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Tuesday, May 30, 2017

जीएसटी के फूल-कांटे


क्या हम यही गुड्स ऐंड सर्विसेज टैक्स चाहते थे
                            
                                जीएसटी की पाती आ गई है.
किस पर कितना टैक्स, क्या नियम, कौन से कायदे, अब सभी कुछ तय हो गया है.
जीएसटी की पावती भेजने के बाद खुद से यह जरुर पूछियेगा कि क्या हम यही गुड्स ऐंड सर्विसेज टैक्स चाहते थे
क्या‍ इसी के लिए 16 साल इंतजार किया गया?
जीएसटी का रोमांच सन् 2000 से बनने लगा था तब तक तो वैल्यू एडेड टैक्स (वैट) भी पूरी तरह लागू भी नहीं हो पाया था.
रोमांच की तीन वजहें थीं:
एक: भारत को रियायती इनडाइरेक्ट टैक्स चाहिए. अधिकतम दो टैक्स और दो दरें, ताकि लोग खर्च करें, मांग बढ़े, निवेश बढ़े और बढ़े रोजगार. जीएसटी वाले मुल्कों में टैक्स रेट औसत 15 से 18 फीसदी है.
दोः कम टैक्स और छूट बिल्कुल नहीं. सभी कारोबारी टैक्स के दायरे में.
तीनः बेहद आसान कर नियम ताकि कारोबार करना मुश्किल न बन जाए.
जीएसटी से देश का जीडीपी कम से दो फीसदी बढऩे की उम्मीद इसी उत्सुकता की देन थी.
....और जीएसटी मानो अलादीन का चिराग हो गया.
जीएसटी, जो हमें मिला
- तारीफ करनी होगी कि उत्पादों और सेवाओं पर दरें तय करने में पूरी पारदर्शिता रही. जीएसटी काउंसिल ने जो फॉर्मूला तय किया था उस पर वह अंत तक कायम रही. कॉर्पोरेट लॉबीइंग नहीं चली.
इस फॉर्मूले के चलते ही राज्यों से सहमति बनी जो राजस्व नुकसान को लेकर आशंकित थे, यानी अगर पारदर्शिता रहे तो विश्वास बन सकता है.
लेकिन
वन टैक्स, वन नेशन के बदले आठ जीएसटी दरें (5,12,18, 28%) मिली हैं, गुड्स की (एक्साइज/ वैट) चार और चार दरें सर्विसेज की, सेस अलग से.

आम खपत के कई उत्पादों (स्किन केयर, हेयर केयर, डिटर्जेंट, आयुर्वेद, कॉफी) पर टैक्स रेट अपेक्षा से अधिक है. बिल्डिंग मटीरियल और बिजली के सामान पर भी बोझ बढ़ा है.

बेहतर जिंदगी की उम्मीद से जुड़े उत्पादों-सेवाओं पर 28 फीसदी का टैक्स है जो काफी ऊंचा है.

ऊंचे टैक्स वर्ग में आने वाली कंपनियों को अपने मार्जिन गंवाने होंगे या फिर मांग. निवेश की बाद में सोची जाएगी.

हिसा‍ब-किताब
टैक्स को लेकर सरकार का बुनियादी नजरिया नहीं बदला है. अच्छी जिंदगी की उम्मीद को महंगा रखने की जिद कायम है.

जिन उत्पादों व सेवाओं (उपभोक्ता उत्पाद, भवन निर्माण, इलेक्ट्रॉनिक्स, ऑटोमोबाइल) पर सबसे ज्यादा टैक्स है वहीं नया निवेश, नई तकनीक, इनोवेशन और रोजगार आने हैं. यह मेक इन इंडिया की उम्मीदों के विपरीत है.

इनपुट टैक्स क्रेडिट (लागत में शामिल टैक्स की वापसी) जीएसटी का एकमात्र नयापन है. सफलता इस निर्भर होगी कि जीएसटी का नेटवर्क कितनी तेजी से निर्माता-विक्रेताओं को इनपुट टैक्स की वापसी करता है.

बहुत सी कर दरें, ढेर सारे रिटर्न और केंद्र व राज्य की दोहरी ब्यूरोक्रेसी के कारण करदाताओं, खासतौर पर छोटे-मझोले कारो‍बारियों के लिए यंत्रणा से कम नहीं होगा. दो की जगह 37 रिटर्न भरने होंगे. कर नियमों के पालन की लागत पहले से ज्यादा होगी.

जीएसटी के बाद

महंगाई नहीं बढ़ेगी या बेहद मामूली बढ़ो‍तरी होगी.

कर ढांचा यथावत है इसलिए मांग भी नहीं बढ़ेगी.

जीएसटी के चलते अगले दो साल में जीडीपी में किसी खास तेजी की उम्मीद नहीं है.

केंद्र या राज्‍यों को तत्‍काल बड़ा राजस्‍व नहीं मिलने वाला.

इनडाइरेक्‍ट टैक्‍स देने वालों की संख्या बढ़ेगी जो शायद भविष्‍य में राजस्‍व में बढ़ा सके.

केंद्र सरकार को 2018 में करीब 500 अरब रुपए (0.3प्रतिशत जीडीपी) का नुक्सान उठाना पड़ सकता है जो राज्‍यों को दी जाने वाली क्षतिपूर्ति की वजह से होगा.

ज्यादातर केंद्रीय क्षतिपूर्ति महाराष्‍ट्र, गुजरात, तमिलनाडु आदि सप्‍लायर राज्‍यों को मिलेगी.

राज्‍यों में तैयारियां सुस्‍त हैं. लागू होने में एक से दो माह की देरी हो सकती है.

कोई फर्क नहीं पड़ता कि हमारे पास मजबूत सरकार है, लोकप्रिय प्रधानमंत्री है या अधिकांश देश में एक ही दल की सरकार है, जीएसटी, राजनैतिक-आर्थिक रूप से दकियानूसी ही है क्रांतिकारी या चमत्कारी नहीं.

हद से हद हमने अपने टैक्स ढांचे की ओवरहॉलिंग कर ली है. करीब 16 साल (2000 से 2017) घिसटने के बावजूद हम ऐसा टैक्स ढांचा नहीं बना पाए जिसे देखकर दुनिया बरबस कह उठे,  'यह हुआ सुधार!'' 

दुआ कीजिए कि यह जीएसटी जैसा भी है अब ठीक ढंग से लागू हो जाए, शायद वही इसकी सफलता होगी.


Monday, October 31, 2016

जीएसटी को बचाइए


जीएसटी में वही खोट भरे जाने लगे हैं जिन्‍हें दूर करने लिए इसे गढ़ा जा रहा था.
गुड्स ऐंड सर्विसेज टैक्स से हमारा सम्‍मोहन उसी वक्त खत्म हो जाना चाहिए था जब सरकार ने तीन स्तरीय जीएसटी लाने का फैसला किया था. दकियानूसी जीएसटी मॉडल कानून देखने के बाद जीएसटी को लेकर उत्साह को नियंत्रित करने का दूसरा मौका आया था. ढीले-ढाले संविधान संशोधन विधेयक को संसद की मंजूरी के बाद तो जीएसटी को लेकर अपेक्षाएं तर्कसंगत हो ही जानी चाहिए थीं. लेकिन जीएसटी जैसे जटिल और संवेदनशील सुधार को लेकर रोमांटिक होना भारी पड़ रहा है. संसद की मंजूरी के तीन महीने के भीतर उस जीएसटी को बचाने की जरूरत आन पड़ी है जिसे हम भारत का सबसे महान सुधार मान रहे हैं.

संसद से निकलने के बाद जीएसटी में वही खोट पैवस्त होने लगे हैं जिन्‍हें ख त्‍म करने के लिए जीएसटी को गढ़ा जा रहा था. जीएसटी काउंसिल की दूसरी बैठक के बाद ही संदेह गहराने लगा था, क्योंकि इस बैठक में काउंसिल ने करदाताओं की राय लिए बिना जीएसटी में पंजीकरण व रिटर्न के नियम तय कर दिए जो पुराने ड्राफ्ट कानून की तर्ज पर हैं और करदाताओं की मुसीबत बनेंगे.

पिछले सप्ताह काउंसिल की तीसरी बैठक के बाद आशंकाओं का जिन्न बोतल से बाहर आ गया. जीएसटी में बहुत-सी दरों वाला टैक्स ढांचा थोपे जाने का डर पहले दिन से था. काउंसिल की ताजा बैठक में आशय का प्रस्ताव चर्चा के लिए आया है. केंद्र सरकार जीएसटी के ऊपर सेस यानी उपकर भी लगाना चाहती है, जीएसटी जैसे आधुनिक कर ढांचे में जिसकी उम्मीद कभी नहीं की जाती.
काउंसिल की तीन बैठकों के बाद जीएसटी का जो प्रारूप उभर रहा है वह उम्मीदों को नहीं, बल्कि आशंकाओं को बढ़ाने वाला हैः
  • केंद्र सरकार ने जीएसटी काउंसिल की बैठक में गुड्स ऐंड सर्विसेज टैक्स के लिए चार दरों का प्रस्ताव रखा है. ये दरें 6, 12,18 और 26 फीसदी होंगी. सोने के लिए चार फीसदी की दर अलग से होगी. अर्थात् कुल पांच दरों का ढांचा सामने है.
  •   मौजूदा व्यवस्था में आम खपत के बहुत से सामान व उत्पाद वैट या एक्साइज ड्यूटी से मुक्त हैं. कुछ उत्पादों पर 3, 5 और 9 फीसदी वैट लगता है जबकि कुछ पर 6 फीसदी एक्साइज ड्यूटी है. जीएसटी कर प्रणाली के तहत 3 से 9 फीसदी वैट और 6 फीसदी एक्साइज वाले सभी उत्पाद 6 फीसदी की पहली जीएसटी दर के अंतर्गत होंगे. जीरो ड्यूटी सामान की प्रणाली शायद नहीं रहेगी इसलिए टैक्स की यह दर महंगाई बढ़ाने की तरफ झुकी हो सकती है.
  •   केंद्र सरकार ने जीएसटी के दो स्टैंडर्ड रेट प्रस्तावित किए हैं. यह अनोखा और अप्रत्याशित है. जीएसटी की पूरे देश में एक दर की उक्वमीद थी. यहां चार दरों का रखा जा रहा है, जिसमें दो स्टैंडर्ड रेट होंगे. बारह फीसदी के तहत कुछ जरूरी सामान रखे जा सकते हैं. यह जीएसटी में पेचीदगी का नया चरम है. 
  • यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि ज्यादातर उत्पाद और सेवाएं 18 फीसद दर के अंतर्गत होंगी क्योंकि अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के मुताबिक जीएसटी में गुड्स और सर्विसेज के लिए एक समान दर की प्रणाली है. इस व्यवस्था के तहत सेवाओं पर टैक्स दर वर्तमान के 15 फीसदी (सेस सहित) से बढ़कर 18 फीसदी हो जाएगी. यानी इन दरों के इस स्तर पर जीएसटी खासा महंगा पड़ सकता है.
  • चौथी दर 26 फीसदी की है जो तंबाकू, महंगी कारों, एयरेटेड ड्रिंक, लग्जरी सामान पर लगेगी. ऐश्वर्य पर लगने वाले इस कर को सिन टैक्स कहा जा रहा है. इस वर्ग के कई उत्पादों पर दरें 26 फीसदी से ऊंची हैं जबकि कुछ पर इसी स्तर से थोड़ा नीचे हैं. इस दर के तहत उपभोक्ता कीमतों पर असर कमोबेश सीमित रहेगा.
  •   समझना मुश्किल है कि सोने पर सिर्फ 4 फीसदी का टैक्स किस गरीब के फायदे के लिए है. इस समय पर सोने पर केवल एक फीसदी का वैट और ज्वेलरी पर एक फीसदी एक्साइज है, जिसे बढ़ाकर कम से कम से 6 फीसदी किया जा सकता था.   
  • किसी को यह उम्मीद नहीं थी कि सरकार एक पारदर्शी कर ढांचे की वकालत करते हुए जीएसटी ला रही है, और पिछले दरवाजे से जीएसटी की पीक रेट (26 फीसदी) पर सेस लगाने का प्रस्ताव पेश कर देगी. सेस न केवल अपारदर्शी हैं बल्कि कोऑपरेटिव फेडरलिज्म के खिलाफ हैं क्योंकि राज्यों को इनमें हिस्सा नहीं मिलता है.

केंद्र सरकार सेस के जरिए राज्यों को जीएसटी के नुक्सान से भरपाई के लिए संसाधन जुटाना चाहती है. अलबत्ता राज्य यह चाहेंगे कि जीएसटी की पीक रेट 30 से 35 फीसदी कर दी जाए, जिसमें उन्हें ज्यादा संसाधन मिलेंगे. इसी सेस ने जीएसटी काउंसिल की पिछली बैठक को पटरी से उतार दिया और कोई फैसला नहीं हो सका.

अगर जीएसटी 4 या 5 कर दरों के ढांचे और सेस के साथ आता है तो यह इनपुट टैक्स क्रेडिट को बुरी तरह पेचीदा बना देगा जो कि जीएसटी सिस्टम की जान है. इस व्यवस्था में उत्पादन या आपूर्ति के दौरान कच्चे माल या सेवा पर चुकाए गए टैक्स की वापसी होती है. यही व्यवस्था एक उत्पादन या सेवा पर बार-बार टैक्स का असर खत्म करती है और महंगाई रोकती है.

केंद्र सरकार जीएसटी को लेकर कुछ ज्यादा ही जल्दी में है. जीएसटी से देश की सूरत और सीरत बदल जाने के प्रचार में इसके प्रावधानों पर विचार विमर्श और तैयारी खेत रही है. व्यापारी, उद्यमी, उपभोक्ता, कर प्रशासन जीएसटी गढऩे की प्रक्रिया से बाहर हैं. जीएसटी काउंसिल की बैठक में मौजूद राज्यों के मंत्री इसके प्रावधानों पर खुलकर सवाल नहीं उठा रहे हैं या फिर उनके सवाल शांत कर दिए गए हैं. 

जीएसटी काउंसिल की तीन बैठकों को देखते हुए लगता है कि मानो यह सुधार केवल केंद्र और राज्यों के राजस्व की चिंता तक सीमित हो गया है. करदाताओं के लिए कई पंजीकरण और कई रिटर्न भरने के नियम पहले ही मंजूर हो चुके हैं. अब बारी बहुत-सी टैक्स दरों की है जो जीएसटी को खामियों से भरे पुराने वैट जैसा बना देगी.

गुड्स एंड सर्विसेज टैक्‍स का वर्तमान ढांचा कारोबारी सहजता की अंत्‍येष्टि करने, कर नियमों के पालन की लागत (कंप्लायंस कॉस्ट) बढ़ाने और महंगाई को नए दांत देने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है. क्या हम जीएसटी बचा पाएंगे या फिर हम इस सुधार के बोझ तले दबा ही दिए जाएंगे?