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Sunday, June 5, 2022

जाने कहां गए वो दिन ?


राजामणि‍ टैक्‍सी खरीदना चाहते हैं. उनको याद है कि उनके दोस्‍त महेशबाबू ने चार साल पहले  टैक्‍सी ली थी. महेशबाबू को बैंक कर्ज नहीं दे रहे थे.  कर्ज महंगा तो मिला लेक‍िन फाइनेंस कंपनी से कर्ज की मदद मिल गई . टैक्‍सी चलने लगी. लॉकडाउन में नुकसान हुआ लेक‍िन महेश बाबू खींचतान कर बुरा वक्‍त काट ले गए

राजामण‍ि को भी बैंक कर्ज नहीं दे रहा. उनके पास कमाई का कोई ठोस जरिया नहीं है. और अब वह कंपनी बंद हो गई है जिससे महेशबाबू को कर्ज मिला था. निजी महाजनों से कर्ज लेने का मतलब है सूदखोरी की चपेट में आना.

राजामण‍ि जैसों के लिए बड़ा कठिन वक्‍त शुरु हुआ है. इस फेहर‍िस्‍त में छोटे उद्योग, गांवों ट्रैक्‍टर खरीदने वाले, व्‍यापारी आदि भी शामिल हैं जिनके लिए कर्ज की ख‍िड़की सरकारी या निजी बैंकों में नहीं बल्‍क‍ि  शैडो बैंकों में खुलती थी. वक्‍त ने कुछ एसा पलटा खाया कि भारत की शैडो बैंकिंग का युग खत्‍म हो रहा है. बदलते कानून, नई तकनीकें और महंगा होता कर्ज भारत की विवादि‍त और क्रांतिकारी शैडो बैंकिंग को इति‍हास में दफ्न करने जा रहे हैं 

शैडो बैंकिंग से हमारा मतलब एनबीएफसी से है यानी नॉन बैंकिंग फाइनेंस कंपनी से. यानी वे बैंक जैसी कंपन‍ियां जो कर्ज तो दे सकती थीं लेक‍िन बैंकों की तरह डिपॉजिट नहीं ले सकती थीं. यह कर्ज के लिए धन कहां से लातीं थी इसकी कहानी जरा लंबी और पेचीदा है क्‍यों कि इस कहानी में इनके ध्‍वस्‍त होने का इतिहास छिपा है.

पहले यह समझना ठीक रहेगा कि किस तरह शैडो बैंकिंग यानी एनबीएफसी  ने कोविड से पहले तक भारत बाजार कर्ज की पूरी तस्‍वीर ही बदल दी थी.

भारत में नई एनबीएफसी बनाने की रफ्तार में 2010 के बाद तेजी आई. 2012 के बाद भारत की बैंकिंग ढांचा लड़खड़ाने लगा था. यह ट‍ि्वन बैलेंस शीट की उलझन का दौर था. भारी कर्ज में डूबी कंपन‍ियों के कारोबार टूट रही थे. सरकारी बैंकों का  बकाया का कर्ज  फंसने लगा था. 2014 तक यह हालत और गंभीर हो गई. बैंकों को कर्ज से हाथ पीछे खींचने पड़े. अगले चार साल में पूरे बैंकिंग सिस्‍टम में  एनपीए यानी फंसे हुए कर्ज का स्‍तर (कुल कर्ज के अनुपात में ) दोगुना हो गया.

 

2014 वह वक्‍त था जब भारत में शैडो बैंकिंग का उदय हुआ. एनबीएफसी की कतार लग गई. कई प्रमुख औद्योगिक घरानों और बड़े निवेशक इस कारोबार में कूद पड़े. उद्योगों से उपभोक्‍तओं तक कर्ज बांटने की कमान इन कंपनियों ने संभाल ली. इन कंपनियों के पास बैंकों की तरह आम लोगों से बचत जुटाने की छूट नहीं थी लेक‍िन कर्ज बांटने की इजाजत थी. बांटने के लिए यह पैसा इन्‍हें बैंकों से मिलता था. बैंक इन्‍हें सीधा कर्ज भी देते थे और इनके बांड में निवेश करते थे  

 

बैंक अपने फंसे कर्ज के कारण नए कर्ज रोक रहे थे. 2014 के ब्‍याज दर कम होने से बाजार में पूंजी भी थी. नोटबंदी (2016) के बाद बैंकों के पास काफी बचत मौजूद थी. इधर  2012 से 2017 के बीच बड़ी मात्रा में लोगों की बचतें म्‍युचुअल फंड के पास पहुंचने लगी थीं. इस दौरान में इनके पास उपलब्‍ध निवेश धन (एसेट अंडर मैनेजमेंट ) में सालाना 22.1 फीसदी के दर बढ़ा.   बैंक और म्‍युचुअल फंड की बचतें यह बचतें एनबीएफसी कर्ज देने या उनके बांड में निवेश में इस्‍तेमाल हुई.


कर्ज की पायलट सीट पर आ गई भारत की शैडो बैंकिंग. मुख्‍य बैकिंग अब पीछे से इन्‍हें पैसा दे रही थी. यही वह दौर था जब भारत में लगभग 10-11 अलग अलग तरह के एनबीएफसी बने जिनमें आटो, हाउस‍िंग, माइक्रो फाइनेंस आद‍ि प्रमुख थे. 

रिजर्व बैंक के आंकडे बताते हैं कि 2014 से 2017  तक कुल कर्ज में बैंकों का हिस्‍सा 62 फीसदी से घटकर 35 फीसदी रह गया. 2013 से 2017 के बीच एनबीएफ का कर्ज वितरण सालाना 13.1 फीसदी और 2017 से 2019 के बीच 23.4 फीसदी की गत‍ि से बढ़ा. 2018-19 तक यानी  कोविड से पहले  वाण‍िज्‍य‍िक कर्ज में खासतौर पर उद्योगों को कर्ज में एनबीएफसी बैंकों की बराबरी पर आ गए थे. 2020 की पहली छमाही तक शैडो बैंकिंग का कुल कर्ज वितरण 23 लाख करोड़ पहुंच रहा था.

 शैडो बैंकिंग का लीमैन मौका

फिर आया 2018, जहां अमेरिका के लीमैन ब्रदर्स की बैंक की तर्ज पर पर  भारत की शैडों बैंकिंग साइकिल स्‍टैंड पर खड़ी साइकिलों की तरह गिरने लगी. भारत की एनबएफसी कर्ज को बांट कर उसे प्रतिभूत‍ियों में बदल रही थी यानी सिक्‍योरिटाइज कर रही थीं. बाजार में पूंजी सस्‍ती थी, बैंक और म्‍युचुअल उनके बांड में पैसा लगा रहे थे. एनबीएफ छोटी अवध‍ि का कर्ज लेकर लंबी अवध‍ि के लिए बांट रही थीं. लिया गया कर्ज सस्‍ता था और बांटा गया महंगा. सामान्‍य तौर पर एनबीएफसी उनको कर्ज दे रही थीं जिन्‍हें बैंक कर्ज लेने लायक नहीं मानते थे. अर्थव्‍यवस्‍था में ढांचागत मंदी आ चुकी थी, एनबीएफसी के कर्ज की क‍िश्‍तें टूटने लगीं, कर्ज डूबने लगे. एनबीएफस का कर्ज सिक्‍यूराइटजेशन 2018 में 1.99 लाख करोड़ तक पहुंच गया था लेक‍िन इनका बिजनेस मॉडल दरक गया था

पहले डूबी देवान हाउस‍िंग जहां 30000 करोड़ का कर्ज घोटाला हुआ और फिर भारत की एनबीएफस की लीमैन आईएलएफस का पतन हुआ. इन्‍हें कर्ज देने वाले बैंक और म्‍युचुअल फंड भी संकट में आ गए.

सनद रहे कि 2014 के बाद कर्ज की सप्‍लाई में इनका हिस्‍सा बहुत बड़ा था. भरपूर कर्ज बांटने का सरकारी अभियान इनके कंधों पर था इसल‍िए सरकार ने बैंकों के जरिये इनके पैकेज, बेलआउट का इंतजाम किया लेक‍िन निवेश हाथ क्‍या कोहनी भी जला चुके थे. वे एनबीएफसी के लिए सख्‍त और बैंकों जैसे नियम मांग रहे थे इसल‍िए शैडो बैंकिंग अस्‍ताचल की तरफ बढ़ चली. यहीं से भारत की शैडो बैंक‍िंग को लेकर नियम कानूनों का मि‍जाज बदलने लगा.

2018 के बाद इस एनबीएफ की दुनिया में तीन बड़े भूचाल आए हैं. इनको समझना जरुरी है ताकि हमें पता चल सके कि राजामणि‍ को जैसों कर्ज मिलना कयों मुश्‍क‍िल हो गया है.

1- आईएलएफएस के डूबने के बाद रिजर्व बैंक को शैडो बैंकिंग की दरारें नजर आईं. नियम बदले गए. एनबीएफसी को बैंकों तरह संकट के लिए रिजर्व बनाने होंगे. एनपीए घोष‍ित करने होंगे. कर्ज फंसने की सूरत बैंकों की तर्ज इन्‍हें सख्‍त नियमों (पीसीए) में बांधा जाएगा. अब केवल बड़ी एनबीएफसी ही टिकेंगी लेक‍िन उन्‍हें बहुत पूंजी लगानी होगी

2- दूसरा भूचाल तकनीक की दुनिया से आया. फिनटेक के बाद नई तरह व‍ित्‍तीय सेवायें. एनबीएफसी केवल कर्ज बांटने में सक्रिय थे. इस बीच बैकों व अन्‍य वित्‍तीय कंपनियों में पेमेंट, वालेट, यूपीआई,  ऑनलाइन पेमेंट, आदि सेवाओं का  पूरा पोर्टफोलियो बना लिया. सरकारी और निजी बैंक तेजी से से आगे गए आ गए.  कर्ज के कारोबार तक सीम‍ित एनबीएफसी इस होड़ में अब दौड़ नहीं पाएंगे

3- तीसरा सबसे बड़ा झटका कर्ज की महंगाई है. एनबीएफसी सस्‍ते कर्ज के युग में उभरे थे. यह वित्‍तीय प्रणाली के आर‍बि‍ट्राज पर चलते थे. बैंकों व बांड के जरिये सस्‍ता कर्ज उठाकर आगे बांटते थे. कर्ज महंगा होने के बाद यह संभावान चुक गई है. एनबीएफसी के लिए फंड की लागत में बेतहाशा बढ़ोत्‍तरी हो रही हैं दूसरी तरफ महंगे कर्ज के लेनदार घट हैं

 

चार अप्रैल का दिन भारत के वित्‍तीय बाजार की एक और बड़ी करवट थी जब एचडीएफसी के एचडीएफसी बैंक में विलय का एलान हुआ. देश की सबसे बड़ी हाउस‍िंग फाइनेंस कंपनी एचडीएफसी जो कि एनबीएफसी है, वह सबसे बड़ी निजी बैंक में विलय होने जा रही थी. यह विलय अभी मंजूर‍ियों में फंसा है लेक‍िन बाजार ने समझ लिया था कि जब नए कानूनों में बैंकों और एनबीएफसी में अंतर नहीं बचा दो का क्‍या फायदा. अचरज नहीं कि बची हुए बड़ी एनबीएफसी या तो बैंकों के लाइसेंस लें लें या किसी बैंक की गोद में समा जाएं.

शैडो बैंकिंग के पतन के साथ देश के कर्ज के बाजार में दो बहुत बड़े  बदलाव हो रहे हैं. 

एक-                     कर्ज अब आमतौर पर महंगा होगा और कर्ज देने वाले कम बचेंगे

दो-                         दो- बहुत बड़ा तबका बैंकों से कर्ज नहीं ले पाएगा क्‍यों कि उनके पास मजबूत बिजनेस मॉडल नहीं है और बैंक उनके साथ जोखिम नहीं ले सकते.

भारत इस समय करीब 3 ट्र‍िल‍ियन डॉलर की अर्थव्‍यवस्‍था है जिसमें कर्ज का हिसस करीब 1.6 ट्रिल‍ियन डॉलर है. बैंक कर्ज का जीडीपी से अनुपात 56 फीसदी है जबक‍ि कारपोरेट कर्ज जीडीपी का 90 फीसदी. विक‍स‍ित देशों में प्राइवेट कर्ज जीडीपी अनुपात 200 फीसदी से ऊपर है. स्‍टेट बैंक का आकलन है कि भारत मे 5 ट्रि‍ल‍ियन डॉलर की अर्थव्‍यवस्‍था बनने के लिए करीब एक ट्र‍िल‍ियन डॉलर के कर्ज बांटने होंगे...

सरकार को कर्ज बाजार और कर्ज विकल्‍पों की नियमावली नए स‍िरे लिखनी होगी. लेक‍िन सरकारों के पास वक्‍त कहां है?


Sunday, September 30, 2018

कर्ज पर कर्ज


क्या सरकारी बैंक ही बदकिस्मत हैं क्या वे ही  कर्ज के ढेर में दबे हैं ? तो फिर इन्‍फ्रास्‍ट्रक्‍चर लीजिंग एंड फाइनेंस लिमिटेड (आइएलऐंडएफएस) को क्या हुआ?

कर्ज का मर्ज और खतरनाक होकर गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) तक फैल गया है. इन्हें तो बैंकों की तरह डिपॉजिट जुटाने की छूट भी नहीं है. ये तो उधार लेकर उधार देने के धंधे में हैं.

भारत की अर्थव्यवस्था कुछ जरूरी सुधारों की अनदेखी करने की बड़ी कीमत चुकाने की तरफ बढ़ रही है.

आइएलऐंडएफएससरकारी-निजी भागीदारी में बुनियादी ढांचा विकास की अगुआ कही जाती है जिसने सरकारी राजमार्गों समेत 1.8 लाख करोड़ रु. के प्रोजेक्ट्स को कर्ज दिया है. इसी अगस्त तक रेटिंग एजेंसियां और बाजार इस पर आंख मूंद कर भरोसा कर रहे थे लेकिन एक माह बाद वह कर्ज चुकाने में नाकाम पाई गई.

कंपनी करीब 91,000 करोड़ रु. के कर्ज में दबी है और ब्याज देने में चूक रही है. प्रोजेक्ट से रिटर्न नहीं आ रहा है. बीते सप्ताह जब कंपनी सरकारी बैंक सिडबी का 1,000 करोड़ रु. का कर्ज नहीं चुका सकी तो अफरा-तफरी मच गई. अगले छह माह में इसे 3,600 करोड़ रु. कर्ज चुकाने हैं. आइएलऐंडएफएस 169 शाखा कंपनियों और संयुक्त उपक्रमों वाला वित्तीय समूह हैसरकारी बीमा कंपनी एलआइसी और स्टेट बैंक जिसमें सबसे बड़े हिस्सेदार हैं.

यह आशंका पहले दिन से ही थी कि अगर एक मंदी लंबी खिंच गई तो गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों का कारोबारी मॉडल घुटनों पर आ जाएगा. गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियां बैंकों से कर्ज लेती हैं या कॉमर्शियल पेपर (औसतन एक साल की अवधि) के जरिए बाजार से कर्ज उठाती हैं. आखिर कर्ज लेकर कर्ज देने का मॉडल कैसे चलता?

इक्रा और बीसीजी (बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप) की ताजा रिपोर्ट बताती है कि हमारे नियामक और सरकार कैसी खुशफहमियों में जी रहे हैः
  • ·      2014 से 2017 के बीच कुल कर्ज में बैंकों का हिस्सा 49 फीसदी से घटकर 28 फीसदी पर आ गया जबकि एनबीएफसी का हिस्सा 21 फीसदी से बढ़कर 44 फीसदी हो गया. यानी बैंकों से कर्ज लेकर इन्होंने बैंकों से ज्यादा कर्ज बांट दिए.
  • ·       इस साल मार्च के अंत तक इन कंपनियों ने करीब 7.5 खरब रु. का खुदरा कर्ज बांटा था. इनके कर्ज में अनसिक्योर्ड (गैर-जमानती) कर्ज (माइक्रोफाइनेंसछोटे निजी लोन जैसे मोबाइल) सबसे तेजी से (40 से 53 फीसदी) से बढ़ रहे हैं. जानना जरूरी है कि अनसिक्योर्ड कर्ज सबसे ज्यादा जोखिम भरे होते हैं.
  • ·   एनबीएफसी अपने 40 फीसदी संसाधन बैंकों के कर्ज से और 38 फीसदी बाजार से डिबेंचर के जरिए जुटाती है. इन पर बकाया बैंक कर्ज 27 फीसदी सालाना की दर से बढ़ रहा है. इस साल मार्च में यह एक लाख करोड़ रु. था. अगले छह माह में एनबीएफसी के 60 फीसदी डिबेंचर वसूली के लिए तैयार हैं. दूसरी तरफब्याज दर बढऩे लगी है.
  • ·       एनबीएफसी के कुल फंसा हुआ कर्ज उनके कुल कर्ज के अनुपात में 5.8 फीसद है और बैंकों के 11.8 फीसदी. यानी कि पूरा वित्तीय सिस्टम कर्ज के टाइम बम पर बैठा है.

·       बैंकों के बाद एनबीएफसी के लडख़ड़ाने के तीन बड़े असर होने वाले हैः
  • बैंकों के कर्ज वैसे भी ठप हैं, ऑटोमोबाइल (सबसे ज्यादा ट्रैक्टर)उपभोक्ता उत्पादोंछोटे उद्योगों को कर्ज की आपूर्ति और सीमित हो जाएगीजिसका असर मांग पर नजर आएगा.
  • · एनबीएफसी की मुसीबतों ने कर्ज के बाजार को तोड़ दिया है. निवेशकों ने बड़े पैमाने पर बिकवाली की है. अगर डिफॉल्ट बढ़ते हैं तो सबसे बड़ा असर म्युचुअल फंड पर होगा जो इन कंपनियों के कर्ज इश्यू में भारी निवेश करते हैं. छोटे निवेशक मार खाएंगे. शेयर बाजार टूटने से उनके हाथ पहले ही जल रहे हैं.

कौन कहता है कि भारत में चीन की तरह शैडो बैंकिंग नहीं है. कर्ज लेकर कर्ज देने का काम तब खूब चला जब तक मंदी नहीं थी. बस एक मंदी आई तो कर्ज संकट के पलीते सुलग उठे हैं. महान सुधारों के दावेदारों को बताना चाहिए कि पिछले चार साल में उन्होंने वित्तीय तंत्र में कौन से सुधार किए. बैंकों की बीमारी तो दूर हुई नहींगैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियां भी संकट के घाट पहुंचने लगी हैं. 

बैंकों को तो सरकार बचा लेगी लेकिन इन कंपनियों की मदद कौन करेगाइनके डूबने से क्या बैंक और शेयर बाजार नहीं डूबेंगेबैंकों से लेकर एनबीएफसी तक हर जगह आम लोगों की बचत ही दांव पर है.

यूरोप-अमेरिका के कर्ज संकट से तुलना डरावनी हो सकती है लेकिन हमने लीमैन संकट से कुछ नहीं सीखा. आर्थिक विपदाएं आम लोगों को ही मारती हैंनेताओं की तो हमेशा पौ-बारह है.