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Monday, September 12, 2022

मेरी रेवड़ी अच्‍छी उसकी खराब,

 




मैं हमेशा सच बोलता हूं अगर मैं झूठ भी बोल रहा हूं तब भी वह सच ही है.

भारत की राजनीति आजकल रेवड़‍ियों यानी लोकलुभान अर्थशास्‍त्र पर एसे  ही अंतरविरोधी बयानों से हमारा मनोरंजन कर रही है.

वैसे ऊपर वाला संवाद प्रस‍िद्ध हॉलीवुड फिल्‍म स्‍कारफेस (1983) का है. ब्रायन डी पाल्‍मा की इस फिल्‍म में अल पचीनो ने  गैंगस्‍टर टोनी मोंटाना का बेजोड़ अभिनय किया था. इस फिल्‍म ने गैंगस्‍टर थीम पर बने  सिनेमा को  कई पीढ़‍ियों तक प्रभावित कि‍या.

सरकार के अंतरव‍िरोध देख‍िये

नीति आयोग ने बीते साल  कहा कि खाद्य सब्‍सिडी का बिल कम करने के लिए  राष्‍ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के लाभार्थ‍ियों की संख्‍या को करीब 90 करोड से घटाकर 72 करोड पर लाना चाहिए. इससे सालाना 47229 करोड़ रुपये बचेंगे.

दूसरा, इसी साल जून में नीति आयोग ने कहा कि इलेक्‍ट्र‍िक वाहनों पर सरकारी की सब्‍सि‍डी 2031 तक जारी रहनी चाहिए. ताकि बैटरी की लागत कम हो सके.च्

आप कौन की सब्‍सि‍डी चुनेंगे?

इस वर्ष अप्रैल में केंद्र ने राज्‍यों को सुझाया कि कर्ज और सब्‍स‍िडी कम करने के लिए  सरकारी  सेवाओं को महंगा किया जाना चाहिए.

मगर घाटा तो केंद्र का भी कम नहीं है तो उद्योगों को करीब 1.11 लाख करोड़ रुपये की टैक्‍स रियायतें क्‍यों दी गईं ?

कौन सी रेवड़ी विटामिन है कौन सी रिश्‍वत?

68000 करोड़ रुपये की सालाना किसान सम्‍मान न‍िधि‍ को किस वर्ग में रखा जाए?

14 उद्योगों को 1.97 करोड़ रुपये के जो प्रोडक्‍शन लिंक्‍ड इंसेट‍िव हैं उनको क्‍या मानेंगे हम ?

रेवड‍ियों का बजट

वित्‍त वर्ष 2022-23  में केंद्र सरकार का सब्‍स‍िडी बिल करीब 4.33 लाख करोड़ होगा. इनके अलावा करीब 730 केंद्रीय योजनाओं पर  इस याल 11.81 लाख करोड़ खर्च होंगे. इनमें से कई के रेवड़ि‍त्‍वपर बहस हो सकती है.

केंद्र प्रयोजित योजनायें दूसरा मद हैं जिन्‍हें केंद्र की मदद से राज्‍य लागू करते हैं. इस साल के बजट में इनकी संख्‍या 130 से घटकर 70 रह गई है लेक‍िन आवंटन बीते साल के 3.83 लाख करोड़ रुपये से बढकर 4.42 लाख करोड़ रुपये हो गया है.

राज्‍यों में रेवड़ी छाप योजनाओं की रैली होती रहती है.  इनसे अलग  2020-21 में राज्‍यों का करीब 2.38 लाख करोड़ रुपये स्‍पष्‍ट रुप से सब्‍स‍िडी के वर्ग आता था जो  2018-19 के मुकाबले करीब 12.7 फीसदी बढ़ा है. रिजर्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार  बीते बरस राज्‍यों के राजस्‍व में केवल एक फीसदी की बढ़त हुई. राज्‍यों के  राजस्‍व में सब्सिडी का हिस्‍सा अब बढ़कर 19.2 फीसदी हो गया है  

कितना फायदा कितना नुकसान

मुफ्त तोहफे बांटने की बहसें जब उरुज़ पर आती हैं तो किसी सब्‍स‍िडी को उससे मिलने वाले फायदे से मापने का तर्क दिया जाता है.

2016 में एनआईपीएफपी ने अपने एक अध्‍ययन में बताया था कि खाद्य शि‍क्षा और स्‍वास्‍थ्‍य के अलावा सभी सब्‍स‍िडी अनुचित हैं. वही सोशल ट्रांसफर उचित हैं जिनसे मांग और बढ़ती हो.  इस पुराने अध्‍ययन के अनुसार 2015-16 में समग्र गैर जरुरी (नॉन मेरिट)  सब्‍स‍िडी जीडीपी के अनुपात में 4.5 फीसदी थीं. कुल सब्‍स‍िडी में इनका हिस्‍सा आधे से ज्‍यादा है और राज्‍यों में इनकी भरमार है.

आर्थ‍िक समीक्षा (2016-17) बताती है कि करीब 40 फीसदी लक्षित लोगों को राशन प्रणाली और 65 फीसदी जरूरतमंदों को मनरेगा का लाभ नहीं मिलता. छह प्रमुख स्कीमों (आवास योजनासर्व शिक्षामिड डे मीलग्राम सड़कमनरेगास्वच्छ भारत) के सबसे कम फायदे उन जिलों को मिले जहां सबसे ज्यादा गरीब आबादी थी.  

यदि शिक्षा और स्‍वास्‍थ्‍य को सामाजिक जरुरत मान लिया जाए तो उसके नाम पर लग रहे टैक्‍स  और सेस के बावजूद अधि‍कांश आबादी निजी क्षेत्र से शिक्षा और स्‍वास्‍थ्‍य खरीदती है.

सनद रहे कि कंपनियों को मिलने वाली टैक्‍स रियायते, सब्‍स‍िडी की गणनाओं में शामिल नहीं की जातीं.

ब‍िजली का स्‍यापा

ि‍बजली सब्‍स‍िडी भारत का सबसे विद्रूप सच है. उदय स्‍कीम के तहत ज्‍यादातर राज्‍य बिजली बिलों की व्‍यवस्‍था सुधारने  और वितरण घटाने के लक्ष्‍य नहीं पा सके. 31 राज्‍यों और केंद्रशास‍ित प्रदेशों में 2019 के बाद से ब‍िजली की आपूर्ति लागत में सीधी बढत दर्ज की गई.

बिजली दरों का ढांचा पूरी तरह सब्‍स‍िडी केंद्रि‍त है. इसमें सीधी सब्‍स‍िडी भी है उद्योगों पर भारी टैरिफ लगाकर बाकी दरों को कम रखने वाली क्रॉस सब्‍स‍िडी भी.  27 राज्‍यों ने 2020-21 में करीब 1.32 लाख करोड़ रुपये की बिजली सब्‍स‍िडी दी, इसमें 75 फीसदी सब्‍स‍िडी किसानों के नाम पर है.

बिजली वितरण कंपनियां (डिस्‍कॉम) 2.38 लाख करोड की बकायेदारी में दबी हैं. इन्‍हें यह  पैसा बिजली बनाने वाली कंपनियों को देना है. डिस्‍कॉम के खातों में सबसे बड़ी बकायेदारी राज्‍य सरकारों की है जिनके कहने पर वह सस्‍ती बिजली बांट कर चुनावी संभावनायें चमकाती हैं

तो होना क्‍या चाहिए

सरकार रेवड़‍ियों पर बहस चाहती है तो सबसे पहले   केंद्रीय और राज्‍य स्‍कीमों, सब्‍स‍िडी और कंपनियों को मिलने वाली रियायतों की पारदर्शी कॉस्‍ट बेनीफ‍िट एनाल‍िसिस हो  ताकि पता चला कि किस स्‍कीम और सब्‍स‍िडी से किस लाभार्थी वर्ग को ि‍कतना फायदा हुआ.

और जवाब मिल सकें इन सवालों के

कि क्‍या किसानों को सस्‍ती खाद, सस्‍ती बिजली, सस्‍ता कर्ज और एमएसपी सब देना जरुरी है?

सरकारी स्‍कीमों से शिक्षा स्‍वास्‍थ्‍य या किसी दूसरी सेवा की गुणवत्‍ता और फायदों में कितना इजाफा हुआ ?

कंपनियों को मिलने वाली किस टैक्‍स रियायत से कितने रोजगार आए?

अगर सस्‍ती श‍िक्षा और मुफ्त किताबें रेवडी नहीं हैं तो डिजिटल शिक्षा के लिए लैपटॉप या मोबाइल रेवड़ी क्‍यों माने जाएं?

इस सालाना  विश्‍लेषण के आधार पर जरुरी और गैर जरुरी सब्‍स‍िडी  के नियम तय किये जा सकते हैं.

इस गणना के बाद राज्‍यों के लिए राजकोषीय घाटे की तर्ज  रेवड़ी खर्च की सीमा तय की जा सकती है.  राज्‍य सरकारें बजट नियमों के तहत तय करें कि उन्‍हें क्‍या देना है और क्‍या नहीं.

सनद रहे‍ कि कमाना और बचाना तो हमारे लिए जरुरी है संप्रभु सरकारें पैसा छाप सकती हैं, टैक्‍स थोप सकती हैं  और बैंकों से हमारी जमा निकाल कर मनमाना खर्च कर सकती है . यही वजह है कि भारत के बजट दशकों के सब्‍स‍िडी के  एनीमल फॉर्म (जॉर्ज ऑरवेल) में भटक रहे हैं जहां "All animals are equal, but some are more equal than others. इस सबके बीच  सुप्रीम कोर्ट की कृपा से अगर देश को इतना भी पता चल जाए कि कौन सा सरकारी दया रेवड़ी है और कौन सी रियायत वैक्‍सीन तो कम से कम हमारे ज़हन तो साफ हो जाएंगे.

 

 

 

Saturday, September 14, 2019

मंदी के प्रायोजक



केंद्र और राज्य सरकारें हमें इस मंदी से निकाल सकती हैं ? जवाब इस सवाल में छिपा है कि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और कई दूसरे राज्यों ने बिजली क्यों महंगी कर दी? जबकि मंदी के समय बिजली महंगी करने से न उत्‍पादन बढता है और न खपत.  
लेकिन राज्य करें क्या ? एनटीपीसी अब उन्हें उधार बिजली नहीं देगी. बकाया हुआ तो राज्यों की बैंक गारंटी भुना ली जाएगी. यहां तक कि केंद्र सरकार राज्यों को बिजली बकाये चुकाने के लिए कर्ज लेने से भी रोकने वाली है.

जॉन मेनार्ड केंज के दशकों पुराने मंतर के मुताबिक मंदी के दौरान सरकारों को घाटे की चिंता छोड़ कर खर्च बढ़ाना चाहिए. सरकार के खर्च की पूंछ पकड़ कर मांग बढ़ेगी और निजी निवेश आएगा.  लेकिन केंद्र और राज्यों के बजटों के जो ताजा आंकडे हमें मिले हैं वह बताते हैं कि इस मंदी से उबरने लंबा वक्त लग सकता है.

बीते  सप्ताह वित्त राज्‍य मंत्री अनुराग ठाकुर यह कहते सुने गए कि मांग बढ़े इसके लिए राज्यों को टैक्स कम करना चाहिए. तो क्या राज्य मंदी से लड़़ सकते हैं क्‍या प्रधानमंत्री मोदी की टीम इंडिया इस मंदी में उनकी मदद कर सकती है.

राज्य सरकारों के कुल खर्च और राजस्व में करीब 18 राज्य 91 फीसदी का हिस्सा रखते हैं. इस वित्‍तीय साल की पहली तिमाही जिसमें विकास दर ढह कर पांच  फीसदी पर  गई है उसके ढहने में सरकारी खजानों  की बदहाली की बड़ी भूमिका है.

- खर्च के आंकड़े खंगालने पर मंदी बढ़ने की वजह हाथ लगती है. इस तिमाही में राज्यों का खर्च पिछले तीन साल के औसत से भी कम बढ़ा. हर साल एक तिमाही में राज्यों का कुल व्यय करीब 15 फीसदी बढ़ रहा था. इसमें पूंजी या विकास खर्च मांग पैदा करता है लेकिन पांच फीसदी की ढलान वाली तिमाही में राज्यों का विकास खर्च 19 फीसदी कम हुआ. केवल चार फीसदी की बढ़त 2012 के बाद सबसे कमजोर है.

- केंद्र का विकास या पूंजी खर्च 2018-19 में जीडीपी के अनुपात में सात साल के न्यूनतम स्तर पर था मतलब यह  कि जब अर्थव्यवस्था को मदद चाहिए तब केंद्र और राज्यों ने हाथ सिकोड़ लिए. टैक्स तो बढ़े, पेट्रोल डीजल भी महंगा हुआ लेकिन मांग बढ़ाने वाला खर्च नहीं बढ़ा. तो फिर मंदी क्यों न आती.

- राज्यों के राजस्व में बढ़ोत्तरी की दर इस तिमाही में तेजी से गिरी. राज्यों का कुल राजस्व 2012 के बाद न्यूनतम स्तर पर हैं लेकिन नौ सालों में पहली बार किसी साल की पहली तिमाही में राज्यों का राजस्व संग्रह इस कदर गिरा है. केंद्र ने जीएसटी से नुकसान की भरपाई की गारंटी न दी होती तो मुसीबत हो जाती. 18 राज्यों में केवल झारखंड और कश्मीर का राजस्व बढ़ा है

केंद्र सरकार का राजस्व तो पहली तिमाही में केवल 4 फीसदी की दर से बढ़ा है जो 2015 से 2019 के बीच इसी दौरान 25 फीसदी की दर से बढ़ता था.

- खर्च पर कैंची के बावजूद इन राज्यों का घाटा तीन साल के सबसे ऊंचे स्तर पर है. आंकड़ो पर करीबी नजर से  पता चलता है कि 13 राज्यों के खजाने तो बेहद बुरी हालत में हैं. छत्तीसगढ़ और केरल की हालत ज्यादा ही पतली है. 18 में सात राज्य ऐसे हैं जिनके घाटे पिछले साल से ज्यादा हैं. इनमें गुजरात, आंध्र, कर्नाटक, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य हैं. इनके खर्च में कमी से मंदी और गहराई है.

केंद्र और राज्यों की हालत एक साथ देखने पर कुछ ऐसा होता दिख रहा है जो पिछले कई दशक में नहीं हुआ. साल की पहली तिमाही में केंद्र व राज्यों की कमाई एक फीसदी से भी कम रफ्तार से बढ़ी. जो पिछले तीन साल में 14 फीसदी की गति से बढ़ रही थी. इसलिए खर्च में रिकार्ड कमी हुई है.  

खजानों के आंकड़े बताते हैं कि मंदी 18 माह से है लेकिन सरकारों ने अपने कामकाज को बदल कर खर्च की दिशा ठीक नहीं की. विकास के नाम पर विकास का खर्च हुआ ही नहीं और मंदी आ धमकी. अब राजस्व में गिरावट और खर्च में कटौती का दुष्चक्र शुरु हो गया.  यही वजह है कि केंद्र सरकार को रिजर्व बैंक के रिजर्व में सेंध लगानी पड़ी. तमाम लानत मलामत के बावजूद सरकारें टैक्स कम करने या खर्च बढ़ाने की हालत में नहीं है.

तो क्या मंदी की एक बड़ी वजह सरकारी बजटों का कुप्रबंध है ! चुनावी झोंक में उड़ाया गया बजट अर्थव्यवस्था के किसी काम नहीं आया ! सरकारें पता नहीं कहां कहां खर्च करती रहीं और आय, बचत व खपत गिरती चली गई !

अब विकल्प सीमित हैं. प्रधानमंत्रीको मुख्यमंत्रियों के साथ मंदी पर साझा रणनीति बनानी चाहिए. खर्च के सही संयोजन के साथ प्रत्येक राज्य में कम से कम दो बड़ी परियोजनाओं पर काम शुरु कर के मांग का पहिया घुमाया जा सकता है 

लेकिन क्या सरकारें अपनी गलतियों से कभी सबक लेंगी ! या सारे सबक सिर्फ आम लोगों की किस्मत में लिखे गए हैं  !



Sunday, June 23, 2019

सबसे बड़ा तक़ाज़ा


अपनी गलतियों पर हम जुर्माना भरते हैं लेकिन जब सरकारें गलती करती हैं तो हम टैक्स चुकाते हैंइसलिए तो हम टैक्स देते नहींवे दरअसल हमसे टैक्स ‘वसूलते’ हैंरोनाल्ड रीगन ठीक कहते थे कि लोग तो भरपूर टैक्स चुकाते हैंहमारी सरकारें ही फिजूल खर्च हैं.

नए टैक्स और महंगी सरकारी सेवाओं के एक नए दौर से हमारी मुलाकात होने वाली हैभले ही हमारी सामान्य आर्थिक समझ इस तथ्य से बगावत करे कि मंदी और कमजोर खपत में नए टैक्स कौन लगाता है लेकिन सरकारें अपने घटिया आर्थिक प्रबंधन का हर्जाना टैक्स थोप कर ही वसूलती हैं.

सरकारी खजानों का सूरत--हाल टैक्स बढ़ाने और महंगी सेवाओं के नश्तरों के लिए माहौल बना चुका है.

·       राजस्व महकमा चाहता है कि इनकम टैक्स व जीएसटी की उगाही में कमी और आर्थिक विकास दर में गिरावट के बाद इस वित्त वर्ष (2020) कर संग्रह का लक्ष्य घटाया जाए.

·       घाटा छिपाने की कोशिश में बजट प्रबंधन की कलई खुल गई हैसीएजी ने पाया कि कई खर्च (ग्रामीण विकासबुनियादी ढांचाखाद्य सब्सिडीबजट घाटे में शामिल नहीं किए गएपेट्रोलियमसड़करेलवेबिजलीखाद्य निगम के कर्ज भी आंकड़ों में छिपाए गएराजकोषीय घाटा जीडीपी का 4.7 फीसद है, 3.3 फीसद नहींनई वित्त मंत्री घाटे का यह सच छिपा नहीं सकतींबजट में कर्ज जुटाने का लक्ष्य हकीकत को नुमायां कर देगा. 

·       सरकार को पिछले साल आखिरी तिमाही में खर्च काटना पड़ानई स्कीमें तो दूरकम कमाई और घाटे के कारण मौजूदा कार्यक्रमों पर बन आई है.

·       हर तरह से बेजारजीएसटी अब सरकार का सबसे बड़ा ‌सिर दर्द हैकेंद्र ने इस नई व्यवस्था से राज्यों को होने वाले घाटे की भरपाई की जिम्मेदारी ली हैजो बढ़ती ही जा रही है.

सरकारें हमेशा दो ही तरह से संसाधन जुटा सकती हैंएक टैक्स‍ और दूसरा (बैंकों सेकर्जमोदी सरकार का छठा बजट संसाधनों के सूखे के बीच बन रहा हैबचतों में कमी और बकाया कर्ज से दबेपूंजी वंचित बैंक भी अब सरकार को कर्ज देने की स्थिति में नहीं हैं.

इसलिए नए टैक्सों पर धार रखी जा रही हैइनमें कौन-सा इस्तेमाल होगा या कितना गहरा काटेगायह बात जुलाई के पहले सप्ताह में पता चलेगी.

        चौतरफा उदासी के बीच भी चहकता शेयर बाजार वित्त मंत्रियों का मनपसंद शिकार हैपिछले बजट को मिलाकरशेयरों व म्युचुअल फंड कारोबार पर अब पांच (सिक्यूरिटी ट्रांजैक्शनशॉर्ट टर्म कैपिटल गेंसलांग टर्म कैपिटल गेंसलाभांश वितरण और जीएसटीटैक्स लगे हैंइस बार यह चाकू और तीखा हो सकता है.

        विरासत में मिली संपत्ति (इनहेरिटेंसपर टैक्स आ सकता है.

        जीएसटी के बाद टैक्स का बोझ नहीं घटानए टैक्स (सेसबीते बरस ही लौट आए थेकस्टम ड्यूटी के ऊपर जनकल्याण सेस लगाडीजल-पेट्रोल पर सेस लागू है और आयकर पर शिक्षा सेस की दर बढ़ चुकी हैयह नश्तर और पैने हो सकते हैं यानी नए सेस लग सकते हैं.

        लंबे अरसे बाद पिछले बजटों में देसी उद्योगों को संरक्षण के नाम पर आयात को महंगा (कस्टम ड‍्यूटीकिया गयायह मुर्गी फिर कटेगी और महंगाई के साथ बंटेगी. 
    और कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमत में कमी के सापेक्ष पेट्रोल-डीजल पर टैक्स कम होने की गुंजाइश नहीं है.

जीएसटी ने राज्यों के लिए टैक्स लगाने के विकल्प सीमित कर दिए हैंनतीजतनपंजाबमहाराष्ट्रकर्नाटकगुजरात और झारखंड में बिजली महंगी हो चुकी हैउत्तर प्रदेशमध्य‍ प्रदेशराजस्थान में करेंट मारने की तैयारी हैराज्यों को अब केवल बिजली दरें ही नहीं पानीटोलस्टॉम्प ड‍्यूटी व अन्य सेवाएं भी महंगी करनी होंगी क्योंकि करीब 17 बड़े राज्यों में दस राज्य, 2018 में ही घाटे का लाल निशान पार कर गए थे. 13 राज्यों पर बकाया कर्ज विस्फोटक हो रहा है. 14वें वित्त आयोग की सिफारिशों के बाद राज्यों का आधा राजस्व केंद्रीय संसाधनों से आता है.

जीएसटी के बावजूद अरुण जेटली ने अपने पांच बजटों में कुल 1,33,203 करोड़ रुके नए टैक्स लगाए यानी करीब 26,000 करोड़ रुप्रति वर्ष और पांच साल में केवल 53,000 करोड़ रुकी रियायतें मिलीं. 2014-15 और 17-18 के बजटों में रियायतें थींजबकि अन्य बजटों में टैक्स के चाबुक फटकारे गएकरीब 91,000 करोड़ रुके कुल नए टैक्स के साथजेटली का आखिरी बजटपांच साल में सबसे ज्यादा टैक्स वाला बजट था.

देश के एक पुराने वित्त मंत्री कहते थेनई सरकार का पहला बजट सबसे डरावना होता हैसो नई वित्त मंत्री के लिए मौका भी हैदस्तूर भीलेकिन बजट सुनते हुए याद रखिएगा कि अर्थव्यवस्था की सेहत टैक्स देने वालों की तादाद और टैक्स संग्रह बढ़ने से मापी जाती हैटैक्स का बोझ बढ़ने से नहीं.



Monday, August 31, 2015

वाह पैकेज, आह सुधार



पैकेज पॉलिटिक्स के नवीनीकरण के साथ मोदी ने केंद्र और राज्य के वित्तीय संबंधों को बदलने वाले अपने ही मॉडल को सर के बल खड़ा कर दिया है. 

ह अप्रत्याशित ही था कि लाल किले की प्राचीर से अपने 86 मिनट के मैराथन भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बार भी उस सबसे बड़े सुधार का जिक्र नहीं किया, जिसका ऐलान उन्होंने पिछले साल यहीं से किया था. योजना आयोग की विदाई लाल किले से ही घोषित हुई थी, जो मोदी सरकार का इकलौता क्रांतिकारी सुधार ही नहीं था बल्कि एक साहसी प्रधानमंत्री की दूरदर्शिता का प्रमाण भी था. अलबत्ता, लाल किले से संबोधन में योजना आयेाग और नीति आयोग का जिक्र न होने का रहस्य चार दिन बाद आरा की चुनावी रैली में खुला जब प्रधानमंत्री ने बिहार के लिए सवा लाख करोड़ रु. के पैकेज के साथ उस बेहद कीमती सुधार को रोक दिया, जो योजना आयोग की समाप्ति के साथ खुद उन्होंने शुरू किया था.
बिहार पैकेज पर असमंजस इसलिए नहीं है कि भारत के जीडीपी (2014-15) के एक फीसदी के बराबर का यह पैकेज कहां से आएगा या इसे कैसे बांटा जाएगा, बल्कि इसलिए कि पैकेज पॉलिटिक्स के नवीनीकरण ने केंद्र और राज्य के वित्तीय संबंधों को बदलने वाले मोदी के मॉडल को सिर के बल खड़ा कर दिया है. राजनैतिक गणित के आधार पर राज्यों को सौगात और खैरात बांटने का दंभ ही कांग्रेसी संघवाद की बुनियाद था. राज्यों को केंद्र से हस्तांतरणों में सियासी फार्मूले के इस्तेमाल पर पर्याप्त शोध उपलब्ध है जो बताता है कि 1972 से 1995 तक उन राज्यों को केंद्र से ज्यादा मदद मिली जो राजनैतिक तौर पर केंद्र सरकार के करीब थे या चुनावी संभावनाओं से भरे थे. 1995 के बाद राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारों के अभ्युदय के साथ केंद्रीय संसाधनों के हस्तांतरण में पारदिर्शता के आग्रह मुखर होने लगे.
यह गैर-कांग्रेसी राज्यों के विरोध का नतीजा था कि वित्त आयोगों ने धीरे-धीरे केंद्र से राज्यों को विवेकाधीन हस्तांतरणों के सभी रास्ते बंद कर दिए. 14वें वित्त आयोग ने तो केंद्रीय करों में राज्यों की हिस्सेदारी बांटने के लिए सामान्य और विशेष श्रेणी के राज्यों का दर्जा भी खत्म करते हुए, वित्तीय तौर पर नुक्सान में रहने वाले राज्यों के लिए राजस्व अनुदान का फॉर्मूला सुझाया है. वित्त आयोग ने केंद्र से राज्यों को हस्तांतरण बढ़ाने में शर्तों और सुविधाओं की भूमिका को सीमित कर दिया है.
केंद्र और राज्यों के वित्तीय रिश्तों में सियासी दखल को पूरी तरह खत्म करने के लिए योजना आयोग का विदा होना जरूरी था, जो केंद्रीय स्कीमों के जरिए संसाधनों के राजनैतिक हस्तांतरण को पोस रहा था. यही वजह थी कि पिछले साल लाल किले की प्राचीर से जब मोदी ने इस संस्था को विदा किया तो इसे राज्यों के लिए आर्थिक आजादी की शुरुआत माना गया. योजना आयोग के जाने और वित्त आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद राज्य सरकारें उस कांग्रेसी संघवाद से मुक्त हो गई थीं, जिसके तहत उन्हें केंद्र के साथ सियासी रिश्तों के तापमान या चुनावी सियासत के मुताबिक केंद्रीय मदद मिलती थी. लेकिन अफसोस! बिहार पैकेज के साथ प्रधानमंत्री मोदी ने अपने सबसे बड़े वित्तीय सुधार की साख खतरे में डाल दी है.
बिहार पैकेज का ऐलान मोदी की टीम इंडिया यानी देश के राज्यों की उलझन बढ़ाने वाला है, जो योजना आयोग की अनुपस्थिति से उपजे शून्य को लेकर पहले से ही ऊहापोह में हैं. योजना आयोग की विदाई ने केंद्र व राज्य के बीच संसाधनों के बंटवारे और प्रशासनिक समन्वय को लेकर व्यावहारिक चुनौतियां खड़ी कर दी हैं, जिसे भरने के लिए नीति आयोग के पास न तो पर्याप्त अधिकार हैं और न ही क्षमताएं. योजना आयोग केवल केंद्र व राज्यों के बीच संसाधन ही नहीं बांटता था बल्कि केंद्र के विभिन्न विभागों व राज्य सरकारों के बीच समन्वय का आधार था. केंद्रीय मंत्रालय व राज्य सरकारें योजना आयोग को संसाधनों की जरूरतों का ब्योरा भेजती थीं, जिसके आधार पर केंद्रीय योजना को बजट से मिली सहायता बांटी जाती है. योजना आयोग बंद होने के साथ यह प्रक्रिया भी खत्म हो गई.
राज्य सरकारों को विभिन्न स्कीमों व कार्यक्रमों के तहत केंद्रीय संसाधन मिलते हैं. योजना आयोग की अनुपस्थिति के बाद अब 14वें वित्त आयोग की राय के मुताबिक इन केंद्रीय स्कीमों में संसाधनों के बंटवारे का नया फॉर्मूला तय होना है, जिसके लिए मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की अध्यक्षता में गठित समिति की सिफारिशों का इंतजार हो रहा है. इस असमंजस के कारण आवंटनों की गति सुस्त है, जिससे राज्यों की ही नहीं, बल्कि केंद्र की योजनाओं के क्रियान्वयन पर भी असर पड़ रहा है. यही नहीं, योजना आयोग केंद्रीय व राज्य की स्कीमों की मॉनिटरिंग भी करता था, जिसके आधार पर आवंटनों को तर्कसंगत किया जाता था. व्यवस्था का विकल्प भी अब तक अधर में है.
योजना आयोग खत्म होने के बाद अनौपचारिक चर्चाओं में मुख्यमंत्री यह बताते थे कि योजना आयोग की नामौजूदगी से केंद्र व राज्यों के बीच समन्वय का शून्य बन गया है. अलबत्ता राज्यों के मुखिया यह जिक्र करना नहीं भूलते थे कि मोदी सरकार के नेतृत्व में केंद्र व राज्यों के बीच वित्तीय रिश्तों की नई इबारत बन रही है, जो राज्यों की आर्थिक आजादी को सुनिश्चित करती है. इसलिए समन्वय की समस्याओं का समाधान निकल आएगा. लेकिन बिहार पैकेज के बाद अब मोदी के संघवाद पर राज्यों का भरोसा डगमगाएगा.
यह देखना अचरज भरा है कि राज्यों को आर्थिक आजादी की और केंद्रीय नियंत्रण से मुक्त करने की अलख जगाते मोदी, इंदिरा-राजीव दौर के पैकेजों की सियासत वापस ले आए हैं, जिसके तहत केंद्र सरकारें राजनैतिक गणित के आधार पर राज्यों को संसाधन बांटती थीं. राजनैतिक कलाबाजियां और यू टर्न ठीक हैं लेकिन कुछ सुधार ऐसे होते हैं जिन पर टिकना पड़ेगा. मोदी के अच्छे दिनों का बड़ा दारोमदार टीम इंडिया यानी राज्यों पर है, जिन्हें मोदी के सहकारी संघवाद से बड़ी आशाएं हैं. उम्मीद की जानी चाहिए कि बिहार पैकेज अपवाद होगा. मोदी पैकेज पॉलिटिक्स में फंसकर अपने सबसे कीमती सुधार को बेकार नहीं होने देंगे.

Monday, April 9, 2012

सूबेदारों के खजाने

किस्‍मत हो तो अखिलेश यादव और विजय बहुगुणा जैसी। क्‍यों कि ममता बनर्जी और प्रकाश सिंह बादल जैसी किस्‍मत से फायदा भी क्‍या। उत्‍तर प्रदेश और उत्‍तराखंड में मुख्‍यमंत्री बनने के लिए शायद इससे अच्‍छा वक्‍त नहीं हो सकता। अखिलेश और विजय बहुगुणा को सिर्फ कुर्सी नहीं बल्कि भरे पूरे खजाने भी मिले हैं यानी कि दोहरी लॉटरी। दूसरी तरफ कंगाल बंगाल की महारानी, ममता दरअसल जीत कर भी हार गई हैं। और रहे बादल तो वह किसे कोसेंगे, उन्‍हें तो अपना ही बोया काटना है। राज्‍यों के मामले में हम एक बेहद कीमती और दुर्लभ परिदृश्‍य से मुखातिब है। जयादातर राज्‍यो के बजट में राजस्‍व घाटा खत्‍म ! करीब दो दर्जन सरकार की कमाई के खाते में सरप्‍लस यानी बचत की वापसी ! खर्च पर नियंत्रण। कर्ज के अनुपातों में गिरावट। ... प्रणव बाबू अगर राज्‍यों के यह आंकड़े देखें तो वह अपने बजट प्रबंधन ( भारी घाटा) पर शर्मिंदा हुए बिना नहीं रहेंगे। अर्से बाद राज्‍यों की वित्‍तीय सेहत इतनी शानदार दिखी है। तीन चार साल की हवा ही कुछ ऐसी थी कि यूपी बिहार जैसे वित्‍तीय लद्धढ़ भी बजट प्रबंधन के सूरमा बन गए, तो जिन्‍हें नहीं सुधरना था (बंगाल, पंजाब) वह इस मौके पर भी नहीं सुधरे। राज्‍यों के वित्‍तीय सुधार की यह खुशी शत प्रतिशत हो सकती थी, बस अगर बिजली कंपनियों व बोर्डों के घाटे न होते। राज्‍यों के वित्‍तीय प्रबंधन की चुनौती अब उनके बजट यानी टैक्‍स या खर्च से के दायरे से बाहर है। राज्‍यों की बिजली कंपनियां अब सबसे बड़ा वित्‍तीय खतरा बन गई हैं।
जैसे इनके दिन बहुरे
नजारा बड़ा दिलचस्‍प है। उत्‍तर प्रदेश, मध्‍य प्रदेश झारखंड, बजटीय संतुलन की कक्षा में मेधावी हो गए हैं जबकि पुराने टॉपर महाराष्‍ट्र, तमिलनाडु, हरियाणा और यहां तक कि गुजरात का भी रिपोर्ट कार्ड दागी है। राज्‍यों की पूरी जमात में पंजाब, हरियाणा और बंगाल तीन ऐसे राज्‍य हैं जो वित्‍तीय सेहत सुधारने मौसम में भी ठीक नहीं हो सके। अन्‍य राज्‍यों और पिछले वर्षों की तुलना में इनका राजसव्‍ गिरा और घाटे व कर्ज बढे हैं। वैसे अगर सभी राज्‍यों के संदर्भ में देखा जाए तो घाटों, कर्ज और असंतुलन का अजायबघर रहे राज्‍य बजटों का यह पुनरोद्धार