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Friday, May 27, 2022

सबसे सनसनीखेज मोड़

 


 

नाइट श्‍यामलन की मास्‍टर पीस फ‍िल्‍म सिक्‍थ सेंस (1999) एक बच्‍चे की कहानी है जिसे मरे हुए लोगों के प्रेत दिखते हैं. मशहूर अभिनेता ब्रूस विलिस इसमें मनोच‍िक‍ित्‍सक बने हैं जो इस बच्‍चे का इलाज करता है दर्शकों को अंत में पता चलता है कि मनोवैज्ञान‍िक डॉक्‍टर खुद में एक प्रेत है जो मर चुका है और उसे खुद इसका पता नहीं है. फिल्‍ के एंटी क्‍लाइमेक्‍स ने उस वक्‍त सनसनी फैला दी थी

सुप्रीम कोर्ट के ताजे फैसले से जीएसटी की कहानी में सनसनीखेज मोड आ गया है जो जीएसटी काउंसिल जो केंद्र राज्‍य संबंधों में ताकत की नई पहचान थी, सुप्रीम कोर्ट ने उसके अधिकारों सीमि‍त करते हुए राज्‍यों को नई ताकत दे दी है. अब एक तरफ राज्‍यों पर पेट्रोल डीजल पर वैट घटाकर महंगाई कम करने दबाव है दूसरी तरफ राज्‍य सरकारें अदालत से मिली नई ताकत के दम पर अपनी तरह से टैक्‍स लगाने की जुगत में हैं क्‍यों कि जून के बाद राज्‍य कों केंद्र से मिलने वाला जीएसटी हर्जाना बंद हो जाएगा

2017 में जब भारत के तमाम राज्‍य टैक्‍स लगाने के अधिकारों को छोड़कर जीएसटी पर सहमत हो रहे थे, तब यह सवाल खुलकर बहस में नहीं आया अध‍िकांश राज्‍य, तो औद्योग‍िक  उत्‍पादों  और सेवाओं उपभोक्‍ता हैं, उत्‍पादक राज्‍यों की संख्‍या  सीमित हैं. तो इनके बीच एकजुटता तक कब तक चलेगी. महाराष्‍ट्र और  बिहार इस टैक्‍स प्रणाली से  अपनी अर्थव्‍यवस्‍थाओं की जरुरतों के साथ कब तक न्‍याय पाएंगे?

अलबत्‍ता  जीएसटी की शुरुआत के वक्‍त यह तय हो गया था कि जब तक केंद्र सरकार राज्‍यों को जीएसटी होने वाले नुकसान की भरपाई करती रहेगी. , यह एकजुटता बनी रहेगी. नुकसान की भरपाई की स्‍कीम इस साल जून से बंद हो जाएगी. इसलिए दरारें उभरना तय है 

 

कोविड वाली मंदी से जीएसटी की एकजुटता को पहला झटका लगा था. केंद्र सरकार राज्‍यों को हर्जाने का भुगतान नहीं कर पाई. बड़ी रार मची. अंतत: केंद्र ने राज्‍यों के कर्ज लेने की सीमा बढ़ाई.  मतलब यह कि जो संसाधन राजस्‍व के तौर पर मिलने थे वह कर्ज बनकर मिले. इस कर्ज ने राज्‍यों की हालत और खराब कर दी.

इसलिए जब राज्‍यों को पेट्रोल डीजल सस्‍ता करने की राय दी जा रही तब  वित्‍त मंत्रालय व जीएसटी काउंस‍िल इस उधेड़बुन में थे कि जीएसटी की क्षत‍िपूर्ति‍ बंद करने पर राज्‍यों को सहमत कैसे किया जाएगा? कमजोर अर्थव्‍यवस्‍था वाले राज्‍यों का क्‍या होगा?

बकौल वित्‍त आयोग जीएसटी से केंद्र व राज्‍य को करीब 4 लाख करोड़ का  सालाना नुकसान हो रहा है. जीएसटी में भी प्रभावी टैक्‍स दर 11.4 फीसदी है जिसे बढ़ाकर 14 फीसदी किया जाना है, जो रेवेन्‍यू न्‍यूट्रल रेट है यानी इस पर सरकारों को नुकसान नहीं होगा.

जीएसटी काउंसिल 143 जरुरी उत्‍पादों टैक्‍स दर 18 फीसदी से 28 फीसदी करने पर विचार कर रही है ताकि राजस्‍व बढ़ाया जा सके.

 

इस हकीकत के बीच यह सवाल दिलचस्‍प हो गया है कि क्‍या केंद्रीय एक्‍साइज ड्यूटी में कमी के बाद राज्‍य सरकारें पेट्रोल डीजल पर टैक्‍स घटा पाएंगी? कुछ तथ्‍य पेशेनजर हैं

- 2018 से 2022 के बीच पेट्रो उत्‍पादों से केंद्र सरकार का राजस्‍व करीब 50 फीसदी बढ़ा लेक‍िन राज्‍यों के राजस्‍व में केवल 35 फीसदी की बढ़त हुई. यानी केंद्र की कमाई ज्‍यादा थी

-    2016 से 2022 के बीच केंद्र का कुल टैक्‍स संग्रह करीब 100 फीसदी बढ़ा लेक‍िन राज्‍यों इस संग्रह में हिस्‍सा केवल 66 फीसदी बढ़ा.  केंद्र के राजस्‍व सेस और सरचार्ज का हिस्सा 2012 में 10.4 फीसद से बढ़कर 2021 में 19.9 फीसद हो गया है. यह राजस्‍व राज्‍यों के साथ बांटा नहीं जाता है. नतीजतन राज्‍यों ने जीएसटी के दायर से से बाहर रखेग गए  उत्‍पाद व सेवाओं मसलन पेट्रो उत्‍पाद , वाहन, भूमि पंजीकरण आदि पर बार बार टैक्‍स बढ़ाया है    

-    केंद्रीय करों में राज्यों की हिस्सेदारी के लिए वित्‍त आयेाग के नए फार्मूले से केंद्रीय करों में आठ राज्यों (आंध्रअसमकर्नाटककेरलतमिलनाडुओडिशातेलंगाना और उत्तर प्रदेश) का हिस्सा 24 से लेकर 118 (कर्नाटक) फीसद तक घट सकता है (इंडिया रेटिंग्‍स रिपोर्ट)   

-    केंद्र से ज्‍यादा अनुदान के लिए राज्‍यों को शि‍क्षाबिजली और खेती में बेहतर प्रदर्शन करना होगा.  इसके लिए बजटों से खर्च बढ़ानाप पडेगा.

-    कोविड की मंदी के बाद राज्यों का कुल कर्ज जीडीपी के अनुपात में 31 फीसदी की र‍िकार्ड ऊंचाई पर है. पंजाब, बंगाल, आंध्र , केरल, राजस्‍थान जैसे राज्‍यों का कर्ज इन राज्‍यों जीडीपी (जीएसडीपी)  के अनुपात में 38 से 53 फीसदी तक है.

 भारत में केंद्र और राज्‍यों की अर्थव्‍यवस्‍थाओं के ताजा हालात तो बता रहे हैं  

-    जीएसटी की हर्जाना बंद होने से जीएसटी दरें बढ़ेंगी. केंद्र के बाद राज्‍यों ने पेट्रोल डीजल सस्‍ता किया तो जीएसटी की दरों में बेतहाशा बढ़ोत्‍तरी का खतरा है. जो खपत को कम करेगा

-    केंद्र और राज्‍यों का सकल कर्ज जीडीपी के अनुपात 100 फीसदी हो चुका है. ब्‍याज दर बढ़ रही है, अब राज्‍यों 8 फीसदी पर भी कर्ज मिलना मुश्‍क‍िल है

 

भारत का संघवाद बड़ी कश्‍मकश से बना था.  इतिहासकार ग्रेनविल ऑस्‍ट‍िन ल‍िखते हैं क‍ि यह बंटवारे के डर का असर था कि 3 जून 1947 को भारत के बंटवारे लिए माउंटबेटन प्लान की घोषणा के तीन दिन के भीतर ही भारतीय संविधान सभा की उप समिति ने बेहद ‌शक्तिशाली अधिकारों से लैस केंद्र वाली संवैधानिक व्यवस्था की सिफारिश कर दी.

1946 से 1950 के बीच संविधान सभा में, केंद्र बनाम राज्‍य के अध‍िकारों पर लंबी बहस चली. (बलवीर अरोराग्रेनविल ऑस्टिन और बी.आरनंदा की किताबें) यह डा. आंबेडकर थे जिन्‍होंने ताकतवर केंद्र के प्रति संविधान सभा के आग्रह को संतुलित करते हुए ऐसे ढांचे पर सहमति बनाई जो संकट के समय केंद्र को ताकत देता था लेकिन आम तौर पर संघीय (राज्यों को संतुलित अधिकारसिद्धांत पर काम करता था.

संविधान लागू होने के बाद बनने वाली पहली संस्था वित्त आयोग (1951) थी जो आर्थि‍क असमानता के बीच केंद्र व राज्‍य के बीच टैक्‍स व संसाधनों के न्‍यायसंगत बंटवारा करती है  

2017 में भारत के आर्थ‍िक संघवाद के नए अवतार में राज्‍यों ने टैक्‍स लगाने के अध‍िकार जीएसटी काउंसिल को सौंप दिये थे. महंगाई महामारी और मंदी  इस सहकारी संघवाद पर पर भारी पड़ रही थी इस बीच  सुप्रीम कोर्ट जीएसटी की व्‍यवस्‍था में राज्‍यों को नई ताकत दे  दी है. तो क्‍या श्‍यामलन की फिल्‍म स‍िक्‍स्‍थ सेंस की तर्ज पर जीएसटी के मंच पर  केंद्र राज्‍य का रिश्‍तों का एंटी क्‍लाइमेक्‍स आने वाला है?

 

Friday, April 23, 2021

जवाबदेही का बही-खाता

 


भारत में स्वास्थ्य व्यवस्था इतनी गई गुजरी है कि इसे राजनीति‍क श्रेय लेने की होड़ के काबिल भी नहीं समझा जाता. इसकी अहमियत सरकारी मेलों और तीर्थ यात्राओं जि‍तनी भी नहीं है. यह बात 2018 में एक बड़े अफसर ने कही थी जो सेहत का महकमा संभाल चुके थे और स्वाइन फ्लू की तबाही से लड़ रहे थे.

सरकारें हमें कभी अपने दायि‍त्व नहीं बतातीं, वे तो केवल श्रेय के ढोल पीटती हैं और बहुतेरे उन पर नाच उठते हैं. तबाही, हाहाकार और मौतों के बाद ही ये जाहिर होता है कि जिंदगी से जुड़ी जरूरतों को लेकर योजनाबद्ध और नीति‍गत गफलत हमेशा बनाए रखी जाती है.

हमें आश्चर्य होना चा‍हि‍ए कि महामारी की पहली लहर में जहां छोटे-छोटे बदलावों के आदेश भी दिल्ली से जारी हो रहे थे वहीं ज्यादा भयानक दूसरी लहर के दौरान राज्यों को उनकी जिम्मेदारियां गिनाई जाने लगीं. जबकि पहली से दूसरी लहर के बीच कानूनी तौर पर कुछ नहीं बदला.

बीते साल कोविड की शुरुआत के बाद केंद्र ने महामारी एक्ट 1897/अध्यादेश 2020) और आपदा प्रबंधन कानून 2005 का इस्तेमाल किया था. इन दोनों केंद्रीय कानूनों के साथ संविधान की धारा 256 अमल में आ गई और राज्यों के अधि‍कार सीमित हो गए. इन्हीं कानूनों के तहत बीते बरस लॉकडाउन लगाया, बढ़ाया, हटाया गया और असंख्य नियम (केंद्र के 987 आदेश) तय हुए जिन्हें राज्यों ने एक साथ लागू किया. यह स्थि‍ति आज तक कायम है.

अब जबकि भयानक विफलता के बीच बीमार व मरने वाले राजनीतिक सुविधा के मुताबिक राज्यों के तंबुओं में गिने जा रहे हैं तो यह सवाल सौ फीसदी मौजूं है कि अगर आपका कोई अपना ऑक्सीजन की कमी से तड़पकर मर गया या जांच, दवा, अस्तपाल नहीं मिला तो इसका दिल्ली जिम्मेदार है या सूबे का प्रशासन?

भारत में स्वास्थ्य राज्य सूची का विषय है लेकिन सेहत से जुड़ा प्रत्येक बड़ा फैसला केंद्र लेता है, स्वास्थ्य सेवाएं देना राज्यों की जिम्मेदारी लेकिन वह कैसे दी जाएंगी यह केंद्र तय करता है. बीमारी नियंत्रण की स्कीमों, दवा के लाइसेंस, कीमतें, तकनीक के पैमाने, आयात, निजी अस्पतालों का प्रमाणन, अनेक वैज्ञानिक मंजूरियां, ऑक्सीजन आदि के लिए लाइसेंस, वैक्सीन की स्वीकृतियां सभी केंद्र के पास हैं. तभी तो कोविड के दौरान जांच, इलाज से लेकर वैक्सीन तक प्रत्येक मंजूरी केंद्र से आई.

स्वास्थ्य पर कुल सरकारी खर्च का 70 फीसदी बोझ, राज्य उठाते हैं जो उनकी कमाई से बहुत कम है इसलिए केंद्र से उन्हें अनुदान (15वां वित्त आयेाग-70,000 करोड़ रुपए पांच साल के लिए) और बीमारियों पर नियंत्रण के लिए बनी स्कीमों के माध्यम से पैसा मिलता है. इस सबके बावजूद भारत में स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च जीडीपी का केवल 1.26%  (प्रति व्यक्ति में श्रीलंका से कम) है.

हकीकत यह है कि अधि‍कांश लोगों की जिंदगी निजी स्वास्थ्य ढांचा ही बचाता है. हमें उसकी लागत उठानी होती है जो हम उठा ही रहे हैं. नेशनल हेल्थ पॉलिसी 2017 के मुताबिक, भारत में स्वास्थ्य पर 70 फीसदी खर्च निजी (अस्पताल, उपकरण, दवा, जांच) क्षेत्र से आता है. केंद्र और राज्य केवल टैक्स वसूलते हैं. सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं हेल्थ ब्यूरोक्रेसी को पालने के लिए चलती हैं. सरकारें भी चाहती हैं कि कम से कम लोग उनसे सस्ता इलाज मांगने आएं.

सरकारें बहुत कुछ कर नहीं सकती थीं, सिवाय इसके कि भारी टैक्स निचोड़ कर फूल रहा हमारा निजाम आंकड़ों और सूचनाओं की मदद से कम से कम निजी क्षेत्र के जरिए ऑक्सीजन, दवा, बेड की सही जगह, समय और सही कीमत पर आपूर्ति की अग्रिम योजना बना लेता और हम बच जाते. इनसे इतना भी नहीं हुआ. लोग क्षमताओं की कमी से नहीं सरकारों के दंभ और लापरवाही से मर रहे हैं.

अगर नसीहतें ली जानी होतीं तो कोविड के बीच बीते बरस ही 15वें वित्त आयोग ने सुझाया था कि स्वास्थ्य को लेकर समवर्ती सूची में नए विषय (अभी केवल मेडिकल शि‍क्षा और परिवार नियोजन) जोड़े जाने चाहिए ताकि राज्यों को अधि‍कार मिलें और वे फैसले लेने की क्षमताएं बना सकें. 2017 में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने जन स्वास्थ्य (महामारी प्रबंधन) अधि‍नियम का एक प्रारूप बनाया था जिसमें केंद्र और राज्य की जिम्मेदारियां तय करने के प्रावधान थे. पता नहीं किस वजह से इसको फाइलों में हमेशा के लिए सुला दिया गया.   

हम ऐसी सरकारों के दौर में है जो दम तोड़ती व्यवस्था से कहीं ज्यादा बुरे प्रचार से डरती हैं. श्मशानों पर भीड़, ऑक्सीजन की कमी से तड़पते लोग, ट्वि‍टर पर जांच और दवा के लिए गिड़गिड़ाते संदेश-प्रचार संसार के लिए मुसीबत हैं इसलिए तोहमतें बांटने का प्रचार तंत्र सक्रिय हो गया है.

पश्चिम की तुलना में पूरब का सबसे बड़ा फर्क यह है कि यहां के राजनेता गलतियां स्वीकार नहीं करते, नतीजतन पहले चरण में डेढ़ लाख मौतों के बाद भी कुछ नहीं बदला. अब हम भारतीय राजनीति के सबसे वीभत्स चेहरे से मुखाति‍ब हैं जहां महामारी और गरीबी के महाप्रवास के बीच असफल सरकारों ने हमें राज्यों के नागरिकों में बदलकर एडिय़ां रगड़ते हुए मरने को छोड़ दिया है.

Friday, March 19, 2021

सबसे बड़ा उलट-फेर

 


भारत में यह फर्क अब खासा महत्वपूर्ण होने वाला है कि आप किस राज्य में रहते हैं और रोजगार का मौका कौन से राज्य में मिलता है. यह बात हरियाणा या झारखंड में राज्य के निवासियों को रोजगार (निर्धारित वेतन सीमा से नीचे) देने की शर्त तक सीमित नहीं है बल्कि रोजगारों और लोगों के जीवन स्तर में बेहतरी भविष्य में इस तथ्य से तय होगा कि विभि‍न्न राज्य मंदी के बाद आने वाले सबसे बड़े वित्तीय उलट-फेर को कैसे संभाल पाते हैं.

राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में मंदी की बहस से निकलकर अब राज्यों की तरफ देखने की जरूरत है, लॉकडाउन ने जिनकी अर्थव्यवस्थाओं की बुरी गत बना दी है. राज्यों के अपने राजस्व नुक्सान तो अलग हैं, ऊपर से उन्हें जीएसटी के हिस्से में इस वित्त वर्ष में केंद्र से करीब तीन लाख करोड़ रुपए कम मिले. अगले साल भी इतनी ही कमी रहनी है.

 

जोर का झटका

राज्यों की कमाई या राजस्व को बहुत बड़ा झटका लगने वाला है. केंद्र ने राज्य सरकारों को जीएसटी में नुक्सान की भरपाई की जो गारंटी दी है, वह 2023 में खत्म हो जाएगी. 15वें वित्त आयोग ने अपनी ताजा रिपोर्ट में इसे बढ़ाने की कोई सिफारिश नहीं की है. इस गारंटी के खत्म होने से राज्यों के राजस्व का पूरा संतुलन बदल जाएगा और नुक्सान की भरपाई का इंतजाम उन्हें खुद करना होगा.

यही नहीं, वित्त आयोग ने केंद्रीय करों में राज्यों की हिस्सेदारी का फॉर्मूला भी बदल दिया है. नई व्यवस्था में जनसंख्या नियंत्रण, स्वास्थ्य व शि‍क्षा और पर्यावरण के क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन के पैमाने भी जोड़े गए हैं. इंडिया रेटिंग्स की रिपोर्ट के अनुसार, केंद्रीय करों में आठ राज्यों (आंध्र, असम, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, ओडिशा, तेलंगाना और उत्तर प्रदेश) का हिस्सा 24 से लेकर 118 (कर्नाटक) फीसद तक घट जाएगा. महाराष्ट्र, गुजरात, अरुणाचल के हिस्से में उल्लेखनीय बढ़ोतरी हो रही है.

केंद्र के टैक्स में सेस और सरचार्ज का हिस्सा बढ़ता जा रहा है, जिनमें राज्यों को हिस्सा नहीं मिलता. केंद्रीय टैक्स राजस्व में इनका हिस्सा 2012 में 10.4 फीसद से बढ़कर 2021 में 19.9 फीसद हो गया है.

वित्त आयोग ने केंद्र से राज्यों को जाने वाले अनुदानों में बढ़ोतरी की सिफारिश की है लेकिन शि‍क्षा, बिजली और खेती के लिए केंद्रीय अनुदान बेहतर प्रदर्शन की शर्त पर मिलेंगे. बेहतर काम के लिए राज्यों को ज्यादा खर्च या निवेश करना होगा जबकि खजाने और ज्यादा खाली हो जाएंगे.

कर्ज का अंबार

कोविड की मंदी ने केवल केंद्र के बजट को ही ध्वस्त कर सरकार को बैंकों व सरकारी संपत्ति‍यों की सेल लगाने पर बाध्य नहीं किया है, राज्यों की हालत और ज्यादा खराब है. मौजूदा वित्त वर्ष में (7 अप्रैल से 16 मार्च तक) 28 राज्य और 2 केंद्र शासित प्रदेश मिलकर बाजार से रिकॉर्ड 8.24 लाख करोड़ रुपए का कर्ज उठा चुके हैं. यह कर्ज पिछले वित्त वर्ष से 31 फीसद ज्यादा है.

मध्य प्रदेश, झारखंड और सिक्किम पिछले साल की तुलना में दोगुने से ज्यादा कर्ज उठा चुके हैं. कर्ज पर ब्याज की दर ज्यादातर राज्यों के लिए 7 फीसद से ऊपर हैं.

जीएसटी में नुक्सान की भरपाई पर केंद्र के इनकार के बाद अगले साल राज्यों को 2.2 लाख करोड़ रु. अति‍रिक्त कर्ज उठाने होंगे. अगले साल राज्यों के कुल कर्ज दस लाख करोड़ रु. से ऊपर निकल सकते हैं.

अगले दो साल में संघीय अर्थव्यवस्था में दो बड़े बदलाव होने हैं:

जीएसटी की क्षतिपूर्ति खत्म होने और केंद्रीय करों के हिस्से में कटौती कई बड़े राज्यों में जिंदगी और कारोबारी लागत बढ़ाएगी. सरकारों को बिजली, रोड ट्रांसपोर्ट, भूमि पंजीकरण की दरें बढ़ानी होंगी, जरूरी खर्चे काटने होंगे और निजीकरण तेज करना होगा.

राज्यों पर कर्ज की देनदारी का नया चक्र शुरू होगा जिसके लिए संसाधन नाकाफी हैं.

नई दुनिया में (अपवादों को छोड़कर) सफलता केवल प्रतिभा या क्षमता से तय नहीं होती है बल्कि‍ इससे बहुत बड़ा फर्क पड़ता है कि वह अमेरिका में पैदा हुआ है या तीसरी दुनिया के किसी देश में. यही वह ओवेरियन लॉटरी (जन्म स्थान का सौभाग्य) है जिसे मशहूर निवेशक वारेन बफे की जीवनी द स्नोबॉल में दिलचस्प ढंग से समझाया गया है. यह सिद्धांत भारत के राज्यों पर भी लागू होने वाला है क्योंकि तेज विकास के पिछले वर्षों में क्षेत्रीय असमानता बढ़ती चली गई है.

डबल इंजन की सरकारों के दावों को चुनावी नमक के साथ निगलना चाहिए क्योंकि कोविड 2016-20 के बीच केवल हरियाणा, कर्नाटक, गुजरात और तेलंगाना की विकास दर राष्ट्रीय औसत से ऊपर रही थी (इंडिया रेटिंग्स रिपोर्ट 2021) बाकी सब के जस के तस रहे.

चिरंतन चुनावी चौकसी से निकल कर केंद्र सरकार को मंदी से उबरने के लिए राज्यों के साथ साझा रणनीति बनानी होगी क्योंकि मंदी के बाद किस राज्य में रहने में फायदा होगा यह डबल इंजन की सरकार से नहीं बल्कि‍ टैक्स, कारोबारी, सुविधाओं जीवन की लागत और स्थानीय अर्थव्यवस्था में मांग पर निर्भर होने वाला है.

Friday, October 9, 2020

डूबने से पहले


गस्त 2019 तक जीएसटी की दूसरी बरसी बीत चुकी थी और मंदी भी अपनी जड़ें जमा चुकी थी. बदहाल क्रियान्यवयन, सैकड़ों संशोधनों, बार-बार बदलती टैक्स दरों, गिरते राजस्व और टूटते नियम पालन ने, जून 2017 के अंत में संसद में अर्धरात्रि को हुएमहोत्सवको भुला दिया था. फील्ड यूनिट्स से राजस्व मुख्यालय पहुंचती रिपोर्ट में सवाल उठने लगे थे कि नवोदित जीएसटी क्या यह मंदी झेल पाएगा? 

लॉकडाउन होते इस महत्वाकांक्षी टैक्स सुधार ने खाट पकड़ ली. केंद्र और राज्यों के बीच जिस महान क्रांतिकारी सहमति की तारीफों पर महीनों खर्च हुए थे वह राज्यों के साथ नुक्सान भरपाई समझौते (जीएसटी लागू करने से हुए नुक्सान की पांच साल तक वापसी) की मियाद पूरी होने से पहले ही दरक गया. केंद्र-राज्यों के बीच सीधी मोर्चाबंदी और टैक्स बढ़ाने की नौबत के बीच जीएसटी किस तरह बढ़ रहा है, यह जानने के लिए जीएसटी के छोटे सफर पर एक नजर जरूरी है.

जीएसटी अब तक

• 2016-17 में जीएसटी इस वादे के साथ आया था कि इससे कई टैक्स दरें खत्म होंगी. टैक्स का बोझ घटेगा. उत्पाद सस्ते होंगे. लेकिन चार दरों और सेस वाले जीएसटी के बाद 2019-20 में भारत में निजी खपत की दर पांच साल के न्यूनतम स्तर 5.3 फीसद पर गई. यानी मांग नहीं बढ़ी. कोविड के बाद तो हाल और बुरा हो गया.

मांग बढ़ने की मार्केटिंग इस दावे के साथ की गई थी ‌‌कि नियम सरल होंगे, सब टैक्स देंगे, खूब खपत होगी तो खूब राजस्व आएगा. जीडीपी दो फीसद उछल जाएगा. लेकिन अपने जन्म से आज तक जीएसटी 1.5 लाख करोड़ रुपए के मासिक टैक्स संग्रह का न्यूनतम मंजिल नहीं छू सका. राजस्व की उम्मीद तो लागू होते ही टूट गई थी इसलिए जीएसटी पर सेस थोप दिया गया था.

जीएसटी का भविष्य पहले दिन से संदिग्ध था. इसकी जान एक कृत्रिम राजनैतिक सहमति में बसी थी जिसके जरिए एक घटिया टैक्स सिस्टम को महान सुधार बताकर जल्दबाजी में लागू किया गया. 2016 के मध्य में जब पहली बार देश को पता चला कि इस जीएसटी में कई टैक्स दरें, असंख्य शर्तें और नया इंस्पेक्टर राज होगा और इसे लागू करने की तैयारी भी नहीं है. सवालों के तूफान के सामने केंद्र ने खड़ी कर दी कृत्रिम राजनैतिक सहमति जो राज्यों को जीएसटी से संभावित नुक्सान की गारंटी (राजस्व में 14 फीसद सालाना की बढ़त दर पर) पर टिकी थी.

लॉकडाउन से उपजी मंदी के बाद केंद्र ने राज्यों को नुक्सान भरपाई की गारंटी से इनकार कर दिया. अब जीएसटी पर राजनैतिक सहमति ध्वस्त हो चुकी है जो इस सुधार का आखिरी सहारा था. विपक्ष के पांच राज्यों ने राजस्व क्षतिपूर्ति के बदले कर्ज की सलाह को नकार दिया है. काउंसिल की 42वीं बैठक तो झगड़े की भेंट चढ़ गई.

जीएसटी का भविष्य

जीएसटी से राज्यों का भरोसा उठ रहा है. पेट्रोल-डीजल या रियल एस्टेट इसके दायरे में लाने का एजेंडा फिलहाल खत्म हो गया है. सरकारों की कमाई नहीं बढ़नी है इसलिए काउंसिल ने जीएसटी के तहत टैक्स पर टैक्स यानी सेस (उपकर) को 2022 से आगे बढ़ा दिया है. फैसला इस बात का संकेत है कि सरकार को मंदी जल्दी जाती नहीं दिख रही है. टैक्स बढ़ाने की नौबत भी आने वाली है.

जीएसटी अब आपदा में अवसर है. टीम मोदी इसका चोला बदलकर ही इसे बचा सकती है.

मंदी से मरती अर्थव्यवस्था को मांग की मदद चाहि. यही मौका है जब जीएसटी का पुनर्गठन करते हुए दो नई दरें (7-20) तय करनी चाहिए. आम खपत के सामान को कर मुक्त किया जाए और कुछ उत्पादों को निचली 7 फीसद की दर में डाला जाना चाहिए. जीएसटी की पीक रेट घटी तो मांग बढ़ेगी, जिसका फायदा टैक्स संग्रह बढ़ने के तौर पर सामने आएगा.

कानून बदला जाए ताकि राज्यों को टैक्स रियायतें देने की छूट मिल सके. कोविड के बाद नया निवेश राज्यों की नीतियों और प्रोत्साहनों पर ही निर्भर होगा. राज्यों को टैक्स संबंधी आजादी देकर जीएसटी पहले वाली निवेश की प्रतिस्पर्धा को पुन: शुरू करने के अलावा कोई रास्ता नहीं है.

दुनिया में जीएसटी की सफलता की कथाएं पुरानी पड़ चुकी हैं. मंदी टैक्स सुधारों की दुश्मन है. टैक्स कानूनों में बदलाव तेज आर्थि विकास दर के साथ ही सफल होते हैं. मलेशिया ताजा नसीहत है जहां 2015 में भारत जैसी जल्दबाजी से जीएसटी आया जिसे भ्रम, मंदी और खराब क्रियान्वयन के कारण 2018 में वापस लेना पड़ा.

मलेशिया का जीएसटी तो आदर्श सिंगल टैक्स रेट वाला था जो छोटी सी अर्थव्यवस्था में एक सामान्य मंदी नहीं झेल सका तो चार टैक्स रेट और सेस वाला आधा अधूरा, लचर और बदहवास जीएसटी भारत की महामंदी नहीं झेल पाएगा.

जीएसटी की सुधार वाली पहचान खत्म हो चुकी है. अब एक वैकल्पि टैक्स सिस्टम के तौर पर भी यह खतरे में है. अगर बदलाव नहीं हुए तो यह सुधार केंद्र और राज्य के रिश्तों के लिए सबसे बड़ा संकट बन जाएगा.