, जिनमें चमकती ग्रोथ दिखाई जा सकती है. 
यदि वित्त मंत्री अरुण जेटली को अपनी सरकार के नौ माह को शानदार बताना है तो उन्हें अपने बजट भाषण की शुरुआत कुछ इसी तरह से करनी होगी कि, ''सभापति महोदय, मुझे बेहद प्रसन्नता है कि तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था ने पिछले साल यानी 2013-14 में शानदार ग्रोथ दर्ज की. दुनियाभर में छाई मंदी, भारी महंगाई, देश में ऊंची ब्याज दरों और मांग में कमी के बावजूद पिछले साल कमाई भी बढ़ी और रोजगार भी. इससे एक साल पहले भी स्थिति बहुत खराब नहीं रही थी.'' जाहिर है, इस भाषण में यूपीए के आर्थिक प्रबंधन की तारीफ भी छिपी होगी. और वित्त मंत्री यदि 'पिछले दस वर्षों में सब बर्बाद' की धारणा पर कायम रहते हैं तो फिर जीडीपी की गणना का नया फॉर्मूला ही खारिज हो जाएगा. आंकड़ों की बिल्ली थैले से बाहर आ चुकी है. एक बड़े ग्लोबल निवेशक का कहना था कि सरकार को बुनियादी आंकड़ों को लेकर साफ-सुथरा होना चाहिए. मंदी की जगह ग्रोथ के आंकड़ों के पीछे चाहे जो राजनीति हो लेकिन इससे अब चौतरफा भ्रम फैलेगा. हम अब तक इस बात पर मुतमईन थे कि भारत को मंदी से उबरने की कोशिश करनी है लेकिन अब तो यह भी तय नहीं है कि अर्थव्यवस्था मंदी में है या ग्रोथ दौड़ रही है. नए पैमाने के आधार पर जीडीपी का सबसे ताजा आंकड़ा दिल्ली चुनाव के नतीजे से ठीक एक दिन पहले आएगा जो भारत में आंकड़ों की गुणवत्ता व इनके राजनैतिक इस्तेमाल पर चीन जैसी बहस शुरू कर सकता है जो मोदी सरकार को असहज करेगी.