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Sunday, February 3, 2019

मर्ज और दवा



चुनाव से 60 दिन पहले सरकारें बजट पेश नहीं करतींहिसाब देती हैं. अंतरिम बजट (तीन महीने के खर्च) की घोषणाओं की फाइलें जब तक बनेंगीतब तक तो चुनावी मैदान में धूल के गुबार उठने लगेंगे. 

मौजूदा सरकार के आखिरी महीनों में अर्थव्यवस्था के दो चेहरे हैं: एक में गुलाबी सात-आठ फीसदी की विकास दर दिखती है और दूसरी में खुली आंखों महसूस होती45 साल में सबसे ज्यादा बेकारी और बैंकों की बढ़ती मुसीबत.

तो क्या बजटों ने पैर की बीमारी के लिए बालों का इलाज किया है या कि अर्थव्यवस्था की बुनियादी बीमारियां ही बिसारने के लिए कुछ नए डमरू बजा दिएरोजगार के आंकड़ों को लेकर सरकार में मार मची है.

2014 में विशुद्ध आर्थिक गवर्नेंस या बजट के नजरिये सेसरकार को दो सबसे बड़ी चुनौतियों का हल निकालना था. बाकी अपने आप सुधरना था क्योंकि अर्थव्यवस्था का 88 फीसदी हिस्सा गैर सरकारी खर्च और निवेश पर चलता है.

ये कहां आ गए हम

सरकारों को आर्थिक बीमारियां पकडऩे के लिए वैद्य जैसा होना चाहिए. बात फरवरी 2015 की है जब पहली बार थोक कीमतों के सूचकांक ने रिकॉर्ड गिरावट दर्ज की थी. भारत में आम तौर पर कीमतें नहीं घटतीं. कीमतों में बढ़ोतरी से हलकान रहने वाली अर्थव्यवस्था के लिए यह मांग घटने यानी डिफ्लेशन (लागत से कम कीमत) का पहला संकेत था.



यह मौका था जब मोदी सरकार अपना पहला पूर्ण बजट पेश कर रही थी और ठीक पहले उसने जीडीपी की गणना का फॉर्मूला बदल कर यह ऐलान कर दिया था कि सरकार बदलते ही आठ माह में अर्थव्यवस्था चमक गई है. डिक्रलेशन की मुसीबत से इत्तेफाक रखने वाले दुआएं करने लगे कि यह गिरावट केवल तत्कालीन सस्ते कच्चे तेल की वजह से होनी चाहिए...भारत को कमजोर मांग का रोग न लगे.

अलबत्ता हर माह खपतनिवेश और मांग घटती गई. और बजट कुछ और गाते बजाते रहे. फि र सरकार ने मांग और खपत पर नोटबंदी का बम फोड़ दिया और घटिया जीएसटी ने घेर लिया

2017 के दिसंबर में साल के दूसरे आर्थिक सर्वेक्षण में सरकार ने खुद को मंदी और कीमतों में लागत से ज्यादा कमी के लिए चेताया भी था लेकिन बजटों के कान पर जूं नहीं रेंगी.

चुनाव से पहले दालचीनीफलसब्जीअंडे महीनों से मंदी में हैं. समर्थन मूल्य बढऩे के बावजूद रबी की बुआई पिछले साल के मुकाबले घटी है.

महंगाई कम होने के बावजूद निजी खपतबचतपर्सनल लोनमकानों की मांगकहीं भी उत्साह नहीं है. निजी निवेश 14 साल के न्यूनतम स्तर पर है. लेकिन सरकार माथे पर बंदूक टिकाकर यह स्वीकार करा रही है कि पिछले पांच साल में देश की विकास दर रिकॉर्ड रही है. 

दरार पर दरार

दूसरी बड़ी चुनौती थे बैंकजो बकाया कर्ज में दबे थे और मंदी की मारी कंपनियां कर्ज चुकाने में असमर्थ थीं. पहले बीमार बैंकों पर थोपी गई जनधनफिर निकला इंद्रधनुष (बैंक सुधार स्कीम) जो जल्द ही गुम हो गया. फिर बना एक बैंकिंग बोर्ड जो बीच में ही दम तोड़ गया. बैंकरप्टसी कानून के तहत आई ज्यादातर कंपनियां या तो बंद हुईं या फिर बैंकों ने खासी पूंजी गंवाई. अलबत्ता बैंकों का एनपीए (बकाया कर्ज) बढ़ता रहा.

चुनाव के करीब सरकार ने रंग बदला. बैंकों को एनपीए के इलाज में ढील के लिए रिजर्व बैंक पर दबाव बनाया और गवर्नर को जाना पड़ा. फिर छोटी कंपनियों को कर्ज पुनर्गठन करने की छूट मिल गई.

बैंकों का एनपीए 2014 में 2.24 लाख करोड़ रु. थे जो अब 9.5 लाख करोड़ रु. पर पहुंच गए हैं. जुलाई-सितंबर2018-19 में  सरकारी बैंकों का घाटा 14,716 करोड़ रु. के रिकॉर्ड स्तर पर था.  

बकाया कर्ज की बीमारी अब गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों तक फैल गई है. रिजर्व बैंक ने दिसंबर2018 में अपनी फाइनेंशियल स्टेबिलिटी रिपोर्ट में बताया कि वित्तीय तंत्र (बैंकों व बॉन्ड बाजार) से करीब 7.46 लाख करोड़ रु. के कर्ज के साथ ये कंपनियां वित्तीय तंत्र की सबसे बड़ी कर्जदार हैं और अब कंपनियों का पूंजी-कर्ज अनुपात खतरनाक स्तर तक गिर गया है.

इन दो चुनौतियों पर ताजा आंकड़ों की रोशनी में पिछले पांच बजटों का बहीखाता पढ़ जाइए. आपको महसूस होगा कि चुनावी सियासत ने संसदीय लोकतंत्र की सबसे गंभीर आर्थिक नीति यानी बजट को ऐसी सियासी शोशेबाजी में बदल दिया है जिसका जमीनी आर्थिक चुनौतियों से कोई रिश्ता ही नहीं है.

Monday, November 26, 2018

आगे ढलान है !




पिछले चार साल में मेक इन इंडिया के जरिए उद्योग के सरदारों को रिझा रही सरकार को अचानक बेचारे बेबस और नोटबंदी-जीएसटी के मारे छोटे उद्योग क्यों याद आ गए, जिन्हें सामने रखकर वित्त मंत्रालय ने रिजर्व बैंक पर तोप तान दी है. 




हम इस पर आश्चर्य कर सकते हैं, यह जानते हुए भी कि बैंक और वित्तीय प्रणाली कर्ज के फंदे में फंसकर बुरी तरह हांफ रहे हैं और छह माह बाद यह मुसीबत फट पड़ेगी, फिर भी सरकार आखिर बैंकों को कर्ज की रेवडिय़ों का बाजार खोलने के लिए क्यों कह रही है?

दरअसल, चुनाव सामने है और भारतीय अर्थव्यवस्था की रफ्तार पर बन आई है. मौसम बिगड़ रहा है. पिछले दो माह का घटनाक्रम बता रहा है कि बड़े चुनाव से पहले ग्रोथ के आंकड़े सरकार के चुनाव प्रचार को बदमजा कर सकते हैं. कर्ज को लेकर सरकार की ताजा बेचैनी इसी डर से उपजी है.

आर्थिक विकास दर में अब तेज गिरावट के आसार हैं. चार कमजोरियां पहले से ही मौजूद हैं. एक—नोटबंदी और जीएसटी के बाद से बाजार में मांग नदारद है क्योंकि न तो निजी निवेश में बढ़त हो रही है और न उपभोक्ता खपत में. दो—ब्याज दरों में बढ़ोतरी का दौर प्रारंभ हो चुका है. तीन—जीएसटी की चपत से सरकार के राजस्व में गिरावट है, घाटा और नतीजतन कर्ज बढ़ रहा है. और चार—बकाया कर्ज से परेशान बैंक नए कर्ज बांटने की स्थिति में नहीं हैं और न ही सरकार अपनी जेब से इन बैंकों के उद्धार का बोझ उठा सकती है.

इन तीन बुनियादी चुनौतियों के बावजूद अर्थव्यवस्था किसी तरह ढुलक रही थी लेकिन सितंबर के बाद माहौल बुरी तरह बदल गया. रुपए की कमजोरी और कच्चे तेल की कीमतों में उफान के बीच वित्तीय बाजार में संकट का चक्र शुरू हो रहा है.

सितंबर के पहले सप्ताह में अचानक कई गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियां (एनबीएफसी) बैंकों की तरह ही बकाया कर्ज की बीमारी की चपेट में आ गईं. ठीक यही मौका था जब बाजार में ब्याज दर भी बढऩे लगी थी इसलिए उनके लिए नया कर्ज जुटाना मुश्किल हो
गया और बाजार में पूंजी की कमी हो गई. 

अब खतरा विकास दर गिरने का है क्योंकि...

1. बैंकों के बकाया कर्ज के जाल में फंसने के बाद गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां कर्ज और पूंजी का प्रमुख स्रोत थीं. 2014-18 के बीच एनबीएफसी कर्ज पर अर्थव्यवस्था की निर्भरता पांच फीसदी से अधिक बढ़ी है. एनबीएफसी के डूबने के साथ सबसे बड़ा खतरा अचल संपत्ति के बाजार पर है जहां हाउसिंग फाइनेंस कंपनियों की कर्ज की आपूर्ति 2013-18 के बीच 27 फीसदी की गति से बढ़ी है. एनबीएफसी और हाउसिंग फाइनेंस से कर्ज की आपूर्ति में कमी या महंगे कर्ज की वजह से अचल संपत्ति बाजार में गहरे संकट का अंदेशा है. खतरा है कि कई अचल संपत्ति कंपनियां और डेवलपर मुश्किल में होंगे जैसा कि आइएलएफएस के साथ हुआ है. सरकार बेतरह उलझे कर्ज बाजार में बैंकों को और ज्यादा जोखिम की तरफ धकेल रही है.

2. बाजार में मंदी के ताजा दौर ट्रैक्टर, मोबाइल फोन और दूसरे उपभोक्ता उत्पादों की खरीद एनबीएफसी के कर्ज पर निर्भर थी. यहां मांग और बिक्री बुरी तरह प्रभावित हुई है, जिसका असर इस बार त्योहारी मौसम की खरीद पर भी दिखा. छोटे कारोबारियों के रोजमर्रा की पूंजी और माइक्रोफाइनेंस की जरूरतें भी इस समानांतर बैंकिंग से पूरी हो रही थीं.

3. सरकार ने भले ही रिजर्व बैंक के जरिए बैंकों से कर्ज पाइप खुलवाने की कोशिश की है, बैंकों के एनपीए का इलाज रोक दिया है लेकिन कर्ज की महंगाई रोकना उसके बस का नहीं है. पिछले दो महीने में बैकों ने नए कर्ज पर ब्याज दरें बढ़ाई हैं. जमा दरें कम होने की गुंजाइश नहीं है इसलिए एनबीएफसी के साथ ही उपभोक्ताओं व कारोबारियो को मिलने वाला कर्ज भी महंगा होगा और इसके अलावा अमेरिका व यूरोप में भी ब्याज दरें बढऩे लगी हैं.

ब्याज दरों और ग्रोथ का रिश्ता संवेदनशील है. भारतीय अर्थव्यवस्था का ताजा इतिहास बताता है कि अगर छोटी अवधि के कर्ज (जैसा कि अभी है) पर ब्याज दरों में बढ़त लंबे समय तक जारी रहती है तो विकास दर में गिरावट तय है. चुनाव सामने है और सरकार का बजट बेपटरी है इसलिए नए सरकारी निवेश की गुंजाइश कम है.

अगली तिमाही से जीडीपी यानी आर्थिक विकास दर में ढलान शुरू हो सकती है. अगले साल फरवरी से मई तक जब देश में चुनाव का अश्वमेध यज्ञ चल रहा होगा तब बड़ी बात नहीं कि भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर ढलान की नई मंजिलें नाप रही हो. 2020 में विकास दर 6 फीसदी तक लुढ़कने के खतरे जायज हैं क्योंकि तब तक वित्तीय तंत्र में बीमारियां अपने उफान पर होंगी. यानी कि आर्थिक ग्रोथ के मामले में 2019 में हम शायद वहीं खड़े होंगे 2014 में जहां से चले थे.

Saturday, November 10, 2018

उन्नीस के बाद



अगर हम सियासत के गुबार से बाहर देख पाएं तो हमें कर्ज संकट से निबटने की तैयारी शुरु कर देनी चाहिए जो करीब दस-बारह महीने के बाद भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था पर फटने को तैयार होगा. 



भारत के वित्तीय तंत्र के लिए अब यूपीए और एनडीए में कोई बड़ा फर्क नहीं बचा है. 2008 के बाद जिस तरह यूपीए ने बैंकों से अंधाधुंध कर्ज बांटने को कहा और पूरी बैंक‌िंग में बकाया कर्जों का बारूद बिछ गया, ठीक उसी तरह आर्थिक ग्रोथ तेज करने की कोशिशों को ढहते देख मोदी सरकार को भी लगने लगा है कि कर्ज पर कर्ज देकर चुनावी संभावनाएं चमकाई जा सकती हैं. 

सरकार और रिजर्व बैंक के बीच ताजा विवाद के साथ ही कर्ज के इस टाइम बम की टिक्-टिक् भी शुरू हो गई है. भारत की छद्म बैंक‌िंग यानी एनबीएफसी (गैर बैंक‌िंग वित्तीय कंपनियों) ने पिछले चार साल में बेरोक-टोक कर्ज बाटे हैं. सरकार, रिजर्व बैंक के जरिए कर्ज के बकायों को बैंकों के गले बांधने जा रही है. बैंकों के पास बकाया कर्ज का भारी बारूद पहले से जमा है जिस पर अब नया आरडीएक्स बिछने वाला है.

रिजर्व बैंक गवर्नर रहें या जाएं लेकिन अब सरकार ने यह फरमान सुना ही दिया है कि एक-सरकारी बैंकों को एनबीएफसी के बकाया कर्ज खरीदने होंगे या नए कर्ज देने होंगे. दो-बैंकों पर बकाया कर्ज वसूली को लेकर सख्ती नहीं होगी और तीन-यूपीए की तर्ज पर बैंकों को कर्ज बांटने का अभियान शुरू करना होगा.

सब जानते हुए सरकार कर्ज से लदे बैंकों को नए बारूद पर क्यों बिठा रही है?

सरकार चुनाव के पहले एक कर्ज संकट को टालना चाहती है. एनबीएफसी या शैडो बैंक‌िंग ने बाजार से बड़े पैमाने पर (कॉमर्शियल पेपर और डिबेंचर) कर्ज लिए हैं. इन्हें जमा करने-जुटाने की छूट नहीं है. वे बैंक व बाजार से कर्ज लेकर आगे कर्ज देते हैं. एनबीएफसी के 2.3 लाख करोड़ के कर्ज दिसंबर तक चुकाए जाने हैं. कुछ बड़ी देनदारियां अगले साल सितंबर तक चलेंगी. 

इसी भुगतान की आहट के बाद अक्तूबर में बाजार में नकदी का संकट शुरू हुआ कि क्यों लेनदारों को यह पता है कि शैडो बैंक‌िंग के पैर के नीचे पूंजी की जमीन नहीं है.

सरकार की कवायद इस टाइम बम की घड़ी को आगे बढ़ाने की है ताकि चुनाव अच्छे-भले गुजर जाएं. ऐसा ही यूपीए ने किया था जब कंपनियों के बकाया कर्जों का भुगतान टाल कर उन्हें नए कर्ज दिए गए थे. सरकार के धमकाने पर रिजर्व बैंक ने बैंकों से कहा है कि वे इस शैडो बैंक‌िंग को और कर्ज दें, उनके बॉन्ड्स को गारंटी दें और यहां तक कि स्टेट बैंक तो एनबीएफसी के 45,000 करोड़ रु. के बकाया कर्ज खरीदने जा रहा है.

म्युचुअल फंड भी अपनी नकदी एनबीएफसी के बॉन्ड्स में लगाते थे. उन्हें इस शैडो बैंक‌िंग की सचाई मालूम है इसलिए पिछले दो माह में उन्होंने काफी बिकवाली की है. यानी अब इनके बकाया कर्ज की जिम्मेदारी बदहाल बैंकों पर आ गई है जिनके पास करोड़ों जमाकर्ताओं की बचत है.

रिजर्व बैंक के एनपीए फॉर्मूले के मुताबिक, एनबीएफसी यानी शैडो बैंक‌िंग के एनपीए उनके कुल उधार का 5.8 फीसदी है जबकि बैंकों का एनपीए (कुल कर्ज का प्रतिशत) 11.8 फीसदी है. इन्हें मिलने वाली ताजा राहत एक साल बाद बड़ी आफत बनकर टूटेगी और तब मुसीबत के नए दांत उग चुके होंगे.
2022 से सरकारी कर्ज की देनदारी का सबसे लंबा क्रम शुरू हो रहा है. यानी सरकार को या तो बैंकों से लिया कर्ज (ट्रेजरी बिल के जरिए) चुकाना होगा या उसे चुकाने के लिए नया कर्ज उठाना होगा. इस बीच सबसे बड़ी चुनौती यह है कि ब्याज दरें बढऩे लगी हैं जो इस संकट को समय से पहले आमंत्रित कर सकती हैं.

चुनाव सामने हैं, वित्तीय संकट सबको दिख रहा है इसलिए कर्ज पर कर्ज बांटने से तत्काल न तो मांग बढऩी है और न निवेश. इसका लाभ कुछ ही बड़े शैडो बैंकों (एनबीएफसी) को ही मिलेगा. जैसा कि 2010 में माइक्रोफाइनेंस कंपनियों पर संकट के दौरान अन्य वित्तीय कंपनियों पर संकट बना रहेगा.

वित्तीय तंत्र में कर्ज मिथकों के राक्षस रक्तबीज की तरह होता है. वह सिर्फ जगह बदलता है, बढ़ता है, मरता कभी नहीं. बाजार को यह अच्छी तरह पता है. बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में ऐसे कर्ज संकट की स्थिति 40 साल में एक बार बनती है. क्या हम इससे बच पाएंगे?